Book Title: Adhyatma Kalpadruma Author(s): Munisundarsuri Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 7
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम नहीं; जिस के कोई अपना नहीं और पराया नहीं, जिसका मन कषाय रहित हो और इन्द्रियों के विषयों में रमण न करता हो, ऐसा पुरुष महायोगी है।" भजस्व मैत्री जगदंगिराशिषु, प्रमोदमात्मन् गुणिषु त्वशेषतः । भवातिदीनेषु कृपारसं सदा प्युदासवृतिं खलु निर्गुणेष्वपि ॥१०॥ अर्थ - "हे आत्मा ! जगत के सर्व जीवों पर मैत्रीभाव रख, सभी गुणवान् पुरुषों की ओर संतोष दृष्टि से देख, भव (संसार) की पीड़ा से दुःखी प्राणियों पर कृपा कर और निर्गुणी प्राणियों पर उदासवृत्ति-माध्यस्थ भाव रख ।" मैत्री परस्मिन् हितधीः समग्रे, भवेत्प्रमोदो गुणपक्षपातः । कृपा भवार्ते प्रतिकर्तुमीहोपेक्षैव माध्यस्थ्यमवार्यदोषे ॥११॥ अर्थ – “अन्य सभी प्राणियों पर हित करने की बुद्धि यह (प्रथम) मैत्री भावना, गुण का पक्षपात यह (दूसरी) प्रमोद भावना, भवरूप व्याधि से दुःखी प्राणियों को भाव औषधि से निरोग बनाने की अभिलाषा यह (तीसरी) कृपा भावना, न छूट सके ऐसे दोषवाले प्राणियों पर उदासीन भाव यह (चौथी) माध्यस्थ्य भावना ।" परहितचिंता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुखतुष्टिर्मुदिता, परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥१२॥Page Navigation
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