Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 4
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अध्यात्मकल्पद्रुम जयश्रीरांतरारीणां, लेभे येन प्रशान्तितः । तं श्रीवीरजिनं नत्वा, रसः शान्तो विभाव्यते ॥१॥ अर्थ - "जिन श्री वीरभगवान ने उत्कृष्ट शान्ति से अपने अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है उन परमात्मा को मैं नमस्कार कर शान्तरस की भावना करता हूँ." सर्वमंगलनिधौ हदि यस्मिन्, संगते निरुपमं सुखमेति । मुक्तिशर्म च वशीभवति द्राक्, तं बुधा भजत शांतरसेंद्रम् ॥२॥ अर्थ - "सर्व मांगलिकों का निधान ऐसा शान्तरस जिस हृदय में प्राप्त हो जाता है वह अनुपम सुख का उपभोग करता है और मोक्षसुख शीघ्र उसके आधिपत्य में आ जाता है। हे पंडितों ! ऐसे शान्तरस को तुम भजो-सेवा करो भावो!" समतैकलीनचित्तो, ललनापत्यस्वदेहममतामुक् । विषयकषायाद्यवशः, शास्त्रगुणैर्दमितचेतस्कः ॥३॥ वैराग्यशुद्धधर्मा, देवादिसतत्त्वविद्विरतिधारी । संवरवान् शुभवृत्तिः, साम्यरहस्यं भज शिवार्थिन् ॥४॥ ___अर्थ - "हे मोक्षार्थी प्राणी ! तू समता विषय में लीन चित्तवाला हो, स्त्री, पुत्र, पैसा और शरीर पर से ममता छोड दे, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि इन्द्रियों के विषय और

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