Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
२१२
वेष्टयत्यात्मनात्मानं यथा सर्पस्तथासुमान् ॥
तत्तद्भावैः परिणतो बध्नात्यात्मानमात्मना ॥१६६॥ ___ अर्थ:-कर्मनी साथे आत्मानुं जे मलवु तेने बंध कहिये, ते बंध चार भेदे छे. ते हेतु अध्यवसाये आत्मभावथी कह्यो छे ॥ १६५ ।। जेम सर्प पोतानी मेले पोते विटाय छे तेम आत्मा पण ते ते भावे परिणम्यो थको पोतपोतानी मेलेज कर्म साथे बंधाय छे ॥ १६६ ॥ बध्नाति स्वं यथा कोशकारकीटः स्वतंतुभिः॥
आत्मनः स्वगतैर्भावैर्बधने सोपमा स्मृता ॥ १६७॥ जंतूनां सापराधानां बंधकारी न हीश्वरः ।। तद्वंधकानवस्थानादबंधस्याप्रवृत्तितः ॥ १६८ ॥
अर्थ:--जेम रेशमनो कीडो पोतानी लाळे करी पोतेज बंधाय छे तेम आत्मा पोताना रागादि परिणामे करी पोतेज बंधाय छे, ए उपमा कही ॥ १६७ ॥ पण जे ईश्वर कर्ता कहे छे ते वात निषेध छे, अपराधी जीवने काइ ईश्वर बंधकर्ता नथी, ते ईश्वर बंधकर्तापणाना निषेधवा थकी अबंधनीय आत्माने विषे अप्रवृति छे. एटले स्वभावेज बंधनिवृत्ति आत्माने छे पण ईश्वर कर्ता नथी ॥ १६८॥ तत्त्वज्ञानप्रवृत्यर्थे ज्ञानवन्नोदना ध्रुवा ॥
अबुद्धिपूर्वकार्येषु स्वप्नादौ तददर्शनात् ॥१६९ ॥ तथाभव्यतया जंतुनोंदितश्च प्रवर्तते ॥
बध्नन् पुण्यं च पापं च परिणामानुसारतः ॥१७०॥

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254