Book Title: Agam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 780
________________ पीयूषवषिणी टीका, शास्त्रोपसंहारः ७१९ मूलम्-जं संठाणं भवं, चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसीय पएसघणं, तं संठाणं तर्हि तस्स ॥ सू० १०९॥ मूलम्-दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया। सू० ११०॥ . . . मनुष्यक्षेत्रे 'बोंदि' शरीरं 'चइत्ता गं' त्यक्त्वा खलु 'तत्थ' तत्र=लोकाग्रे 'गंतूण' गत्वा 'सिज्झइ' सिध्यन्ति ॥ सू. १०८॥ टीका---'जं संठाणं' इत्यादि । 'भवं' भवं संसारं 'चयंतस्स' त्यजतः सिद्धस्य 'चरिमसमयंमि' चरमसमये-मोक्षगमनसमये 'इहं तु' इह तु मनुष्यक्षेत्रे तु 'जं संठाणं' यत् संस्थानम् 'आसीय' आसीत् , 'तं सठाणं' तत् संस्थानं 'तस्स' तस्य सिद्धस्य तर्हि'. तत्र सिद्धक्षेत्रे 'पएसघणं' प्रदेशघनं तृतीयभागेन रन्ध्रपूरणाद् भवति ॥ सू. १०९ ॥ . टीका-'दीहं वा' इत्यादि । 'दीहं वा' दीर्घ=पञ्चधनुःशतमानं वा, 'हस्सं वा' परित्याग करके (तत्थ गंतूण सिज्झइ) सिद्धस्थान में जाकर सिद्ध होते हैं ॥ सू. १०८ ! 'जं संठाणं' इत्यादि। (भवं चयंतस्स) संसार का परित्याग करते हुए सिद्ध का (चरिमसमयंमि) मोक्षगमन समय में (इहं तु) इस मनुष्यक्षेत्र में (जं संठाणं) जो संस्थान था, (तस्स) उस सिद्धका (तं संठाणं) वह संस्थान (तहिं) उस सिद्ध क्षेत्र में (पएसघणं) कान, चक्षु आदि इन्द्रियों के रिक्त स्थान भर जाने के कारण प्रदेशघनरूप होता है । सू. १०९ ॥ 'दीहं वा हस्सं वा' इत्यादि । (दीहं वा) चाहे संस्थान दीर्घ-५०० धनुष का हो, (हस्सं वा) चाहे हस्व-२हाथ सिद्ध स्थानमा ने तय सिद्ध थाय छे. (सू. १०८) 'जं संठाणं' छत्यादि (भवं चयंतस्स) संसारन। परित्याग ४२ती १५ सिद्धनु (चरिमसमयंसि) मोक्षगमन समयमा (इहं तु) मा भनुष्य-क्षेत्रमा (जं संठाणं) २ संस्थान तु, (तस्स) ते सिद्धनु (तं संठाणं) संस्थान (तहिं) ते सिद्धक्षेत्रमा (पएसघणं) अन, मां हि द्रियाना रित स्थानो परिपूर्ण थाने रणे अहेशचन३५ थाय छ. (सू. १.८) 'दीहं वा हस्सं वा' त्याहि. (दीहं वा) या संस्थान : (i)-५०० धनुषनु डाय, (हस्सं का)

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