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सर्वज्ञो मुख्य एकस्तत्प्रतिपत्तिश्च यावताम् ॥
सर्वेऽपि ते तमापन्ना मुख्यं सामान्यतो बुधाः ॥१४॥ ___ अर्थ:-जे विशेषने अणजाणतो छे, तोपण जे कदाग्रहे रहित छे अने जे सर्वज्ञने सेवे छे ते पण सामान्य योगे आश्रित छे ॥ ६३ ॥ सर्व प्रमाणमां एक सर्वज्ञ तो मुख्य छे तेहनी सेवाना करनार जेटला छे ते सर्वे तेहिज सर्वज्ञना भावने पामे, पण सर्वज्ञर्नु मुख्यपणुं पंडितो सामान्यथकी कहे छे ॥ ६४ ॥ न ज्ञायते विशेषस्तु सर्वथाऽसर्वदर्शिभिः । __ अतो न ते तमापन्ना विशिष्य भुवि केचन ॥६५॥ सर्वज्ञप्रतिपत्यंशात्तुल्यता सर्वयोगिनां ॥ दूरासन्नादिभेदस्तु तभृत्यत्वं निहंति न ॥ ६६ ॥
अर्थ:-ते सर्वथा प्रकारे सर्वज्ञ सर्वदर्शी तेवडे पण विशेष तो जाणतो नथी, तेथी ते कोई विशेष भूमिकाने पाम्या नथी; एटले पृथ्वीमां कोई विशेष जाणपणे सर्वज्ञपणुं पाम्या नथी ।। ६५ ॥ सर्वज्ञपणाना जे प्रत्येक अंश छे ते सर्व योगीने सरिखा छेमाटे ढुंकडा अने वेगलापणाना भेदथी तेहनुं सेवकपणुं काइ हणातुं नथी ॥ ६६ ॥ माध्यस्थमवलंब्यव देवतातिशयस्य हि ॥
सेवा सर्वैर्बुधैरिष्टा कालातीतोऽपि यजगौ ॥ ६७॥ अन्येषामप्ययं मार्गो मुक्ताविद्यादिवादिनां ॥
अभिधानादिभेदेन तत्वरीत्या व्यवस्थितः ॥६८॥ __ अर्थः-माध्यस्थपणु अवलंबीने एटले देवताना अतिशयनुं माध्यस्थपणुं धारीने सर्व पंडिते सेवा मानी छे. कालथी अतीत छे, तोपण एम कहे छे ॥ ६७ ॥ बीजा पण मुक्तवादीनो