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पणे देहमा रह्यो छे, एवं जे कहे छे ते पण जूटुं छे, जेम दंड सहित कुंभारनी परे क्रियानुं फल भोगवे ते पण असंबंध छे तेनी परे । ६६ ।। अनादिसंततेाशः स्याहीजांकुरयोरिव ॥
कुक्कुट्यंडकयोः स्वर्णमलयोरिव वानयोः ॥ ६७ ॥ भव्येषु च व्यवस्थेयं संबंधो जीवकर्मणोः ॥ अनाद्यनंतोऽभव्यानां स्यादात्माकाशयोगवत्।।६८||
अर्थः–तमे कहो छो के अनादि संतति नाश न थाय तेनो तो नाश थतो देखीये छीये; जेम बीज वणस्ये अंकुर न थाय अने अंकुरा नाश थये बीज नहीं थाय. कुकडी नाश थये इंडे नाश पामे अने इंडानो नाश थये कुकडी नाश पामे. वळी अनादिनो सुवर्णथी मेल जुदो थाय छे. तेम आत्माथकी कर्म जुदा थाय छे ।। ६७ ॥ ए रीते अनादि संतति जीवकर्मनो जे संबंध ते नाश थाय छे. ते भव्य जीवो आश्रयी छे. अने जेहने अनादि संतति टलती नथी ते अभव्य जीवो आश्रयी छे. आत्मा तो आकाशना योगनी परे छे ॥ ६८ ।। द्रव्यभावे समानेऽपि जीवाजीवत्वभेदवत् ॥
जीवभावे समानेऽपि भव्याभव्यत्वयोर्भिदा ॥१९॥ स्वाभाविकं च भव्यत्वं कलशप्राग्भावतः॥ नाशकारणसाम्राज्याद्विनश्यन्न विरुध्यते ॥ ७० ॥
अर्थ:-जेम द्रव्यनी रीते तो सर्वद्रव्य एकद्रव्यपणे तुल्य छे, पण ते द्रव्यमां भेद करीए तो जीव अजीव ए बे थाय; तेमज जीवपणे तो सर्व जीव सरिखा छे, पण भेद करतां भव्य