Book Title: Agam 39 Mahanishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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शरकत
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक की ममता न हो, अप्रतिबद्ध विहारी यानि विहार के क्षेत्रकाल या व्यक्ति के लिए राग न हो, महा-सारा आशयवाला स्त्री के गर्भवास में रहने से भयभीत, संसार के कईं दुःख और भय से त्रस्त इस तरह के भाव से (गुरु समक्ष अपने दोष प्रकट करने आनेवाला) आलोचक को आलोचना देना । आलोचक ने (भी) गुरु को दिया प्रायश्चित्त करना - जिस क्रम से दोष सेवन किया हो उस क्रम से प्रायश्चित्त करना चाहिए। सूत्र - ९६-९८
आलोचना करनेवाले को माया दंभ-शल्य से कोई आलोचना नहीं करनी चाहिए। उस तरह की आलोचना से संसार की वृद्धि होती है । अनादि अनन्तकाल से अपने कर्म से दुर्मतिवाले आत्मा ने कई विकल्प समान कल्लोलवाले संसार समुद्र में आलोचना करने के बाद भी अधोगति पानेवाले के नाम बताऊं उसे सून कि जो आलोचना सहित प्रायश्चित्त पाए हुए और भाव दोष से कलुषित चित्तवाले हुए हैं। सूत्र-९९-१०२
शल्य सहित आलोचना-प्रायश्चित्त करके पापकर्म करनेवाले नराधम, घोर अति दुःख से सह सके वैसे अति दुःसह दुःख सहते हुए वहाँ रहते हैं । भारी असंयम सेवन करनेवाला और साधु को नफरत करनेवाला, दृष्ट और वाणी विषय से शील रहित और मन से भी कुशीलवाले, सूक्ष्म विषय की आलोचना करनेवाले, ''दूसरों ने ऐसा किया उसका क्या प्रायश्चित्त ?'' ऐसा पूछकर खुद प्रायश्चित्त करे थोड़ी-थोड़ी आलोचना करे, थोड़ी भी आलोचना न करे, जिसने दोष सेवन नहीं किया उसकी या लोगों के रंजन के लिए दूसरों के सामने आलोचना करे, 'मैं प्रायश्चित्त नहीं करूँगा'' वैसे सोचकर या छलपूर्वक आलोचना करे । सूत्र- १०३-१०५
माया, दंभ और प्रपंच से पूर्वे किए गए तप और आचरण की बातें करे, मुझे कोई भी प्रायश्चित्त नहीं लगता ऐसा कहे या किए हुए दोष प्रकट न करे, पास में किए दोष प्रकट करे, छोटे-छोटे प्रायश्चित्त माँगे, हम ऐसी चेष्टा प्रवृत्ति करते हैं कि आलोचना लेने का अवकाश नहीं रहता । ऐसा कहें कि शुभ बंध हो वैसी आलोचना माँगे । मैं बड़ा प्रायश्चित्त करने के लिए अशक्त हूँ। अगर मुझे ग्लान-बीमार की सेवा करनी है ऐसा कहकर उसके आलम्बन से प्रायश्चित्त न करे आलोचना करनेवाला साधु सूना-अनसूना करे । सूत्र - १०६-१०८
तुष्टि करनेवाले छूटे-छूटे प्रायश्चित्त मैं नहीं करूँगा, लोगों को खुश करने के लिए जिह्वा से प्रायश्चित्त नहीं करूँगा ऐसा कहकर प्रायश्चित्त न करे । प्रायश्चित्त अपनाने के बाद लम्बे अरसे के बाद उसमें प्रवेश करे - अर्थात् आचरण करे या प्रायश्चित्त कबूल करने के बाद अन्यथा – अलग ही कुछ करे । निर्दयता से बार-बार महापाप का आचरण करे । कंदर्प यानि कामदेव विषयक अभिमान - ''चाहे कितना भी प्रायश्चित्त दे तो भी मैं करने के लिए समर्थ हूँ ऐसा गर्व करे । और फिर जयणा रहित सेवन करे तो सूना-अनसूना करके प्रायश्चित्त करे । सूत्र - १०९-११३
किताब में देखकर वहाँ बताया हुआ प्रायश्चित्त करे, अपनी मति कल्पना से प्रायश्चित्त करे । पूर्व आलोचना की हो उस मुताबिक प्रायश्चित्त कर ले । जातिमद, कुलमद, जातिकुल उभयमद, श्रुतमद, लाभमद, ऐश्वर्यमद, तप मद, पंड़िताई का मद, सत्कार मद आदि में लुब्ध बने । गारव से उत्तेजित होकर (आलोचना करे) मैं अपूज्य हूँ। एकाकी हूँ ऐसा सोचे । मैं महापापी हूँ ऐसी कलुषितता से आलोचना करे । दूसरों के द्वारा या अविनय से आलोचना करे । अविधि से आलोचना करे । इस प्रकार कहे गए या अन्य वैसे ही दुष्ट भाव से आलोचना करे । सूत्र - ११४-११६
हे गौतम ! अनादि अनन्त काल से भाव-दोष सेवन करनेवाले आत्मा को दुःख देनेवाले साधु नीचे भीतर सातवीं नरक भूमि तक गए हैं । हे गौतम ! अनादि अनन्त ऐसे संसार में ही साधु शल्य रहित होते हैं । वो अपने
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
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