Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 795
________________ ७३४ औपपातिकमुत्रे मूलम्--इय सव्वकालतित्ता, अउलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ सू० ॥ १२५ मूलम्--सिद्धत्ति य बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति । यतित्तो' अमृततृप्तो 'जहा' यथा=इव, 'अच्छेज्ज' आसीत=तिष्ठेत् ॥ सू. १२४ ॥ ____टीका-'इय' इत्यादि । 'इय' इति एवं 'सबकालतित्ता' सर्वकालतृप्ताःअपुनरावृत्तिस्थान प्राप्तत्वात् , 'निव्वाणं' निर्वाणं मोक्षम् ‘उवगया' उपगताः 'सिद्धा' सिद्धाः, 'अउलं' अतुलम्=अनुपमम् 'सासयं' शाश्वतं सार्वकालिकम् , अव्वाबाई' अव्याबाधं-पर्वदुःखविवर्जितं 'मुहं' सुखं 'पत्ता प्राप्ताः, अतः 'सुही चिट्ठति' सुखिनस्तिष्ठन्ति, ननु 'सुखं प्राप्ता' इत्युक्ते 'सुखिन' इति किमर्थम् ?, अत्रोच्यते-केचिन्मन्यन्ते दुःखाभावमात्रं मुक्तिरिति, तन्मतनिराकरणार्थ मोक्षस्य वास्तविकसुखस्वरूपताप्रतिबोधनार्थं च 'सुखं प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्ती'त्युक्तम् ॥ सू. १२५ ॥ टीका-साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिबोधयन्नाह-'सिद्धत्ति' इत्यादि। जहा ) अमृतपान से तृप्त के समान (अच्छेज ) रहता है । सू. १२४ ॥ 'इय सव्वकालतित्ता' इत्यादि । (इय सव्वकालतित्ता) अपुनरावृत्तिस्वरूप मुक्तिस्थान को प्राप्त होने के कारण सर्वकाल तृप्त हुए (निव्वाणमुवगया सिद्धा) वे सिद्ध भगवान् , शारीरिक एवं मानसिक दुःखो से सर्वथा रहित होकर ( अउलं अव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता) अनुपम, शाश्वत एवं अव्याबाध सुख को भोगते हुए उस मुक्तिस्थान में सदाकाल -अनन्तकाल तक सुखी ही सुखी रहते हैं । सू. १२५ ॥ माहि विषयाने यथे०३५ सोमवीन ( तण्हाछुहाविमुक्को ) पिपासा तेभा मुमुक्षा (सूम-तरस ) थी २डित (अमियतित्तो जहा) अमृतपानथी तृतनी म ( अच्छेज ) २९ छे. (सू. १२४ ) 'इय सव्वकालतित्ता' त्यादि. ( इय सव्वकालतित्ता ) पुनरावृत्ति२१३५ भुक्षितस्थानने प्राप्त थवाना ४ारणे सास तृत थये। (निव्वाणमुवगया सिद्धा) ते सिर मावान शारी२ि४ तभ०४ मानसि हुमाथी सर्वथा २डित यधने (अउलं अव्वाबाहं चिटुंति सुही सुहं पत्ता ) अनुपम, शाश्वत तभ०४ २५व्यामा सुमने लापता त भुमित स्थानमा सास-सनतास सुधी सुभी २९ छे. (सू. १२५)

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