________________
आगम सूत्र ३९, छेदसूत्र-५, 'महानिशीथ'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक आलोचना करनेवाला केवलज्ञान पाए । इर्यासमिति पूर्वक पाँव स्थापन करते हुए केवली बने, मुहपत्ति प्रतिलेखन से केवली बने, सम्यक् तरह से प्रायश्चित्त ग्रहण करने से केवली बने, 'हा-हा मैं पापी हूँ" ऐसा विचरते हुए केवली बने । 'हा हा मैंने उन्मत्त बनकर उन्मार्ग की प्ररूपणा करके ऐसे पश्चात्ताप करते हुए केवली बने । अणागाररूप में केवली बने, सावध योग से सेवन मत करना'' - उस तरह से अखंड़ितशील पालन से केवली बने, सर्व तरह से शील का रक्षण करते हुए, कोड़ी-करोड़ तरह से प्रायश्चित्त करते हुए भी केवली बने । सूत्र - ७६-७८
शरीर की मलिनता साफ करने समान निष्पत्तिकर्म करते हुए, न खुजलानेवाले, आँख की पलक भी न झपकाते केवली बने, दो प्रहर तक एक बगल में रहकर, मौनव्रत धारण करके भी केवली बने, 'साधुपन पालने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ इसलिए अनशन में रहूँ' ऐसा करते हुए केवली बने, नवकार गिनते हुए केवली बने, 'मैं धन्य हूँ कि मैंने ऐसा शासन पाया, सब सामग्री पाने के बाद भी मैं केवली क्यों न हुआ ?'' ऐसी भावना से केवली बने । सूत्र - ७९-८०
(जब तक दृढ़प्रहारी की तरह लोग मुझे) पाप-शल्यवाला बोले तब तक काऊस्सग्ग पारुंग नहीं उस तरह केवली बने, चलायमान काष्ठ-लकड़े पर पाँव पड़ने से सोचे कि अरे रे ! अजयणा होगी, जीव-विराधना होगी ऐसी भावना से केवली बने, शुद्ध पक्ष में प्रायश्चित्त करूँ ऐसा कहने से केवली बने । "हमारा जीवन चंचल है।' - 'यह मानवता अनित्य और क्षणविनाशी है। उस भाव से केवली बने । सूत्र-८१-८३
आलोचना, निंदा, वंदना, घोर और दुष्कर प्रायश्चित्त सेवन - लाखो उपसर्ग सहन करने से केवली बने, (चंदनबाला का हाथ दूर करने से जिस तरह केवलज्ञान हआ वैसे) हाथ दूर करने से, निवासस्थान करते, अर्धकवल यानि कुरगडमुनि की तरह खाते-खाते, एक दाना खाने समान तप प्रायश्चित्त करने से दस साल के बाद केवली बने। प्रायश्चित्त शुरू करनेवाले, अर्द्धप्रायश्चित्त करनेवाले केवली, प्रायश्चित्त पूरा करनेवाला, उत्कृष्ट १०८ गिनती में ऋषभ आदि की तरह केवल पानेवाले केवली । सूत्र-८४-८७
'शुद्धि और प्रायश्चित्त बिना जल्द केवली बने तो कितना अच्छा'' ऐसी भावना करने से केवली बने । "अब ऐसा प्रायश्चित्त करूँ कि मुझे तप आचरण न करने पड़े। ऐसा विचरने से केवली बने । 'प्राण के परित्याग से भी मैं जिनेश्वर परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा उस तरह से केवली बने । यह मेरा शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है । मुझे सम्यक्त्व हुआ है । इस प्रकार की भावना से केवल ज्ञान होता है। सूत्र-८८-९०
अनादि काल से आत्मा से जुड़े पापकर्म के मैल को मैं साफ कर दूं ऐसी भावना से केवलज्ञान होता है । अब प्रमाद से मैं कोई अन्य आचरण नहीं करूँगा इस भावना से केवलज्ञान होता है । देह का क्षय हो तो मेरे शरीरआत्मा को निर्जरा हो, संयम ही शरीर का निष्कलंक सार है । ऐसी भावना से केवली बने । मन से भी शील का खंडन हो तो मुझे प्राणधारण नहीं करना और फिर वचन और काया से में शील का रक्षण करूँगा ऐसी भावना से केवली बने। .......(इस तरह से कौन-कौन सी अवस्था में केवलज्ञान हुआ वो बताया) सूत्र - ९१-९५
उस प्रकार अनादि काल से भ्रमण करते हुए भ्रमण करके मुनिपन पाया । कुछ भव में कुछ आलोचना सफल हई । हे गौतम ! किसी भव में प्रायश्चित्त चित्त की शुद्धि करनेवाला बना, क्षमा रखनेवाला, इन्द्रिय का दमन करनेवाला, संतोषी, इन्द्रिय को जीतनेवाला, सत्यभाषी, छ काय जीव के समारम्भ से त्रिविध से विरमित, तीन दंडमन, वचन काया दंड से विरमित स्त्री के साथ भी बात न करनेवाला, स्त्री के अंग-उपांग को न देखनेवाला, शरीर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (महानिशीथ) आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद
Page 9