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परिसह तेथी कंपे नही तथा बीहे पण नहीं. ए अहिंसक लक्षण होय १, तथा सूक्ष्म अर्थमां, वली मायामां मुंझाय नहीं; ए असंमोह एटले मोहरहितनुं लक्षण कह्युं २ ॥ ८४ ॥
विवेकात्सर्वसंयोगाद्भिन्नमात्मानमीक्षते ॥
देहोपकरणासंगो व्युत्सर्गाज्जायते मुनिः ॥ ८५ ॥ एतद्ध्यानक्रमं शुद्धं मत्वा भगवदाज्ञया ॥ यः कुर्यादेतदभ्यासं संपूर्णाध्यात्मविद्भवेत् ॥ ८६ ॥ अर्थ :- सर्व संयोगथी आत्माने जदो देखे, ए विवेकनुं लक्षण छे ३, देह तथा उपकरणनी त्यागबुद्धिये असंगानुष्ठान वर्ते छे, ए व्युत्सर्गनुं लक्षण छे ४. ए चार लक्षण ६६ मां श्लोकमां कां छे. तेनो ए अर्थ विवरीने कह्यो. ए लक्षणे जे मुनि होय ते ज्ञानपणुं पामे ॥ ८५ ॥ ए रीते ध्याननो जे अनुक्रम वे शुद्ध रीते जाणीने, प्रभुनी आज्ञा प्रमाणे एनो अभ्यास जे करशे ते संपूर्ण अध्यात्मज्ञानी थाशे ॥ ८६ ॥
इति ध्यानाधिकारः षोडशः ॥