Book Title: Adhyatma Kalpadruma Author(s): Munisundarsuri Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 6
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम है, अतः समता के सुख को प्राप्त कर ।" अदृष्टवैचित्र्यवशाज्जगज्जने, विचित्रकर्माश्यवाग्विसंस्थुले । उदासवृत्तिस्थितिचित्तवृत्तयः, सुखं श्रयन्ते यतयः क्षतार्तयः ॥७॥ अर्थ - "जबकि जगत् के प्राणी पुण्य तथा पाप की विचित्रता के अधीन हैं, और अनेक प्रकार के काया के व्यापार, मन के व्यापार तथा वचन के व्यापार से अस्वस्थ (अस्थिर) हैं, उस समय जिनकी माध्यस्थवृत्ति में चित्तवृत्ति लगी हुई है, और जिनकि मन की व्याधियँ नष्ट हो गई हैं वे यति सच्चे सुख का उपभोग करते हैं।" विश्वजंतुषु यदि क्षणमेकं, साम्यतो भजसि मानस ! मैत्रीम् । तत्सुखं परममंत्र, परत्राप्यनुषे न यदभूत्तवजातु ॥८॥ ___अर्थ - "हे मन ! यदि तू सर्व प्राणी पर समतापूर्वक क्षण भर भी परहितचिन्तारूप मैत्रीभाव रखे तो तुझे इस भव और परभव में ऐसा सुख मिलेगा, जिसका तूने कभी अनुभव भी नहीं किया होगा ।" न यस्य मित्रं न च केऽपि शत्रु निजः परो वापि न कञ्चनास्ते । न चेन्द्रियार्थेषु रमेत चेतः, कषायमुक्तः परमः सयोगी ॥९॥ अर्थ - "जिसके कोई भी मित्र नहीं और कोई भी शत्रुPage Navigation
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