Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 763
________________ Go? औपपातिकसूत्रे एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठति ॥ सू० ९४॥ मूलम्--जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे दड्ढे ' एवमेव सिद्धानां कर्मबीजे दग्धे सति 'पुणरवि' पुनरपि ‘जम्मुप्पत्ती न भवइ ' जन्मोत्पत्तिर्न भवति-जन्मनः प्रादुर्भावो न भवति, ‘से तेणटेणं' तत्तेनाऽर्थेन, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एवं वुच्चइ' एवमुच्यते-' ते णं सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया' ते खलु सिद्धा भवन्ति सादिका अपर्यवसिता 'जाव चिह्रति' यावत्तिष्ठन्ति ।।सू० ९४॥ टीका-गौतमः पृच्छति-'जीवाणं भंते !' इत्यादि । 'भंते ! ' हे भदन्त ! 'जीवा णं' जीवाः खलु 'सिज्झमाणा' सिद्धयन्तः ‘कयरंमि' कतरस्मिन् षट्सु संहननेषु कस्मिन् ‘संघयणे' संहनने 'सिझंति' सिध्यन्ति । भगवानाह-'गोयमा' से दग्ध बीजों में पुनः अंकुर को उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं रहती है, (एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ ) उसी तरह सिद्ध भगवान् के भी कर्मरूपी संसारका बीज नष्ट हो जाने पर पुनः जन्मकी उत्पत्ति नहीं होती हैं । (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ) इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा है कि (ते णं सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया) वे सिद्ध सादि अपर्यवसित होते हैं। सू. ९४ ॥ 'जीवा णं भंते !' इत्यादि । प्रश्न- (भंते ! ) हे भदंत ! (जीवाणं सिज्झमाणा) जीव सिद्ध होते हुए (कयरंमि संघयणे सिझंति) छह संहननों में से कौन से संहनन में सिद्ध होते हैं ? शहित २९ती नथी, (एवामेव सिद्धाणं कम्मबीए दड्ढे पुणरवि जम्मुप्पत्ती ण भवइ) तवी ते सिद्ध भगवानने पर भी ससानां भी नष्ट थ पाथी शने भनी उत्पत्ति थती नथी. (से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ ) मेटा माटे गौतम ! म ४ह्यु छ है ( ते णं सिद्धा भवंति सादिया अपज्जवसिया) ते सिद्धी साहि-अपर्यवसित होय छे. (सू. ८४) 'जीवा गं भंते ! सिझमाणा' त्यादि. प्रश्न-(भंते !) महन्त ! (जीवा गं सिझमाणा) १ सिद्ध २४ ( कयरंमि संघयणे सिझंति ?) ७ सहननामाथी ४या सहननमा सिद्ध

Loading...

Page Navigation
1 ... 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824