Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
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यस्मिन्नभ्युदिते प्रमाणदिवसप्रारंभकल्याणिनी प्रौढत्वं नयगीर्दधाति स रवि नागमो नंदतात् ॥४॥ . अर्थ:- हवे जिनशासनने सूर्यनी उपमा आपी वखाणे छे. जैनागमरूप सूर्यना उदयथकी चोरी जारी इत्यादि दोष टले, वली जे थकी क्षणैकमां जगतने विषे अज्ञानरूप अंधार क्षय थाय, जे थकी मार्ग निर्मल थाय छे, वली चक्षुमांथी प्रमादरूप निद्रा जाय छे, तथा जेम सूर्योदयथी दिवस उग्यो एम सिद्ध थाय छे तेम जैनागमना उदयथी प्रमाणनी सिद्धतारूप दिवसनी सिद्धता थाय छे ते जाणे दिवसने प्रारंभे लोक प्रभाते मंगलिक बोले छे. जेम सूर्य उदये लोक न्यायमार्गे चाले, न्यायनां वचन बोले, तेम जैनसूर्य उदये नय तथा आगमनी वाणी ते घणी रुडी रीते प्रौढता पामे छे. एवो ए जिनशासनरूपी सूर्य ते जयवंतो वर्तो ! ॥ ४ ॥ अध्यात्मामृतवर्षिभिः कुवलयोल्लासं विलासैर्गवां तापव्यापविनाशिभिर्वितनुते लब्धोदयोयः सदा ॥ तर्कस्थाणुशिरःस्थितः परिवृतः स्फारैर्न यस्तारकैः सोऽयं श्रीजिनशासनामृतरुचिः कस्यति नोरुच्यतां।।
अर्थ:-हवे जिनशासनने चंद्रनी उपमा आपी वखाणे छे. अध्यात्मरूप अमृतनो जे वरसाद तेणे करीने कुवलय जे पृथ्वीरूप कमल तेने विकस्वर करे छे एवो, वली गवां के० वाणीरूप किरण तेना विलासे करीने संसारना तापनो जे समूह तेनो नाश करे छे एवो, वली ए चंद्रमा केवो छे? जे तर्कविचाररूपी जे महादेव तेना मस्तके रह्यो थको उदय पाम्यो छे एवो,

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