Book Title: Aavashyak Digdarshan
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 12
________________ अावश्यक दिग्दर्शन दुल्लहे. खलु माणुसे भवे, चिर कालेण वि सव्वपाणिर्ण । गादा प विपाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए।। -(उत्तराध्ययन १०१४) जैन संस्कृति में मानव-जन्म को बहुत ही दुर्लभ एवं महान् माना गया है। मनुष्य जन्म पाना, किस प्रकार दुर्लभ है, इस के लिए जैन संस्कृति के व्याख्यातायो ने दश दृष्टान्तो का निरूपण किया है । सब के सब उदाहरणो के कहने का न यहाँ अवकाश ही है और न औचित्य ही । वस्तु-स्थिति की स्पष्टता के लिए कुछ बातें आपके सामने रक्खी जा रही हैं, प्राशा है, आप जैसे जिज्ञासु इन्ही के द्वारा मानवजीवन का महत्त्व समझ सकेगे। . "कल्पना करो कि भारत वर्ष के जितने भी छोटे बड़े धान्य हो, उन सब को एक देवता किसी स्थान-विशेष पर यदि इकट्ठा करे, पहाड़ जितना ऊँचा गगन चुम्बी ढेर लगा दे। श्रोर उस ढेर में एक मेर सरसो मिलादे, खूब अच्छी तरह उथल-पुथल कर । सो वर्ष की बुढिया, जिसके हाथ कॉपते हो, गर्दन कॉपती हो, और अॉखो से भी कम दीखता हो ! उम को छाज देकर कहा जाय कि 'इस धान्य के ढेर में से सेर भर मरमो निकाल दो। क्या वह बुढिया सरसों का एक-एक दाना बीन कर पुनः सेर भर सरसों का अलग ढेर निकाल सकती है? पार को असंभव मालूम होता है। परन्तु यह सब तो किसी तरह देवशक्ति आदि के द्वारा संभव भी हो सकता है, परन्तु एक बार मनुष्यजन्म पाकर खो देने के बाद पुनः उसे प्राप्त करना सहज नहीं है।" "एक बहुत लम्बा चौडा जलाशय था, जो हजारों वर्षों से शैवाल (काई) की मोटी तह से आच्छादित रहता धाया था। एक कटुवा अपने परिवार के साथ जब से जन्मा, तभी से शेवाल के नीचे अन्यतर

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