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56. समय व्यतीत होता है, रात्रियाँ वेग से जाती हैं, और मनुष्यों के भोग भी नित्य नहीं हैं । भोग मनुष्यों को प्राप्त करके (उनको त्याग देते हैं, जैसे पक्षी फल-रहित वृक्ष को (त्याग देते हैं) ।
57. इन्द्रिय-भोग निश्चय ही अनर्थों को खान (होते हैं), क्षण भर के लिए सुखमय (तथा) बहुत समय के लिए दुःखमय (होते हैं), प्रति दुःखमय (तथा) अल्प सुखमय (होते हैं) (वे) संसार (सुख) और मोक्ष - (सुख) (दोनो) के विरोधी बने हुए ( हैं ) ।
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58. ( जिसकी ) इच्छा विदा नहीं हुई ( है ), ( ऐसा ) (मनुष्य) (जन्म-जन्मों में ) परिभ्रमण करता हुआ (तथा) दिन में और रात में दुःखी होता हुआ ( रहता है) । (खेद है कि ) दूसरों के लिए मूर्च्छा-युक्त (मनुष्य) घन की खोज करता हुआ (ही) वुढापे और मृत्यु को प्राप्त करता है ।
59. यह (वस्तु) मेरी है और यह (वस्तु) मेरी नहीं ( है ), यह मेरे द्वारा करने योग्य ( है ) और यह (मेरे द्वारा) करने योग्य नहीं (है), इस प्रकार ही बारंबार बोलते हुए उस (व्यक्ति) को काल ले जाता है, अत: कैसे प्रमाद (किया जाए ) ?
60. जो-जो रात वीतती है, वह वापिस नहीं भाती है। प्रघमं करते हुए (व्यक्ति) की रात्रियाँ व्यर्थ होती हैं ।
चयनिका
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