Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकमत्रे जच्चकणगंपिव जायरूवा, आदरिसफलगा इव पागडभावा, कुम्मो नीरङ्गणाः-रङ्गणं रागाद्युपरञ्जनं तस्मानिर्गताः, शके यथा किमपि रञ्जनद्रव्यं स्थिति न लभते तथैतेष्वनगारेषु रागादयो न तिष्ठन्तीत्यर्थ : । 'जीवो विव अप्पडिहयगई' जीव इव अप्रतिहतगतयः-जीवो यथा शुभाशुभकर्मवशादव्याहतगत्या सर्वत्र याति तथा अप्रतिहता गतिर्येषां ते तथा, देशनगरादिषु अप्रतिबन्धविहारित्वेन वादादिषुकुतीर्थिकमतनिराकरणसामोपेतत्वेन च अस्खलितगतयः, 'जच्चकणगं पिव जायरूवा' जात्यकनकमिव जातरूपाः-शोधितसुवर्णमिव निर्मलाः-रागादिरहिता इत्यर्थः । 'आदरिसफलगा इव पागडभावा' आदर्शफलका इव प्रकटभावाः-प्रकटाः प्रकटिताः, भावाः-उत्पादव्ययध्रौव्यस्वभावका जीवाजीवादिपदार्थाः यैस्ते तथा, आदर्शफलका जैसे कोई भी रंग स्थिति नहीं पा सकता, उसी प्रकार रागादिक भी उन अनगारों में ठहर नहीं सकते थे। अतः ये शंख के समान नीरङ्गण कहे गये हैं। (जीवो विव अप्पडिहयगई) जीव जिस प्रकार शुभ और अशुभ कर्म के वश प्रेरित होकर अव्याहत गति से सर्वत्र चला जाता है उसी प्रकार इनका भी देश, नगर आदिमें अप्रतिहतगतिविहार होने से एवं वाद-विवाद आदि में कुतीर्थिक मतों के निराकरण करने की सामर्थ्य से युक्त होने से ये भी जीव के समान अस्खलितगतिवाले थे। (जच्चकणगं पिव जायरूबा) शोधितसुवर्ण के समान ये बिल्कुल निर्मल थे। (आदरिसफलगा इव पागडभावा) आदर्श अर्थात् काच जिस प्रकार प्रतिबिम्बित मुखादिक अवयवों को यथावस्थित प्रकट करता है उसी प्रकार ये भी अपने ज्ञान के द्वारा उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्य-विशिष्ट जीवाजीवादिक पदार्थों को प्रकट करते थे। इनकी રાગાદિક પણ તે અનગારમાં રહી શકતા નથી, તેથી તેઓ શંખની પેઠે नीर गए उपाय छ. (जीवाविव अप्पडिहयगई) ७१ भ शुभ मने अशुभ કર્મવશ પ્રેરિત થઈને અવ્યાહત ગતિથી સર્વત્ર ચાલ્યો જાય, તેમ તેઓની પણ દેશ નગર આદિમાં અપ્રતિહતગતિ-વિહાર હોવાથી તેમજ વાદવિવાદ આદિમાં કુતીર્થિકમતોનું નિરાકરણ કરવાનું સામર્થ્ય હોવાથી તેઓ પણ જીવની પેઠે અખલિતગતિવાળા હતા. (जच्चकणगं पिव जायरूवा) धेिसा सुवर्ण नावा तसा मिस नि त. (आदरिसफलगा इव पागडभावा) साहश अर्थात् अरीसो म प्रतिनिमित મુખ આદિક અવયવોને યથાવસ્થિત પ્રકટ કરે છે (દેખાડે છે) તેમ તેઓ પણ પિતાનાં જ્ઞાન દ્વારા ઉત્પાદ, વ્યય તેમ જ દ્રૌવ્ય-વિશિષ્ટ જીવ-અજીવ