Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 230
________________ २२५ जे सिद्धांतोने विषे महारं मन लीन छे, माटे चैत्रमासे दिशोदिशे जे फूल तेणे करीने पवित्र एहवी जे लता ते केटलीक विकस्वर थाय, फले; पण पुस्कोकिल जे कोयल ते आंबानी मंजरीथी रक्त एवी थकी ते लताओने विषे रति न पामे, तेनी परे महारं चित्त पण सिद्धांतरूप आंबानी मंजरिये रक्त थयुं थकुं अन्य दर्शनरूप लताओमां जातुं नथी ॥ ९॥ . शब्दो वा मतिरर्थ एव वसु वा जातिः क्रिया वा गुणः। शब्दार्थः किमिति स्थितिः प्रतिमतं संदेहशंकुर्यथा ॥ जैनेंद्रे तु मते न सा प्रतिपदं जात्यंतरार्थस्थितिः । सामान्यं च विशेषमेव च यथा तात्पर्यमन्विच्छति॥१०॥ ___ अर्थः-आ शब्द छे, किंवा मति छे, के अर्थ छे, के गुण छे, के वस्तु के० द्रव्य छे, के जाति छे के क्रिया छ ? वली एनो शब्दार्थ केम हशे ? एवो संदेहरूपी खीलो मत मत प्रत्ये रह्यो छे पण जिनमतमां नथी. ते पद पद प्रत्ये जात्यंतर अर्थनी स्थिति छ, माटे सामान्य अने विशेष जेवा पदार्थनो यथार्थ निश्चय तात्पर्य-अर्थ तेने भजे छे; माटे जिनमतमां संदेहरूप खीलो नथी ॥ १० ॥ यत्रानर्पितमादधाति गुणतां मुख्यं तु वस्त्वर्पितं । . तात्पर्यानवलंबनेन तु भवेदूबोधः स्फुटं लौकिकः॥ संपूर्ण त्ववभासते कृतधियां कृत्स्नाद्विवक्षाक्रमात् । तां लोकोत्तरभंगपद्धतिपदं स्याद्वादमुद्रां स्तुमः ॥११॥ अर्थ:--स्याद्वादरूप जैन मुद्रामां केवो गुण छ ? के

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