Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 241
________________ २३६ विधिशास्त्रनो राग करवो, शुद्ध मार्गनुं स्थापन करवू, विधिमार्गनी इच्छा राखवी, अविधि टालवी अने सिद्धांतनी भक्ति करवी ए अमारो सिद्धांत छे ॥ ३२॥ अध्यात्मभावनोज्ज्वलचेतोवृत्तोचितं हितं कृत्यं ॥ .. पूर्णक्रियाभिलाषश्चेति द्वयमात्मशुद्धिकरम् ॥ ३३ ॥ द्वयमिद शुभानुबंधः शक्यारंभश्च शुद्धपक्षश्च ॥ अहितो विपर्ययः पुनरित्यनुभवसंगतः पंथाः॥३४॥ अर्थः-अध्यात्मनी भावनाए करी उज्ज्वल एहवी जे चित्तवृत्ति तेणे करीने उचित कार्य करवू, तथा हितकारी करणी करवी, पूर्ण क्रियाना विलासनो अभिलाष धरवो, ए अमारे आत्मानी शुद्धिकारक छे, एटले एक अंतःकरणनी उज्ज्वलता जे शुद्धि करवी ते, अने बीजुं आधथी मांडी अंतपर्यंत पूर्ण शुभ क्रिया करवानी अभिलाषा ए बे वानां आत्मानी शुद्धि करनारां छे ॥ ३३ ॥ तथा एक करवा योग्य आरंभ ते शक्य आरंभ अने बीजो शुद्ध पक्ष ए बे वानां शुभानुबंधी छे, ए बे जेने प्रारंभ काले समर्थ छे, एमां जेनी शक्ति, उद्यम अने शुद्ध प्ररूपकपणुं छे तेने हितकारी माने अने एथी विपर्यास जे छे, तेने अहितकारी माने, एवी रीते अनुभवज्ञानने मलवानो पंथ छे. एथी मिथ्यात्व टले ॥३४। ये त्यनुभवाविनिश्चितमार्गाश्चारित्रपरिणतिभ्रष्टाः॥ बाह्यक्रियया चरणाभिमानिनो ज्ञानिनोऽपि न ते॥३५॥ लोकेषु बहिर्बुद्धिषु विपणिकानां बहिःक्रियासु रतिः ॥ श्रद्धां विना न चैताः सतांप्रमाणं यतोऽभिहितं ॥ ३६ ।। अर्थः-जेने अनुभवनो निश्चय नथी, अने निश्चय मार्गना चारित्रथी भ्रष्ट छे, तथा बाह्य क्रियानी आचरणा छे अने लोकमां

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