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उपायैः स्तुत्यारिपनयति रोषं कथमपी- . त्यहो मोहस्यैवं भवभवनवैषम्यघटना ॥१६॥
___ अर्थ-स्त्रीनी दृष्टिना प्रांत के० खूणा ते मनोहर छे, माटे तेना जोवाथी हर्ष उपजे छे, अने स्त्रीनी कोपयुक्त दृष्टि खराब छ माटे ते देखीने खेद उपजे छे, तथा घणा धनवाला पुरुषने गुणीजनो स्तुति आदि करी रीजवे छेने कष्ट सहीने तेमनो रोष उतारे छे, ए सघलं मोहथकी थाय छे; माटे जुओ मोहरूपी राजानुं केQ विषमतापणुं छे, के जे तजवा योग्य छे तेनो आदर करावे छे अने जेनो आदर करवो जोइए तेनो त्याग करावे छे ॥ १६ ॥ प्रिया प्रेक्षा पुत्रो विनय इह पुत्री गुणरति
विवेकाख्यस्तातः परिणतिरनिंद्या च जननी ॥ विशुद्धस्य स्वस्य स्फुरति हि कुटुंबं स्फुटमिदं भवे तन्नो दृष्टं तदपि बत संयोगसुखधीः ॥ १७ ॥
अर्थ-जीवने तत्त्वविचारणा करवी ते स्त्री छे, विनय करवो ते पुत्र छे, गुणने विषे जे रति करवी ते पुत्री छे, स्याद्वादपणे स्वपर-विवेचन करवू ते पिता छे, अनिंद्या जे पारकी निंदा तजवी ते आत्मानी माता छे, ए, जे अंतरंग कुटुंब छे ते तो जे वारे आत्मा शुद्ध थाय ते वारे प्रगट रीते पेदा थाय; पण तेने जे पुरुष संयोगी सुखमां मग्न थइ रह्यो छे ते तो क्यारे पण देखतो नथी । १७ ॥ पुरा प्रेमारंभे तदनुतद विच्छेदघदने,
तदुच्छेदे दुःखान्यय कठिनचेता विषहते ॥