Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 236
________________ २३१ ॥ ७॥ जेनी विकल्पवृत्ति शांत थइ छे, वली अवग्रहादि क्रमथी पार्छ ओसयुं छे एहवू शुद्ध मन, आत्माराममुनिनुं जे अंतःकरण तेने निरुद्ध मन कहिये ॥ ८ ॥ न समाधावुपयोगं तिस्रश्चेतोदशा इह लभंते ॥ सत्त्वोत्कर्षात् स्थैर्यादुभे समाधिसुखातिशयात् ॥९॥ योगारंभस्तु भवेद्विक्षिप्ते मनसि जातुसानंदे ।। क्षिप्ते मूढे चास्मिन् व्युत्थानं भवति नियमेन ॥१०॥ अर्थः-चित्तनी त्रण दशा ते आ समाधिमां कांइ उपयोग पामती नथी, तेवारे पण तेमां बे दशा तो सर्वोत्कर्षथकी तथा स्थिरताथकी अने समाधिसुखना अतिशयथी उपयोग पामे छे ।। ९॥ कदाचित् विक्षिप्त चित्तने विषे योगसमाधिमां आनंदित होय तो योगारंभ संभवे; क्षिप्त मूढ मने तो योगनो विशेष विषयरूप उदय होय ।। १० ॥ विषयकषायनिवृत्तं योगेषु च संचरिष्णु विविधेषु ॥ गृहखेलबालोपममपि चलमिष्टं मनोऽभ्यासे॥११॥ वचनानुष्ठानगतं यातायातं च सातिचारमपि । चेतोऽभ्यासदशायां गजांकुशन्यायतोऽनुष्टं ॥ १२॥ अर्थः-विविध प्रकारना योगने विषे फरतुं अने विषयकषाये भर्यु एवं घरमा रमता बालकनी पेरे चपल जे मन ते अभ्यासे करी रुडं जाणवू ।। ११॥ वचनानुष्ठानमा रह्यं एवं जातुं आवतुं अतिचार सहित मन होय तो पण जो अभ्यासदशामां वर्ततुं होय तो, जेम हस्ति ते अंकुशे करी रुडो थाय ते दृष्टांते ते मन पण रुडु थाय ॥ १२ ॥

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