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भिक्षु वाङ्मय खण्ड-१ संवर भी मूलतः पांच ही हैं। अयोग संवर के पन्द्रह भेद होने से संवर के भी बीस भेद हो जाते हैं। आचार्य भिक्षु के अनुसार सम्यक्त्व और व्रत संवर मिथ्यात्व और अव्रत के प्रत्याख्यान से निष्पन्न होते हैं। अप्रमाद, अकषाय और अयोग संवर ये साधना से स्वतः निष्पन्न होते हैं, प्रत्याख्यान से नहीं।
इस ढाल में यह भी बताया गया है कि सर्व सावध योग का त्याग अयोग संवर नहीं है। वह व्रत संवर हैं। अयोग संवर चौदहवें गुणस्थान में योग का पूर्ण निरोध होने पर ही निष्पन्न होता है।
नवमी और दसवीं ढाल में निर्जरा तत्त्व पर चिन्तन किया गया है। निर्जरा विपाकी (सहज) भी होती है और अविपाकी (प्रयत्नजन्य) भी होती है। कालावधि का परिपाक होने पर जो कर्मों का सहज निर्जरण होता है, वह विपाकी (सहज) निर्जरा है तथा अनशन, ऊनोदरी आदि के रूप में बारह प्रकार से जो निर्जरा होती है, वह अविपाकी (प्रयत्नजन्य) निर्जरा है। निर्जरा और निर्जरा की करणी एक नहीं है। निर्जरा कार्य है और करणी उसका कारण है।
आचार्य भिक्षु ने उदीरणा, उदय और क्षय इन तीन पदों के माध्यम से निर्जरा की पूरी प्रक्रिया बताई है। तपस्या करने वाला कर्मों की उदीरणा कर उन्हें उदय में लाता है। उदय में आए हुए कर्मों का क्षरण होता है, वह निर्जरा है।
विपाकी निर्जरा में उदीरणा नहीं होती। तपस्या के द्वारा अविपाकी निर्जरा होती है, इसलिए वह उदीरणापूर्वक होती है। ___आचार्य भिक्षु ने इस ढाल में सकाम और अकाम निर्जरा पर भी विशद विवेचन किया है। सकाम निर्जरा वह होती है जो कर्म काटने की दृष्टि से की जाती है। जहां कर्म काटने की दृष्टि नहीं होती केवल कष्टों को सहन किया जाता है, उससे जो कर्मों की निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा है। ____ ग्यारहवीं ढाल में बंध पर प्रकाश डालते हुए आचार्य भिक्षु ने तालाब के एक रूपक का प्रयोग किया है। जीव एक तालाब है। बंध उसमें रहा हुआ जल है। पुण्य और पाप उसमें से निकलता हआ जल है। आश्रव पानी आने का नाला है। नाले को रोकना संवर है। पानी को उलीचना निर्जरा है। खाली तालाब मोक्ष है।
कर्म का बंध जीव के किसी एक प्रदेश के साथ नहीं होता अपितु समग्र प्रदेशों के साथ होता है। आत्मा के साथ कर्म पुदगल स्कन्धों का संबंध प्रदेश बंध है। कर्म