Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम निन्दा करनेवाले और आत्मश्लाघा करनेवाले प्राणियों पर उपेक्षा यह माध्यस्थ (अथवा उदासीन) भावना कहलाती है।" चेतनेतरगतेष्वखिलेषु, स्पर्शरूपरवगंधरसेषु । साम्यमेष्यति यदा तव चेतः, पाणिगं शिवसुखं हि तदात्मन् ॥१७॥ अर्थ - "हे चेतन ! सर्व चेतन और अचेतन पदार्थों में होनेवाले स्पर्श, रूप, रख (शब्द), गंध और रस में जब तेरा चित्त समता पायेगा, तब मोक्षसुख तेरे हाथ में आ जायगा।" के गुणास्तव यतः स्तुतिमिच्छस्यद्भुतं, किमकृथा मदवान् यत् । कैर्गता नरकभीः सुकृतैस्ते, किं जितः पितृपतिर्यदचिन्तः ॥१८॥ अर्थ - "तेरे में क्या गुण है कि तू स्तुति की इच्छा रखता है ? तूने कौन सा बड़ा आश्चर्यकारी काम किया है कि तू अहंकार करता है ? (तेरे) किन सुकृत्यों से तेरी नरक की पीड़ा दूर हो गई है ? क्या तूने यम को जीत लिया है कि जिससे तू चिन्ता रहित हो गया है ?" गुणस्तवैर्यो गुणिनां परेषा माक्रोशनिंदादिभिरात्मनश्च । मनः समं शीलति मोदते वा, खिद्यते च व्यत्ययतः स वेत्ता ॥१९॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 118