Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
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२००
रज्यते द्वेष्टि चार्थेषु तत्तत्कार्यविकल्पतः || आत्मा यदा तदा कर्म भ्रमदात्मनि युज्यते ॥ १११ ॥ स्नेहाभ्यक्तत नोरंगं रेणुनाश्लिष्यते यथा ॥ रागद्वेषानुविद्धस्य कर्मबंधस्तथामतः ॥ ११२ ॥
अर्थ:-जेवारे ते ते कर्मना विकल्पथी आत्माने कोह पदार्थ उपर रागदशा अथवा द्वेष उपजे छे तेवारे आत्मामां कर्मनो भ्रम जोडाय छे ॥ १११ ॥ तेल लगाडेला शरीरे जेम रजनो लेप वलगे छे तेम रागी अने द्वेषी आत्माने कर्मनो बंध बलगे छे ।। ११२ ॥
आत्मा न व्यापृतस्तत्र रागद्वेषाशयं सृजन् ॥ तन्निमित्तोपनत्रेषु कर्मोपादानकर्मसु ॥ ११३ ॥ लोहं स्वक्रिययाभ्योति भ्रामकोपलसंनिधौ ॥
यथा कर्म तथा चित्रं रक्तद्विष्टात्मसंनिधौ ॥ ११४ ॥
अर्थः- तिहां आत्मा पोते कोइ क्रिया करतो नथी, पण राग द्वेष करतो थको ते निमित्ते पाम्यां जे कर्म तेना निमित्ते कर्त्ताप कर्म छे; पण तहां आत्मा तो रागद्वेष रूप कर्मनो मूकनारो छे. एटले आत्मा भावकर्मनो व्यापारवंत छे; पण द्रव्य कर्मनो व्यापारवंत नथी ॥ ११३ ॥ जेम चमक पाषाण ते लोहने आकर्षे, तेणे करी लोह पोतानी क्रियाये चमक पासे आवी मले, तेम रागद्वेषी आत्मानी पासे कर्म आकर्षणे आवी मले छे ।। ११४ ॥
वारि वर्षन् यथांभोदो धान्यवर्षी निगद्यते ॥
भावकर्म सृजन्नात्मा तथा पुद्गलकर्मकृत् ॥ ११५ ॥

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