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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
६. समूह नाम-तरंगवइक्कारे, मलयवइक्कारे। ७. ईश्वरीय नाम-स्वाम्यर्थक-राईसरे, तलवरे, इन्भे, सेट्ठी। ८. अपत्य नाम-अरिहंतमाया, चक्कवट्टिमाया, रायमाया ।
कम्मे सिप्पसिलोए संजोग समीवो अ संजूहो। ___ इस्सरिक्ष अवच्चेण य तद्वितणामं तु अट्टविहं ॥ चाप उपयुक्त सन्दर्भ तद्वितान्त नामों के वर्णन के समय आया है, तो भी तद्धित प्रकरण पर इससे प्रकाश पड़ता है। इन्हें कर्मार्थक, शिल्पार्थक, संयोगार्थक, समूहार्यक, अपत्यार्थक आदि रूप में ग्रहण करना चाहिए।
___ इस ग्रन्थ में आठों विभक्तियों का उल्लेख है तथा ये विभक्तियां किस-किस अर्थ में होती हैं, इसका भी निर्देश किया गया है।
निदेसे पढमा होइ, बित्तिया उवएसणे । तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपयावणे ॥१॥ पंचमी अ अवायाणे, छट्ठी सस्सामिवायणे । सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अट्ठमाऽऽमंतणी भवे ॥२॥
-प्रणुप्रोगदार सुत्त, सू० १२८ । अर्थात-निर्देश-क्रिया का फल कर्ता में रहने पर प्रथमा विभक्ति होती है। यथा--- स, मो, अहं आदि प्रथमान्त रूप हैं। उपदेश में-क्रिया के द्वारा कर्ता जिसको सिद्ध करना चाहता है, द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-भण कुणसु इम व तं व आदि। करण अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है। यथा तेण कयं, मए वा कयं आदि । स-प्रदान में चतुर्थी और अपादान में पंचमी विभक्ति होती है। स्वामिस्वामित्व भाव में षष्टी, सन्निधानार्थ-अधिकरणार्थ में सप्तमी और आमन्त्रण-सम्बोधन में अष्टमी विभक्ति होती है।
इस प्रकार प्राकृत भाषा में लिखित शब्दानुशासन सम्बन्धी सिद्धान्त पाये जाते हैं। संस्कृत भाषा में लिखित प्राकृत व्याकरण
संस्कृत भाषा में लिखे गये प्राकृत भाषा के अनेक शब्दानुशासन उपलब्ध हैं। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसके १७ वें अध्याय में विभिन्न भाषाओं का निरूपण करते हुए ६-२३ वें पद्य तक प्राकृत व्याकरण के सिद्धान्त बतलाये हैं और ३२वें अध्याय में उदाहरण प्रस्तुत किये हैं । पर भरत के ये अनुशासन सम्बन्धी सिद्धान्त इतने संक्षिप्त और अस्फुट हैं कि इनका उल्लेखमात्र इतिहास के लिए ही उपयोगी है। प्राकृतलक्षण
कुछ विद्वान् पाणिनि का प्राकृतलक्षण नाम का प्राकृत व्याकरण बतलाते हैं। डा० पिशल ने भी अपने प्राकृत व्याकरण में इस ओर संकेत किया है, पर यह मन्थ न