Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
२११
जे धणी तप न जाणे ते तपसी निर्बुद्धिनो धणी विपुल निर्जरा केम पामे १ ॥ १६० ॥
अज्ञानी तपसा जन्मकोटिभिः कर्म यन्नयेत् ॥
अंतं ज्ञानतपोयुक्तस्तत्क्षणेनैव संहरेत् ॥ १६१ ।। ज्ञानयोगस्तपः शुडमित्याहुर्मुनिपुंगवाः ॥ तस्मान्निकाचितस्यापि कर्मणो युज्यते क्षयः ॥ १६२॥
अर्थ :-- ज्ञान विना एक कोटि भव सुधी जेटलां तप करे, ते तपमा जेटलां कंमक्षय न थाय तेटलां कर्मोने एक क्षणमां ज्ञान सहित तपे करी खपावे ।। १६१ || माटे ज्ञानयोगे जे तप करवो ते शुद्ध छे, ए रीते प्रभु कहे छे; केमके ते तपथी निकाचित कर्मनो क्षय थाय छे ।। १६२ ॥
यदि पूर्वाकरणं श्रेणिः शुद्धा च जायते ॥
ध्रुवः स्थितिक्षयस्तत्र स्थितानां प्राच्यकर्मणां ॥ १६३ ॥ तस्माद्ज्ञानमयः शुद्धस्तपस्वी भावनिर्जरा ॥ शुडनिश्चयतस्त्वेषा शुद्धाशुद्धस्य कापि न || १६४ ।।
अर्थः- जे तपथी इहां अपूर्वकरण श्रेणि शुद्ध थाय, ली थी पूर्वकर्मनी रही जे स्थिति ते स्थिति निश्वयथी क्षय थाय ॥ १६३ ॥ ते माटे ज्ञानमयी जे शुद्ध तपसी तेने निश्वयथी शुद्ध भाव निर्जरा थाय, पण अज्ञान तपसीने कांइ न थाय ॥ १६४ ॥
बंध: कर्मात्मसंश्लेषो द्रव्यतः स चतुर्विधः ॥ तत्वध्यवसायात्मा भावतस्तु प्रकीर्त्तितः ॥ १६५ ॥

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254