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धर्म कथा-ये सब संयममय जीवन जीने के लिए महत्वपूर्ण हैं। सामायिक के द्वारा अगुभ प्रवृत्ति से निवृत्ति होती है (75)। प्रायश्चित्त से आचरण में निर्दोपता आती है और साधन निमंल बनते हैं (76) । मैत्री भाव से निर्भयता उत्पन्न होती है (77)| प्रार्जवता (निष्कपटता) से काया की सरलता, मन का खरापन, भापा की मृदुता और व्यवहार में अधूर्तता उत्पन्न होती है (83) । वीतरागता के अभ्यास से व्यक्ति राग-गम्बन्धों को तोड़ देता है और इन्द्रिय विषयों से निलिप्त होकर अनासक्त होता है (82.81) । चंचल चिन का निरोध करने से व्यक्ति संयमरूपी लक्ष्य के प्रति समर्पित होना है (80)। धर्मकथा करने से व्यक्ति संयममय जीवन में प्रास्थावान बनता है और सयम को प्रभाव-युक्त करता है (78) । उत्तराध्ययन में कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति की रात्रियाँ सफल कही जा सकती हैं (61) । और वह संसार समुद्र को (मानसिक तनावरूपी दुःखों को) पार कर जाता है (70) । उन लोगों को संयम मार्ग पर चलने में कठिनाई होती है जो अहंकारी, क्रोधी, रोगी और आलसी होते हैं (46)।
संयम की पूर्णता होने पर व्यक्ति लाभ-हानि, मान-अपमान, निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों में तटस्थ हो जाता है (68) । वह अचल सुख तथा स्वतन्त्रता प्राप्त करता है (86)। उसके चित्त पर प्रासक्तिरूपी शत्रु आक्रमण नहीं करते हैं (90) । ऐसा व्यक्ति संसार के मध्य रहता हमा भी दुःख-रहित होता है (953 । इन्द्रिय-विपय उसमें आकर्षण और विकर्षण उत्पन्न नहीं करते है (98)।
उत्तराध्ययन चयनिका के उपर्युक्त विषय-विवेचन.से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन में संयममय जीवन जीने की कला की सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है । इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन
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[ उत्तराध्ययन