________________ पात्मा और शरीर को पृथक मानता है। प्राचार्य भद्रबाह ने कहा है कि यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है। साधक इस प्रकार की तत्त्वबुद्धि से दुःख और क्लेश को देने वाली शरीर की ममता का त्याग करता है। स्थानांग में कायोत्सर्ग करना, उत्कटुक पासन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना, आदि कायक्लेश के अनेक प्रकार बताये है। 0 यों कायक्लेश के प्रकारान्तर से चौदह भेद भी बताये हैं। परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया प्रतिसंलीनता है। भगवती में 2 इसके इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता योगप्रतिसंलीनता और विविक्त शयनासनसेवना, ये चार भेद किये हैं। छह बाह्यतप हैं। 3 छह आभ्यन्तर तपों में प्रथम प्रायश्चित्त है। प्राचार्य अकलंक के अनुसार अपराध का नाम “प्रायः" है। और "चित्त" का अर्थ शोधन है। जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है।४ "प्रायश्चित्त" से होता है। वह पाप को दूर करता है। प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। प्रायश्चित्त स्वेच्छा से ग्रहण किया जाता है। दण्ड में पाप के प्रति ग्लानि नहीं होती, वह विवशता से लिया जाता है। स्थानांग में प्रायश्चित्त के दश प्रकार बताये हैं। विनय दूसरा प्राभ्यन्तर तप है। यह पात्मिक गुण है। विनय शब्द तीन अर्थों को अपने में समेटे हुए है / अनुशासन, प्रात्मसंयम-सदाचार, नम्रता ! विनय से प्रष्ट कर्म दूर होते हैं / प्रवचनसारोद्धार में लिखा है कि क्लेश समुत्पन्न करने वाले अष्टकर्म-शत्रु को जो दूर करता है, वह विनय है। भगवती 7 स्थानांग८ औपपातिक में विनय के ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय, लोकोपचार विनय, ये सात प्रकार बताये हैं। विनय चापलसी नहीं, सद्गुणों के प्रति सहज सम्मान है। वैयाक्त्त्य तप धर्मसाधना में प्रवृत्ति करने वाली वस्तुओं से सेवा करना है। भगवत०० में वयावृत्त्य के दश प्रकार बताये हैं। सत् शास्त्रों का विधि सहित अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। 101 प्रात्मचिन्तन, मनन भी स्वाध्याय है। शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए अध्ययन आवश्यक है। वैदिक-महषियों ने 02 भी 'तपो हि स्वाध्यायः' कहा है और यह प्रेरणा दी है कि स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करो।103 प्राचार्य पतंजलि कहते हैं-स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात्कार होने लगता है। स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, ये पांच प्रकार बताये हैं / 104 मन की एकाग्र अवस्था 89. आवश्यक नियुक्ति, 1547 90. स्थानांगसूत्र, स्था. 7, सू-५५४ 91. उववाईसूत्र-समवसरण अधिकार 92. भगवती 25/7 93. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 30 94. तत्त्वार्थ राजवात्तिक 9/22/1 95. पंचाशक सटीक विवरण 16/3 96. प्रवचन सारोद्धारवृत्ति 97. भगवती 25/7 98. स्थानांग-स्था. 7 99. औपपातिक-तपवर्णन 100. क. भगवती सूत्र-३५/७ ख. स्थानांग-१० 101. स्थानांग अभयदेववृत्ति 5-3-465 102. तैत्तिरीय प्रारण्यक 2/14 103. तैत्तिरीय उपनिषद्---१-११-१ 104. क. भगवती 25/7 ख. स्थानांग-५ [34] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org