Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal

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Page 210
________________ २०५ भावनाधर्म चारित्रपरिषहज पादयः ॥ आश्रवोच्छेदिनो धर्मा आत्मनो भावसंवराः ॥ १३३ ॥ आश्रवः संवरो न स्यात्संवरश्वाश्रवः क्वचित् ॥ भवमोक्षफलाभेदोऽन्यथा स्याडेतुसंकरात् ॥ १३४ ॥ अर्थ :- अने भावना धर्म जे चारित्र छे, जेथकी परिपहनो जय थाय ते ए आश्रवनो उच्छेदक धर्म छे. ए आत्माने भावसंवर कहिये ।। १३३ ।। जे आश्रव ते संवर न थाय, अने जे संवर ते आश्रा न थाय हेतु संकर ए बे जो कदापि एकरूप थाय, तो संसार अने मोक्ष ए बेजां फल पण एक थाय; पण मां भेद रहे नहीं एटले ज्यां आश्रवे करी संवरनुं संक्रमण थाय त्यां मोक्षफल जाणवु, अने ज्यां संवरे करी आश्रवनुं संक्रमण थाय त्यां संसारफल जाणवुं ।। १३४॥ कर्माश्रवश्व संवृवान्नात्मा भिन्नैर्निजाशयैः ॥ करोति न परापेक्षामलंभूष्णुः स्वतः सदा ॥ १३५ ॥ निमित्तमात्रभूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः ॥ ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः ॥ १३६ ॥ अर्थ : - आश्रवभावने संवर करतो 'थको जे पोताना आत्माथी जुदा नथी एवा जे पोताना आशय तेणे करी पर अपेक्षा न करे, केमके ते पोताथी सदा समर्थ छे ।। १३५ || जे हिंसा अहिंसादिक सघला पर प्राणिना पर्याय ते आत्माने निमित्तभूत जे, पण पोताने फलहेतु नथी ॥ १३६ ॥ व्यवहारविमूढस्तु हेतूंस्तानेव मन्यते ॥ बाह्यक्रियारतस्वान्तस्तत्त्वं गूढं न पश्यंति ॥१३७॥

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