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प्रस्तावना
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तो आजतक उपलब्ध ही हुआ है और न इसके होने का ही कोई सबल प्रमाण मिला है । उपलब्ध शब्दानुशासनों में वररुचि के प्राकृतप्रकाश को कुछ विद्वान् प्राचीन मानते हैं और कुछ चण्डकृत प्राकृतलक्षण को । प्राकृतलक्षण संक्षिप्त रचना है । इसमें प्राकृत सामान्य का जो अनुशासन किया गया है, वह प्राकृत अशोक की धर्मलिपियों की भाषा और वररुचि द्वारा प्राकृतप्रकाश में अनुशासित प्राकृत के बीच की प्रतीत होती है । इस शब्दानुशासन के मत से मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं होता है, वे वर्तमान रहते हैं। वर्ग के प्रथम वर्णों में केवल क और तृतीय वर्णों में ग के लोप का विधान मिलता है । मध्यवर्ती च, ट, त, और प वर्ण ज्यों के त्यों रह जाते हैं । भाषा की यह प्रवृत्ति महाकवि अश्वघोष और भास के नाटकों में पायी जाती है । अत: प्राकृतलक्षण का रचनाकाल ईस्वी सन् द्वितीय तृतीय शती मानने में कोई बाधा नहीं आती है ।
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इस ग्रन्थ में कुल सूत्र ९९ या १०३ हैं और चार पादों में विभक्त हैं। आरम्भ प्राकृत शब्दों के तीन रूप - तद्भव, तत्सम और देशज बतलाये हैं। तीनों लिङ्ग और विभक्तियों का विधान संस्कृत के समान ही पाया जाता है । प्रथम पाद के दवें सूत्र
अन्तिम ३५ वें सूत्र तक संज्ञाओं और सर्वनामों के विभक्तिरूपों का निरूपण किया है । द्वितीयपाद के २९ सूत्रों में स्वर-परिवर्तन, शब्दादेशों एव अव्ययों का कथन किया गया है । पूर्वकालिक क्रिया के रूपों में तु, त्ता, च, ह, तु, तूण, ओ एवं प्पि प्रत्ययों को जोड़ने का नियमन किया हैं। तृतीय पाद के ३५ सूत्रों में व्यञ्जनपरिवर्तन के नियम दिये गये हैं । चतुर्थ पाद में केवल चार सूत्र ही हैं, इनमें अपभ्रंश का लक्षण, अधोरेफ का लोप न होना, पैशाची की प्रवृत्तियाँ, मागधी की प्रवृत्ति र और स् के स्थान पर लू और शू का आदेश एवं शौरसेनी में तू के स्थान पर बिकल्प से दू का आदेश किया
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प्राकृत प्रकाश
चण्ड के उत्तरवर्ती समस्त प्रावृत्त वैयाकरणों ने रचनाशैली और विषयानुक्रम की दृष्टि से प्राकृतलक्षण का अनुकरण किया है । चण्ड के पश्चात् प्राकृत शब्दानुशासकों में वररुचि का नाम आदर के साथ लिया जा सकता है । प्राकृतमंजरी की भूमिका में वररुचि का गोत्र नाम कात्यायन कहा गया हैं । डा० पिल अनुमान किया था कि प्रसिद्ध वार्त्तिककार कात्यायन और वररुचि दोनों एक व्यक्ति हैं; किन्तु इस कथन की पुष्टि के लिए एक भी सबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है । एक वररुचि कालिदास के समकालीन भी माने जाते हैं, जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे । प्रस्तुत प्राकृतप्रकाश चण्ड के पीछे का है, इसमें कोई सन्देह नहीं । प्राकृत भाषा का शृङ्गार काव्य के लिए प्रयोग ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शतियों के पहले ही होने लगा था। हाल कवि ने गाथासप्तशती