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से नहीं चिपकता है, वैसे ही सयमी व्यक्ति विषयों से नहीं चिपकते हैं ( 72, 73 ) । यह यहा समझना चाहिए कि नये मानसिक तनावों की रोकने से, पुराने सस्कारात्मक मानसिक तनाव प्रयास से धीर-धीरे समाप्त किये जा सकते हैं । उत्तराध्ययन का कहना है कि यदि बड़े तालाब मे जल का श्राना पूर्ण रूप से रोक दिया जाए, तो एकत्रित जल को बाहर निकालने से तालाब खाली किया जा सकता है । उसी प्रकार संयमी मनुष्य में प्रशुभ कर्मों (मानसिक तनावों) का आगमन नहीं होने के कारण करोड़ो जम्मों के सचित कर्म ( मानसिक तनाव ] तप [ संयम साधना ] के द्वारा नष्ट किये जा सकते है ( 84, 85) । उत्तराध्ययन का कथन है कि कर्म [ मानसिक तनाव ] विषयों में मूर्च्छा से उत्पन्न होता है, जो दुःखों का जनक है ( 88 ) । जिसके मन में तृष्णा नहीं है उसके द्वारा मूच्छी दूर की गई है। जिसके मन में लोभ नहीं है उसके द्वारा तृष्णा दूर की गई है तथा जिसके मन में कोई वस्तु नहीं है उसके द्वारा लोभ दूर किया गया है (89) |
इन्द्रिय-भोगों से दूर हटने की प्रेरणा उसे | व्यक्ति को ] इस जगत से ही प्राप्त हो सकती है । यह जगत मनुष्य को ऐसे श्रनुभव प्रदान करने के लिए सक्षम है, जिनके द्वारा वह सयम के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । मनुष्य कितना ही इन्द्रिय-भोगों में लीन रहे फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता, भोगों की नश्वरता, मानवीय सम्बन्धों की सीमा, शारीरिक कष्ट की अनुभूति, मनुष्य जीवन की प्राप्ति और उसमें सही मार्ग मिलने की दुर्लभता उसको एक बार "जगन के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं । यह सच है कि अधिकांश मनष्यों के लिए यह जगत इन्द्रिय-तृप्ति का ही माध्यम बना रहता है, किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं कि यह जगत उनको संयम ग्रहण करने के लिए प्रेरित कर देता है ।
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[ उत्तराध्ययन