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मृत्यु को अनिवार्यता को समझाने के लिए उत्तराध्ययन का कहना है कि जैसे सिंह हरिण को पकड़ कर ले जाता है, वैसे ही मृत्यु अन्तिम समय में मनुष्य को निस्संदेह पकड़कर ले जाती है(53)। वह खेत, धन-धान्य और म. को छोड़कर अकेला मृत्यु को प्राप्त कर दूसरे जन्म के लिए प्रस्थान करता है। 155.64) । वह यह बात बोलता ही रहता है कि "यह वस्तु मरी और यह वस्तु मेरी नहीं है" और काल उसे निगल जाता है (59) । यहाँ यह समझना चाहिए कि मृत्यु के मुख में पहुंचने पर वह व्यक्ति अत्यन्त दु:खी होता है जिसने इस जीवन में शुभ कार्यों को नहीं किया है (52)। इस तरह से मृत्यु की अनिवार्यता संयम ग्रहण करने के लिए प्रेरणा दे सकती है । कुछ मनुष्य इससे प्रेरणा प्राप्त करके संयम की साधना में लग जाते हैं।
जिन इन्द्रिय-भागों में लीन होने के लिए मनुष्य प्राकर्षित होता है वे भी नशवर हैं (56) । कभी वे धनाभाव के कारण प्राप्त नहीं किए जा सकते हैं तो कभी वे शारीरिक क्षीणता के कारण भोगे नहीं जा सकते हैं :
मृत्यु की अनिवार्यता और इन्द्रिय भोगों की नश्वरता के साथसाथ यदि मनुष्य को सम्बन्धों की सीमा का ज्ञान हो जाए तो भी वह संयम की ओर झुक सकता है। जिन सम्बन्धों के लिए वह लोक में अशुभ कर्म करता है, उनका फल-भोग उसी को करना पड़ता है (22), क्योंकि दुखात्मक कर्म कर्ता का ही अनुसरण करते हैं (54)।
सम्बन्धों की कमी का ज्ञान मनुष्य को उस समय बहुत ही स्पष्ट होता है जब व्यक्ति किसी शारीरिक कष्ट में फंस जाता है ।
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