Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
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२१०
अर्थ : - निर्जरानुं कारण ते शुद्ध ज्ञाने सहित प्रगट्यो अने चित्तनी चंचलवृत्ति रोकतो एहवो बार भेदे तप छे ।। १५५ ।। जिहां प्रभुना ध्यानयुक्त कषायनो रोध छे, ब्रह्मचर्यनुं धर छे ते शुद्ध तप जाणवो. ए सिवाय बीजो तप ते मात्र लांघ करवा जेवो छे ।। १५६ ॥
बुभुक्षा देहकार्य वा तपसो नास्ति लक्षणं ॥ तितिक्षाब्रह्मगुप्त्या दिस्थानं ज्ञानं तु तद्वपुः ॥ १५७ ॥ ज्ञानेन निपुणेनैक्यं प्राप्तं चंदनगंधवत् ॥ निर्जरामात्मनो दत्ते तपो नान्यादृशं कचित् ॥ १५८ ॥
अर्थः- भूखे मरखं, शरीरने दुबलुं कर ए तपनुं लक्षण नथी; पण जिहां ज्ञानयुक्तपणे ब्रह्मचर्यनी गुप्ति, तथा तितिक्षा के० शांति होय ते तपनुं स्वरूप छे ॥ १५७ ॥ ज्ञान साथै एकता भावने पाम्यो एवो जे तप तेने तप कहिये, जेम चंदन साथे गंध एकताभाव पायो छे, तेनीपरे ए तप ते ज्ञाने युक्त थको आत्माने निर्जरा फल आपे, पण बीजी रीते न आपे ॥ १५८ ॥ तपस्वी जिनभक्त्या च शासनोद्भासनोत्यया ॥
पुण्यं बध्नाति बहुलं मुच्यते तु गतस्पृहः ॥ १५९ ॥ कर्मत पतरं ज्ञानं तपस्तनैव वेत्ति यः ॥
प्राप्नोतु स हतस्वांतो विपुलां निर्जरां कथं १ ।। १६० ।।
अर्थ :- निरासी भावे तपनो करनारो तपसी जिन तथा ज्ञानभक्ति करी शासनने दिपावे, घणुं पुण्य बांधे अने कर्मथी मुका ॥ १५९ ॥ कर्मने तपावे एवं ज्ञान छे, अने ते ज्ञानने

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