Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों के वशीभूत न हो, शास्त्ररूप लगाम से अपने मनरूप अश्व को काबू में रख, वैराग्य प्राप्तकर शुद्ध-निष्कलंक धर्मवान बन (साधु के दश प्रकार के यतिधर्म और श्रावक के बारह व्रतों का आत्मगुणों में रमणता करनेवाला शुद्ध धर्मवाला बन,) देवगुरुधर्म का शुद्ध स्वरूप जाननेवाला बन, सर्व प्रकार के सावध योग से निवृत्तिरूप विरति धारण कर, (सत्तावन प्रकार के) संवरवाला बन, अपनी वृत्तियों को शुद्ध रख और समता के रहस्य को भज ।" चित्तबालक ! मा त्याक्षी-रजस्त्रं भावनौषधीः । यत्त्वां दुर्ध्यानभूता न, च्छलयन्ति छलान्विषः ॥५॥ अर्थ - "हे चित्तरूप बालक ! तू सदैव भावनारूप औषधियों का थोड़े समय के लिये भी परित्याग न कर जिससे छलयुत दुर्ध्यानरूप भूत-पिशाच तुझे कष्ट न पहुँचा सकें।" यदिद्रियार्थैः सकलैः सुखं, __ स्यान्नरेन्द्रचक्रित्रिदशाधिपानाम् । तद्विंदवत्येव पुरो हि साम्य सुधां बुधस्तेन तमाद्रियस्व ॥६॥ अर्थ - "राजा, चक्रवर्ती और देवताओं के स्वामी इन्द्रों को सर्व इन्द्रियों के अर्थों से जो सुख होता है वह समता के सुखसमुद्र के सामने सचमुच एक बिन्दु के समान

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 118