Book Title: Adhyatmasara
Author(s): Yashovijay, Veervijay
Publisher: Adhyatmagyan Prasarak Mandal
View full book text
________________
२०६
हेतुत्वं प्रतिपद्यते नैवेति नियमास्पृशः ॥ . . यावंत आश्रवाः प्रोक्तास्तावंतोहि परिश्रवा॥१३८
अर्थ:--व्यवहारमूढ जे आत्मा ते परपर्यायने पोताना फलहेतु माने छे, माटे जेनु मन बाह्यक्रियामां रक्त छे तेवा प्राणी गुप्त तत्वने देखता नथी ॥ १३७ ।। जे हिंसादिक तथा अहिंसादिक परपर्याय हेतुपणुं छे, तेने पडिवजे अथवा नथी पडिवर्जता एहवो नियम ते तो निश्चयना जे फरसनारा छे तेहने जेटला आश्रव छे तेटला संवररूप थाय ॥ १३८ ॥ तस्मादनियतं रूपं बाह्यहेतुषु सर्वथा ॥
नियतौ भाववैचित्र्यादात्मैवाश्रवसंवरौ ॥ १३९॥ अज्ञाता विषयासक्तो बध्यते विषयैस्तु नः ॥ ज्ञानाद्विदूवि मुच्यते चात्मा नतु शास्त्रादिपुद्गलात्१४०
अर्थः--ते माटे सदाय बाह्य हेतुने विषे अनियतरूप छे. नियतिने विषे भावना विचित्रपणाथकी आत्मा तेज संवर आश्रवरूप छे ।। १३९ ॥ जे अज्ञानी छे अने विषयासक्त छे, तेहिज विषयमा बंधाय छे. ते विषय तो आत्माने आत्मज्ञानथकी मूकाय, पण शास्त्रादिक पुद्गलथकी न मूकाय ॥ १५० ॥ शास्त्रं गुरोश्च विनयं क्रियामावश्यकानि च ॥
संवरांगतया प्राहु र्व्यवहारविशारदाः ॥ १४१ ॥ विशिष्टा वाक्तनुस्वांत पुद्गलास्तेऽफलावहाः ॥ ये तु ज्ञानादयो भावाः संवरत्वं प्रयांति ते ॥१४२॥
अर्थः-शास्त्र भणवं, गुरुनो विनय करवो, तथा आवश्यकादिक क्रिया करवी एने व्यवहारमा विचक्षण पुरुषोए संवरनां

Page Navigation
1 ... 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254