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नव पदार्थ
बंध माना है। तथा कर्म की उदीयमान अवस्था को पुण्य बताया है।
पांचवीं ढाल में पाप पदार्थ पर विवेचन किया गया है। जीव के सुख-दुःख के आधारभूत तत्त्व हैं पुण्य और पाप । पुण्य का उदय होता है तो जीव सुख को प्राप्त होता है और पाप का उदय होता है तो दुःख को प्राप्त होता है। पुण्य और पाप का बंधन कैसे होता है इस पर भी आचार्य भिक्षु ने गहरा प्रकाश डाला है।
जैन आगमों में पुद्गल में आठ स्पर्श माने गए हैं। पुद्गल संरचना का यह बहुत ही गहन विज्ञान है कि कर्म-पुद्गलों में चार स्पर्श ही पाए जाते हैं। आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। एक-एक प्रदेश पर अनन्त-अनन्त पाप-पुण्य के स्कन्धों का अवस्थान होता है। सचमुच आत्म तत्त्व को समझने के लिए पुण्य-पाप को समझना भी जरूरी है।
छठी-सातवीं ढाल में आश्रव पदार्थ का विश्लेषण किया गया है। उस समय आश्रव के संदर्भ में तीन मान्यताएं प्रचलित थी। कुछ लोग आश्रव को जीव मानते थे, कुछ लोग अजीव मानते थे तथा कुछ लोग जीव-अजीव दोनों मानते थे। आचार्य भिक्षु ने आश्रव को जीव के रूप में स्वीकार किया। जीव के अच्छे-बुरे परिणाम ही आश्रव हैं। उन्हीं के लिए कर्ता, करणी, हेतु और उपाय इन चार शब्दों का उपयोग किया गया है। अच्छे परिणामों के साथ शुभ योग का प्रवर्तन होता है। तब पुण्य का आस्रवण होता है तथा बुरे परिणामों के साथ अशुभ योग का प्रवर्तन होता है तब पाप का आस्रवण होता है।
आश्रव द्वार पांच हैं मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग। मन, वचन और काया की समुच्चय प्रवृत्ति का नाम है योग। योग अपने आपमें शुभ-अशुभ नहीं होता। मोह कर्म का संयोग होने से वह अशुभ बन जाता है तथा वियोग होने से शुभ हो जाता है।
योग आश्रव को विस्तार से समझने के लिए उसके पन्द्रह भेद कर दिए गए हैं। इस प्रकार आश्रवों की संख्या बीस हो जाती है। इनमें सोलह भेद एकांत सावध हैं। शुभ योग, शुभ मन, शुभ वचन और शुभ काय से पुण्य का बंधन होता है इसलिए वे निरवद्य हैं। तथा अशुभ योग, अशुभ मन, अशुभ वचन और अशुभ काय के द्वारा पाप का बंधन होता है इसलिए वे सावध हैं। इस प्रकार ये चारों सावद्य-निरवद्य दोनों हैं।
आठवीं ढाल में संवर का वर्णन है। आश्रव का निरोध ही संवर हैं। इस दृष्टि से