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॥अथ श्रीसुलसारितम्॥
NROKAR NIGAM
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श्री जिनवरेंद्राय नमः
सुखसाचरितम्. प्रथम श्राव काव्ये करी ग्रंथकर्ता तीर्थकरोने नमस्कार रूप मंगलाचरण करे . उत्तम मंत्रोना सार रूप, समस्त देवताए कस्यो बे जन्ममहोत्सव जेमनो, विनोनो , क्षय करवा माटे अधिकारने धारण करनारा अने ध्यान करनाराउने थापी ने श्रेष्ठ मोहनी
( उपजातिवृत्तम् ), अर्ह नमस्यामि सुमंत्रसारं, समस्तदेवैर्विदितावतारम्॥ "विघ्नानिघाताय धृताधिकारं, ध्यातृप्रदत्तोत्तमशर्मनारम् ॥१॥ "विज्ञानदानाध्ययनाधिपत्यविवाहदीदागमदेशनानां ॥
कार आदौ विदधेऽत्र 'येन, स श्रीयुगादिप्रनुरस्तु नूत्यै ॥२॥ पुष्टि जेमणे एवा श्री अरिहंत प्रजुने हुं नमस्कार करुं . ॥१॥ जेमणे आ जरतक्षेत्रने |
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सुलसा
प्रस्ताव
विष विज्ञान, दान, अध्ययन, राज्य, विवाह, दीक्षा, आगम अने देशनार्जुना प्रारंजमा :
कारने कस्यो , ते श्री युगादि प्रजु (रुपनदेव) संपत्तिने अर्थे था. ॥२॥ जे हरिणे श्राश्रय कराएला एवा य पण अर्थात् हरिणना लंडनवाला उतां पण निष्कलंक कहे |वाय डे,कलाउँने धारण करता बतां पण जे दोषोनी खाण कद्देवाता नथी, तथा अन्य
'यो निष्कलंको देरिणाश्रितोपि, दोषाकरो नैव कैलानतोपि॥ श्रीशांतिनाथोऽपरसोममूर्तिः, शांति से वो यत्तु चारुकीर्तिः ॥३॥ कृष्णोऽपि मुष्णाति तैमःसमूह, यो वीतरागोऽपि ररंज लोकम् ॥
प्राप्तोऽचलस्थोऽपिनेवस्य पारं, सौनाग्यनारं सें तनोतु नेमिः॥४॥ निष्कलंकी चंड रूप एवा श्रने मनोहर कीर्तिवाला ते श्री शांतिनाथ प्रनु तमने शांति थापो. ॥ ३ ॥ जे कृष्ण वर्ण बतां पण अंधकारना समूहनो (अज्ञाननो) नाश करे । बे, रागरहित उतां पण लोकने थानंद पमाडे श्रने रैवताचल (गिरनार) पर्वत उपर रह्या उतां पण संसार समुज्नो पार पाम्या जेते श्री नेमिनाथ प्रजु सौजाग्यना जारने
१ रात्रिने विषे किरणवाला.
॥१॥
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विस्तारो. ॥४॥जे मोक्षमार्गनाप्रयाणने विषे कल्याणकारी जे, जेमना घणा विपुल दृढ । खजाने विषे सर्पराज रह्यो अने जे मनुष्योने वधता एवा शुकन रूप ; ते श्री पार्श्व नाथ प्रजु विघ्ननो नाश करो. ॥५॥ शम दमादि गुणोए करीने वृद्धि पामेला, थत्यंत
कैल्याणकारी शिवमार्गयाने, नागाधिराजोरुदृढांससंस्थः॥ यो वईमानः शकुनो जनानां, "विघ्नानिघातं स तनोतु पार्थः॥५॥ श्रीवईमानं गुणवईमानं, नितांतकांतं कृतपातकांतम् ॥ "वंदे मुंदारं देदतामुंदारं, सिद्धार्थजातं गदितार्थजातम् ॥६॥ वर्णानिरामं सुविशालपत्रं, 'विस्मेरयंतं सुमनश्चरित्रम् ॥
श्रेयःफलाढ्यं विबुधैकलदयं, सेवे सदाप्तागमकल्परदम् ॥७॥ मनोहर, पापनो नाश करनार, हर्ष श्रापनार, दातारोमा श्रेष्ठ, सिद्धार्थ राजाना पुत्र अने सिद्धांतना श्रर्थना समूहने कहेनार एवा श्री वईमानखामीने टुं नमस्कार करूं . ॥ ६ ॥ अक्षरोथी मनोहर (रूपे करीने सुंदर), सारा विशाल ताडपत्रोने विषे ल
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सा०
॥ २ ॥
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खेला (श्रेष्ठ महोटा पत्रोवाला), व्याश्चर्य उत्पन्न करनारा ( प्रफुल्लित ययेला), सत्पुरु पोनां चरित्रोवाला (पुष्पनी सुगंधि वाला ), कल्याण रूप फलवाला ( उत्तम फल वाला), विद्वानोने जोवा योग्य ( देवतार्जए ज जोवा योग्य ) अने ताविक वस्तु कहे। नार एवा श्रागम रूप कल्पवृक्षने हुं निरंतर सेतुं बुं. ॥ ७ ॥ जेमना मुखथी उत्तम एवा
'निशम्य 'येषां वैरशब्दजातं, सर्वार्थसिद्धिं मैनुजा विनंते ॥
'ते चारुपक्षाः श्रितकल्पवृक्षाः, श्री गौतमाद्या गणपा जयंति ॥ ८ ॥ हवे कवि पोताना चारित्रप्रन नामना गुरुने नमस्कार करे बे. यस्य प्रसादेन जॅडाशयानां यात्यांशु मालिन्यमपीदृशानाम् ॥ पास्महे ऽगस्त्यमिवामैलं "तं, चारित्रपूर्वप्रननामसू रिम् ॥ ९ ॥
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शब्द समूहने सांजलीने मनुष्यो सर्व प्रकारना प्रर्थनी सिद्धिने पामे बे, श्रेष्ठ पक्षवाला अने ( तीर्थंकर रूप ) कल्पवृक्षनो श्राश्रय कस्यो बे जेमणे एवा ते चौदशेने बावन | श्री गौतमादिक गणधरो जयवंता वर्त्ते बे ॥ ८ ॥ जेना प्रसादे करीने श्रावा जड
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प्रस्ताव०
॥ २ ॥
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हृदयवाला पुरुषोनुं पण मलीनपणुं तत्काल नाश पामे , एवा अगस्त्यना ताराना सरखा निर्मल ते चारित्रप्रन नामना श्राचार्यनी श्रमे उपासना (सेवा). करीए॥ बीए. ॥ ए ॥ जे उन्नतिने पामीने गाढ स्वरथी गर्जना करता बता तत्काल ऋण ||
लब्ध्वोन्नतिं 'ये गुरुगर्जिवंतो, 'विश्वोपतापं सदसा हरंति ॥ पैरार्थमेवेद केतावताराः, 'संतः पयोदा इव "ते जयंति॥१०॥
___ कवि, मूर्ख लोकोने श्रा काव्य संजलाववानी ना पाडे जे. मुखेन 'ये दोषविषं वैमंति, परस्य रंध्राणि सदा विशंति॥
देशति मर्माणि नयंकराह्वस्तेि वर्जनीया इंटिति "विजिह्वाः॥११॥ जगतना तापने हरण करे बे, वली परोपकारने माटे ज पालोकमां धारण कस्यो , अवतार जेमणे एवा मेघना सरखा ते संत पुरुषो जयवंता वर्ते हे. ॥ १० ॥ जे मु १ आश्लोकमां अगस्त्यना तारानी उपमा आपीछे, तेनो हेतु एवो छ के, ते ताराना किरणधी पाणी निर्दोष (निर्मल) थाय छे. पण एवो अर्थ करती वखते "जडाशयानां" एपदमा "ड" ने बदले "ल" समजवो.
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roखपी दोष रूप केरने वमे , हम्मेशां पारकां बिछ प्रत्ये पेसे ने अर्थात् पारका प्रस्ताव
लिख जुए डे श्रने मर्मस्थानने मसे ले अर्थात् फुःख उत्पन्न थाय तेवां कायोंने || Mal करे बे एवा जयंकर नामवाला ते सपों (चाडिया पुरुषो) तत्काल त्याग करवा. ॥ ११॥ हवे संत कोने कहेवा ? अने मूर्ख कोने कहेवा ? ते माटे कवि संत
। श्रने मूर्खना गुण-दोष देखाडे . ते एव संतोऽत्र निरस्य दोषान्, ये नूंषयंत्यन्यजनस्य काव्यम् ॥ "तेर्जना"ये "विमलेपि काव्ये, गण्टंति रोषादसतोऽपि दोषान् १२
अहिं तेज संत पुरुषो जाणवा के, जे दोषोनो त्याग करीने अर्थात् का ॥३॥ व्यमां रहेला दोषोने सुधारीने अन्य मनुष्ये करेला काव्यने शोजावे डे अने ते उऊन जाणवा के, जे निर्मल एवा य पण काव्यने विषे दोष न बतां पण दोषोने ll क्रोधी ग्रहण करे . ॥ १५ ॥
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ते कारण माटे पंमित पुरुषोए म्हारे विषे कृपा करीने या काव्यने “कोई स्था । नके नूल होय तो” सुधारीज से, पण गुण दोष कहेवामां मूगा अर्थात् गुण दोष नहिं कहि शकनारा श्रने संसार रूप कूवामा उत्पन्न थएला देडका सरखा, खल हवे कवि पोते करेला ग्रंथनी अंदर थएली चूसनी विद्वान्
पुरुषोनी पासे माफी मागे . कृत्वा प्रसादं मयि सङनैस्तत्, संशोधनीयं 'किल कार्यमेतत् ॥ कार्यावहेला गुणदोषमूर्नवांधुनेकैः खेलबाललोकैः ॥ १३ ॥
हवे कवि पोतानुं अज्ञानपणुं दर्शावे . वेदःप्रमाणागमनाटकाज्ञः, साहित्यहीनो ने च नीतिवेत्ता॥
"निलक्षणोऽदं निरलंकृतिः स्यां, दास्यास्पदं काव्यचिकीः कवीनाम्॥१॥ हा एवा मूर्ख मनुष्योए अवज्ञा ( करवी होय तो ) करवी. कारण के, तेथी मने हरकत || नथी, परंतु अवज्ञा करवी ए मूर्खनो खजाव . ॥ १३ ॥ नंदी प्रमुख बंद (पिंगल)
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सुलसा |शास्त्र ( न्यायशास्त्र), द्वादशांगी विगेरेशागम अने चंसोदय विगेरे नाटकनो श्रज्ञा |
प्रस्ताव नी, सूक्तावलि विगेरे साहित्य विनानो, नीतिनो अजाण, व्याकरणनो अजण श्रने ॥४॥|चूडामणि विगेरे अलंकारनो अज्ञानी तेम ज काव्य करवानी श्छा करतो एवो हुँ क
कवि, ग्रंथ करवानुं कारण देखाडे . न वादबुझ्या ने विनोदबुझ्या, ने वित्तहेतोर्न , कीर्तिदेतोः॥
संसारनिस्तारपरोपकारकते करोम्येष कवित्वमेतत् ॥१५॥ हवे संसारथी मुक्त श्रवानो उपाय शुंडे ? अने ते केटला प्रकारनो ने ? ते कहे .
अपारसंसारसमुपारकर्ता तु धर्मः "शिवसूत्रधारः॥
दानादिनेदैर्जगदेऽत्र सारस्तीर्थकरैरेष चतुष्प्रकारः॥ १६॥ विना हास्य (मश्करी)ना स्थान रूप थश्श.॥ १४ ॥ काव्य करनार हुँ था काव्य ॥४॥ संसारनी निवृत्ति रूप परोपकारने माटे करूंढुं, परंतु ए काव्य वादबुद्धिथी, विनोदबु । जिथी,अव्यने माटे के कीर्तिने माटे करतो नथी. ॥१५॥ तीर्थंकरोए, श्रालोकने विषे ।।
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श्रपार एवा संसार समुज्नो पार पमाडनार, वली मोदना श्रध्यक्ष श्रने सार रूप श्रा जैनधर्म दानादि ( दान, शील, तप अने नाव एवा) नेदे करीने चार प्रकारे कहेलो .॥१६॥श्रालोकने विषे ऽव्य विना दान केम थाय? अर्थात् अव्य विना दान थई ||
हवे दान, शील, तप अने नाव ए चारमा मुख्य शुं ? ते कहे . 'विना धनं स्यात्कथमत्र दानं, सुंर्वदं शीलमथोह्यमानम् ॥ शैरीरशक्त्यैव तैपोविधानं, तनावमेवाद्दुरदःप्रधानम् ॥१७॥
हवे नाव, मूल शुंने ? ते कहे . तत्रापि नावे प्रवदंति मूलं, सम्यक्त्वमेव व्रतसानुकूलम् ॥
"सिध्यंति चारित्रनृतोऽपि यस्मात्सम्यक्त्वहीना नैं पुनः कैंदापि ॥१॥ शकतुं नथी. वली अंगीकार करेलु शीलवत पालवू ए घणुं ज अशक्य , तेम तपर्नु थाचरण पण शरीरनी शक्तिवडे ज थाय . माटे विछान लोको दान, शील, तप, lal अने नाव ए चारमा नावने ज मुख्य कहे जेः ॥१७॥ते नावने विपे पण व्रते करीने |
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सुलसा
॥५॥
अनुकूल एवं सम्यकत्व ज ( शुरु देव, शुद्ध गुरु श्रने शुद्ध धर्मने विषे श्रद्धा ) मूल प्रस्ताव० कहे . कारण के, चारित्रने धारण करनारा पण जे सम्यकत्वथी सिद्ध थाय ..] वली सम्यकत्व रहित लोको (चारित्रने धारण करता) उतां क्यारे पण सिद्ध थता
हवे तेने दृष्टांते करीने निर्मल राखवार्नु कहे . तन्निर्मलं स्याणवऊनानां, सम्यग्गुणाकर्णनवर्णनाद्यैः॥ "निर्मज्यमानो वरदर्पणोऽपि, "नैर्मल्यमाप्नोति यतो "विशेषात् ॥ १०॥
हवे जगत्ने विषे सर्व सतीमा मुख्य कोण हती ? ते कहे .
एकैव 'विश्वे सुलसा सतीषु, गुणाधिका सांजनि नागपत्नी॥ all नैरामरेषु स्वयमांततान, यस्याः प्रशंसां नंगवान् "जिनोऽपि॥२०॥ नथी. ॥ १७॥ गुणवंत मनुष्योना ( सत्पुरुषोना) उत्तम गुणोनु सांजल, वर्णन ॥५॥ करवं. इत्यादिकथी ते सम्यक्त्व व्रत वधारे निर्मल थाय ले. कारण के साफ करातो एवो श्रेष्ठ दर्पण पण वधारे निर्मलपणाने पामे जे. ॥१५॥ जगत्ने विषे नाग सारथीनी
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स्त्री ते सुखसा एक ज सतीमा अधिक गुणवाली थई हती. कारण के जगवान् । जिनेश्वरे पण पोते मनुष्य अने देवताउने विषे जेणीनी प्रशंसा करेली . ॥२० जे सुलसाना सत्वे करीने हरिणगमेषी नामनो देव पण संतुष्ट मनवालो थयो, तेसुल
हवे सुलसाना शीलव्रतनी प्रशंसा करे बे. सत्वेन यस्या देरिणेगमेषी, सुरोपि संतुष्टमना बनूव ॥ तस्याश्चरित्रं परिकीर्त्यमानं, कथं न "चेतांसि सैताधिनोतु॥१॥
वली पण ते ज कहे . मिथ्यातमो देर्शनतोऽपि यस्या, जगाम नाशं सहसौंबडस्य ॥
नागप्रिया सा ग्रंथिता कथायां, "रेवेव पावित्र्यकरी कथं न ॥२२॥ सानु कीर्तन करेखुचरित्र सत्पुरुषोना चित्तने केम तृप्ति न पमाडो? अर्थात् तृप्ति पमाडो. Mallu१॥ जेणीना दर्शनश्री पण अंबडनु मिथ्या अज्ञान तत्काल नाश पाम्युं, ते नाग सा
रथीनी प्रिया सुलसा था कथामां वर्णन करेली उती नर्मदा नदीनी पेठे पवित्र करनारी
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सुलसा०
॥६॥
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केम न होय ? अर्थात् नर्मदा नदीनी पेठे या सुलसानुं चरित्र पण पवित्र करनारुं बे ॥ २२ ॥ घणा ज निर्मल एवा सम्यक्त्व रूप रत्ने करीने बांध्युं वे तीर्थंकर नामकर्म जेणीए एवी जे सुलसा (ते) श्रावती चोवीशीमां या पवित्र पृथ्वीतलने विषे श्री निर्मम हवे सुलसा बीजा जवने विषे कोण थशे ? ते कहे बे. सैम्यक्त्वरत्नेन सुनिर्मलेन, या वैधतीर्थंकरनामकर्मा ॥ श्री निर्ममः पंचदशो "जिनेंद्रशे, नैविष्यति कोणीतले मलेऽस्मिन् ॥२३॥ कवि, या सुलसाचरित्र कहेवानुं कारण कहे बे. ( अनुष्टुपू वृत्तम् )
गुणोत्कीर्तनमेतस्याः सुलसायाः कॅरोम्यहम् ॥ चरित्रद्मना स्वीयसम्यक्त्वामलताकृते ॥ २४ ॥
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नामना पंदरमा तीर्थंकर थशे. ॥ २३ ॥ हुं पोतानुं सम्यक्त्व निर्मल करवा माटे चरि त्रना मिषयी या सुलसाना गुणोनुं कीर्त्तन करूं . ॥ २४ ॥
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प्रस्ताव०
॥६॥
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हवे था चरित्र सांजलवाथी शुं फायदो थाय ? ते कहे . संत पुरुषो पोतानी शुद्धिने माटे, जेने विषे जूदा जूदा सर्ग ( अध्याय ) रचेला HI, एवा श्रा चरित्रने मूलथी अंत सुधी श्रादरथी ज सांजलो अने वालको निरंतर
(वसंततिलका वृत्तम्) Mail आमूलचूलमिदमादरतोऽपि संतः, Uएवंतु शुद्धिकृतये कृतसर्गबंधम्॥
बालाः पतु सततं च यतो जैडानां, सम्यक्त्वसंनव ईतो नैवतीद युक्त्या | जणो; कारण के, श्रालोकने विषे जडोने पण या चरित्रथी सम्यक्त्वनो संजव युक्तिए करीने थाय . ॥ २५ ॥
॥शति प्रस्तावना.॥
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सुलसा०
॥ १ ॥
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सर्ग १ लो.
द कवि सुलसाचरित्रनो यारंभ करवा पहेलां तेणीना देश, गाम, राजा पति विगेरेनुं वर्णन करे ठे.
समुनी मध्यमां प्राप्त ( ग्रहण ) कस्यो बे जन्म जेणे अर्थात् समुद्रनी मध्यमां | रहेलो, सम्यक् चारित्रवाला लोकोवडे मनोहर ( उत्तम गोलाकारथी सुशोजित ), मधुर शब्दवाला पुरुषोनुं उत्पत्ति स्थान ( मधुर शब्दोनुं उत्पत्ति स्थान ), देवतार्जए ( उपजाति वृत्तम् )
रेत्नाकरांतः परिलब्धजन्मा, सुवृत्तशाली कैलशब्दभूमिः ॥ लेखानिरामो नैवधाम कंबूपमो भुवि दीपवरोऽस्ति जंबूः ॥ २ ॥
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| करीने मनोहर ( रेखाए करीने मनोहर ), तेम ज नवीन तेजवाला दक्षिणावर्त्त शंखना जेवो, पृथ्वीने विषे जंबू नामनो श्रेष्ठ द्वीप बें ॥ १ ॥
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सर्ग लो.
॥ ५ ॥
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जे जंबूरी मां मेरुपर्वत होडीना स्तंजनी पेठे रहेलो बे. वल्ली जंबूद्धीपनी बहा रना बीजा द्वीपो निरंतर होडी चलाववाना चाटवा सरखा रहेला बे. तेमज अरण्य | जेवो विशाल श्राकाश शढनी पेठे रहेलो बे. एवो ते जंबूद्वीप समुद्रना मध्यभागने विषे पामवा योग्य वर्त्ते बे ॥ २ ॥ पृथ्वी उपर रहेलो एवोय पण जे जंबूद्वीप, पोताना
पायते मेरुरथांतराणि, दीपान्यंरित्रति सदैव यंत्र ॥ पॅटायते व्योमवनं से जंबूद्वीपचं लैज्योतति सागरांतः ॥ २ ॥ राकाशशांक 'निजवृत्ततो यो, 'विडंबयामास मुवि स्थितोऽपि ॥ मध्ये सैदा यस्य कैलंकलीलां, "बिनर्ति नीलं वैननऽशालम् ॥ ३ ॥
दम्मेशना गोलपणाथी पूर्णिमाना चंद्रने विटंबना पमाडे बे. चंद्र जेवा अन्य धर्म तो जंबूद्धीपमां बे ज; जेम के जे जंबूद्धी पना मध्यजागने विषे वर्त्ततुं लीलुं नद्रशाल नामनुं वन, चंडना कलंकनी शोजाने हम्मेश धारण करे बे. ॥ ३ ॥
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सुलसा
जेने विषे गंगा अने सिंधु ए बे नदी विशाल नेत्र जेवी , जेने विषे मेरुसर्गरलो. पर्वत नासिका जेवो बे, जेने विषे वनोनी पंक्ति पत्ररचना जेवी बे, एवो जे जंबू बीप श्राकाशनी शोनाने जोवा माटे जाणे पृथ्वीनुं ऊंचुं करेलुं मुख ज होय नी! एवो शोने . ॥ ४ ॥ ते जंबूद्वीप मध्ये वैताढ्य पर्वते करीने, तेम ज गंगा अने सिंधु ए ।
महानदीयुग्मविशालनेत्रं, स्वर्णाजिनासं वनराजिपत्रम् ॥ उन्नामितं दृष्टुमनंतलदमी, मुखं पृथिव्या व यो "विनाति ॥४॥
____ हवे एक काव्ये करीने जरतक्षेत्रनुं वर्णन करे ले. नूनालतुव्यं नैरतं तदंतः, "देवं पवित्रं प्रेवदंति संतः॥
वैताट्यशैलेन च "निम्नगाभ्यां, षट्खंमताप्तं धनुषः संहदम् ॥ ५॥ बे नदीए करीने धनुषनी पेठे व खंगपणाने पामेला, पृथ्वीना ललाट सरखा ॥ वित्र क्षेत्रने संत पुरुषो जरतक्षेत्र एम कहे जे. अर्थात् जंबूदीपना ललाट सरखं ! उत्तम उ खंगवाडं जरत नामर्नु केत्र बे. ॥५॥
॥
७
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श्रा नरतक्षेत्रमा गाम, रत्नादिकनी खाण, झोणमुख श्रने नगरोधी श्रेष्ठ, तथा अनेक किसाथी शत्रुऊने अगम्य (न जवाय तेवो), तेम ज बाग, वाव्य, पर्वत श्रने कूवाथी मनोहर एवो मगध नामनो देश . ॥ ६ ॥ जे मगधदेशमां विशाल एवा पृथ्वी रूपी
हवे आठ काव्ये करीने मगधदेशनुं वर्णन करे बे. अस्तीह देशो मंगधानिधानो, ग्रामाकरणोणपुरप्रधानः॥
गैरनेकैरपरैरंगम्य, आरामवापीनगकूपरम्यः॥६॥ पुरेपुरे जैनविहारराजी, संराजते यत्र सुवर्णकुंना॥ महीमहेलाहृदये विशाले, दारावली कांचन निर्मितेव ॥७॥ टेदावलीमंमितकूलदेशा, राजंति यस्मिन् सलिलानिवेशाः॥
आश्चर्यलक्ष्मीप्रविलोकनाय, चतुःसहस्रा विदिता इवोा ॥७॥ खीना हृदयनां जाणे सुवर्णथी बनावेली हारनी पंक्ति ज होयनी ! एवी नगर नग रने विषे सुवर्णना शिखरोवाली जैनमंदिरोनी पंक्ति शोने . ॥७॥ जे मगधदेश,
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सुलसाने विषे वृक्षोनी पंक्तिश्री शोजित ने तीर (कांग) ना लागो जेना एवां जलाशयो सर्गरलो.
(तलाव विगेरे जलनां स्थानो) “ मगधदेशनी" श्राश्चर्यलक्ष्मीने जोवा माटे जाणे पृथ्वीमा हजारो नेत्रो प्रगट थयां होयनी ! एम शोने दे. ॥७॥ जे मगधदेशने विषे श्रेष्ठ ( निर्मल) जलथी नरेलां अने उत्तम वर्नुलाकार ( गोलाकार ) पाठ्योथी व्याप्त
सरांसि यस्मिन् सुपयोनृतानि, सवृत्तपालीकलितानि नांति॥ नूमीमुखालंकरणाय किंनु, न्यस्तानि ताडंकविनूषणानि॥५॥ प्राकारवाराः प्रविनाति तारा, जांबूनदोच्चैःकपिशीर्षसाराः ॥
सर्वत्र रौप्याणि सुवर्णचूडानीवांकरोविलयानि यत्र ॥२०॥ एवां तलावो, जाणे पृथ्वीना मुखने शोजाववा माटे स्थापन करेलां कुंझलनां आभूषणो॥ ए ज होयनी ! एम शोने . ॥ ॥ जे मगधदेशमां सर्व स्थानके सुवर्णना ऊंचा श्रेष्ठ कांगरावाला एवा गढोना समूहो, खाणनी पृथ्वी रूप स्त्रीना हाथनां रूपानां सुवर्णना कांगरावाला कंकणो ज होयनी ! एम शोने दे. ॥ १० ॥
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जे मगधदेशने विषे श्रेष्ठ मेखलाउँथी अत्यंत मनोहर अने घणो ऊंचो वैज़ार ना मनो पर्वत, जाणे समुख रूप वस्त्रना श्राछादनवाली पृथ्वीनो गोलपणाथी मनोहर एवो केडनो पालो जाग ज होयनी ! एम शोने . ॥ ११ ॥ जे मगधदेशने विषे ।
यत्रांतिरम्यो वैरमेखलानिः, प्रोत्तुंगवैनारगिरिविनाति ॥ समुश्वस्त्रावरणमायाः, नितंबबिंबः 'किल उत्तशाली ॥११॥
आवेष्टिता यत्र तटोपविष्टमरालशब्दान्वितनिङ धैः॥ "गिरीपादाः प्रतिनाति नूमीपादा रेणन्नूपुरमंमिता वा ॥१॥ ये देशमासाद्य महीमहेला, रत्नानि सूते विविधानि नित्यम् ॥
आख्यायते सर्वजनेन तस्मात्सौ रनगर्नेत्यधुनापि नाम्ना ॥ १३ ॥ जलाशयोना तटे बेवेला हंसना शब्द युक्त करणाना समूहे करीने व्याप्त एवा वैनार | पर्वतनी पासे रहेला बीजा न्हाना पर्वतो, जाणे शब्द करता कांफरोधी अलंकृत | थएला पृथ्वी रूप स्वीना पग ज होयनी ! एम शोने जे. ॥१५॥ पृथ्वी रूप स्त्री जे
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सुलसा
॥१०॥
मगधदेश (रूप पति) ने पामीने निरंतर विविधप्रकारना रत्नो रूप पुत्रोने जन्म श्रापे सर्गरलो. बे, ते ज कारणथी सर्व माणसो हमणां पण ते पृथ्वीने नामथी "रत्नगर्ना' एम कहे . अर्थात् मगधदेशनी पृथ्वीमांथी रत्नो उत्पन्न याय दे. एज कारणथी विद्वानोए पृथ्वी हवे श्रगीश्रार काव्ये करीने राजगृह नगरनुं अने तेमां रहेनारा
मनुष्योनुं वर्णन करे . तन्नानिनूतं गैजवाजिराजीसंघसंकीर्णितराजमार्गम् ॥ "जिनेउपादांबुजरेणुपूतं, वरं पुरं राजगदं समस्ति ॥१४॥ पोतोत्तरा वाडवदत्तवासा, अलब्धमध्याः कमलाकराश्च ॥
यस्मिन् समुजा "निवसंति लोका, धनोपकारैकपराः सदैव ॥१५॥ ने रत्नगर्जा कही बे. ॥१३॥ ते वैजार पर्वतनी नाजी थकी उत्पन्न थएवं, हस्ति श्रने | ॥१५॥ घोडानी पंक्तिउना घसाराथी व्याप्त डे मार्ग जेनो अने जिनेश्वरना चरणकमलनी वारजे करीने पवित्र थएबुं राजगृह नामर्नु श्रेष्ठ नगर जे. ॥१५॥जे राजगृह नगरने विषे
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वहाणवडे तराय एवा ( श्रेष्ठ पुत्रोवाला ), वाडवाग्निने दीधुं ने स्थान जेणे एवा (ब्राह्मणोने श्राप्यो ने श्राश्रय जेमणे एवा), अगाध मध्यवाला (गंजीर अभिप्राय | वाला ), लक्ष्मीनी उत्पत्तिना स्थान रूप ( लक्ष्मीना नंमारवाला), अने निरंतर मेघना | उपर उपकार करनारा ( निरंतर गाढ उपकार करवामां तत्पर ) एवा समुष समान लोको वसे . ॥ १५ ॥ जे राजगृह नगरने विषे सुवर्णना उज्वल कंदोराने धारण कर ।।
यस्मिन् सुवर्णोज्ज्वलमेखलांकाः, सनंदना देवकृतानिलाषाः॥
अनेकरूपा इव मेरुनूम्यो, विलासवत्यो वनिता "विनांति ॥१६॥ नारी ( सुवर्णनी उज्वल मेखलानां ले चिन्ह जेणीने ), पुत्रवाली (नंदन वन । युक्त), अने देवताए जोगववा माटे करी २ वा जेणीउनी एवी ( देवताए । रहेवा माटे श्ला करेली ), विलासवाली स्त्री जाणे अनेक रूपवाली मेरुपर्वतनी पृथ्वी ज होयनी ! एवी शोने जे. ॥ १६ ॥
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॥११॥
००००००००००००ककककककककककककककककककककक
जे राजगृह नगरने विषे को जड़ हृदयवालो माणस न होवा। जडाशय ( जा लाशय) ए शब्द फक्त तलावने विषे ज प्रसिद्ध हतो भने कोइ खल माणस न होवाथी बीजिह्व ( वे जीजवालो) ए शब्द फक्त सर्पने विषे ज प्रसिक हतो. वली कोई असत्य बोलनार माणस न होवाथी खल ए शब्द तेल वेचनार घांचीना घरने ।
जलाशयाख्या सरसि प्रसिधा, विजिह्वशब्दो नुजगेषु यत्र ॥ फलोक्तिरेवोकसि तैलकस्य, कीनाशवाची यम एंव नान्यः॥१७॥ यस्मिन् सदानाः किल दंतिनोऽपि, कथं न वास्तव्यजना भवेयुः॥
सरांस्यपि स्युः कमलाकराणि, कथं न तन्मानवमंदिराणि ॥२७॥ विषे (कोई चीजने-खोलने) ज लागु पडतो हतो. तेम ज कोइ हिंसक माणस न होवाथी कीनाश ए शब्दथी यम ज कहेवातो हतो. अर्थात् राजगृह नगरने विषे|| ॥११॥ जड, खल, असत्यवाची अने हिंसक एमानुं कोइ नहोतुं. ॥ १७ ॥ जे राजगृह ।। नगरने विषे इस्ति पण दानवाला (मद करता) दे, तो पनी रहेनारा लोको |
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| दान आपनारा केम न होय ? वली तलावो पण कमलाकरो ( कमलनुं उत्पत्ति स्थान ) बे, तो पी मनुष्यनां मंदिरो कमलाकरो ( लक्षीना जंकार रूप ) केम न होय ? अर्थात् राजगृह नगरमां मद करता हस्ति, उदार माणसो, कमल युक्त तलावो अने संपत्ति युक्त लोकोनां गृहो हतां ॥ १८ ॥ जे राजगृह नगरने विषे वाव्यो पण सुपयोधरा ( श्रेष्ठ जलने धारण करनारी ) वे, तो पठी स्त्रीजना समूहो सुपयोधरा
वाप्योऽपि यस्मिन् सुपयोधराः स्युः, कथं पुनर्ने प्रमदासमूहाः ॥ "निस्वा लॅनंते प मैंले वैरेच्छाहारान् पुर्ननों कैंयमिन्यदाराः ॥ १ ॥
( श्रेष्ठ स्तनने धारण करनारा ) केम न होय ? अर्थात् वाव्यो श्रेष्ठ जलने धारण | करनारी ने स्त्री श्रेष्ठ स्तनोने धारण करनारी बे. तेम ज निर्डव्य ( जीखारी लोको ) पण पोताना गलाने विषे वरेछाहारान् ( श्रेष्ठ इति आहारोने) पामे बे, तो पढी धनवंत पुरुषोनी स्त्री वरेछाहारान् ( श्रेष्ठ इति मुक्ताफलना श्रने | रत्न विगेरेना हारोने) केम पामे ? अर्थात् जीखारी पोताना गलाने विषे
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॥१२॥
) ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
शछित श्राहारने पामे वे अने धनवंत पुरुषोनी स्त्री श्रेष्ठ मुक्ताफल तथा सर्गरलो. रत्नोना हारोने पामे . ॥ १५ ॥ जे राजगृह नगरने विषे सुमन ( पुष्पो अने श्रेष्ठ मन) ना प्रफुटितपणाए करीने बगीचा तथा मुनि, ए बन्ने जणा सरखापणुं पामे दे. अर्थात् राजगृह नगरना बगीचार्ड पुष्पे करीने अने मुनि श्रेष्ठ मने
आरामनूम्यो मुनयोऽपि यस्मिन्, साम्यं लनंते सुमनोविकाशैः॥ गुणहंति सैंधर्मगुणं सहैव, योधैरैपूर्विकयैव देवाः॥२०॥ आनानिविश्रांतविशालकूर्चाः, सुतुंदिला ढौकितरत्नपात्राः॥
टोपविष्टा वणिजो "विनांति, लानाशया विघ्नहरा इवांत्र ॥२२॥ करीने हम्मेशां प्रफुल्लित होवाथी ते बन्ने समान देखाय . वली चतुर पुरुषो योका उनी साथे 'हुँ पहेलो हुँ पहेलो' एवा वादथी श्रेष्ठ धर्म रूप गुणने (धनुष्यनी दो | ॥१५॥ रीने) ग्रहण करे बे. अर्थात् योझा धनुर्धारी अने चतुर पुरुषो सदाचारी . ॥२॥श्रा all राजगृह नगरने विषे, नाजी पर्यंत विश्रांति पाम्या ने विशाल स्मश्रु (दाढी मूड) जेमना, ||
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श्रेष्ठ म्होटा उदरवासा, वसी श्रासपास मूकी दीवां जे रत्ननां पात्रो जेमणे एवा, all तथा उकानो उपर बेठेला व्यापारी लालनी आशाए करीने जाणे साक्षात् गणपति । पोतेज वेग होयनी ! एवा शोने .॥१॥जे राजगृह नगरना चित्रकारोए कलावडे | करीने जीतेलो श्रने एज कारणथी अत्यंत श्राश्चर्य पामेलो ब्रह्मा, श्राज सुधी पण श्रेष्ठ रूपना लोनयी रूपोने वारंवार वनावी बनावीने जागी नांखे . एम ९ मार्नु
"निर्मायनिर्माय पुनर्विधाता, मैनक्ति रूपाणि सुरूपलोनात् ॥ । अद्यापि यच्चित्रकरैः कैलानिर्जितोपि मन्येऽतिविलयरूपः ॥२२॥ गंधर्वगर्वेण विजेतुकामा, गंधर्वगर्व नगरस्य यस्य ॥
सरस्वती तत्समताप्तिदेतो द्यापि 'वीणां करतो जैदाति ॥२३॥ हुँ ! अर्थात् राजगृह नगरना चित्रकारो (चितारा) एवां श्रेष्ठ रूपो चितरे ने के, जे रूपो जोस्ने पराजव पामेलो ब्रह्मा पण तेवां रूपो बनाववाना लोनथी प्राणीउने । सृजवा रूप चित्रोने वारंवार बनावतो तो (चित्रकारोनां चित्रो जेवां रूपो न बन | वाथी), पाठां जागी नांखे बे. ॥१२॥ जे राजगृह नगरना गंधर्व लोकोना गर्वने,
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गंधर्व खरना गर्वे करीने जीतवानी श्छा करनारी सरस्वती देवी तेमनुं समानपणुं पासर्गरलो. मवाने आज सुधी पण पोताना हाथमांथी वीणाने मूकती नथी. अर्थात् राजगृह न गरमा रहेनारा गंधर्व लोको गायनकलामां बहु ज प्रवीण . ॥ ३ ॥ जे राजगृह न गरने विषे नटुवाए नाट्यरसे करीने जीतेलो, क्रोधथी काढी मूकेलो, जस्मने धारण करनारो अने त्रण नेत्रवालो एवो नटुवानो अधिपति शंकर (महादेव ) पण स्मशा ||
'निष्कासितो नस्मनृतो विरूपादोऽपि प्रेकोपेन नटेश्वरोऽपि॥ नेटैर्जितो नाट्यरसेन यत्र, स्मशानवासी "गिरिशो बनूव ॥२४॥ स्वेदांबुधाराकलिता मृदंगधोंकारकारा जिनमंदिरेषु॥
मार्दगिका यत्र नेजति वीस, सदैव मेघा इंच 'दिव्यदेहाः॥२५॥ नवासी थयो. अर्थात् था नगरना नटुवा पण पोताना काममां श्रतिशे निपुण ॥४॥ जे राजगृह नगरने विषे परसेवानी धाराए करीने जीजाइ गएला अने मृदंगना ॥ १३ ॥ धोकार शब्दो करनारा, तेम ज मेघना सरखा दिव्य देहवाला (मनोहर स्वरूप वाला) मृदंगी, जिनमंदिरने विषे निरंतर निवास करे डे. अर्थात् राजगृह नग
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रना जिनमंदिरोने विषे हम्मेशां गायन श्रने नृत्य विगेरे उत्सवो थाय ने. ॥२५॥ al हवे राजगृह नगरमां राजा कोण हतो? ते कहे . ते राजगृह नगरने विषे रूडा |
आचरणथी सुशोजित (गोल श्राकारथी सुशोजित), पृथ्वीमा प्रथम हर्षने उत्पन्न करनार (कुमुदोने प्रफुटित करनार ), नक्षत्रमाला (एक जातना श्रलंकार) ने धारण करनार ( नक्षत्रना समूहे करीने युक्त), पुरुषोनी बहोतेर कलानो जाण (कलावा
संवृत्तशाली कुमुदाद्यकर्ता, नदत्रमालाकलितः कैलावान् ॥ सदा जनश्रेणिहितः सुतेजाः, श्रीश्रेणिकस्तत्र बैनूव राजा॥२६॥ "विराजते यस्य केपाणपहिकांतःस्थिता पुष्करराजि रुच्चैः॥
पैराजितानां समरे नृपाणां, प्रशस्तिवर्णावलिरॉहितेव ॥॥ लो), निरंतर मनुष्योनो हितकारी अने श्रेष्ठ तेजवालो (चं समान) श्रेणिक राजा : राज्य करतो हतो. ॥ २६ ॥ हवे त्रण काव्ये करीने श्रेणिक राजानुं वर्णन करे ले. जे | श्रेणिक राजानी तरवारना मध्यनागने विषे वर्तती एवी कमलोनी पंक्ति, जाणे युद्धमा पराजय पामेला राजाए स्थापन करेली स्तुतिना अकरोनी पंक्ति ज होयनी ! एम
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अत्यंत शोने .अर्थात् श्रा राजा समशेर बहादुर हतो. ॥ २७॥ कवि उत्प्रेक्षा करे |सर्गरलो.
डे के, जे श्रेणिक राजाना यशना समूहे उज्वल करेला, सर्व विश्वमां (ते उज्व। ॥२४॥ लपणानी अंदर) अदृश्यपणाने पामेलो एवो पोतानो पति जे शंकर, (तेने) पार्व
तीए पोताना देहनी साथे जोडी दीधो , एम टुं मानु ढुं. अर्थात् उज्वल एवा शंकर, श्रेणिक राजाना उज्वल यशमां अंतान् थर जवाथी पार्वतीए तेमने पोताना /
शुक्लीकृते यस्य यशोनरेण, विश्वे समस्ते गिरिराजपुत्र्या ॥ अलयनावं दधदात्मन", स्युतः स्वदेदेन सैदेति मन्ये ॥२॥ तेजूपलावण्यजलं पिबत्यो, 'देवांगना नेत्रपुटैः सदैव ॥
'विस्फारितादयो हेदि बैंधागा,प्रौप्ताः समस्ता अनिमेषनावम् ॥el देहमा जोडी दीधा . एज हेतुथी शंकर अने पार्वती साथे रहेला . ॥ २७ ॥ पहो l ला नेत्रवाली अर्थात् पोतानां नेत्र बरोबर उघाडीने जोनारी, निरंतर नेत्र रूप पडि ॥ १४ ॥
याए करीने श्रेणिक राजाना रूपना मनोहरपणा रूप जलनुं पान करती अर्थात् श्रे माणिक राजाना रूपने जोती एवी सर्व देवांगनाउँ, पोताना हृदयमां प्रीति धारण करी |
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नेत्रना चलनवलना खजावने पामी बे. चक्षुने बंध करती नथी. मतलब के, श्रेणिक राजा देवताथी पण श्रेष्ठ रूपवालो हतो. ॥ २०५ ॥ हवे एक काव्ये करी श्रेणिक राजानी | स्त्री सुनंदानुं वर्णन करे बे. लावण्य रूप जले करीने पूर्ण जाणे नर्मदा नदी ज होयनी ! | एवी पोताना दर्शने करीने लोकोने पवित्र करनारी, सारी चालवाली (समुद्रने विषे बेग मन जेणीनुं ) अने निरंतर प्रसन्न एवी ए श्रेणिक राजानी सुनंदा नामनी स्त्री हती. ॥३०॥
पैत्नी सुनंदनवर्देस्य रोझो, 'रेवैव 'लावण्यजलैः प्रपूर्णा ॥ पावित्र्यकत्री 'निजदर्शनेन, समुश्याना सततं प्रसन्ना ॥ ३० ॥ तदंगजोऽनूर्दयानिधानो मंत्रिप्रधानो धिषणानिधानम्॥
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यैगुन्ग्विसाम्याय गुरुः कॅविज्ञऽप्ययपि मुंचति नैं " लेखशालाम्॥ ३१ Maratia तेणीना पुत्र अजयकुमारनुं वर्णन करे बे. मंत्री मां श्रेष्ठ अने बुद्धिनो नंमार एवो अजयकुमार नामनो ते सुनंदाने पुत्र हतो. जे अजयकुमारनी स मान बुद्धि पामवा माटे गुरु, शुक्र ने बुध श्राज सुधी पण लखवानी शालाने (देव) तार्जुनी शालाने) मूकता नथी. अर्थात् अजयकुमार गुरु, शुक्र अने बुधधी पण अधिक
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सुलसा०
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बुद्धिवालो इतो. ॥ ३१ ॥ दवे नव काव्ये करीने नागसारथीनुं वर्णन करे बे. वली ते सर्ग १लो. राजगृह नगरने विषे प्रसिद्ध ने धनवंत एवो नाग नामनो सारथी रहेतो हतो. जेना गुणोथी (सूत्रथी ) ब्रह्माए बनावेला वस्त्रे करीने ( श्राकाशे करीने ) श्रा सर्व जगत्ने ढांकी दीधुं छे. अर्थात् ते नगरमां श्राकाशना सरखो अपार गुणवालो धनवंत छाने प्रसिद्ध एवो नाग नामनो सारथी रहेतो हतो. ॥ ३२ ॥ निरंतर जेनो अभिप्राय तथा च तत्रैव पुरे प्रेसिको, नागानिधोनू थिकः समृधः ॥ गुणैर्यदीयैर्विदितेन धौत्रा, "विश्व समाच्चादितमंबरे ॥ ३२ ॥ गांजो निधिनानिमुख्ये प्वारोप्यते स्थानकसन्निनेषु ॥ प्राकृष्य येस्माÝरुक्कूपकल्पादलब्धमध्यात्कं विनिः सदैव ॥ ३३ ॥ जाणी शकातो नथी, माटे ज म्होटा कूवाना जेवा ( ठंडा ) जे नागसारथी थकी गं जीरपणुं खेंचीने काव्य करनारा लोको केटलाक गुणे करीने समान एवा समुद्रनी नाजी ( डुंटी) विगेरे पदार्थोंने विषे आरोपण करे बे. अर्थात् ते नागसारथी समुद्र विगेरेथी पण अधिक गंजीर दतो. ॥ ३३ ॥
॥ १५ ॥
॥ १५ ॥
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'श्रा नागसारथी सारा जाग्ये करीने सर्वमा मुख्य थशे' ए प्रकारे पोताना कपालमां विधात्राए लखेला अक्षरोने स्पष्ट करवाने माटे ज जे नागसारथी जिने | इश्वर जगवाननी पूजाने वखते हम्मेशां पोताना कपालमां चंदननो चांदलो करतो हतो. अर्थात् ते नागसारथी सर्वोत्तम एवा जैनधर्मनो अंगीकार करी जिनेश्वर न
सौनाग्यनाग्यैरयमेकधुर्यो, नावति वाल्लिखिताल्ललाटे॥ स्पष्टान्"विधातुं"किल चांदनं यश्चित्रं "जिनार्चासमये चकार ॥३॥ नूनं मुखं यस्य सुधैककुंझ, नो चेत्कथं स्याद॑मृतोपमा वाक् ॥
यत्कूर्चकेशाः परितो "विनाति, वैदिःस्वंत्योन्वतहटाः "किं ॥३॥al गवाननी हम्मेशां पूजा करतो हतो. ॥ ३४ ॥ निश्चे जे नागसारथीन मुख अमृतना || कुंम सरखु बे. कारण के, जो एम न होय तो तेनी अमृतना सरखी वाणी क्याथी होय ? वली मुख रूप अमृतकुंमनी थासपास रहेला दाढी मूबना केश, जाणे ते कुं मथी व्हार नीकलता एवा अमृतना बांटा ज होयनी ! एम शोजता हता. ॥ ३५ ॥
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२६॥
सुखसा० 'श्रा जगत्ने विषे था दरिडि थशे' एवी मनुष्योना कपालमां विधात्राए लखे सरलो.
साली अक्षरोनी पंक्तिने, जे नागसारथीनो हस्त, सुवर्णना दाने करीने सत्य करी नाखतो हतो. श्रा काव्यमा कवि नागसारथीना उदारपणानी स्तुति करे ले के, जे महा उदार एवो नागसारथी घणुं अव्य आपीने अनेक दरिजिना दारिद्यने
नावी देरिशेऽयमितीद लोके, ललाटपट्टे लिखितां जनानाम् ॥ सुवर्णदानेन करो येदीयो, व्यधाःसत्यां"विधिवर्णमालाम् ॥ ३६॥ कैथं "विशालं ने यदीयवदः, सर्वांगलक्ष्मीविदिताधिवासम् ॥
'त्रैलोक्यनाथः स्म वसत्यजस्रं, जिनेश्वरो यत्र परिबदाढ्यः॥३४॥ दूर करतो हतो. ॥ ३६ ॥ सर्व अंगनी लक्ष्मीए कस्यो ने निवास जेने विषे एवं नाग. सारथीनुं वक्षस्थल (हृदय) शुं कां विशाल नहोतुं ? अर्थात् घणुं ज विशाल हतुं. मादेज जे नागसारथीना हृदयने विषे पोताना गणधरादिक परिवार सहित त्रा लोकना नाथ एवा श्री जिनेश्वर भगवान् निरंतर निवास करता हता. ॥ ३ ॥
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ज्ञान, दर्शन श्रने चारित्र रूप त्रण रत्नोथी सुशोजित मूर्तिवालो अने निरंतर शरीरनी अंदर तथा ब्हार त्रण त्रण व विश्राउथी व्याप्त एवो नागसारथी, ऊर्ध्वलोक Ma( देवलोक )मा रहेला दौ{दिक देवनी पेठे था मनुष्य लोकमां पोतानी श्छा प्रमाणे अनेक जोगोने जोगवतो हतो. ॥ ३० ॥ म्होटा पर्वतोना शिखर उपरथी वहेता जग
रत्नत्रयालंकृतमूर्तिरतबदिस्त्रिवेट्याकलितः सदैव ॥ 'लुंक्ते स्म भोगान् "निजवांब्या यो, दौरांदिको "देव"वो ईलोके ३७
यस्मात् प्रैसत्ता उपकारवाराः, सदैव चित्तातिहरा नराणाम् ॥
नदीप्रवाहा व 'विश्वतृष्णाविदो महानूधरमूईदेशात् ॥३॥ नी तृषाने दूर करनारा नदीना प्रवाहो सरखा, जे नागसारथी थकी मनुष्योना चि त्तिमां थती एवी पीडाने हरण करनारा उपकारना समूहो निरंतर प्रवर्तता हता. अर्थात् |
नागसारथी मनुष्यो उपर उपकारने करतो बतो तेमना चित्तना उखने हरण करतो हतो. ॥ ३ ॥
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सुलसा०
॥ १७ ॥
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नागदमनी औषधीनी पेठे परस्त्रीने जोइने पोतानुं मुख नीचुं करनारो तथा तत्काल पोताना नेत्रोने मींचनारो अने देवादिकना जेवा उत्तम जोगोथी सुशोजित ( म्होटा देड्थी सुशोजित ) ते नागसारथी खरेखर नाग केम न होय ? अर्थात् तेनुं 'नाग' ए नाम यथार्थ ज हतुं ॥ ४० ॥ हवे चार काव्ये करीने नागसारथीनी प्रिया सुलसाना
हॅट्वा परस्त्रीं फेणनृद्दमन्यौषधी मिवोर्वाच्खतां दधानः ॥
'निमीलिताक्षः सहसा कैथं सः, सैत्यं नैं नागो वेरनोगशाली ॥४०॥ र्तस्य "प्रिया जंगमगेदनीति, संदर्शिताने कविवेकरीतिः ॥
धर्मकर्मानेला कुलीना, बैभूव नाम्ना सुलसा सुशीला ॥ ४१ ॥ गुणोनुं वर्णन करे ठे. ते नागसारथीने जाणे देह धारण करीने चालनारी गृहनी नी ति ज होयनी ! एवी तेम ज लोकोने अनेक प्रकारना विवेकनी रीति देखाडनारी, | सऊर्म रूप कर्मवाली, थालस रहित, कुलीन अने श्रेष्ठ शीलवाली सुलसा नामनी स्त्री हती. ॥ ४१ ॥
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सर्ग१लो.
॥ १५ ॥
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सम्यक्त्व रूप रत्ने करीने सुशोभित ने श्रात्मा जेणीनो,मोदने विषे उत्साहवाली || |चित्तनी वृत्ति जेणीनी,तेमज देवताउए पण जैनधर्मथी न चलावी शकाय एवी श्रने चोवीशमा तीर्थंकर श्री महावीर प्रजुनी नक्त एवी सुलसा हती. ॥ ४५ ॥ वली ते
सम्यक्त्वरत्नेन विनूषितात्मा, मोहे समुत्कंग्तिचित्तरत्तिः॥ चाल्या न देवैरपि जैनधर्मात्, श्रीवीरतीर्थकरदेवनक्ता ॥४२॥ सुसाधुसाध्वीगुरुनक्तियुक्ता, श्रीजैनसिक्षांतविचारसक्ता ॥ साधर्मिकोचैःप्रतिपत्तिहृष्टा, सर्वांगसंपूर्णगुणैरिष्ठा॥४३॥ पतिव्रतालोकशिरोवतंसा, 'जिनेश्वरेणापि कृतप्रशंसा॥
सुरूपलावण्यसुधानिधानं, सर्वोपमाव्यकृतापमाना॥४४॥ सुलसा उत्तम एवा साधु, साध्वी श्रने गुरुने विषे शक्तिवाली, तेम ज श्री जैनसिझांतना विचारने विषे थासक्त, समान धर्मवाला लोकोनी श्रेष्ठ चक्तिने विषे हर्षवाली श्रने । सर्व अंगना संपूर्ण गुणोए करीने गौरववाली हती. ॥४३॥ वली ते सुलसा पतिव्रताना
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सुखसा०
॥२७॥
समूहने विषे माथाना मुकुट समान, जिनेश्वर जगवाने पण कस्यां डे वखाण जेणीनां सर्गरलो. एवी, तेम जश्रेष्ठ रूप अने लावण्य रूप अमृतना नंमार समान तथा सघला उपमा थ। पाय एवा (चंडादिक) अव्यनुं करघु ने अपमान जेणीए एवी अर्थात् कोश्नी उपमा । श्रापी शकाय नहीं एवी इती. ॥ ४ ॥ हवे उंगणीश काव्ये करीने सुलसाना अंगर्नु । वर्णन करे जे. सेंथा रूप देने करीने सुशोजित श्रने म्होटा चामरना सरखा सरल जे.
सीमंतदंमेन विराजमानो, यत्केशपाशो गुरुचामरर्जुः ॥ "विचित्रपुष्पानरणप्रनानिंश्चकार पिचं शिखिनः कलापम् ॥४५॥ "निर्णीयते जंगमराजधानी, या कामराजस्य चकास्ति यस्याम्॥
नासैकवंशं "तिलकाग्रकुंनं, धूमल्लरीवत्रनिनं ललाटम् ॥४६॥ सुलसाना केशपाशे, विचित्र पुष्पोनी तथा श्राजरणोनी कांतिए करीने मोरना पींबाना || समूहने एक पींग सरखो कस्यो हतो. अर्थात् तुछ कस्यो हतो. ॥ ४५ ॥ जे सुलसा, SIL
॥२७॥ कामदेव रूप राजानी जंगम राजधानी निर्णय कराय बे. जेने विषे नासिका रूप दंग । वाजु, तिलक (चांला) रूप अग्रकुंजवालु, नृकुटी रूप कालर वडे युक्त एवा उत्रना स /
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रखी कांतिवालु ललाट (कपाल) शोने जे. ॥ ४६ ॥ कमलोए करीने सुशोजित एवा जे || सुलसाना वन्ने कर्णोए (पोताने विषे लटकता एवा कमलोए करीने) श्रासो मा || सना हिंमोलाने ( तेउनी शोना धारण करवाथी) तुछ कस्या, तेथी ते हिंमोलाए । म्होटी लजाथी लोक प्रसिद्ध वनोमां वृक्षोनी शाखाउँने बिषे निश्चे पोतानुं बंधन
यस्याः श्रुतिभ्यां कमलार्चितान्यां, लघूकता आश्विनमासदोलाः॥ ता लङयोच्चैः किल टैदशाखासु'बंधनान्येपु वनेषु चक्रुः॥४॥ यन्नेत्रशोनानिनवा कुरंगी, करोति कामं वनवाससेवाम्॥ नीलोत्पलं कालमुखं त्ववाप्य, जैडानिघातान् सहतेधुनीपि ॥ Hamal यन्नासिकायाः समताप्तिदेतोः, 'तिलस्य पुष्पं नितरां विहस्य ।
पतङनानामिति बैंक्ति योऽत्रावान् महानिः पतनं हि तस्य॥४॥ कघू. ॥ ४७ ॥ जे सुलसाना नेत्रनी शोनाथी परानव पामेली मृगली, अत्यंत वनवास नी सेवा करे बे. अर्थात् वनमांज रहे . तेम ज नीलोत्पल कमलो पण काला मुख ने पामीने हमणां पण जड(जल)ना ताडनने सहन करे .॥४०॥ जे सुलसानी ना
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सुलसा
॥१
॥
सिकानुं समानपणुं पामवाना हेतुथी, तिलनुं पुष्प अत्यंत हसीने ( विकस्वर थश्ने )सर्गरलो. पडतुंरतुं माणसोने एम कहे जे के, जे पुरुषो था लोकमां म्होटाउँनी साथे ावाला थाय , तेनुं निश्चे पडवापणुं थाय बे. अर्थात् सुलसानी नासिका, तिलना पुष्पथी पण घणी ज रमणीय हती. ॥ ४ ॥ जे था लोकने विषे नेत्रोदकना (आंसुना) स्पर्श
यो बाप्पसंपर्कवशापीह, मालिन्यनारं नजते हणेन ॥ तस्याः कपोलो "किमु दर्पणेन, तेनोपमामो "विमलौ सदीपि॥ काठिन्यदोष पैंजतीद लोके, यविजुमो "बिंबमकांतिमचें ॥
'केनोपमामोऽधरमेतदीयं, कात्या कैलं कोमलमिइरागम् ॥ २१॥ थी ज क्षणमात्रमा मलिन थई जाय , ते दर्पण साथे सुलसाना निरंतर निर्मल रहे। नारा एवा कपोल(लमणा)नी शुं उपमा थापीए? अर्थात् सुलसाना निरंतर निर्मल || २ ॥ रहेनारा एवा लमणानी साथे नेत्रोदकधी क्षण मात्रमा मलीन थई जनारा दर्पणनी उपमा थापी शकाती नथी. ॥५०॥श्रा लोकने विष कांतिए करीने सुंदर,कोमल श्रने
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अत्यंत रक्त एवा सुखसाना होने कोनी साथे उपमा श्रापीए ? कारण के, प्रवाला कांतिवालां वे परंतु कठीण बे. वली विवफल २ ते (कोमल उतां) कांति रहित . तेथी तेनी पण उपमा श्रापी शकाती नथी. अर्थात् सुलसाना होठ कोई वस्तुनी || उपमा श्रापी शकाय तेवा नथी. ॥५१॥ निश्चे कलंक रहित, गोलाकार अने | निरंतर उज्वल एवं सुलसानुं मुख, हरणना कलंकवाला, निरंतर (पदार्डमां )गो.
मुखं यदीयं 'किल निष्कलंकममुक्ततत्तं च सदोज्ज्वलं च ।। कलंकिना टैत्तमुचा "दिवापनासा कथं चंडमसा समं स्यात् ॥५॥ " नितिः कंबरिव विजिह्वो, रेखात्रयालंकृतचारुनासा॥
कंठेन यस्या मधुरस्वरेण, वैक्रोंतेराँसी हिज्ज्वलोऽपि ॥५३॥ लाकार रहित श्रने दिवसने विषे कांति रहित चंजना सरखं केम होय ? अर्थात् सो || त्तम एवा सुखसाना मुखने चंनी उपमा घटती नथी. ॥ ५५ ॥ जे सुलसाना त्रख रेखाथी सुशोजित, मनोहर कांतिवाला अने मधुर स्वरवाला कंठे तिरस्कार करेलो शंख, खल पुरुषनी पेठे ब्हार उज्वल उतां पण अंदर वांको थयो . ॥ ५३ ॥
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सुलसा०
॥ २० ॥
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पोताना रंगे करीने जेणे पद्मराग मणिनो तिरस्कार कस्यो बे, एवा जे सुलसाना हा यनी साथे अत्यंत हरिफाई करतुं एवं रातुं कमल, चारे तरफथी रज (धूल) पाम्युं. एज कारणथी रातुं कमल जलाशय (तलाव) ने विषे वास पामे ठे. एम श्रमे जाणीए बीए | अर्थात् पद्मराग मणि ने रातुं कमल ए बन्नेथी पण सुलसाना हाथनो रंग सारो हतो. रागेण निर्भसितपद्मरागयत्पाणिना रूप ईयमानमुच्चैः ॥ रक्तोत्पलं प्राप रेंजः समंतालाशये वासमुपैति विद्मः ॥ ५४ ॥ बद सरल स्वभावात्, पैयोजनालस्य तुलां नेताम् ॥ तौ दास्यतः 'कॅटकिनोपमां ने नीतावनेनातिमृदू परंतु ॥ ५५ ॥ यस्या घनापीनपयोधराज्यां, वृत्तत्ववादे विजितो घटोऽपि ॥ पानीयमद्यापि वैदर्त्यजस्त्रं, धेत्ते प्रकोपेन तैथरुणत्वम् ॥ ५६ ॥
॥ ५४ ॥ ते सुलसाना हाथ पोताना सरलपणाथी कमलना नालनी उपमाने पामे, परंतु अत्यंत कोमल सुलसाना हाथ 'श्रमने घणुं दान श्रपशे' ए कारणथी ज विद्वान् | पुरुषोए कंटक युक्त एवा कमलनालनी साथे उपमाने पमाड्या नथी. ॥५९॥ जे सुलसाना |
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सर्गश्लो.
॥ २० ॥
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कठीन अने घणा पुष्ट एवा स्तनोए गोलाकारना वादमा “श्रर्थात् श्रमे गोल बीए "Mel एवा परस्पर थएला वादमा जीताएलो एवो घडो पण आज सुधी निरंतर पाणीने वहे । बे श्रने क्रोधथी रक्तपणुं धारण करे . मतलव के, सुलसाना स्तनो गोल घडा सरखा पुष्ट अने कठीण होवाथी घडाउने ईर्ष्या उत्पन्न थर, तेथी ते पोताने अपमान थयेjal जाणीने पाणी जरवा लाग्या श्रने क्रोधथी रक्तपणुं पण धारण करवा लाग्या. ॥ ५६ ॥18
मृगेज्वेदीकुलिशोदराणि, कृशत्ववादेन विनिर्जितानि॥ मध्येन यस्यास्त्रिवलिबलेन, रेखात्रयं "निर्मितमंत्र तेन ॥५॥ महत्वशालीन्यपि सर्वकालं, बेत्राणि यस्या सुलघूनि नांति ॥
नितंबबिंबे गुरुतां देधाने, कामाकरेऽलं फैलकानि "वापि ॥५॥ M जे सुलसाना मध्यस्थले (कटिनागे) पातलापणाना वादे करीने सिंह, वेदिका
श्रने वजना मध्यनागने जीत्यां डे. ते ज कारणथी तेणीना मध्यनागमां (पेट उपर |
पडता एवा) वलियाना मिषे करीने त्रण रेखा उत्पन्न थश्हती. ॥५॥ जे सुलसानो Mकामोत्पति स्थान कटिपश्चात् जाग म्होटो थयो बतां निरंतर विशालताथी शोजनारां
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सुलसा एवाय पण उत्रो, तेम ज म्होटी ढालो ए बन्ने अत्यंत न्हानां लागतां हतां ॥ ५ ॥सर्गरलो.
8 जे सुलसाना जघने (पेटनी नीचे रहेला नागे) अत्यंत पुष्टपणाथी रूडा किनारावाली ॥१॥नदीने जीतीने तेउना जलने उतारी नांख्यु. ए ज कारणथी ते नदीना कांग निरं
तर जलनी पासेज शोलता होयनी! शु.॥एए॥ जेणीना साथलना नयथी केल पण
'वैपुल्यतोऽस्या जघनेन कामं, पानीयमुत्तारितमाविजित्य ॥ सत्सैकतानां सरितार्नु "तेनोपनीरमेतानि सैंदा "विनाति ॥५॥ रंनाप्यसारांतरनूभयेन, शून्यांतरो नागकरोऽपि जातः॥
यंदूरुशोनानिहताविमौ हौ,"के तापशांत्य "पिवतोऽधुनापि ॥६॥ अंदर सार रहित अर्थात् थडमां काष्टना कठीण नाग विनानी थई. तेमज हस्तिनी सूंड पण अंदर पोली थश्. ए प्रकारे जेणीना साथलनी शोजाथी पराजव पामेलां केल
॥ १॥ श्रने हस्तिनी सूंढ ए बन्ने पोताने थएला परानवना तापनी शांतिने माटे हमणां पण पाणीने पीए डे.॥ ६०॥
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जे सुलसानी गतिए जीतेला ने फांकरनी घूघरीजना शब्दोए तिरस्कार करेला पांखोवाला एवा य पण हंसो, श्रने मदवाला एवा य पण हस्ति अत्यंत लजा पामता बता वनमा जता रह्या. अर्थात् हंसो श्रने हस्ति सुलसानी गतिथी सजा पामीने जा वनमा जता रह्या . एम कवि उत्प्रेक्षा करे .॥६१॥ था लोकमां जे निरंतर जड |
दंसाः संपदा अपि लेऊमाना, अपि प्रकामं समदा गजाच॥ यदीयगत्या विजिता वैनान्यगुस्तर्किता नपुरसंजितेन ॥६॥ वसंति नित्यं जडसंनिधाने, यान्यास्पदं स्युर्मधुपावलीनाम्॥ कथं भेजेतामुपमानमस्याः, कमावमीषामिह "पंकजानाम् ॥६॥ सर्वोपमावस्तुवशंकराणामादाय 'निःशेषविशेषलक्ष्मीः॥
धात्रा कूता नूनमियं तु तेन, निःसाररूपा"इह ते "विनाति ॥ ६३ ॥ (जल)नी पासे वसे जे अने जे जमरनी पंक्तिना स्थान रूप .ए कमलोनी उपमा श्रा सुलसाना बे चरणो केम पामे ? अर्थात् जड पदार्थने विषे रहेलां श्रने जमरोथी कलं कित थएलां कमलोनी उपमा सुखसाना चरणने घटती नथी. ॥ ६ ॥ विधात्रा(ब्रह्मा)
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सुखसाए सर्वे उपमा अपाय एवी श्रेष्ठ वस्तुउँना समूहनी समग्र विशेष लक्ष्मीउने ग्रहण करीने सर्गरलो.
शनिश्चे था सुलसा बनावी . ए ज कारणथी थहिं ते सर्व वस्तु सार रहित देखाय |
.॥ ६३ ॥ हवे चार काव्ये करीने नागसारथीना अने सुलसाना प्रेमनुं वर्णन करे . ते सुलसा सती निरंतर पोताना सुंदर पति नागसारथीना प्रेमनुं मुख्य स्थानक यश
'प्रेमैकपात्रं सुंनगप्रियस्य, सदैव जाता सुलसा सती सा॥ स्त्रीरूपवल्लीफलमेतदेव, येवल्लनत्वं "निजवल्लनस्य ॥६॥ परस्परं स्नेदगुणावन-झौ, तो दंपती नाग्यदशासम्रौ ॥
धर्मानुरक्तौ शुननावयुक्तौ, नृशं सुखैर्लंघयतः स्म कालम् ॥६५॥ हती. स्त्री रूपी वेलन फल ए जने के, जे पोताना प्यारा पतिने व्हालपणुं उपजावे.
६४॥ परस्पर स्नेह रूप गुणे (दोरडाए) करीने बंधाएला, जाग्यदशाथी समृद्धि वाला, धर्मने विषे अनुरक्त अने शुजनाववडे युक्त एवा ते दंपती (नागसारथी श्रने ||॥॥ सुलसा ए बन्ने जणां) ए सुखे करीने घणो काल निर्गमन कस्यो. ॥ ६५ ॥
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परस्पर पुःख सुखने विषे अर्थात् सुख पुःखने सहन करवा माटे जूदां जूदां श्रे गने धारण करनारा उतां पण मने करीने निरंतर एकपणाने पामेला ते नागसारथी अने सुलसानी पगले पगले वृद्धि पामती एवी प्रीति, निश्चे नख अने मांसनी उपमा
(वसंततिलका वृत्तम्) अन्योन्यजुःखसुखयोः हथगंगनाजोरप्यकतां गतवतोर्मनसा सदैव ॥ प्रीतिस्तयोः अंतिपदं परिवईमाना, नूनं बनूव नैखमांससमोपमाना॥६६॥
(शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ). तुल्यानंदविषादयोः प्रतिदिनं तुल्यश्रियोरेतयोः, दंपत्योः समसर्वङःखसुखयोर्लावएयलीलानृतोः॥ वाली थर हती. अर्थात् ते नख अने मांसनी पेठे परस्पर गाढ अनुरक्त हता. ॥६६॥
निरंतर समान वे श्रानंद अने खेद जेमने, सरखां ने सुख श्रने कुःख जेमने, त. था तुख्य कांतिवालां अने लावण्य लीलाने धारण करनारां, तेम ज नेत्रनी पेठे साथे ज निशा अने जागृती जेमने एवां ते दंपती(नागसारथी श्रने सुलसा) नो श्रेष्ठ
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सुलसा०
॥ २३ ॥
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| चाषपदीना बेय पांखोने विषे वर्तता पिठ ( पींडा ) नी पेठे बेय पक्षमा पूर्ण, अकृत्रिम सर्ग १लो.
७
साकं स्वापविनिश्ताकलितयोर्दृष्ट्यो विकृत्रिमं ॥
"प्रेमसी रचापपिचवलं पदध्ये "पेशलं ॥ ६७॥
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अने मनोहर स्नेह हतो. ॥ ६७ ॥
इयमिक श्री जयतिलकसूरिविरचिते सम्यक्त्वसंजवनाम्नि महाकाव्ये सुलसा चरिते दंपतिवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥
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॥ २३ ॥
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सर्ग जो. हवे पांच काव्ये करीने नागसारथीनी अपुत्रपणानी चिंतानुं निरूपण करे | हवे को वखते पूर्ण सुख उता पण नागसारथीना मन प्रत्ये सत्पुत्रनी चिंताए प्रवेश कस्यो. कारण के, था संसारने विषे रहेला सुखी माणसोने पण एके एकांत सुख न
(उपजाति वृत्तम्) अथान्यदा नागमनः प्रविष्टा, सत्पुत्रचिंता सुखसंगमेऽपि ॥ 'संसारवासे नै यतो जनानामेकांतसौख्यं सुखिनामैपीह ॥१॥ यावन्ने व्यं नवने प्रनतं, तावत्सचिंतस्तउपार्जनाय ॥
प्राप्तेऽपि तस्मिन् धनरवणायोपायैः सैंदा व्यग्रमना जैनोऽयं ॥२॥ थी. अर्थात् सुखने माटे चिंता होय ज. ॥१॥ कयुं के- मनुष्य ज्यां सुधी पोताना || घरने विषे पुष्कल अव्य नथी, त्यां सुधी तेने मेलववा माटे चिंतातुर रहे बे; पण ज्यारे । ते अव्य प्राप्त थयुं, तो पण ते मनुष्य ते अव्यनुं रक्षण करवाने माटे उपायथी निरंतर
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सुलसा
॥२४॥
थाकूल व्याकूल मनवालो रहे .॥॥श्रा लोकमां पुरुषने ज्यां सुधी लावण्ये करीसर्गजो. ने मनोहर एवी स्त्री नथी प्राप्त थर, त्यां सुधी ते स्त्री संबंधी पीडाये करीने ज ते पुरुष मृत्यु पामे ले. अर्थात् मरणांत फुःखथी पण स्त्रीने मेलववा माटे प्रयत्न करे ने अने| पोताने अनुकूल एवी मनोहर स्त्री प्राप्त यये बते पुत्र प्राप्तिनो मनोरथ तेने (ते पुरु षने )पीडा करे . एटले ज्यां सुधी पुरुषने स्त्री न होय, त्यां सुधी स्त्रीनी श्छा थाय बे,
यावन्नलावण्यकलं कलत्रं, प्राप्तं तदा म्रियतेऽत्र तावत् ॥ "प्राप्तेपि "चौते संकले कैलत्रे, पुत्राप्तिकामाः पुरुषं नोति ॥३ धनेश्वरोऽप्यप्तिकलत्रवांश्च, नूतपुत्रोऽपि जैनाश्रितोऽपि ॥
काष्टं घुणोधैरिव रोगशोकैर्नरः समर्थोऽप्यबली क्रियेत ॥४॥ पण स्त्री प्राप्त थया पढ़ी तुरत पुत्र प्राप्तिनी श्छा प्रगट थाय . ॥३॥ जेम काष्ठमां। उत्पन्न थयेला घुण जातिना कीडाथी ते काष्ठ निःसत्व थाय , तेम प्रव्य, स्वजन, BIMA स्त्री थने घणा पुत्रोवालो तेम ज मनुष्योये आश्रय करायेलो समर्थ पुरुष पण, रोग : अने शोके करीने निर्बल थाय . अर्थात् सर्व प्रकारनी सत्तावलो पुरुष पण रोग
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अने शोकथी पराजव पामे ले. ॥॥ ते वखते क्षणमात्रमा पुत्रनीचिंता रूप अग्निये करीने । जेना हृदयनो मध्य जाग बली गयो एवा अने तेथीज ग्लानी पामेला पोताना पति नागसारथी प्रत्ये एनी प्रिया(सुलसा)ए हर्षथी ते तापनी शांतिने अर्थे अमृतसरखा वचने || करीश्रा प्रकारे कर्यु.॥५॥ हवे काव्ये करीने सुखसा पोताना पतिने चिंतानुं कारण
"विनायनावं गमितं देणेन, चिंताग्निींचांतहृदंतरं तम् ॥ तत्तापशांत्य वचनैः सुधानैस्तदा जाँदेति मुंदस्यि कांता ॥५॥ प्राणेश "किं कारणमद्य हृद्य, 'देहप्रनानिर्जितकामदेव ॥ करीव वारीपतितः प्रकाममुत्सादहीनः परिलदयसे त्वम् ॥६॥ भ्रष्टः स्वराज्यादिव राजसूनुरुलूनपुष्पः 'किल मालतीः॥
"विलग्नदारीक इंचांदधूर्तो, "वैर्यारतः कोपुरुषः पुमान्वा ॥७॥ पूढे ले. देहनी कांतिए करीने जीत्यो ने कामदेव जेणे एवा हे प्राणपति! हे हृदयप्रिय! |
थालानस्थंने बांधेला हस्तीनी पे तमे श्राज अत्यंत उत्साह रहित देखाउँबो, तेनं Mallशुं कारण ? ॥६॥ निश्चे पोताना राज्यथी व्रष्ट थएला राजपुत्रनी पेठे, उतारी
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सुलसा
॥२५॥
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लीधेला पुष्पवाला मालती वृकनी पेठे, हारी गएला जुगारीनी पेठे अने वैरीथी सर्गश्जो. विटायला व्हीकण पुरुषनी पेठे देखा डो, तेनुं शुं कारण ? ॥७॥ तेम ज रणनूमिने विषे वीण थयां ले आयुध जेनां एवा सुत्नटनी पेठे, अत्यंत विद्या रहि तथएला विद्याधरनी पेठे, दिशाउँ जाणवामां मूढ थयुं चित्त जेनुं एवा निर्याम :
वीणायुधो वा सुनटो रणोा , "विद्याधरो वा गतविद्यउच्चैः॥ "निर्यामको वो दिशि मूढचित्तो, बैंची समीपच्यवनदणो वा ॥७॥ नौनंगकाले 'किल वस्तुनाथः, पांथोजनोामिव नेष्टमार्गः॥
कामातुरो वा गणिकानिरस्तस्त्यैक्तव्रतो नावितसंयतो वा ॥५॥ क (वहाण चलावनारा)नी पेठे अने पासे श्राव्यो ने च्यवननो समय जेने एवा इंज नी पेठे देखाउँ बो, तेनुं शुं कारण ? ॥ ७॥ वली निश्चे वहाण जागवानी वखते ॥॥ सार्थवाहनी पेठे, मनुष्य रहित (उजड) पृथ्वीने विषे जूला पडेला वटेमामुनी पेने, गणिकाए काढी मूकेसा कामातुर पुरुषनी पेठे अने त्याग थयु के व्रत जेनुं एवा व्रत ।
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धारीनी पेठे देखाउँ हो, तेनु शुं कारण ? ॥ए ॥ शुं श्रेणिक राजाए तमने म्हो
टा अपमानने पहोचाड्या ने ? अथवा कोश म्होटो पुरुष (महाजन लोक) तमारा ] माथी विरुफ थयो ने ? अथवा शुं तमाळं निधान (जमीनमा माटेद्यं धन) अंगारा थई|| गयु ले ? के कोई रूपवंती स्त्री तमारा हृदयमा पेवेली ? ॥ १० ॥ श्रथवा शुं पृथ्वी ।
राशा 'किमुच्चैः परमानितस्त्वं, महाजनो वा "किमु ते विरुः॥
कि वो तैवांगारिकितं "निधानं, कांतीय काँचित् हँदि"ते विष्टार मृत्युः किमासन्न होंगतो वा, सुचिंतितोऽर्थः "किमु "विस्मृतो वा मैं "मेऽस्ति गोप्यं यदि नाथ कार्यमेतत्तंदौख्याहि कैरु प्रसादम् ११ श्रुत्वेति नागः प्रविदस्य 'किंचिऊँगाद वाक्यं प्रति वल्लनां ताम्॥
'गोप्यं नै तैत्किंचिदपीद "मेऽस्ति, यत्कथ्यते नो देयिते तैवापि॥१॥ उपर आवेलो यम तमारी पासे श्राव्यो ने ? के, कांश चिंतवेलो अर्थ शुं विसरी गया l
हो ? हे नाथ ! जो म्हाराथी बार्नु कार्य न होय तो कृपा करो अने ते मने कहो.M Malu १९ ॥ हवे नागसारथी पोतानी चिंता प्रियाथी बानी नथी ते कहे . ए प्रकारे
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सुलसा
प्रियानां वचन सांजलीने नागसारथीए कांक हसीने ते पोतानी वहना(स्त्री)ने वचनसर्गश्जो. कधु के, हे दयिते ! श्रा जगत्मां म्हारे कांश पण तेवु गर्नु राखवा जेवू नथी के,
जे तने पण न कहेवाय. ॥१॥ हवे नागसारथी अपुत्रपणानी चिंता कही बतावे . ॥१६॥
हे मधुरजाषिणी ! जे तने पुत्र नथी, ते ज पुःख मने हृदयने विषे पीडा करे . का हरण के, मनुष्योने स्त्री पुत्र रूप फलवाबी अने वाणी काव्य करवा रूप फल,
सुवाणि यन्नो तैव नैदनोऽस्ति, तदेव उःखं हैदये नोति॥ दोरा येतः पुत्रफला नराणां, कवित्ववक्तृत्वफलाच वाण्यः॥१३॥ उवाच कांतं सुलसा ततस्ते, "किं नाथ खेदो 'जिनवाग्विदोऽपि॥
"कि 'कोपि लोको नैरके तिष्णुः, पुत्रेण रैदयेत हैदीश पैश्य॥१४॥ M वाली अर्थात् स्त्री पुत्र रूप फलने माटे अने वाणी काव्य करवा रूप फलने ।
माटे बे. ॥ १३ ॥ हवे पांच काव्ये करीने सुलसा पोताना पतिने धिरज श्रापे ..] ॥ १६ ॥ त्यार पढी सुलसाए पतिने कधु. हे नाथ ! जिनेश्वर नगवाननी वाणीने जाणनारा एवाय पण तमने था खेद शो ? अर्थात् तमारे पुत्रने माटे खेद करवो ए योग्य न |
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थी. कारण के, हे ईश ! हृदयमा विचार करो के, कुकृत्यची नरकने विषे पडता एवा | कोरपण लोक (मनुष्य) शुं पुत्रथी रक्षण करी शकाय ? अर्थात् नरकमांजता एवा | पिताने पुत्रो बचावी शकता नथी.॥ १४ ॥ हे खामिन् ! गुण युक्त एवोय पण बलिष्ट पुत्र पिताने प्राप्त थएला फुःखना समूहथी रक्षण करी शकतो नथी. जेम के, स
स्वामिन् गुणाढ्योऽपि सुतोवलीयान् नरदति व्याधिगणान् समेतान् । यथोदितो "रोगगणैः काममॆप्यंगजातेषु सैनत्कुमारः॥१५॥ सुब्रह्मदत्तोऽपि सुतैः पेरीतो, जातोधलः कर्मवशाईशायाम्॥
पातालमूलं कैलयस्तथोच्चैः, श्रीश्रीपतिः प॒त्रगणैधृतः "किम् ॥१६॥al नत्कुमार चक्रवर्ति घणा पुत्रो उतां पण रोगना समूहोए पीडा पाम्यो. ॥ १५ ॥ हे। नाथ ! अनेक पुत्रोए करीने विंटायलो श्रेष्ठ ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति पण, कर्मना वशथी । धावस्थाने विषे अंध थयो. तेम ज त्रीजी नरकने विषे गएला एवा लक्ष्मीना पति श्रीकृष्णनो शुं पुत्रोए उकार कख्यो ? अर्थात् पुत्र बता पण ब्रह्मदत्त चक्रवर्ति अंध था
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सुलसा
॥ २७॥
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यो अने श्रीकृष्ण पण नरकने विषे गयो ॥ १६ ॥ हे प्राणेश ! धृतराष्ट्रनुं गोत्र सर्गश्जो. पुत्रोथीज क्षय पाम्युं .वली ते पुलस्त्य (रावणना पिता) नो वंश पण पुत्रोथी ज कलंकित थयो . तेम ज उ खंग पृथ्विनो पति ते प्रसिद्ध सगर चक्रवर्ति (सात हजा) र) पुत्रोना फुःखे करीने परलोक मार्गने ( मृत्युने ) पाम्यो . ॥ १७ ॥ हे सुबुद्धि
दीणं तनूजेधृतराष्ट्रगोत्रं, पुत्रैः कलंकी स पुलस्त्यवंशः॥ पखंमन" संगरः से पुत्रःखेन 'नेजे परलोकमार्गम् ॥१७॥ स्वर्गः नतैरपि नैव पुत्र चापवर्गोऽपि विनात्मकृत्यात् ॥ परंतु 'संसारसमुष्मार्गः, पवईते पुत्रगणैः सुधीश ॥१७॥ "निशम्य कांतागदितां 'गिरं तां, विचारसारामगदच्च नागः॥
जानामि कांते सुतरां पैरंतु, पुत्रैविना नो धृतिमेति "चित्तम् ॥१५॥ वान् ! श्रात्मकृत्य विना फक्त घणा एवा य पण पुत्रोथी स्वर्ग (देवलोक) अने अप वर्ग (मोद) पण प्राप्त थतो ज नथी. परंतु (उलटो) ते पुत्रना समूहे करीने श्रा से सार समुनो मार्ग वृद्धि पामे डे.॥ १७ ॥ प्रियाए समजाव्या बतां पण नागसारथी
॥
७
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श्रगीश्रार काव्ये करीने पुत्रथी थता लालने देखाडतो बतो पोतानो खेद प्रगट करे| बे. ए प्रकारे प्रियाए कहेली उत्तम विचारवाली ते वाणीने सांजलीने नागसारथीए । तेणीने कवू. हे कांते ! हुं ते सर्व सारी रीते जाणुं हुं, परंतु पुत्र विना म्हाळं चित्त धिरज पामतुं नथी. ॥१णा जेम वांधव (लाई) रहित मनुष्योने दिशा शून्य देखाय बे, जेम जड माणसोने निरंतर पोतानुं चित्त शून्य देखाय बे अने जेम धन रहित
'दिशो यथा बांधववर्जितानां, सदैव चेतांसि यथा जडानाम॥ | समस्तविश्वानि यथाऽधनानां, गृहाणि शैन्यानि तैयाँसुतानाम् ॥२० कदापि 'येषु स्वजनागमो ने, ने गौरवं 'येषु गुणाधिकानाम् ॥
"शिशूनि 'नो "येषु नृशं लघूनि, गृहाणि कांतान्यपि 'दीगृहाणि मनुष्योने सर्व विश्व (उनियां ) शून्य देखाय डे, तेम पुत्र रहित मनुष्योने घरो पण शून्य देखाय .॥ २० ॥ जे घरोने विषे क्यारे पण स्वजनोनुं श्रागमन थतुं नथी, जे । घरोने विषे अधिक गुणवाला पुरुषनुं गौरव नथी अने जे घरोने विषे घणांन्हानां एवां बालको नथी, तेवां घरो घणां मनोहर होय तो पण पुःखना स्थान रूप ले. ॥ २१॥all
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सुखसा०
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श्रा संसारने विषे वसता एवा मनुष्योना मनने प्रिय स्त्री, विनीत पुत्र श्रने सर्व गुसर्गजो. Mणोथी एवी उत्तम सत्संगति, ए त्रण विश्रामनां स्थान .॥३॥जेम रात्रीने विषे चंड रूप दीपके करीने अथवा जेम दिवसने विषे सूर्य रूप दीपके करीने घट पटादि पदार्थना
संसारवासे वैसतां नराणां, "विश्रामन्म्यो मनसोऽत्र तिस्रः॥ 'प्रियं कलत्रं तनयो विनीतः, सत्संगतिः सर्वगुणोत्तरा च ॥२२॥ चंप्रदीपेन येथा निशायां, रविप्रदीपेन 'दिवा यथा वा ॥ पदार्थसार्थाः प्रकटीक्रियते, सुंतप्रदीपेन तथा स्वपूर्वे ॥२३॥ एकेन नाग्याधिकतां गतेन, पुत्रेण 'वंशो "विशदीक्रियेत ॥
वेनं समस्तं ननु चंदनेन, संवास्यते गधगुणाधिकेन ॥२४॥ समूहो प्रगट कराय ने अर्थात् देखाय , तेम पुत्र रूप दीपके करीने पोताना पूर्वजो
॥२०॥ प्रगट कराय बे. ॥३॥ जेम निश्चे अत्यंत गंध रूप गुणवाला चंदनना वृदे करीने सम | स्त वन सुगंधवालुं कराय डे, अर्थात् थाय डे, तेम जाग्यना अधिकपणाने पामेला एक ||
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पुत्रे करीने पण पोतानो सर्व वंश निर्मल कराय ले. ॥श्व ॥ जे कारणथी सगर चक्र वर्तिनी कीर्ति पुत्रोए करीने ज समुष सुधी वृद्धि पामी बे. तेथी थालोकने विषे पुत्रे | करीने ज माता पिता, मनुष्योनी मध्ये उत्कृष्ट लावने पमाडाय . तेम ज तेउनी कीर्ति पण पुत्रथी ज स्थिरपणुं पामे ले. अर्थात् घणा काल सुधी कायम रहे . ॥ २५ ॥ हे
पुत्रेण मातापितरौ जनानामुत्कृष्टनावं मिताविदैव ॥ पुत्रेण कीर्ति जते "स्थिरत्वं, यत्सागरी सा सैगरस्य जाता ॥२५॥ मदप्रवाहैरिव देस्तिराजः, सरोजलं वा 'विकचैः सरोजैः॥
नदीतटं वा कलहंसयुग्मैर्विवत्समाजो वरपंमितैर्वा ॥ २६ ॥ प्रिये ! मदना प्रवाहथी जेम गजराज शोने , प्रफुखित कमलोथी जेम तलावन पाणी शोने बे, हंसना जोडलाथी जेम नदीनो तट शोने जे अने श्रेष्ठ पंमितोथी जेम विद्वानोनी सजा शोने , (तेम हे कांते ! मनुष्यनुं कुल पण सुपुत्रे करीने जी शोने .) ॥ ६ ॥
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सुलसा Mall हे प्रिये ! संपूर्ण चंथी जेम रात्री शोने ,अत्यंत शील गुणे करीने जेम स्त्री शोने सर्गजो,
बे, वेगे करीने जेम जातिवंत एवो य पण अश्व शोने ते अने दाने करीने जेम दाता ॥श्र नो हाथ शोने बे, (तेम हे कांते ! मनुष्यनुं कुल पण सुपुत्रे करीने ज शोने दे.)
संपूर्णचंडेण यथा त्रियामा, रामा यथा शीलगुणेन कामम् ॥ जवेन जात्योऽपि यथा तुरंगो, दानेन दौतुः करपल्लवो वा ॥२०॥ वाणी केवीनॉमिव लदन, धर्मेण मानुष्यनवो यथा वा ॥ वनं वसंतेन यथा तथैव, कुलं सुपुत्रेण "विनाति कौते ॥॥ अन्यच्च कांते गृहसारलदमी, गएदाति राजा सुतवर्जितानाम् ॥
परिचदः सोऽपि एंथक्पृथक् "स्यान्नबंधुवर्गस्य तथाश्रयोऽपि ॥२॥ ॥ २७ ॥ हे प्रिये ! व्याकरणथी जेम विद्वानोनी वाणी शोले , श्रथवा धर्मे करीने जेम मनुष्य नव शोने जे अने वसंतऋतुए करीने जेम वन शोने , तेम ज हे कांते ! कुल पण सुपुत्रे करीने ज शोने . ॥ २७ ॥ हे कांते ! वली वीजुं पण ए बे के, lal
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राजा पुत्र रहित पुरुषोना घरनी श्रेष्ठ लदमीने अर्थात् श्रेष्ट वस्तुने (ते पुरुष । मृत्यु पाम्या पली) लश् जाय बे (अने पुरुष जीवतो बता जे चाकर विगेरे । परिवार होय) ते परिवार पण जूदो जूदो थाय , तेम ज बंधुवर्गने कोश्नो श्राश्रय पण मलतो नथी. ॥२५॥ हवे एक काव्ये करीने सुलसा पतिने खेद निवृत्त करवानो उपाय बतावे . ए प्रकारनां पतिनां वचन सांजलीने अने तेना मनने जाणीने गुणो ।
श्रुत्वेति मत्वा पतिमानसं सा, गुणौवंशाला सुलसा बनाषे॥ तन्नाथ कोंचित्परिणीय बालां, धन्यां नज त्वं कृतकृत्यनावम् ॥३०॥ अथाह नर्ता यदि कोऽपि राज्यं, ददाति मह्यं स्वसुतासमेतम् ॥
"नेबामि नार्यामपरां तथापि, घुष्टिं के इंजेपरमानमत्त्वा ॥३१॥ ए करीने विशाल एवी ते सुखसाए कवू. हे नाथ ! जो एम होय तो कोइ धन्य एवी बाला(स्त्री)ने परणीने तमे कृतकृत्यपणाने पामो. ॥३०॥ हवे बे काव्ये करीने नागसारथी पोतानो निश्चय कही देखाडे . प्रियानां एवां वचन सांजलीने पनी ॥ नागसारथीए तेणीने कडं. हे प्रिये ! जो कोइ पण राजा, मने पोतानी पुत्री सहित
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सुखसा०
जो.
राज्य आपे, तो पण हुं बीजी स्त्रीने परणवानी श्छा धरावतो नथी. कारण के, पर
मान्न (खीर ) जमीने पड़ी पेंश खावानी श्छा कयो पुरुष करे ? अर्थात् कोइ पण न । ॥३०॥
करे.॥३१॥ हे प्रिये! जो कोइ पण प्रकारे तने पुत्र थशे, तो तेथी जहं हर्षित चित्त वालो यश्श. एम ते नागसारथीए कहे उते पुत्रना अर्थवाली ते प्रतिव्रता सुलसा
अये कैथंचित्रविता सुतस्ते, नवामि 'तेनैव सहर्षचित्तः॥ 'इतीरिते "तेन पतिव्रता सा, सैंतार्थिनी "चिंतयति स्म "चित्ते॥३॥ करोति "विश्वस्य समीदितानि, धर्मः समाराधित एंव नक्त्या॥
मूढा जैनास्त ने जंति किंतु, वौति 'सौख्यानि "निरंतराणि ॥३३॥ पोताना मनमा विचार करवा लागी. ॥३॥ हवे एक काव्ये करीने धर्मथी ज इष्ट
कार्य प्राप्त थाय ठे, एम सुलसा पोताना मनमा निश्चय करे बे. नक्तिथी श्राराधन | Mal करेलो धर्म ज जगत्ना (मनुष्योना) ठित कार्याने करे , तो पण मूर्ख मनुष्यो ते
धर्मने सेवन करता नथी थने श्रखंमित एवा सुखोनी श्छा करे .॥३३॥
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॥३०॥
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Mal हवे बे काव्ये करीने धर्मयी शुं शुं थाय वे ? ते कहे बे. श्रेष्ठ कुल, परस्पर प्रेम, दीर्घ आयुष्य, देड्ने विषे निरोगीप, ठित मनुष्योनो संग, गुणने विषे अनुराग, सत्पुत्रनो लान, लोकने विषे प्रजुता (म्होटाइ), पोताना घरने विषे संपत्ति,मुखने विषे । सरस्वती, बाहुने विषे शौर्य, पोताना हायने विषे दान, देहने विषे सौजाग्य, हृदयने वरं कुलं प्रेम परस्परं च, दीर्घ तथाऽयुः पैटुता च "देदे ॥ अनीष्टसंगश्च गुणानुरागः, सत्पुत्रलानः पँनुताचे 'लोके ॥ ३४॥ लक्ष्मीः स्वगेदे वेदने चै वाणी, शौर्य चे बाँहोः स्वकरे . दोनम् ॥
सौनाग्यमंगे हैदये सुधीच, कीर्तिश्च "दिक्तूज्वलधर्मतः स्यात्॥३यायुग्मम्. Maरे 'चित्त खेदं किमु यासि नित्यं, दृष्ट्वाऽन्यवस्तूनि मनोहराणि ॥
धर्म कुरुष्वाशु यंदोबसीष्टं, धर्म "विना "नै समीदितं स्यात् ॥३६॥ विषे सारी बुजि अने सर्व दिशाउने विषे कीर्ति, ए सर्व उज्वल एवा धर्मनुं श्राराधन
करवाथीज मनुष्योने प्राप्त थाय .॥३४॥३॥हवे एक काव्ये करीने सुलसा पोताना चि तिने शीखामण श्रापे डे. (वली सुलसा पोताना चित्तने कहे जे.) रे चित्त! तुं मनुष्योनी
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सुखसान
॥३१॥
मनोहर अन्य वस्तुने जोस्ने निरंतर खेद शा माटे पामे वे ? जो तुं तेवी इष्ट वस्तु सर्गजो. उनी श्छा करतो होय तो तत्काल धर्मनुं श्राचरण कर. कारण के,धर्म विना इष्ट वस्तुनी / प्राप्ति पती ज नथी. ॥ ३६ ॥ हवे पांच काव्ये करीने धर्मथी पुष्कर कार्यों पण करी शकायते कहे . आ लोकने विष उद्यम करवाथी पण जे घणां पुष्कर कार्यों सिकि पामतां नथी, तेवां कार्योने पण तपना प्रजावथी वश्य थएला देवता तत्काल
उपक्रमेणापि न याति सिलिं, कार्याणि यानीद सुष्कराणि॥ तपःप्रनावावेशवर्तिनोऽपि, कुर्वति देवा अपि तानि मं ॥३॥ 'ये वैयविद्याविरुषां न साध्याश्चिकित्सकानामपि तेऽपि रोगाः॥
धर्मोषधैरेव "विनाशमाप्ता, अनाथिसाधोरिव नावनाद्यैः ॥३०॥ करी थापे . ॥ ३७॥ जे रोगो वैद्यकविद्यामां कुशल एवा वैद्योने पण साध्य नथी अर्थात् घणा विचक्षण वैद्यो पण जे रोगोने जेलखी शकता नथी, तेवा रोगो पण ॥३॥ नावनादिके करीने अनाथी मुनिनी पेठे फक्त धर्म रूप औषधे करीने ज नाश पाम्या | a. अर्थात् घणा असाध्य रोगोनो पण धर्म रूप औषधथी नाश थाय बे. ॥ ३७॥
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Nal जे दुःखो पुष्ट कर्मथी प्राप्त थएवां श्रने वली पति विगेरेना वियोगजावे करीने |
अत्यंत पुस्सह (सहन न थ शके) एवां , ते दुःखो पण फक्त शीलधर्मथीज नल राजानी राणी दमयंतीना कुःखनी पेठे नाश पामे . अर्थात् जेम दमयंतीनां महा खो शीलधर्मथी नाश पाम्यां हतां, तेम पूर्व नवे करेला पुष्ट कर्मथी श्रापणने प्राप्त
दुष्कतो यानि समागतानि, 'वियोगनावेन सुःसहानि ॥ कष्टानि तान्यप्युपयांति नाशं, नैसप्रियाया इव शीलधर्मात् ॥ ३॥ "विघ्नानि "निघ्नंति कृतेन कायोत्सर्गेण देवा अपि मानवानाम् ॥
नागैनिबहाः किल पीपुत्राः, कुंतीवधूत्सर्गवशादिमुक्ताः॥४०॥ थएलां अत्यंत पुस्सह फुःखो पण शीलधर्मथी नाश पामे . ॥ ३५ ॥ जेम नागपा | शथी बंधायला पांमुराजाना पुत्रो (पांडवो) कुंतीए करेला कायोत्सर्गना वशथी | निश्चे मुक्त थया तेम करेला कायोत्सर्गे करीने देवता, मनुष्योनां विघ्नोने पण नाश करे .॥४०॥
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मुलसा
॥३
॥
ते कारण माटे मने हृदयने विषे एमज निश्चय थाय ने के, लोकने विषे मनुष्योने ||सर्गश्जो. धर्मथी पुत्रोनी प्राप्ति पण थाय बे. धर्मने विषे ज एक चित्तवाली ते कुंती सतीए । निश्चे धर्म नामना पुत्रने शुं जन्म नथी श्राप्यो ? अर्थात् श्राप्यो बे. ॥४१॥ हवे || बे काव्ये करीने सुलसानी धर्म क्रियानुं वर्णन करे . ए प्रकारे हृदयमा निश्चय ||
सुनिश्चितं तद् हैदये मेमेति, धर्मेण पुत्रा अपि"संति लोके ॥ "कुंती सैंती सौ "किल धर्मपुत्रं, धमैकचित्ता नैं सैंतं प्रैसूता॥४१॥ हेदीति निश्चित्य समाधियुक्ता, 'विशेषतो धर्मपराउँनवत्सी॥ पुष्पैस्त्रिसंध्यं व्यदधाकिनाक़, फेलार्थिनी सजितमंगलांगी॥४२॥ दानं सदादान्मुनिपुंगवेभ्यश्चतुर्विधं संघमपूपुजच्च ॥
ब्रह्मव्रतं नशयनं च चके,"तेपे तथा चामलमुखं तपोऽपि ॥४३॥ || करीने समाधि युक्त एवी ते सुलसा, विशेपे करीने धर्मने विष तत्पर थ३. वली | ॥ ३ ॥ फसनी श्वावाली श्रने शरीरे मंगलिक श्रानूषण प्रमुख पहेरनारी ते सुलसा, पुष्पोए || करीने त्रण्ये काल जिनेश्वर भगवान- पूजन करवा लागी ॥ ४२ ॥ वली ते सुखसा
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श्रेष्ठ मुनिने, निरंतर प्रासुक एवां आहार पाणीवहोराववा लागी. तथा साधु, साध्वी, all
श्रावक अने श्राविका ए चार प्रकारना संघर्नु पूजन करवा लागी. वली ते ब्रह्मच । हार्यव्रतने धारण करी पृथ्वी उपर शयन करवा लागी. तेम ज श्रांविल विगेरे तप
पण करवा लागी. ॥ ४३ ॥ हवे बे काव्ये करीने सुलसाना गुणनुं वर्णन करे . कापनी के अवधिज्ञानथी सुलसाना सत्वने जोश्ने पोतानी सजामां तेणीनां सत्वगुणथी
सत्वेन तस्याः सुरनायकेन, चके प्रशंसावधिना विलोक्य ॥ शैश्वगुणग्रादपरा नवंति, स्वयं दि"संतः सुकृतैकचित्ताः॥४४॥ श्रुत्वा प्रशंसामिति तो सुरेऽपदातिसेनापतिनैगमेषी॥
'वेगेन कृत्वा नववैक्रियांगं, परीक्षणार्थ प्रतिसुप्रतस्थे॥४५॥ वखाण कस्यां. कयु डे के- सुकृत्यने विषे ने एक चित्त जेमनां एवा संत पुरुषो पो तानी मेसेज निरंतर गुण ग्रहण करवामां तत्पर थाय डे.॥४४॥ए प्रकारे इंच रेली ते सुलसानी प्रशंसाने सांजलीने इंधनो अनुचर नैगमेषी (हरिणेगमेषी) ना मनो सेनापति, तत्काल पोतानुं शरीर उत्तरवैक्रिय करीने परीक्षा करवा माटे सुलसा
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सुलसा०
॥ ३३ ॥
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प्रत्ये चाल्यो. ॥ ४५ ॥ हवे चार काव्ये करीने नैगमेषी देवतानुं वर्णन करे बे. सर्गरजो. ||देवतानां दिव्य वस्त्रोए करीने अत्यंत मनोहर, केडने विषे सुशोजित वागती मेखला वालो, मस्तकने विषे धारण कस्यो ठे मुकुट जेणे एवो, वली कानने विषे कुंमलने धा
( हरिणीवृत्तम् )
'त्रिदशसिचयैः कामं श्रीमान् रैात्कटिमेखलो, घटितमुकुटो नाप्रांते श्रुतिश्रितकुंमलः ॥ सुरमणिहारः कंठे जाविधृतांगदः, प्रवरकटकै प्रयुक्तैरलंकृतपाणिकः ॥ ४६ ॥ सुरनिकुसुमश्रेणीवेणीकृतोत्तरशेखरो, जसवशतो 'देवीगत्या निराकृतमानसः ॥
रण करनारो, कंठने विषे धारण कस्यो ने श्रेष्ठ देवमणिनो हार जेणे एवो, तेम ज जुजाने विषे धारण करया बे बाजुबंध जेणे ने रत्नजडित श्रेष्ठ कडांची सुशोजित करेला हाथवालो (ते नैगमेषी देव सुलसा प्रत्ये चाल्यो.) ॥ ४६ ॥ सुगंधी पुष्पोना
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॥ ३३ ॥
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समूहथी गूंथ्यो जे उत्तम केशपाश ( चोटलो) जेणे, उतावलना वशथी देवीगतिए करीने मनथी पण अधिक गतिवालो. वली श्राश्चर्य! श्राश्चर्य!! एम कहेता एवार चंड प्रमुख मनुष्योए जोवायलो, तेमज पोताना शरीरनी कांतिना समूहथी श्राकर्षण
उडुपतिजनैश्चित्रचित्रं वदनिरितीक्षितो, "निजतनुविनानाराक्रांतप्रनाकरमंगलः॥४७॥
पंतति गंगनानास्वबिंबं 'किमेतदितीदितुं, खंचरवनितानेत्राएंबई तेतानि "निमीलयन् ॥
परिमलनरैः क्रीडासक्तौ मैदीधरगह्वरे,
समनिमुखयस्तावानवान्नेचरदंपती॥ ४ ॥ कघु ले ( खेंच्यु ले) सूर्यनुं मंगल जेणे अर्थात् पोताना तेजथी सूर्यनी कांतिने पण ढांकी देतो एवो (ते नैगमेषी देव सुलसा प्रत्ये चाल्यो.)॥४॥ “ शुं श्राकाशथी श्रा सूर्यनुं प्रतिबिंब पडे ?" एवी शंकाथी जोवाने माटे उंचां करेला विद्याधरोनी स्त्री
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सुलसा
सागसश्जो
॥३४॥
उनां नेत्रोने (पोताना तेजथी ) बंध करतो, वली सुगंधना समूहथी पर्वतनी गुफामा क्रीडाने विषे श्रासक्त थएला वनचरनां जोडलांने पोताना सामुं जोवरावतो ते नैग मेषी देव सुलसा प्रत्ये आवतो हतो.॥४७॥"शुं इंजना हस्तकमलमांथी श्राकाशने विषे वज पडी गयुं ? अथवा अहह ! शुं सूर्यथी व्रष्ट थएला किरणोना समूह पडे ?"
__सुरपतिकरांनोजावेज पंपात 'किमंबरे, इंददद किमु वा सूर्याच॑ष्टाः पतति कैरोल्कराः॥
ति कथमपि झाँतो देवो नरैः से सनीडगो,
रिति पथिवीपी प्रौपत्तनूकृतदेहरुक॥४॥ एम अनेक प्रकारे करीने उपरथी पासे श्रावतो अने मनुष्योए महा कष्टथी जाणेलो तथा अल्प करी देहनीकांति जेणे एवो तेनैगमेषी देव तत्काल पृथ्वी उपर श्राव्योभए । श्त्यागमिक श्रीजयतिलकसूरि विरचिते सम्यक्त्वसंजवनानि महाकाव्ये
सुलसाचरिते हरिणेगमेषिसुरागमो नाम नीतिय सर्गः॥
000000000000000000000000000000000
॥३४॥
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सर्ग ३ जो. हवे प्रथम पांच काव्ये करीने सुलसाना श्रांगणानुं वर्णन करे . त्यार पढी सुल साने विषे प्रीतिवालो ते हरिणेगमेषी देवता, राजगृह नगरनी पासे श्रावी तत्काल उत्तम साधुनु रूप ( साधुनो वेष ) धारण करीने म्होटी समृकिंवाला नागसारथी
(उपजातिवृत्तम् ) ततः समागत्य पुरोपकंवं, सुसाधुरूपं सहसा विधाय॥ नागौकसः प्रीतिपरः सुरः स,समासदद् औरनुवं पैरा ॥१॥ सुरेंज्चापैरिव तोरणोधैः, प्रतोलिकायां कलितं विचित्रैः ॥
आक्षेपकारी प्रतिहाररूपैरुहप्रवेशैरिव वेत्रयष्ट्या ॥२॥ Mना श्रांगणा श्रागल श्राव्यो. ॥१॥ मार्गने विपे इंऽधनुष्यना सरखा चित्र विचित्र
तोरणोना समूहोथी व्याप्त अने जाणे उडीए करीने रोक्यो ने प्रवेश जेमणे एवा प्रति हारो (झारपालो ) ए करीने तिरस्कार करनारा (नागसारथीना महेलमां ते मुनि रूपने धारण करनारा देवताए प्रवेश कस्यो.)॥२॥
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सुखसा
॥३५॥
विचित्र चंधुश्राना समूहनी कांतिए करीने मनुष्योने बरोबर संध्यानो चम उत्पन्न कर सर्गजो. नारा श्रने धूपिया थकी नीकलता मेघना समूह सरखा धूपना धूमाडाए करीने व्याप्त एवा (नामसारथीना महेलमांते मुनि रूपने धारण करनारा देवताए प्रवेश कस्यो.)॥३॥ श्रांगणामां कस्तूरीवडे बीपीने मुक्ताफलोथी स्वस्तिक (साथिया) काढेला, तेम ज सुव
'विचित्रचंदयराजिकांत्या, संध्याभ्रमं साधु दंधऊँनानाम्॥ "निषेवितं, धूपघटीप्रसूतैः, पयोददैरिव धूपधूमैः ॥ ३ ॥ कैस्तूरिकागोमयकां विधाय, मुक्ताफलैः स्वस्तिकितं प्रवेशे॥ सौवर्णसत्पिप्पलपत्रमालाश्रितोत्तरंगं वरमंगलाढ्यम् ॥४॥ "जित्वा विमानं निजया 'श्रिया यत्, ध्वजानुजारिवं नृत्यईम्॥ail
सुविस्मयस्मेरमुखो "विवेश, मुनिः सुसौधं सुलसाश्रितं तत् ॥५॥ ना सरखाश्रेष्ट पिंपलाना पांदडानी मालाना तोरणवाला अने उत्तम मंगल पदार्थों थी युक्त एवा ( नागसारथीना महेलमां ते मुनि रूपने धारण करनारा देवताए प्रवेश कस्यो.)॥४॥ तेमज जे पोतानी समृद्धिथी वैमानने पण जीतीने ध्वजा रूप हस्तना
॥३५॥
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श्रमजागोए करीने जाणे उंचे नृत्य करतुं होयनी ! एवा सुलसाए आश्रय करेला ते नागसारथीना महेलने विषे घणा ज विस्मयथी कांइक हास्य युक्त मुखवाला ते मुनि | रूपने धारण करनारा देवताए प्रवेश कस्यो. ॥२॥ पोतानी पासे उनेला ते मुनिने उता वलयी जोइने, हर्ष सहित रोमांचित थयो छे देह जेणीनो अने कांश्क हास्य युक्त थयुं बे मुखकमल जेणीनुं एवी पतिव्रता ते सुलसा पोताना मनमां एम विचारका लागी. ससंभ्रमालोक्य समीप संस्थं, पतिव्रता सा सुंलसा मुनिं तें ॥ संदर्षरोमांचितदेहदेशा, देध्यावितिस्मेरमुखारविंदा ॥ ६ ॥ पुराणपापापगमैक देतुरुचैर्न विष्यत्फललाभवक्ता ॥ नायगेदं खलु सर्वतीर्यमयोऽतिथिः पावयति क्रमात्र्याम् ॥ ७ ॥
| ॥ ६ ॥ दवे नव काव्ये करीने उत्तम पुरुषोनुं श्रवतुं अन्यथा यतुं नथी, एम चिंतत्रन करे बे. पूर्वे याचरण करेला पापना नाशनुं एक कारण अने श्रेष्ठ जविष्य फलना लाजनो वक्ता एवो सर्व तीर्थमय अतिथि (साधु) पोताना वे चरणोए करीने अजव्य पुरुषोना घरने निश्चे पवित्र नथी करतो. ॥ ७ ॥
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सुखसा
॥३६॥
मनुष्याणान ए ज फन डे के, जे “पोताने माटे निपजावेला श्राहार पाणीमांथी" अतिथि(साधु)नो संवि नाग कराय , परंतु जे बीजु पोताना उदरपूर्णाने माटे करवं, ते सर्व तो निश्चे पशुतुं लक्षण . ॥७॥ आ पृथ्वीने विषे दीवा घणा प्रकाशने अर्थे । बे. तेमज वृक्षोने पाणी सिंचq ए पण फलने माटे जे. वली वृक्ष पुरुषोनी सेवा करवी,ते.
मनुष्यतायाः फलमेतदेव, यत्सविनागः क्रियतेऽतिथीनाम् ॥ अन्यत्स्वकीयोदरपूरणं येत्, सैर्व पशूनां "किल लक्षणं तत् ॥७॥ रिप्रकाशाय नुवि प्रदीपा, फैलाय सेकोऽत्र मंदीरुदाणाम् ॥ शुश्रूषणं जनस्य बुंध्यै, पूजाऽतिथीनां संततं सैंमध्यै॥॥
नैवोपसर्पति गुदाण्यमीषां, कदापि देवातिथयस्त्रयाणाम् ॥
हत्यापवादेन विदूपितानां, नव्येतराणां केपणात्मनां च ॥१०॥ बजिने अर्थे थाय ले श्रने अतिथि (साधु) उन पूजन ए निरंतर समृद्धिने अर्थे थाय |....
ए॥ बालहत्या गौहत्या विगेरे हत्याना अपवादथी कलंकित थएला, अजव्य अने कृपण था त्रण्येना घर प्रत्ये देव तथा अतिथि क्यारे पण नथी ज श्रावता.॥१०॥
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तृषावडे रोका गयो डे कंठ जेनो एवा पुरुषने जेम समुझ पण स्थल सरखो थाय , तेम || लोकने विषे धनवंत पुरुषपण उपलोग विना निश्चे म्होटो दरिजीज देखाय बे॥१॥जे, वनना वृक्षोने फल, विधवा स्त्रीने नवयौवन अने कृपण पुरुषोने पुष्कल अव्य, ते क रवामां विधात्राने जे श्रम थयो , तेने विहान पुरुषो निष्फल ज कहे . ॥१२॥ ते
"विनोपनोगेन धनेश्वरोऽपि, नैनं दैरिवाधिक ऍव लोके ॥ 'निरु कंठस्य 'पिपासॉपि, पानीयराशिः स्थलसंनिनः स्यात् ॥११॥ वैनमाणां फैलमेंगनानां, वैधव्यनाजां नवयौवनं च ॥ कदर्यपुंसां प्रचुरं धनं यत्, "विधेः श्रमं "निष्फलमेवौढुः ॥१२॥ परोपकारः क्रियते तदैत्र, स्वार्थः स ननं परमार्थत्या ॥
उच्चैरैकिंचित्करत्तिनाजां, "किं जीवितव्यस्य फैलं जनानाम् ॥१३॥ कारण माटे आ लोकने विषे परमार्थवृत्तिए करीने जे परोपकार कराय बे, ते निश्चे। स्वार्थ जाणवो. कारण के, जरा पण दान पुण्य नहि करनारा मनुष्योना म्होटा जी वितनुं हुं फल ? अर्थात् कांई नहीं. ॥ १३ ॥
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सुलसा० लोकने विषे पशुपण घणा काल सुधीजीवो; कारण के.जे पशुढना चर्म विगेरे पण सर्ग३जो.
नपकारी होय . परंतु परोपकारे करीने रहित अने नाश पाम्युंडे पुरुषातनजेनुं एवा ॥ ३७ ॥ मनुष्योना जीवितने धिक्कार .॥१४॥ चपल ध्वजा, नहि ढांकेला महेलनुं रक्षण करे ,
तृणनो बनावेलो पुरुष पण क्षेत्रनुं रक्षण करे डे, अने रक्षा (राख) पण अनाजनुं रक्षण ||
जीवंतु काम पेशवोऽपि लोके, चर्मादिकं स्याऽपकारि येषाम् ॥ परोपकारेण "विवर्जितस्य, "धिक जीवितव्यं तपौरुषस्य ॥१४॥ लोलत्पटी सौधर्मसंसृणं च, देवाणि चंचापुरुषोऽपि पाति॥ हारः कणानप्युपकारहीनः, घुमानमीज्योऽपि न किंचिदेव ॥१५॥ ध्यात्वापिसा चेतसि दानशौंमा, प्रणम्य साधुं सहसोपसृत्य॥
स्वं मैन्यमाना सुतरां कृतार्थ, व्यजिज्ञपंद्योजितपाणिपद्मा ॥१६॥ करे , परंतु उपकार रहित पुरुष तो एमांना कोश्नु जरा पण रक्षण करतो नथी. ॥ ३ ॥
माटे ध्वजा, तणनो पुरुष अने रक्षा ए थकी पण उपकार विनानो पुरुष तुब जा Mणवो. ॥ १५ ॥ ए प्रकारे मनमा विचार करीने दान आपवामां शौर्यवाली ते सु
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लसा तत्काल साधुनी पासे श्रावी प्रणाम करीने पोताने अत्यंत कृतार्थ मानती बत्ती | हस्तकमलने जोडीने विनंती करवा लागी ॥ १६ ॥ हे जंगमतीर्थ ! हे पाप रहित ! (उचिंता ) थापे पोते ज पधारीने श्रा तमारी जक्तजन एवी मने श्रजे तत्काल पवित्र करी. हे साधु ! प्रसन्न था अने अनुग्रह करो. वली हे उत्तम विद्यावंत ! कार्य
पवित्रता जंगमतीर्थ सद्यः, स्वयं संमेत्य त्वयकाऽनवद्य ॥
प्रसीद साधोऽनुगृदा मेऽद्य, “निवेद्यतां कार्य में निंद्यविद्य ॥ १७ ॥ तदीयगेदे 'किल लक्षपाकतैलस्य कुंनत्रयमस्ति मत्वा ॥ ग्लानादिकार्यं तदर्नृपदिश्य, मायामुनिस्तैलमिमां ययाचे ॥ १८ ॥
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| निवेदन करो. ॥ १७ ॥ हवे एक काव्ये करीने साधु लक्षपाक तेलनी याचना करे बे. त्यार पठी 'ते सुलसाना घरने विषे निचे लक्षपाक तेलना त्रण घडा बे " एम जाणीने अने तेणीने ग्लानादि कार्य कहीने ते मायाथी मुनिना रूपने धारण करनारा | देवताए ( प्रार्थना करती एवी) सुलसा पासे तेलनी याचना करी ॥ १० ॥
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सुलसा
॥ ३७॥
सर्गजो. हवे बे काव्ये करीने सुलसानी उदारता अने दान श्रापवानी श्रद्धा निरूपण करे .स पठी हर्ष सहित ते सुलसा पोते ज सक्षपाक तेलना घडाने उपाडीने जेटलामां आपवा | माटे श्रावे , तेटलामां देवना प्रनावधी ते घडो अचानक पृथ्वी उपर पडी गयो !
उत्पाट्य कुंनं स्वयमेव यावद्दातुं समागवति सा सहर्षा ॥ पंपात मौ सहसा से तावदेवप्रनावादिनिदे च 'मंतु ॥१०॥ ऐवं वितीयोऽपि ततस्तृतीयः, तैलस्य कुंनः "किल सोप्यनंजि ॥ मैं खंमितास्याः प्रति साधुदान, श्रंक्षा मैनागप्यधिकाधिवै ॥२०॥ झानेन देवः सुलसामवेत्यांविषमचित्तां घटनंगतोपि॥
संहृत्य मायां प्रकटीबनूव, शक्रप्रशंसां च शशंस सर्वाम् ॥१॥ श्रने तुरत फूटी गयो. ॥ १५ ॥ पठी ए प्रकारे वीजो अने त्रीजो पण ते लक्षपाक
॥३०॥ तेखनो घडो फूटी ज गयो. तो पण सुलसानी साधुदान प्रत्येनी श्रझा जरा पण खं मित न थक्ष, परंतु अधिक अधिक वधवा लागी. ॥२०॥ हवे एक काव्ये करीने नैग
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मेषी देव कृत्रिम वेषने त्याग करीने स्वर्गमां थएली प्रशंसा सुखसाने कहे . एवी रीते त्रण्ये घडा फूटी जवाथी पण नश्री खेद पाम्युं चित्त जेणीनुं एवी सुलसाने देवा ताए झाने करीने जाणीने पढी मायाने ( कपट साधुपणाने) संहरीने प्रगट यश श्रने खर्गने विषे सर्व इंजे करेली स्तुति तेणीने कही. ॥ २१॥ हवे एक काव्ये करीने || ते देवता सुलसाने वरदान मागवायूँ कहे . हे दातार ! हुं नामे करीने हरिणेगमेषी
नाम्ना सुरोऽहं देरिणेगमेषी, दिवः समागामिह वीक्षितुं त्वाम् ॥ तुष्टोऽवेदातेन च "ते वदान्ये, वर टॅणु त्वं गुणगौरि "किंचित् ॥॥ ततोऽवदत्सा सुदती सुरेंजचमूपते त्वं गुरुशक्तियुक्ता॥
स्वयं न जानासि मनोरथं "मे, झानेन जानपि "विश्वनावम् ॥२३॥ देवता तने जोवा माटे स्वर्गथी अहिं श्राव्यो हुँ अने रहारा दातारपणाथी प्रसन्न थियो ढुं माटे हे गुणगौरि ! तुं कां पण वरदान माग. ॥३॥ हवे एक काव्ये करीने
सुलसा पुत्र रूप वरदान मागे . पली श्रेष्ठ दांतवाली अने म्होटी शक्तिवाली सुल साए कडं. हे इंफना सेनापति ! तुं पोते झाने करीने सर्व विश्वना जावने जाणतो बतो
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सुलसा पण म्हारा मनोरथने (पुत्रनी श्वाने) शुं नथी जाणतो? अर्थात् जाणे बेज. ॥ २३ ॥सर्ग३जो.
हाहवे बे काव्ये करीने देवतानी प्रसन्नता कहे . पठी दर्ष सहित ते देवताए सुलसाने ॥३ए। बत्रीश गोली श्रापी श्रने एम कयु के, या गोली तमारे अनुक्रमे एकेक खावी, के | Malजेम एटला (वत्रीश) पुत्रो थाय. ॥ २४ ॥ हे गुणनी एक नूमि ! फरीथी वीजें कांश
ततः सहर्षेण सुरेण तेन, क्षत्रिंशदेस्यै गुटिकाः प्रदत्ताः॥
आख्यायि चैतमतस्त्वयकैकाद्या यथा स्युस्तनया इयंतः ॥२४॥ गुणैकनमे पुनरैन्यकार्ये, समागतेदं स्मरणीय एव ॥ एवं गदित्वा से सुरः देणेन, "तिरोदधे दीधितिदीपिताशः॥२५॥ पुनर्जिना! सुलसा विधाय, विशेषतो नोगपरा बनूव ॥
श्रीपूज्यपूजादिपुरस्सराणि, ह्यारंनकार्याणि फलति लोके ॥२६॥ कार्य प्राप्त थये ते म्हारुं स्मरण करजे. एम कहीने पोतानी कांतिथी प्रकाशित करी ॥३॥ ने दिशाउँ जेणे एवो ते देवता वणवारमा अंतर्ध्यान थर गयो. ॥२५॥ हवे एक काव्ये करीने सुलसानुं नित्यकृत्य कहे . पढी सुलसा फरीथी जिनेश्वर जगवाननी
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पूजा करीने विशेषे नोगने विषे श्रासक्त थइ. कारण के, लोकने विषे श्रीपूज्य (देव । गुरु)नी, पूजादि करीने आरंनेलां कार्यों फलवालां थाय . अर्थात् फले . ॥३६॥ हवे दश काव्ये करीने सुलसा घणा पुत्रोथी धर्मकर्ममां थती उपाधिनो मनमां विचार करे . पली ऋतुकालनो दिवस प्राप्त थए उते धर्ममां तत्पर एवी ते सुलसा मनमां विचार करवा ,
अथांग सातकालघस्ने, व्यचिंतयच्चेतसि धर्मशीला ॥ "किं रिपुत्रैर्मम धर्मकर्मविघ्नप्रदैमूत्रमलोननाद्यैः ॥२॥ 'देवार्पितानिटिकानि निर्वात्रिंशता लदणलक्षितांगः॥
एकोऽपि यात्तनयो गुणाढ्यो, 'विशिष्टवीर्यः स्वजनप्रियो मे ॥रना लागी के 'म्हारे मलमूत्रनुं धोवू' इत्यादिके करीने धर्मकार्यने विषे विघ्न करनारा घणा |
पुत्रोए करीने झुं काम ? अर्थात् धर्मकार्यमां विघ्न करनारा एवा घणा पुत्रोनुं म्हारे । Mकाम नथी. ॥१७॥ परंतु देवताए थापेली था बत्रीश गोलीए करीने मने, बत्रीश
लक्षणोथी चिन्हित ने अंग जेनुं एवो, गुणवालो, महा पराक्रमवालो धने स्वजनने l
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सुलसा
प्रिय एवो एकज पुत्र था. ॥ २७ ॥ म्होटा कार्यने करनारो ते एक पण पुत्र प्रसासर्गजो.
वाय तो सारु, परंतु निर्बल एवा घणा पुत्रोथी शुं ? केम के, फक्त एक एवो य पण || ॥omचं सर्व दिशाउने प्रकाशीत करे , परंतु उदय पामेला असंख्य तारा नश्री
प्रसूयते सूनुरेनूनकार्यकर्ता से एकोऽपि किमु पँनूतैः ।।
आशाः प्रकाशाः कुरुतेऽमृतांशुरेकोऽप्यसंख्या दिता नै ताराराणा ऐकापि नव्या वरकामधेनुः, सदैव या कामितदानदहा॥ धारि स्थितप्कयणीसहरी स्तुिणत्रोटिकरैः "किमन्यैः ॥ ३० ॥ एकोऽपि 'तेजःप्रकरैः पूर्णश्चितामणिश्चितितकार्यकर्ता ॥
हाराधिरूढैरपि वेर्तुलैच, कंगस्थितैः काँचमणीगणैः "किम् ॥३१॥ करता. ॥ श्ए ॥ जे निरंतर इछित मनोरथ पूर्ण करवामां कुशल, एवी एक पण , उत्तम कामधेनु ( गाय ) सारी; परंतु घासने तोडनारी, वृक्ष अने बारणामां उन्नेली एवी बीजी उखरणी हजारो गायोथी झुं ? अर्थात् कांश नहिं. ॥ ३० ॥ वली तेजना
॥४
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Mसमूहथी पूर्ण अने इलित कार्यने करनारो एवो एक पण चिंतामणी सारो; परंतु ||
हारमा परोवेला अने गोल एवा य पण कंठमा पहेरेला काचमणीना समूहे करीने
\? अर्थात् कांश नहीं. ॥३१॥ या लोकने विषे शछित संकल्पित सिद्धिने कर Mel नारा एवा एक पण कल्पवृक्षने रोपवू ए सारं, परंतु ताल, करीर, निंब अने धव
एकोऽपि संकल्पितसिधिकारी, संरोप्यते कैल्पमहीरुहोऽत्र ॥ "किं पालिस्तालकरीरनिंबधवावकशिप्रमुखे मैयैः ॥३२॥ ऐरावणो वारणराज एकोऽप्यास्तां चतुईतयुतः सुजात्यः॥
'निर्लक्षणैर्बर्बरकूलजातैविधीयते "किं कुंगजैः नूतैः ॥ ३३॥ विगेरे जे वांकिया ( फल विनाना ) वृक्षो चे, तेमने पाखवावडे करीने शुं फल ? अर्थात् || तेवा वृक्षोने पालवाथी कां पण फल मलतुं नथी.॥३॥ तेम ज चार दांत युक्त बने । श्रेष्ठ जातिवालो एक पण ऐरावण गजराज होय, ते सारो; परंतु लक्षण रहित अने बर्बरकुलमां ( नीच जातिमां) उत्पन्न थएला एवा घणा कुहस्तिए करीने गुं
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सुखसा
कराय ? अर्थात् कां नहीं. ॥ ३३ ॥ लोकोने अत्यंत श्रवण करावी ने कीर्ति जेणे एवो सजो,
अने महा वेगवालो एवोय पण एक उच्चैश्रवा नामनो (इंनो) अश्व सारो, परंत ॥३॥निरंतर जूंकता, कुरूपवाला थने घासने खानारा एवा अनेक टाडा (टङ ) उए । करीने शुं ? अर्थात् कांश नहीं. ॥ ३४ ॥आ लोकने विषे सर्व प्रकारना वैनव श्रने |
जच्चैःश्रवाः श्रावितकीर्तिरुच्चैरको वैरं सारजवोऽपि वाजी॥ घूर्णायमानैः सततं कुरूपैः, "किं टॉरकै?सदरैरनेकैः॥३४॥
आराधितः श्रीजिनराजदेव, एकोऽपि दाताऽखिलनुक्तिमुक्त्योः ॥ "किं येदशेपै?ढरागरोषैः, 'संतोषितैरितरैरपीद ॥ ३५॥ ऐकोऽपि सिंदीतनयः समर्थः, सत्त्वाधिकः कुंनिघटानिघाते॥
सुताः शृगाल्या बहवोऽप्य॑शक्ता, "विन्यंत उच्चैः प्रतिसारमेयम्॥३६॥ मुक्तिने आपनारा एवा एक पण श्राराधन करेला जिनेश्वर प्रजु सारा, परंतु गाढ राग | ॥४१॥ अने रोषवाला घणा एवा य पण संतोष पमाडेला यक्ष ने शेषे करीने शं? अर्थात कांश नहीं. ॥ ३५ ॥ वली महा बलवालो एवो एक पण सिंहणनो पुत्र (सिंह)
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हस्तिना कुंनस्थलनो घात करवामां समर्थ थाय बे; परंतु शीयालनां अशक्त ll एवां घणांय बालको कूतरा थकी पण अत्यंत जय पामे बे. अर्थात् सिंहना सरखो । पराक्रमवालो एक पण पुत्र सारो, परंतु शियाल सरखा अनेक पुत्रो कांश कामना । नही. ॥३६॥ हवे बे काव्ये करीने सर्व गोली साथे खाधाथी थएली पीडानं वर्णन करे . सुलसाए ए प्रकारे विचार करीने ते सर्व गोली एकी वखते साथे ज
तयेति मत्वा समकालमेव, संप्राशिरेता गुटिकाः समस्ताः॥ तासां प्रैनावेण बनूवुरुच्चैत्रिंशस्या छैदरेऽथ गर्नाः॥३॥ 'ते वैईमानाः समकालमेव, चक्रुश्च पीडादरेथ तस्याः॥
"कोणप्रमाणे कैलशे "दि खारी, पोपच्चमाना कैलशं "निनत्ति ॥३॥ खाधी. पड़ी ते गोलीउँना म्होटा प्रजावे करीने एना उदरने विषे वत्रीश गों
उत्पन्न थया. ॥ ३७ ॥ पड़ी एकी वखते ज वृद्धि पामता एवा ते गों, तेणीना उद| कारने विषे पीडा करवा लाग्या, कडं ले के-वत्रीश शेर अनाज रांधी शकाय एवा | METपात्रमा सोल मण अनाज रांधवा जश्ए, तो ते पात्रने ज फोडी नांखे . ॥ ३७॥
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सुलसा०
॥ ४२ ॥
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हवे वे काव्ये करीने गर्ज संबंधी थएली पीडाथी देवताने बोलाव्यो, ते कड़े बे. सर्ग३जो. ज्यारे ए सुलसा गर्जनी पीडाने सहन करवाने समर्थ न थइ, त्यारे तेणीए फरीथी हरिणेगमेषी देवताने संजारयो. कारण के, गाढ अंधकार थप बते सर्व जगत्ना जनोए सूर्य ज स्मरण कराय ते. अर्थात् सर्व माणसो सूर्यने संजारे बे. ॥ ३७ ॥ यावद्व्यथां सोदुमियं न शक्ता, संस्मार "देवं पुनरेव तावत् ॥ 'संस्मर्यते नास्कर एव यैस्मात् मूढे ते सर्वजगतनेन ॥ ३५ ॥ सा नागपनी प्रविधाय कायोत्सर्ग समुदिश्य सुरं तदास्यात् ॥ तदीयसत्वेन पुनः समेत्य शीघ्रं समानीय कैरों से ऊँचे ॥ ४० ॥ किं कार्यमायें पुनरेय जातं, मैयैव साध्यं गुरुदेवनक्ते ॥
सी पौरवी जगाद सैत्यं, स्वबुद्धिकृत्यं त्रिदशाय सर्वम् ॥ ४१ ॥ ते वखते नागसारथीनी स्त्री सुलसा गोलीउं श्रापनारा हरिणेगमेषी देवताने उद्देशीने कायोत्सर्ग करीने रही. जेथी ते देवताए तेलीना सत्वे करीने फरीथी तत्काल पासे श्रावी बे हाथ जोडीने कयुं ॥४०॥ दवे एक काव्ये करीने देवता पोताना स्मरणनुं कारण
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॥ ४२ ॥
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ने ने. हे श्रायें ! हे गुरुदेवजक्ते ! वली बाजे म्हाराथी ज साधी शकाय ते, बीज शुं काम श्रावी पड्यु ? ते सांजलीने, पढी सुलसाए कायोत्सर्ग पारीने सर्व पोतानी | alबुद्धिथी करेलु कार्य साचेसाचुं देवताने का.॥४१॥ हवे वे काव्ये करीने देवता, सुलसाने अविचाऱ्या काम करवाथी ठबको श्रापे डे. देवताए कह्यु. हे मुग्धे ! अरेरे !
से प्राद मुग्धे हहहा त्वयेदं, विचार्य कार्य न केंतं कुलीने ॥ द्वात्रिंशदेते तनया नविष्यत्येवाँधुना "किंतु समायुपस्ते ॥ ४ ॥
थक्टथक् चेदिमिकास्त्वमॉत्स्यः, सत्पुत्रदात्रीटिकाः समस्ताः॥
पुत्रास्तदा"ते एयगायुषोऽमी, शोमीर्थसाराः कतिनोऽनविष्यन्॥४३॥ ते श्रा काम विचारीने करेलु नथी. कारण के, हे कुलीने ! हमणां तने समान श्रायु ष्यवाला था बत्रीश पुत्रो उत्पन्न थशे ज. ॥ ४२ ॥ जो तें सत्पुत्रने आपनारी श्रा सर्व गोली दी जूदी खाधी होत, तो त्हारा ए (जदरमा रहेला धत्रीश) पुत्रो जूदा जूदा आयुष्यवाला, महा शौर्यवाला अने विद्वान् थात. ॥४३॥
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सुलसा
॥४३॥
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हवे उ काव्ये करीने सुलसा जाग्यनुं प्रवलपणुं देखाडे . ए प्रकारनी ते देवतानी सर्गजो. वाणी सांजलीने जिनेश्वरना वचनने विषे प्रवीण एवी सुखसाए कडं. दे देव ! जीवे जे कर्म (पूर्वे) जेवी रीते बांध्यु दशे, ते कर्म तेवी ज रीते (ते) जोगवेज .॥४४॥ श्रास सार वासमां करेलां कर्म मगना दाणामां पेसीए, तो पण जोगव्या विना बूटतां नथी.
गीर्वाणवाणीमिति तां निशम्य, बैनाण सा जैनवचःप्रवीणा ॥ जीवेन यत्कर्म यथैव बैंई, तथैव तैयत एव देव ॥४४॥ संसारवासे केतकर्मणोऽत्र. मुजप्रविष्टैरेपिट्यते न॥ नो चेत्परीतिः सलिलांतरेकस्तंनस्थसौधेऽपि कथं "विपन्नः ॥४५॥ यन्नैवे नाव्यं नवतीह तन्नं, तेन्नान्यथा यस्य यदस्ति भाव्यम् ॥
अंत्यतीकस्य यतोऽस्ति लान,दः परस्यैव ततो यतः स्यात् ॥४६॥ जो एम न होय तो, जलना मध्यनागने विषे एक स्तंजना महेल उपर रहेलो एवोय ॥४३॥ पण परीक्षित राजा केम मृत्यु पाम्यो.? अर्थात् करेगुं कर्म जोगव्या विना क्यारे पण बूटतुं नथी. ॥४५॥ श्रा लोकने विषे जे पुरुषने जे कांश पण थवानुं नथीज सृज्यु,
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तेने ते कांश पण यतुं नथी, अने जे पुरुषने जे कांई थवार्नु सृज्युं बे, ते थया विना | रहेतुं नथी. कारण के, एक पुरुषने जे वस्तुथी प्रत्यक्ष लाल , ते ज वस्तुथी बीजा पुरुषने हानी थाय . ॥६॥ मनुष्योने जेवा प्रकारनी नवितव्यता होय, तेवा ज प्रका रनी तेने मति थाय डे, श्रने सहाय्य पण तेवीज मले बे. जो एम न होय तो परम ।
संपद्यते सै मतिर्जनानां, तोहक सहाया अपि 'सेनवंति ॥ याहकस्वरूपा नवितव्यतॉस्ति,'नो'चेत्तथं 'दीव्यति धर्मजोऽपि॥४॥ गुणानिरामो यदि रामचं, राज्यैकयोग्योऽपि वनं जगाम ॥
"विद्याधरः श्रीदशकंधरश्चेत्, प्रनतदारोअप जैदार सीताम्॥४॥ धार्मिक धर्मनो पुत्र युधिष्ठिर पण शा माटे चूत रमे? अर्थात् जेवू जाग्य तेवी ज बुद्धि उत्पन्न थाय बे.॥ ४ ॥ वली जो गुणोए करीने मनोहर अने राज्यने योग्य एवा राम चंड पण वन प्रत्ये गया, तो घणी स्त्री उतां पण विद्याधर एवा रावणे सीतार्नु ह रण कडे. अर्थात् ए सर्व जाग्यना आधीनपणाथीज थयु . ॥ ७ ॥
ककककककककक000000000000०००००००
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सुलसा
॥४४॥
ते कारण माटे हे धर्मना अनुरागी हरिणेगमेषि ! हुं शोक करती नथी, तेम विस्मय सर्ग३जो. पण पामती नथी. केम के, आलोकने विषे बुद्धि कर्मने अनुसरनारी , एम हुँ मार्नु ला.जेथी माणस निश्चे नाग्यमां लखेली वस्तुने पामे दे. या हवे बे काव्ये करीने सु लसा पोताना गर्ननी पीडा निवृत्त करवानुं कहे . माटे हे देव ! जो त्हारी कांड पण
धर्मानुरागिन् हरिणेगमेषिस्तस्मान्न शौचामि न विस्मये च ॥ कर्मानुगा बुधिरिदेति मन्ये, प्राप्तव्यमाप्नोति जैनो "हि ननम् ॥ ४॥ तदेव काचित्तव शक्तिरंस्ति, पीडां मदीयां देर सत्वरं त्वम्॥ नो'चेनिज मंदिरोश याँहि, नोदये स्वयं कैर्मकेंत स्वयं तु॥ इत्युक्तवत्याः सहसैव तस्या, हेत्वा व्यथां तामुंदरोभवां सः॥
श्राशाः सेंमस्ता अपि "देदकात्या, पूरयन्नात्मपदं अँगाम॥५॥ शक्ति होय, तो तुं म्हारी पीडाने तत्काल नाश कर, अने जो त्हारी शक्ति न होय | तो कट पोताने मंदिर ( देवलोके) पालो जा. कारण के, म्हारं करेलु कर्म हंपोते ज लोगवीश. ॥५०॥ ए प्रकारे कहेती एवी ते सुलसाना उदरमा थएली ते पीडाने |
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॥४४॥
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तत्काल नाश करीने ते नैगमेषी देव पोताना देहनी कांतिए करीने सर्व दिशाउँने । पण पूर्ण करतो बतो (प्रकाश करतो बतो) पोताने स्थानके (स्वर्गने विषे) गयो. ॥५१॥ पढी विशेषे करीने धर्ममां तत्पर, स्थितिने जाणनारी अने सखीए करीने सहित। एवी ते नागसारथीनी स्त्री सुलसा पण स्थिर एवा सुखकारी पोताना गर्जने सुखे करीने हितकारी अने नियमित एवा पथ्य नोजने करीने पोषण करवा लागी. ॥५२॥ हवे
सा नागकांतापि सुखं सुखेन, 'विशेषतो धर्मपरा स्वगर्नम् ॥ "हितैर्मितैः पोषयतिम पैंथ्यैः, स्थिर स्थितिज्ञा संदिता सखीनिः अष्टिमाहैः संहितेषु मास्सु, नवप्रमाणेषु गतेषु युक्ताः॥
आसन्नसंस्थे परिवारवर्गे, जुने मुहर्ते शुननावयुक्ते ॥ ५३॥ त्रण काव्ये करीने उत्पन्न श्रएला पुत्रोनुं वर्णन करे . पढ़ी अनुक्रमे साडासात दिव। ससहित नव महिना गए बते, परिवार वर्ग पोतानी पासे बेठे बते शुज नाव युक्त एवा शुन मुहर्तने विषे योग्य एवा जाणे को कामने लीधे एका थएला व्यंतरोना: शोज होयनी ! अथवा तो बत्रीश लक्षणोना अधिष्टायक देवता ज होयनी ! वली
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सुलसा०
॥ ४५ ॥
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मूकी दीधी बे सौधर्म देवलोकना वैमानोनी लक्षसंख्या जेमणे एवा जाणे कोइ : सर्ग३जो. | शक्ति विशेष देवता ज होयनी ! एवा ते अत्यंत पोताना देनी कांतिए करीने तेज रहित करी नांख्या बे घरना दीवार्ड जेमणे एवा श्रेठ वत्रीश पुत्रोने समाधिवाली ते कार्यात्कुतश्चिन्मिलिता इवेंशस्तै व्यंतराणामिव लक्षणेशाः ॥ "विमुक्तसौधर्मविमानलक्षसंख्याः शैलाकात्रिदशा वाय ॥ ५४ ॥
त्रिंशच्चैर्निजदेहदीप्त्या, “निस्तेजिताशेषगृद्प्रदीपाः ॥ तया प्रसूताः समकालमेव, सैमाधिमत्या तनयाः प्रशस्ताः ॥ ५५ ॥ नागस्तेर्दादात्सुतजन्महर्षादर्धापनं मार्गणचे टिकान्यः ॥
सुवर्णरत्नानि बहूनि यस्मात् सर्वेऽपि लाना अनुपुत्रलाभम् ॥ ५६ ॥ सुलसाए एकी वखतेज जन्म श्राप्यो. ॥५३॥५४॥५५॥ हवे सात काव्ये करीने वधाइ महोत्सवनुं वर्णन करे बे. ते वखते नागसारथीए पुत्रजन्मना हर्षथी मागण अने दासीने वधाई रूप घणां सुवर्ण श्रने रत्नो श्राप्यां. कारण के, बीजा सर्वे लाजो पुत्र
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॥ ४५ ॥
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लाज पठीना ले. अर्थात् पुत्रलानथी उडा . ॥५६॥ दिशाउँना अंतनागमां विश्रा ति पाम्यो डे मृदंगनो नाद जेने विषे एवं, नेरी (नोबत ) ना शब्दे करीने युक्त ने शंखना नाद जेने विषे एवं, तेम ज नृत्य करती एवी वेश्याए कस्यो ने श्रानंद जेने विषे एवं अने बीजा वेषोए करीने अर्थात् लोकोए शरीरने विषे धारण करेला वस्त्र अने अलंकारोनी शोनाए करीने श्राप्यो डे मनने हर्ष जेणे एव॒ (नागसारथीए ।
'दिगंतविश्रांतमृदंगनादं, नेरीरवैमिश्रितशंखनादम् ॥ नृत्यधुवारकृतप्रमोदं, वेषांतरैर्दत्तमनोविनोदम् ॥५॥ सुवासिनीमंगलगीतगानं, 'वित्तानुसारेण 'वितीर्णदानम् ॥
कार्यातराऽऽप्रेरितकिंकरौघं, स्वपूज्यपूजाकरणैरमोघम् ॥ ५ ॥ श्रेष्ठ वर्धापन कराव्यु ) ॥५७॥ सुवासण स्त्रीए कहुं ने मांगलिक गीतोनुं गान || जेने विषे, वली नागसारथीए पोताना अव्यने अनुसारे आप्यु ले दान जेने विषे, ते || मज जूदा जूदा कायोंमां प्रेख्या अनुचरोना समूहो जेने विषे, अने पोताने पूज्य एवा तीर्थकर अथवा साधु विगेरेनी पूजाए करीने सफल एवं (नागसारथीए श्रेष्ठ ||
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॥४६॥
वर्धापन कराव्यु.) ॥५॥ गायन करी रह्या वे अनेक बंदिजनो जेने विषे, जणासर्ग३जो. रह्यां वे अनेक धर्मशास्त्र जेने विषे, श्राम तेम फरी रह्याने अनेक बंधुजनो जेने विषे, तेमज शुद्ध कस्यां ने अनेक गुप्त घर जेने विषे, एQ (नागसारथीए श्रेष्ठ वर्धापन क राव्यु.)॥५॥ उना कस्या ठे स्तंन जेने विषे, कां ने संघर्नु पूजन जेने विषे,
पापठ्यमानामितबंदिलोकं, वावच्यमानामितधर्मशास्त्रम् ॥ अटाट्यमानामितबंधुवर्ग, संशोध्यमानामितराप्तिगेदम् ॥५॥ उभिन्नयूपं कृतसंघपूज, कैतोत्सवं श्रीजिनमंदिरेपु॥ प्रदीयमानाज्यगुडं गदेषु, प्रविश्यमानादतपात्ररम्यम्॥६॥ संनोज्यमानागतसर्वलोकं, तांबूलदानेन 'विधूतशोकम् ॥
आवर्जितोत्सारितचित्तरोष, सत्पात्रदानैर्विहितान्यतोषम् ॥६१॥ जिनमंदिरोमां कस्यो उत्सव जेने विषे,तेम ज घरोने विषे वेंच्यां घी गोल जेने
॥४६ | विषे अने वधामणी निमित्ते श्रावतां एवां चोखानां पात्रोए करीने रम्य एवं ( नाग सारथीए श्रेष्ट वर्धापन कराव्यु.)॥ ६० ॥ नोजन कराव्युं वे श्रावेला सर्व लोकने ||
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जेने विषे, तांबूलना दाने करीने दूर कस्यो ने शोक जेने विषे, वली विनयथी त्याग 1 कस्यो रे चित्तनो रोष जेने विषे अने सत्पात्रने आपेला दाने करीने कस्यो अन्य पुरुषोने संतोष जेने विपे एq (नागसारथीए श्रेष्ठ वर्धापन कराव्यु.) ॥१॥ रथिकोमा मुख्य अने गोत्रजनोने सन्मान करवामां कुशल एवा ते नाग नामना सा,
स नागनामा रेथिकेषु मुख्यो, दायादसन्मानविधानदतः॥ 'विपदसंलदितशोकतानं, वर्धापनं सारमंकारयञ्च ॥६॥ क्रमागते क्षदशवासरेऽथ, संनोज्य सन्मान्य च गोत्रान् ॥
नामानि "तेन्यः पितरौ सुतेन्योऽमी "देवदत्ता इति तावेदत्ताम्॥३॥ रथीए जे करवाथी तेना शत्रुनो शोक जोवामां श्रावतो हतो, एवं श्रेष्ठ वर्धापन का राव्यु. ॥६॥ हवे एक काव्ये करीने तेना पुत्रोनां नाम पाडे दे. पनी अनुक्रमे श्रावेला
बारमे दिवसे गोत्रना वृद्ध पुरुषोने जमाडी अने सन्मान आपीने ते माता पिताए । Ma( सुलसा अने नागसारथीए) ते पुत्रोनां "श्रा देवदत्ता" एवां नाम थाप्यां. ॥६३॥
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सुलसा
Ma हवे पांच काव्ये करीने पुत्रोनी बाल्यावस्थानुं वर्णन करे . एकेक पुत्र प्रत्ये प्रेरे ।
सर्गश्नो . शाली एवी पांच पांच धावमातार्जए करीने अधिक पालन कराता एवा ते सर्वे पुत्रो ॥४७दिवसे दिवसे देवकुमारनी पेठे वृद्धि पामवा लाग्या. ॥ ६४ ॥ पड़ी घुघुर शब्द की
रनारा ते सर्वे कुमारो जेम जेम पृथ्वी उपर पोताना पग मूकवा लाग्या, (अर्थात्
प्रत्येकमायोजितपंचपंचधात्रीनिरुच्चैः प्रतिपाल्यमानाः॥ "दिनेदिने हैधिमवापुरते, सर्वे कुमारा इंच देवपुत्राः॥६४ ॥ पदं वितेनुर्नुवि ते कुमारा, यथायथा घुघुरशब्दकाराः॥ तथातथाच्चैः पितृमातचित्ते, हर्षप्रकर्षाः पैदाँदधुश्च ॥ ६५ ॥ 'तेषां तथा मन्मथवाग्विशेषाः, शोश्रूयमाणा व्यतरन् प्रेमोदम् ॥
सुवेणुवीणामधुकोकिलानां, स्वरा यथा कर्णविषीवनूवुः॥६६॥ चालवा लाग्या ) तेम तेम माता पिताना चित्तने विषे हर्पना समूहोए म्होटुं स्था ॥ नक कयुं. अर्थात् तेथी माता पिता अत्यंत हर्ष पामवा लाग्या. ॥ ६५ ॥ ते कुमा। रोनी वारंवार संजलाती एवी मनने मथन करनारी वाणी तेवी रीते हर्षने विस्ता
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रती दती के, जेवी रीते श्रेष्ठ वांसली, वीणा श्रने वसंत ऋतुमां कोयल ए त्रणेना | शब्दो पण कानने विषे फेर रूप थया ॥ ६६ ॥ पक्षी माता पिताए पांच वर्षनी उ |म्मरवाला थएला धने विनीत एवा ते कुमारो ( जणाववा माटे ) जणावनार पंकि तने सोप्या. कधुं वे के- जातिवंत मणियो पण वैकटिक नामना शस्त्रथी घसाएला
'ते पंचवर्षप्रमिता विनीताः, समर्पिताः पाठकपंमितस्य ॥ उत्तेजिता वैकटिकेन दि स्युनैर्मव्यनाजो मणयोऽपि जात्याः ॥६७॥ कलाः समस्ता अपि तान् कुमारान्, प्रत्येकमेकं तमेव वेंनुः ॥ गंगातटानीव मरालमाला, इंवॉलिमाला विकचांबुजानि ॥ ६८ ॥
बतां विशेष उज्वल थाय ते ॥ ६७ ॥ जेम हंसोनी माला गंगाना तटने अने म रोनी माला प्रफुल्लित यएला कमलोने वरे बे, तेम सर्व कला पण कुमारोने प्र | त्येकने तत्काल ज वरी. श्रर्थात् ते सर्व कुमारोए थोडा कालमां पुरुषनी व्होतेर क लानो अभ्यास कस्यो. ॥ ६८ ॥
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सुलसा०
॥ ४८ ॥
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हवे सात काव्ये करीने ते कुमारोनी युवावस्थानुं वर्णन करे छे. सर्व प्रकारना ने श्रायुधना युद्धने विषे निपुण, रणभूमिमां शत्रुर्जना पने नाश करनारा, उत्तम जाग्यवाला, अवस्थाए करीने समान ने श्री श्रेणिक राजाने पण मान्य एवा ते सर्वे कुमारो प्रधान यौवनने पाम्या ) ॥ ६७ ॥ श्रेष्ठ धर्मकलामां चतुर, जिने
दंग
समस्तदायुधयुक्ताः, संग्रामभूमौ निहतारिपक्षाः ॥
सोनाग्यसारा वयसा समानाः, श्रीश्रेणिकस्यापि नृपस्य मान्याः ||६|| सर्वेऽपि से धर्मकलाविदग्धा, जिनेंऽपूजागुरुनक्त्यमुग्धाः ॥ सल्लक्षणैर्लक्षितदेदनागा, मानप्रमाणोन्मितिनावितांगाः ॥ ७० ॥
श्वरनी पूजा ने गुरुनी जतिमां प्रवीण, उत्तम लक्षणोए करीने अंकित ( युक्त बे देहजाग जेमना अने योग्य प्रमाणनी ( सात हाथ अथवा एकसोने श्राव थांगु ल) उंचाइए करीने सुशोजित बे अंग जेमनां एवा ( ते सर्वे कुमारो प्रधान यौवन ने पाया. ) ॥ ० ॥
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सर्ग३जो.
॥ ४८ ॥
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निर्मल मनवाला, सजन पुरुषोना मनने श्रानंद यापनारा, याचकोने दान आप नारा, परस्पर प्रीतिए करीने बांध्यां वे चित्त जेमणे अने परोपकारने माटे ज एकतुं कस्युं वे एक द्रव्य जेमणे एवा ( ते सर्वे कुमारो प्रधान यौवनने पाम्या. ) ॥ ७१ ॥ पनी
स्वाशया सेऊनमानसानामानंददा मार्गणदत्तदानाः ॥ परस्परप्रीतिनिवइचित्ताः, परोपकारप्रगुणैक वित्ताः ॥ ७१ ॥ संपूर्ण लावण्यसुधानिधानं, रामालिनेत्रांजलिपीयमानम् ॥ "त्रिवर्गसंसाधन सावधानं, ते यौवनं प्रापुरेथ प्रधानम् ॥ १२ ॥ 'रंजोपमाना वयसा संमानाः, कुलीनकन्याः सेजिनं सहस्रम् ॥ ताज्यां पितृभ्यां पॅरिणायितास्तैः सर्वैः कुमारैर्महता मँदेन ॥ ७३ ॥
"
ते कुमारो संपूर्ण लावण्य रूप अमृतना जंगार, स्त्रीउए पोताना नेत्र रूप अंज | लीए करीने पान कराता ने त्रिवर्ग ( धर्म, अर्थ अने काम) ना साधनने विषे सा विधानभूत एवा प्रधान यौवनने पाम्या ॥ ७२ ॥ पढी ते माता पिता ( सुलसा अने
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॥४
॥
सुलसा || नागसारथी ) ए, ते सर्वे कुमारोने म्होटा उत्सववडे रंना सरखी उपमावाली, समानसर्ग३जो. वयवाली एवी (एकेक पुत्रने बत्रीश वत्रीश एम) एक हजारने चोवीश कुलीन कन्याउ
(शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ) परणावी ॥३॥पोताना रूपे करीने जगत्ने जीतनारा कामदेवना सरखी महा कांतिवाला,
ते सर्वे 'निजरूपनिर्जितजगत्कामप्रकामत्विषः, श्रीमणिकनूपतेः सहचरा राज्ञा युता"रेजिरे॥ ____ सौख्यांनोधिनिमग्ननीतिनिपुणाः स्नेहानुविक्षांतरा,
स्त्रायकत्रिंशकदेवता च महीपीठेऽवतीर्णा नेवाः॥ ४॥ श्रीमान् श्रेणिक राजाना सहचरो (साथे फरनारा),सुख रूप समुरुमां बूड्या उतां पण l नीतिमां निपुण अने स्नेहथी विधाई गयां (परस्पर) अंतःकरण जेमनां एवा ते ॥४॥ सर्वे कुमारो श्रेणिक राजाए करीने युक्त बता जाणे पृथ्वीना पीठ उपर अवतरेला न वीन त्रायत्रिंशक नामना देवताउंज होयनी ! एम शोजता हता. ॥ ४ ॥
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पोतानी मरजी प्रमाणे वन,वाव्य,पर्वत श्रने नदीना तीरने विषे बांध्यो ने श्रादर जेमणे, हस्ति तथा अश्वोनी खेलनकला श्रने दंग तथा आयुधने विषे धुरंधर, म्होटां म्होटां स्तोत्र, कविनां काव्य, नाटक अने कथा संबंधी ग्रंथोना अर्थना विचारभां तत्पर एवा
स्वदं वनवापिकानगनदीतीरेषु बहादराः, सर्वे ते गजवाजिखेलनकलादमायुधेबूंधुराः॥
सूक्तालीकविकाव्यनाटककयाग्रंथार्थचिंतापराः,
कॉलं "निर्गमयांबनूवुरैनघा दौगुंदका वामराः॥५॥ पुण्यवान् ते सर्वे कुमारो जाणे दोगुंदक देवताज होयनी ! एम कालने निर्गमन करता || हता. ॥ ३५ ॥ इत्यागमिक श्रीजयतिलकसूरि विरचिते सम्यक्त्वसंजवनाम्नि महाका || व्ये सुलसाचरिते सुतजन्मोत्सवो नाम तृतीयः सर्गः॥
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सुलसा०
॥ ५० ॥
200
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सर्ग ४ श्रो.
( वंशस्थवृत्तम् )
हवे मनोहर किल्ला सुशोजित विशाल सनागृहबाली ने श्रेष्ठ एवी विशाला नामनी नगरी बे. जे नगरीने विषे अर्थात् जे नगरीना फरती समुद्रना सरखी।
त 'वैशाल्यनिधा पुरी वेरा, 'विशालशालास्ति सुशालमालिनी॥ तैमालताली वनराजिराजिता, "विनाति यंत्रांबुधिवत्सुखातिका ॥ १ ॥ मंदोछतरिक्तयितरिसंगरे, बैजूव तस्याः "किल " चेटको नृपः ॥ यदीय एकोऽपि संपक्षमार्गणो, "विपदलक्षं विदधाति 'वेध्यताम् ॥ २ ॥ ताल ने तमालना वननी पंक्ति थी सुशोजित एवी म्होटी खाइ शोजी रही बे. ॥ १ ॥ जेनुं एक पण पीठावालुं बाण, लाखोगमे शत्रुने बींधी नांखतुं हतुं एवो अने शत्रुर्जना युद्धमां मदोन्मत्त शत्रुर्जनो नाश करनारो ते नगरीनो निचे चेटक नामनो | राजा हतो. ॥ २ ॥
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सर्ग४थो.
॥ ५० ॥
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ते वखते ए चेटक राजाने पोताना स्वरूपे करीने तिरस्कार करी बे नागकन्या जेणी ए एवी, जिनेश्वर जगवाने कहेला तत्वार्थना विचारमां श्रादरवाली, उत्तम लक्षण वाली, सर्व प्रकारनी कलामां निपुण, निरंतर शृंगाररसना एक मंदिर रूप, मनोहर, जे तदास्तोऽस्य सुते कुमारिके, स्वरूपनिर्भत्सितनागकन्यके ॥ सुवासिनी पंचसुतान्यत्तरे, जिनेंद्रतत्वार्थविचारसादरे ॥ ३ ॥ संलक्षणे सर्वकलाविचक्षणे, सदैव शृंगाररसैकमंदिरे ॥
मनोहरे 'यौवननारनंगुरे, सुजेष्टिकाचित्रण के निख्यया ॥ ४ ॥ युग्मम्. यदा कiपि तपस्विनिनुवा, त्रिदंमकुंमीजलपीविकाधरा ॥ धातुरक्तांबरधारिका शिखान्विता स्वशास्त्रार्थविशेषपोषिका ॥ ५ ॥ यौवनना जारे करीने रम्य धने सुवासिनी एवी पांच पुत्री पठीनी सुज्येष्टा श्रने चि |णा नामनी वे कुमारिका पुत्री हती. ॥ ३ ॥ ४ ॥ हवे एकदा त्रिदंग, कमंगलु, ज ल ने माजना श्रसनने धारण करनारी, सुधातु ( गेरु) श्री रंगेलां रातां वस्त्रने धा १ प्रभावती, शिवा, मृगावती, ज्येष्टा अने पद्मावती.
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सुखसारण करनारी, शिखावाली, पोताना शास्त्रार्थनुं विशेषे पोषण करनारी अने तपखिनी सर्गधयो.
उमां वाचाल एवी कोश्क परिवाजिका, पोताना- कन्याउँना अंतःपुरनी मध्य सजामां ॥५१॥ सुखथी बेठेली, सखीउथी वीटायली अने हर्षवाली ते (सुज्येष्टा श्रने चिल्बणा ए)
बन्ने कुमारीकाऊनी पासे अकस्मात् थावी. ॥५॥६॥ पड़ी ते तपस्विनी पोतानी मेले तेम तयोरेंकस्माउँपविष्टयोः सुखं, स्वकन्यकांतःपुरमध्यसंसदि ॥
सँखी निवेष्टितयोः प्रहष्टयोः, पुरः परिव्राजिकिका समाययौ ॥६॥ युग्मम् । ३ स्वयं समादाय तदंतरोंसनं, संशौचमेषा "निजधर्मादिशत् ॥
"निशम्यमानः"किल बौलमानसे, विनाति रॅम्यो न तु यो "विपश्चिताम् ॥ Lal निशम्य षष्ठी परमाईती सुता, तक्तमंतर्ध्वलिता क्रुधा नृशम् ॥
जगाद नो जीवदयां विहाय यविधियते 'शौचमॅशौचमेव तेत् ॥७॥ नी मध्ये श्रासन उपर बेसीने पवित्रता युक्त पोताना धर्मनो उपदेश देवा लागी. जे धर्म ॥१॥ सांजल्यो बतो निश्चे मूर्ख लोकोना चित्तने विषे ज शोजतो हतो; परंतु विछान् पुरु षोने रम्य लागतो नही. ॥७॥ परिवाजिकाए कहेलां वचनने सांजलीने परम अरिहं ।
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त प्रजुनी जक्त एवी चेटक राजानी उही पुत्री सुज्येष्टाए, क्रोधथी अत्यंत मनमां ब खतां उतां कडं. अरे! तुं जीवदयाने त्याग करीने, जे पवित्रता करे , ते अपवित्रता
ज. अर्थात् जीवदया एज पवित्रता . ॥ ७॥ थालोकने विषे दया विना आच । गरेबुं देव श्रने गुरुना चरण, पूजन, तप, क्षमा, स्नान, जप श्रने (लोकोने करेलो)। | दयां 'विना "देवगुरुकमार्चनं, तपादमास्नानजपोपदेशनम् ॥
विनिर्मितं सर्वमपीह निष्फलं, विनाति नो कर्षणवदिना जैलम् ॥५॥ देयैव मूलं किल धर्मनूरुदो, विधीयते सा सुतरामखंमिता ॥
देयां विना धर्मफलैर्न युज्यते, यतः सँमूलः फैलतीह पादपः ॥१०॥ उपदेश निष्फल एवं ए सर्व पण जल विनानी खेतीनी पेठे शोजतुं नथी. ॥ए॥ दया ए. ज निश्चेधर्म रूप वृक्षर्नु मूल कहेलु दे. माटे अत्यंत अखंमित एवी ते दयाने ज पा | लवी. कारण के, दया रूप मूल विना धर्म रूप वृक्षनां फलो मलतां नथी. केम के, थालोकने विषे मूलवायुं वृक्षज फले अ. ॥ १० ॥
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सुखसा०
॥ ५२ ॥
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हो ! गाया विनाना ने अत्यंत जीवोधी व्याप्त एवा नदीना अने तलावना जलने सर्ग४यो. | विषे निरंतर स्नान करनारा श्रने गेरुथी रंगेलां रातां वस्त्रोने धारण करनारा जलशू | करोना हृदयमां ते दया क्यांथी होय ? अर्थात् नज होय. ॥ ११ ॥ श्रालोकने विषे जो के, श्रा शरीर जलना कोडो घडाथी धोइए अने माटीवडे घसीए, तो पण निरं गालिते जीवसमाकुले नृशं, नंदीतटाकांनसि मैकतां सदा ॥ दया कुतः सा जेलपोत्रिणामैहो, कषायरक्तांबरधारिणां हृदि ॥ ११ ॥ ईदं शरीरं जलकुंनकोटिनिर्निमज्यते यद्यपि घृष्यते मृदा ॥ तथापि नीतवती निर्मल, सदा सुरानामनिवार्चितं मैलैः ॥ १२ ॥ जैलैरनेकैरपिष्टमांतर, शरीरिणां शुध्यति "नैव कर्हिचित् ॥ प्रभूततीर्थस्नपितापि तुंबिका, कंदुत्वमौ यथा प्रियार्पिता ॥ १३ ॥ | तर मलथी लिंपायला मद्यना पात्रनी पेठे अंदर शुद्ध यतुं नयी ॥ १२ ॥ जेम घणां तीर्थने विषे स्नान करावेली ने स्वामी अर्पण करेली अर्थात् मिष्ट जलथी सिंचन | करेली एवी तुंबडी पोतानी कडवाशने त्याग करती नथी, तेम प्राणीउनुं दुष्ट ( अप
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वित्र) एवं अंतर (हृदय) घणाय जले करीने क्यारे पण शुद्ध धतुंज नथी. ॥ १३ ॥ कधुं वे के यम नियम रूप जलथी पूर्ण, सत्य रूप प्रवाहवाली, शीलवत रूप तटवाली अने दया रूप तरंगोवाली श्रात्मा रूप नदी वे. हे पांकुपुत्र ! ते नदीने विषे स्नान कर. कारण के, अंतरात्मा जलथी शुद्ध यतो नथी. श्रर्थात् अंतरात्मा तो उपर कहे ली नदीना जलथी ज पवित्र याय बे ॥ १४ ॥ हे परित्राजिके ! पापी मनुष्यो प्रात्मानंदी संयमतोयपूर्णा, संत्यावहा शीलतटा देयोर्मिः ॥ तत्राभिषेकं कुरु पांफुपुत्र, नैं वारिणा शुध्यति चैांतरात्मा ॥ १४ ॥ ये जैले क्रियते निमनं, सपापदेदैर्निजपापमुक्तये ॥
निबोध रक्तादि पेंटस्य धावनं, तंत्र रेक्तांनसि शुक्लचता ॥ १५ ॥ पोतानुं पाप मूकावाने श्रर्थे जलने विषे जे स्नान करे वे, ते श्रालोकमां वस्त्रनी उज्वलता इछनारा पुरुषे रुधिरथी राता थएला पाणीने विषे वस्त्रने धोवा जेवुं ठे ! एम जाए. अर्थात् अनेक जीववाला पाणीमां स्नान कर ए कांइ पाप मूकावाने माटे नथी यतुं, परंतु पाप बंधावाने माटे थाय छे. ॥ १५ ॥
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सुलसा
॥५३॥
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थालोकने विषे जेमाणस तीर्थक्षेत्र विनानी बीजी नूमिमां जे कां पाप करे ,ते सर्गयो. पापनो तीर्थक्षेत्रमा गएला माणसो नाश करे ,परंतु जोते माणसो ते तीर्थक्षेत्रने विषे पण पाप बांधे , तो पड़ी ते पापनो नाश शी रीते थाय? अर्थात् न ज थाय.॥१६॥ ए प्रकारना वचनोथी ते सुज्येष्टाए पोतानी सखीनी समक्षमा ज जलने विषे शुकर
यदन्यनूमौ "क्रियतेऽत्र पातकं, तदस्यते धर्मनुवं गतैर्जनैः ॥ 'पैरंतु तंत्रापि"निबध्यते यदि, कथं"विमोदः किल तस्य दृश्यते॥१६॥ तयेति वाक्यर्विहिता निरुत्तरा, संखीसमदं देकशूकरांर्यिका ॥
गेले विधृत्याशु नेपांगणादिर्विहस्य तत्कर्मकरीनिरौसि सौ॥१७॥ al Qधा ज्वलंती हैदि कूटमंदिरे, ततः परिव्राजिकिकेंत्यचिंतयत् ॥
इमां स्वपांमित्यमदेन गर्वितां, क्वचित्सैपत्नीव्यसने"क्षिपाम्यहम् ॥१॥ समान एवी ते परिवाजिकाने बोलती बंध करी दीधी. पड़ी तुरत तेणीनी दासीen५३॥ ए हास्य करीने ते परिवा जिकाने गले पकडीने राजाना प्रांगणामांथी बहार काढी मूकी. ॥ १७ ॥ पड़ी क्रोधथी कपटना घर रूप हृदयने विषे बलती एवी ते परिवा
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जिका, मनमा एम विचार करवा लागी के, पोतानी पंमिताइना मदे करीने गर्व पा मेली श्रा सुज्येष्टाने हुँ कोई शोक्यना पुःखमां नां. ॥ २७ ॥ पढी केवल मत्सरवाली ते परिव्राजिका, श्रादरथी पट्टने विषे रंगथी सुज्येष्टाना प्रतिबिंबने श्रालेखीने पनी नमती बती (राजगृह नगरमां) श्रेणिक राजा पासे गइ. त्यां श्रेणिक राजाथी मान
ततस्तदीयं प्रतिबिंबोदरादिलेख्य वर्णैः फलके भ्रमंत्यसौ ॥ Ma अंगाउँपश्रेणिकमैकमत्सरा, त्वौप्य मानं नपतेरँदर्शयत् ॥१०॥
निरीक्ष्य तपमधीश्वरो नुवश्चिरं निदध्यौ हदि रूंपविस्मयात्॥
पट्टे किमेपा लिखिता तिलोत्तमा, स्मरप्रिया वाथ मुंजंगकन्यका ॥२०॥ पामीने पड़ी तेणीए ते पट्ट राजाने देखाड्यो. ॥ १५ ॥ पृथ्वीना अधिपति श्रेणिक राजाए ते रूपने जोश्ने तेना आश्चर्यथी हृदयमा घणा वखत सुधी विचार कस्यो के, पट्टने विष श्रालेखेली श्रा शुं तिलोत्तमा डे ? अथवा स्मरप्रिया ( रति ) के, नाग | कन्या ? के, कोई जलदेवता अथवा वनदेवता, आकाशदेवता के, हरवल्सना
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सुखसा
॥५॥
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(पार्वती) के, हरिप्रिया ( लक्ष्मी ) के, रविवङ्खला (रत्नादेवी) अथवा सरस्वति ले ? सर्गध्यो. गमे ते हो, पण था मानुषी ( मनुष्यनी जातिनी स्त्री) घटती नथी. ॥ २० ॥२१॥ कारण के, जे तिलोत्तमा , ते तो तलना जेटली ज उत्तम वे. श्रथवा जे रति । बे, ते तो कामना बली जवाथी पुःखीत बे, तेम ज जे नागकन्या जे. ते तो निश्चे
जलामरी वा वनदेवताथवा,खेदेवता वो देरवल्लनाथवा॥ हरिप्रिया वा रविवल्लनाथवा, सरस्वती वा घंटते नै मानुषी॥२१॥ 'तिलोत्तमा सा तिलमात्रमुत्तमा, स्मरप्रिया सा स्मरदादःखिता ॥ दिजिह्वतांका "किल सादिकन्यका,जलामरी वो के जलेश्वेरीहशी॥२॥ वनेचरी सा वनदेवता पुनः, खदेवतांकाशमुखी सदैव सा॥ हरांगना सौर्धशरीरिणी "किल, हरिप्रिया सा चैपलत्वदृषिता ॥ २३ ॥ बे जीजना चिन्हवाली बे. वली जे जल ( जड) नी मालिक जलदेवता , ते ॥५॥ तो श्रा प्रकारना रूपवाली होय ज क्याथी ? अर्थात् जसदेवता पण आवा खरू-13 पवाली नथी. ॥ २५ ॥ जे वनदेवता , ते तो वनमां फरनारी बे. वली जे श्राकाश-||
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देवता ले, ते तो निरंतर उंचं जोनारी , तेम ज जे दरप्रिया (पार्वती ) , ते तो निश्चे अर्ध शरीरवाली (अर्धागना) कडेवाय बे, श्रने जे हरिप्रिया (समी)
बे, ते चपलपणाथी दोषवाली . ॥ २३ ॥ जे रविवसना , ते तो सूर्यनां तीक्ष्ण Me किरणोना समूहना विशेष तापने पामी उती निरंतर जाज्वल्यमान (बलती होय ।
खरांशुसंपर्कविशेषतापिता, सदा ज्वलंती रविवल्लना तु सा॥ दिवानिशंसा करसंस्थपुस्तिका, "विचिंतया व्यग्रमनाः सरस्वती ॥२४॥ इयं सुरूपा लिखिता नितंबिनी, मैनुष्यलोके घटते कथं यतः॥ कुतो रेसायां घनसारसंनवो, मैरुदितौ कॅल्पलतोजमोऽथवा ॥२५॥ नहिं ) एवी . वली जे सरखती बे, ते तो दिवस रात्रीहाथमा पुस्तक धारण करती बती चिंताथी व्यग्र मनवाली बे. ॥॥ परंतु नितंविनी, उत्तम रूपवाली अने श्रा
खेली था स्त्री मनुष्यलोकमां केम घटे? अर्थात् नज घटे. कडं ले के-रसातलने विषे घाटा मेघनो अथवा कपूरनो संजव क्याथी ? अथवा मरुनूमिने विषे कल्पलतानी
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सुलसा०
उत्पत्ति क्यांथी ? ॥ २५ ॥ जो आ कोई मनुष्य लोकनी उत्तम स्त्री होय, तो एमीनो सर्गभ्यो. वनावनार ते ब्रह्मा कोइ बीजो ज होवो जोइए, कारण के, कलावान् एवो पण कुमा॥ ५५ ॥ मनोवलकर कीणां रेशमी लूगडां वणवामां समर्थ केम होय ? अर्थात् नज होय. सार्वपि स्याद्यदि मानुषीवरा, तदाउँदसीयो विधिरैन्य एव सः ॥ hi दि कुंग्रामकुविंद ईश्वरो, नैवेत् कैलावानपि पैंदृकर्मणि ॥ २६ ॥ हृदीर्ति तं विस्मयमानर्मुच्च कैस्त्रिं मिनी स्माद पुनर्नरेश्वरं ॥
मंदीपते विस्मयसे कैथं नैशं यथास्ति रूपं लिखितं तथा नैं वै ॥ २७ ॥ इयं कैनी चेटकनूपतेः पुनस्तवैव योग्यो स्ति सुरूपतानृता ॥ सुवर्णमयो'रिव 'संगमोस्तु वीं, सँका मंदिवेति गंता यथागतम् ॥ २८ ॥ ॥ २६ ॥ ए प्रकारे हृदयमां अत्यंत विस्मय पामेला ते राजाने फरीथी परिव्राजिकाए कधुं. हे महीपते ! केम अत्यंत विस्मय पामो बो ? कारण के, हजु जेवुं रूप बे, तेवुं तो लख्युं नथी. ॥ २७ ॥ श्रा चेटक राजानी न्हानी पुत्री बे. वली उत्तम रूपने
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॥ ५५ ॥
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Malधारण करनारी ते त्हारे ज (परणवाने ) योग्य ले. माटे सुवर्ण अने मणिनी पेठे||
तमारो हम्मेश संग था. एम कहीने ते परित्राजिका, जेम श्रावी हती तेम पाठी चालीगइ. ॥२॥ पबी पट्ट थकीश्रवण (कानना)मार्गे करीने हृदयमा पेठेली था नृप पुत्री सुज्येष्टाने चिंतवन करता एवा ते श्रेणिक राजाए प्रकृष्ट समाधिमां (ध्येय पदार्थनी साथे ) ऐक्य पामेला महायोगीनी पेठे सुज्येष्टा विना वीजें कां पण नहिं
ततः किंतीशो नॅपनंदिनीमिमां, हँदि विष्टां श्रुतिवर्मना पैटात् ।। विचिंतयन्नैव विवेद किंचन, विशिष्टयोगीव लेयं परं गतः॥२॥ ददर्श रूपं न पुरोऽपि संस्थितं, गिरं में शुश्राव निवेदितामपि ॥ विवेद गंधं न चे नासिकागतं, रस नै मेने सैरसं रसन्नपि ॥३०॥ जाण्यु. अर्थात् ते सुज्येष्टाने विषेज उत्कंवित थयो हतो. ॥ २५ ॥ जेथी ते श्रेणिक-17 राजाए पोतानी आगल रहेला एवाय पण रूपने न जोयुं, तेम ज कहेली वाणीने पण न सांजली.वली नासिका प्रत्ये प्राप्त थएला गंधने पण न जाएयो अने जमतां उतां पण रसने सरस न मान्यो. ॥ ३० ॥
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मुलसा Tell वली ते श्रेणिक राजाए पोताना अंगने स्पर्शित थएला कोमल एवाय पण हंसनांसर्गधयो.
पिंबां विगेरे पदार्थोना स्पर्शने पण न जाण्यो. एवी रीते दिवस अने रात्री सुज्येष्टाने || ॥५६॥ विषे ज उत्कंठित थएलो ते राजा उदासिन मनवाला पुरुषनी पेठे देखातो हतो.
से हंसतूलीप्रमुखान्मृदूर्नपि, बुबोध नावानपि नांगसंगतान् ॥ तदेकतानो पतिर्दिवानिशं, बनाव॑दासीनमनाः पुमानिव॥३१॥ ततश्य सेवावसरे सुतोऽनयकुमार आगत्य पुरो नंमन्नपि ॥ नॅपेण नाायि तेंदीयमानसं, परंतु तेनौवगतं कैचितम् ॥३२॥
अव्यग्रमालोक्य निपत्यपादयोर्जगाद तातं विनयेन नंदनः॥ कि विदयसे देवं सुधर्मना ईव, विशेषचिंताविधुरं कथं मैनः ॥ ३३ ॥ ॥३१ ॥ पढी सेवाने अवसरे पासे श्रावीने नमस्कार करता एवा पण अजयकुमार | ॥५६॥ पुत्रने राजाए जाण्यो नही, परंतु ते अजयकुमारे तो ते राजार्नु चित्त क्यादि गएवं ने एम जाएयु.॥ ३५ ॥ पठी अजयकुमारे पिताने उदासीन जोश्ने विनयथी पगमा
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पडीने कडुं. हे देव! तमे उदासिन सरखा केम देखाउँ डो? अने तमारं मन महा चिंताथी व्याकुल केम डे ? ॥ ३३ ॥ हे जगत्ने विषे एक वीर ! मरण पामवाने श्वता एवा कया पुरुषे तमारी नखंघन न थाय एवी आज्ञा उलंघन करी ? ते पुरुष, म्हारा शीघ्रगति करनारा बुद्धिरूप बाणोए करीने ताडन कस्यो बतो कणमात्रमा पण
अलंघनीया ननु केन लंधिता, मुमूर्षुणांशा जगदेकवीर ते॥ से बुझिवाणैनिदतो मैमोशुगैर्वशंवदस्ते नँवतात्दैणादेपि॥३४॥ विशेषरूपातिशयेन शालिनी, नरेंजकन्यामपरां मनोहराम् ॥
चिकीर्षसे वौथ मदीयमातरं, प्रंसीद कार्य मैम शाधि सेत्वरम् ॥ ३५॥ पहुं तमारे वश्य ढुं, एम कहेनारो था. ॥ ३४ ॥ अथवा हे तात ! अत्यंत श्रेष्ठ रू-Tell
पथी सुशोजित अने मनोहर एवी बीजी राजकन्याने म्हारी माता करवाने श्छो हो? अर्थात् कोई रूपवंती राजकन्याने परणवानी श्छा करो बो? हे पिता ! प्रसन्न था बने मने तत्काल चिंतवेला कार्यनी थाझा करो. ॥३५॥
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सुखसा
॥५॥
पठी फरीथी प्राप्त थले चेतना (स्वस्थता) जेने, तथा मनमा रहेली सर्व वात प्रगट सर्गभ्यो. करवावडे श्रादरवाला श्रेणिक राजाए अजयकुमारने कयु के,हे वत्स! समस्त राज्यमां म्हारे प्राप्त भएला कार्यने करनारो तुं एक ज ,पण वीजो कोइ नथी.॥३६॥ हे पुत्र! था लोकने विषे त्हारा सरखा पुत्रे करीने दुं फुःख रहित थयो ढुं. तथापि शुं करूं ?
अथाह राजा पुनरात्तचेतनो, मनोगताविकरणेन सादरः ॥ स्वमेव "मे वत्स "विरूढकार्यकृत, समस्तराज्ये न परोऽस्ति कश्चन॥३॥ त्वया निरस्ताधिरिदास्मि सूनुना, परंतु किं वत्स केरोमि मेऽधुना ॥ स्वयं परिवाजिकयोक्तरूपया, हृतं मनश्चेटकराजकन्यया ॥३७॥ ततः सुनंदातनयो नयोचितं, वचो बनापे स मनीषिशेखरः॥ विषीद मा तात नेज प्रसन्नतां, प्रदीयतां दूंत इमं नृपं प्रति ॥३॥ कारण के,ह्मणां पोतानी मेले परिवाजिकाए कह्यु ने स्वरूप जेणीनुं एवी चेटक राजानी ॥५॥ पुत्रीए म्हारं मन हरण करेलुं बे. ॥३७॥ पड़ी मनस्वी (बुद्धिवान् ) पुरुषोमां श्रेष्ठ एवा ते सुनंदाना पुत्र अजयकुमारे नीतियुक्त वचन कयु के, हे तात! खेद न करो. प्रसन्न
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था अने ए चेटक राजा प्रत्ये दूत मोकलो. ॥३८|| पढी हस्तना पराक्रमे करीने जी त्या अनेक शत्रु जेणे एवा श्रेणिक राजाए अजयकुमारना वचनथी एक हितस्वी दूत | विशाला नगरी प्रत्ये मोकल्यो. त्यां प्रतिहारे आज्ञा कराएलो ते दूत वेगथी वि| शाला नगरीना राजमंदिरने विषे गयो. ॥ ३७ ॥ योग्य श्रासनना दानथी मान पामेलो तदीयवाक्यात्प्रहितोदितो महीभुजा भुजावीर्यजितामितारिणा ॥ येण वैशालिकराजमंदिरे, गैतः स द्वैतः प्रतिहारवेदितः ॥ ३९ ॥ प्रणम्य तैं चेर्टेकराजर्मुच्चकैर्जगाद योग्यासनदानमानितः ॥ कॅमेण द्वैतः कृंतकौतुकः सतां, वचः प्रपंचैरिति कार्यमीशितुः ॥ ४० ॥ वस्ति या देव कलाकलापिनी, कॅनी विनीतॉगमधर्मवेदिनी ॥ निजार्थमैत्र हितोऽस्मि याचितुं, र्जितारिणा श्रेणिकनूनुजा तेकाम् ॥४२॥ दूत, ते चेटक राजाने अधिकताथी प्रणाम करीने अनुक्रमे वाणीना प्रपंचे करीने पंकि त पुरुषोने आश्चर्य करतो बतो पोताना स्वामीनुं कार्य या प्रकारे कहेवा लाग्यो. ॥४०॥
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हे देव ! कलावाली, विनयवाली तथा आगममां कदेला धर्मने जाणनारी जे तमारी
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सुखसा०
५८ ॥
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न्हानी पुत्री बे, तेनी पोताने माटे याचना करवाने अर्थे जीत्या बे शत्रु जेणे एवा श्रेणिक राजाए मने अहिं ( तमारी पासे ) मोकल्यो डे ॥ ४१ ॥ ते दूतनुं कहेतुं | सांजलीने चेटक राजाए कयुं. “ अरे दूत ! म्हारी आगल एवं न बोलवं. कारण के, दैस्तयवंशमां उत्पन्न थल्ली या पुत्रीने वादिक कुलने विषेढुं क्यारे पण नदि
asक्तमकर्ण्य नरेंडचेको, बैनाण रे दूत न वाच्यमग्रतः ॥ सुतामिमां दैस्तयवंशसंभवां, ददामि वादीककूले ने कैर्हिचित् ॥ ४२ ॥ निराकृतोऽसौ पुनरेत्य सत्वरं, शशंस सर्व मगधेश्वराय तत् ॥ नृपोऽवयाममुखच्च विस्तदा, विधुर्यर्थी नित्यविधुंतुदाहृतः ॥ ४३ ॥
श्रापुं. " ॥ ४२ ॥ ए प्रकारे कहीने चेटक राजाए काढी मूकेला ते दूते तत्काल पाढा | श्रावीने ते सर्व वात मगधेश्वर ( श्रेणिक राजा ) ने कही. तेथी ते वखते श्रेणिक | राजा निरंतर राहुथी घेराएला चंद्रनी पेठे श्याम थर वे मुखनी कांति जेनी एवो थयो. ॥ ४३ ॥
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सर्गभ्यो.
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ते वखते महा प्रधानोमां धुरंधर (मुख्य) एवा अजयकुमारे महा दुःखने विषे मूबी गएला पोताना स्वामीने (श्रेणिक राजाने) कयुं. "हे प्रजो ! कट शोकने त्याग करो अने स्थिर था. जेम हुं तमारा इक्षित कार्यनी सिद्धि करुं ॥ ४४ ॥ प्रथम दावानल श्रनियी बलेला अने पठी नवीन मेघना सिंचनथी नवपल्लव घएला एवा वनभूमिना मैदाधिमग्नं निजनायकं तदानयो महामात्यधुरंधरो जगौ ॥
जो विमुंचाशु शुचं "स्थिरीनव, नैयामि "सिद्धिं तव वतिं यथा ॥४४ सुःखदग्धोऽपि तदीयवाक्यतः, पुनर्नवी भूतमुखच्च वैर्बनौ ॥ नैवांबुसेकादिव पल्लवोन्मुखो, देवामिदग्धो वैनभूमिपादपः ॥ ४५ ॥ तेरे मोटय ततो गृदं गतोऽनयोऽपि रूपं फैलके निजेशितुः ॥ लिलेख सर्वांग विभागजासुरं, सुरासुराणामपि दैत्तविभ्रमम् ॥ ४६ ॥ वृक्षनी पेठे प्रथम महा दुःखथी दग्ध थएलो ने पढी अजयकुमारना वचनथी फरीने उज्वल यह बे मुखकांति जेनी एवो ते श्रेणिक राजा शोजवा लाग्यो. ॥ ४५ ॥ पत्नी श्रेणिक राजानी या सइ घर प्रत्ये गएला अजयकुमारे पण पोताना स्वामी (श्रेणि
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॥५
॥
सुखसा क राजा)नुं सर्व अंगना विजागे करीने देदीप्यमान तथा देव श्रने असुरोने पण था-सर्गयो.
प्यो ( दीघो) ने विज्रम जेणे एवं रूप पटने विषे थालेख्यु.॥४६॥ पड़ी ते अन्नयकु|मार गोलीना उपयोगथी पोताना स्वर, वर्ण, रूप अने तेजने बदलीने अने अत्तर विगेरे सुगंधि पदार्थ वेचनारा व्यापारी (सरैया) ना वेषने धारण करीने पोते श्राले
विधाय नेदं पेटिकोपयोगतः, स्वरस्य वर्णस्य च रूंपतेजसः॥ विधृत्य वेशं वणिजः सुगंधिनः, पुरीं से चित्रान्वित आट चेटकीं ॥४॥ ततः स तस्यामैनयो नयोशितः, सुगंधिवस्तूनि विधाय नरिशः॥
नरेंऽसौधस्य समीपवर्त्मनि, सुगंधिवीथ्यां विणिं म्यमंमयत् ॥ ४ ॥ खेला श्रेणिक राजाना चित्रने साथे लई चेटकराजानी (विशाला ) नगरी प्रत्ये गयो. ॥ ॥ पढ़ी जय रहित एवा ते अजयकुमारे ते विशाला नगरीने विषे घणी सुगंधी,
॥एए। वस्तुने बनावीने चेटक राजाना महेलनी पासेना मार्गने विषेसुगंधिपदार्थोना बजारमा M|| सुगंधी वस्तु ने वेचनार सरैयानी फुकान मांडी. ॥ ४ ॥
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पढी हम्मेश सुगंधी वस्तु लेवा माटे राजकन्या सुज्येष्टाए मोकलेली वृद्ध दासी तेनी | उकाने धाववा लागी.अजयकुमार पण ते राजकन्यानी दासीउने श्रेष्ठ अने विविध प्रकारनुंसुगंधी अव्य वधारे श्रापवा लाग्यो. ॥४एा ते दासीउँना श्राववाने वखते व्यग्र थयु ने
सुगंधिवस्तुग्रदणार्थमाययुः,सदाव्यकन्याप्रदिता मदल्लिकाः॥ तेदापणे सोऽपि देंदौ विशेषतः, समर्थमान्यो विविधं विलेपनम् ॥४॥ तदागमे व्यग्रमना अपि स्वयं, समदमासां फैलकं वितत्य तत् ॥ अंपूपुजनेणिकबिंबादरादरीणकांति णनाम चोच्चकैः ॥५०॥ मनोदरं ता नैररूपमाहताः, करे गृहीत्वा ददृशुः परस्परम् ॥ प्रैपबुरेनं वणिज चे कैंस्य नो, जगत्रयीजित्वररूपमर्चसि ॥५॥ मन जेनुं एवाय पण अजयकुमारे पोते ज ए दासीउनी समक्ष ते पहने उघाडीने विकखर कांतिवाला श्रेणिकराजाना प्रतिबिंबनुं श्रादरथी पूजन कमु, अने अधिकताथी वंदन कझुं. ॥५०॥ पनी श्रादरवाली ते दासीए मनोहर एवा ते नररूप (श्रेणिक ||
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सुलसा
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राजाना प्रतिबिंब) ने श्रादरथी परस्पर हाथमां लश्ने जोयुं अने पड़ी ए व्यापारी रूपसर्गयो,
अजयकुमारने पूब्युं के, "हे वणिक ! तमे त्रण जगत्ने जीतनारा था कोना रूपने पू॥
जन करो जो?" ॥५१॥ पठी अजयकुमार रूप व्यापारीए कडं. "हे मृगना सरखा। नेत्रवाली स्त्री! जगत्ने विषे अप्रतिम रूपवान एवो था म्हारो देव . ए मने नि
वैणिक जगादोथ मेंगेहणा अयं, मदीयदेवो जैगदेकरूपवान् ॥ देदाति में वाबितमेव सर्वदा, त्रिकालपूजां विदधामि तेन तु॥
समस्तचेट्यो जंगः कनीपुरः, कुमारिकांतःपुरमध्यमोगताः॥ Me विलोकि चित्रं वणिजोंतिकेऽद्य नो, नैवीनर्मस्मानिरंदृष्टपूर्वकम् ॥५३॥
रंतर इलित पदार्थ श्रापे डे. ते कारण माटे ढुं तेमनी त्रणे काल पूजा करूं टुं."॥५॥ कापढी कन्याना अंतःपुरमा श्रावेली ते सर्व दासीए चेटक राजानी न्हानी पुत्री सु.॥ Malज्येष्टाने कयुं. “हे राजकुमारी! आजे श्रमोए प्रथम को वखत पण नहि जोएलु। हा एवं नवीन चित्र एक व्यापारीनी पासे जोयु. ॥ ५३॥
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(ते सांजलीने ) सुजेष्टा कन्याए कयु. श्राजे तमोए बजारमा रहेली पुकान प्र-11 त्ये जे चित्र जोयुं बे, तेने तमे तत्काल अहिं लावो. कारण के, मने पण ते जोवाने म्होटं श्राश्चर्य उत्पन्न थयुं बे. ॥५४॥ (एवी रीते चित्र जोवाने माटे आतुर थएली सुजेष्टानुं वचन सांजलीने) फरीथी जुकाने गएली एवी ते दासीए राजपुत्री सुजेष्टाने
नेवाच कन्या नवतीनिरीक्षितं, यदद्य चित्रं विपणिस्थालयम् ॥ तदानयंत्वाशु भवत्य ईतितुं, ममापि यस्मान्महदेस्ति कौतुकम् ॥५॥ गैताः पुनस्ताः फलकं ययाचिरे, वणिम्वरं ते नॅपनंदिनीकृते॥ जैवाच सोपीति चार्पयाम्यद, यतोऽवजानीय मैदीश्वरं दे ॥५॥ कैथंकथंचिउँपथैरजेमनैः, प्रतीतिमुत्पाट्य तदीयचेतसः॥
ततो गृहीत्वा फेलकं समेत्य ता, ग्येण नैस्याः करपंकजेमुचन्॥५६॥ माटे ते म्होटा व्यापारी( अजयकुमार )नी पासे पूर्वे जोएला चित्रनी याचना करी.. तेणे पण एम कडं के, हुं ते चित्र तमोने श्रापीश नहीं; कारण के, तमे घरने विषे । म्हारा देवनी आशातना करो. ॥ ५५ ॥ ते दासीए म्होटा कष्टश्री नहि जमवा
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॥६
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ना (ज्यां सुधी या पट्ट तमने पालो न श्रापीए, त्यां सुधी अमे जमशुं नहीं एवा) सर्गधयो. सोगनोए करीने, ते अजयकुमाररूप व्यापारीना चित्तने विश्वास उपजावीने पनी पट्टने लइ तत्काल ते राजकुमारी सुजेष्टानी पासे श्रावीने तेणीना हस्तकमसने विषे थाप्यो. ॥ ५६ ॥ उत्तम रूप रेखाथी व्याप्त अने मनोहर एवा ते श्रेष्ठ पट्टमा
सुरूपरेखाकलितं मनोहरं, विलोकयंती पैटरूपमुच्चकैः ॥ तेदेकताना हृदये चिरीदिति, विकल्पसंकल्पवशा बनूव सा॥५॥ किंमेष इंः किमुवाय चमाः, किमाश्विनेयः किमुवार्थ भास्करः॥ किमेष कॉमः किमु कत्तिकासुतः, पैरोऽथ वा कोऽपि सैंरोऽसुरोऽयो॥ श्रालेखेला श्रेणिक राजाना रूपने जोती अने ते रूपने विपेज ने चित्तवृत्ति जे-al पाणीनी एवी ते सुजेष्टा हृदयने विषे घणा वखत सुधी था प्रकारे संकल्प श्रने विकल्प ॥१॥ बाकरवा लागा. ॥५७ ॥ शुं था इंज? अथवा शुं चंऽमा डे ? शं थश्विनीकुमार।
ने ? अथवा शुं सूर्य के ? शुं आ काम ले ? अथवा कार्तिकस्वामी ने ? के, वली
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बीजो को देव के दानव ? ॥ ५ ॥श्रा इंश तो नहिं ! कारण के, ते तो विस्फोटकना सरखां हजार नेत्रोए करीने खराव देखाय ! वली चंडमा पण नहीं ! कारण के, ते पण कलंकवालो . तेमज अश्विनीकुमार पण नहीं ! कारण के, ते तो वे जणा साथेज चालनारा होय . ॥ ५५ ॥ था सूर्य पण नहीं ! कारण के, ते तो।
अयं न शक्रः 'पिटकैरिवादिनिः, सहस्रसंख्यैः सं यतोऽस्ति कुत्सितः॥| मैं चापि चंः स यतः कलंकवान,नै चाश्विनेयो चिराविमौ यतःपणा अयं न सूर्योऽपि यतः स तापनो, न कामदेवोऽपि यतोऽयमंगवान् ॥ कथं घटॉमेति तु कत्तिकासुतो, यतः से पैइनिर्वदनैनयंकरः ॥६॥ परे सुराः केऽपि न चारुरूपिणोऽसुरा समस्ताः सूकरालमूर्तयः॥
नपेत्य जानीत तदस्य संनिधौ, कएप "देवो ननु संख्यदृशः ॥६॥ ताप करनारो ठे. तेमज कामदेव पण नहि ! कारण के, आ पट्टने विषे चित्रेलो तो अंगवालो . अर्थात् कामदेव अंग रहित ठे. वली कृत्तिकानो पुत्र (कार्तिक स्वा-2 मी) तो घटेज केम ? कारण के, ते तो ब मुखथी जयंकर देखाय डे.॥ ६० ॥ बीजा
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सुलसाव
॥ ६५ ॥
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कोइ पण देवता या प्रकारना मनोहर रूपवाला नथी. तेमज सर्वे असुरो तो सर्गभ्यो. | महा विकराल मूर्त्तिवाला बे. माटे हे सखीज ! ए व्यापारीनी पासे जइने निश्वे जाणो के, या प्रकारनो या महा रूपवंत कयो देवता बे ? ॥ ६१ ॥ पठी सर्वे सखीउए पाठी ते व्यापारी पासे ज फरी सर्व वात जाणी ने हर्ष पामतां तां राजक न्याने कयुं. हे सखि ! या देव नथी, पण तेज माणस बे के, जेणे पोताने माटे
वे सर्व पुनरेव देषिताः, स्मं संख्य आदुः प्रति राजकन्यकाम् ॥ यं देवः सखि किंतु मानवः, स एव येनात्मकृते वमर्थिता ॥ ६२ ॥ वाचसा कि 'ईदृशो यदि, कैथं ने तस्मै सखि मां ददौ पिता ॥ विलोक्यमाने मैं केि दाप्यते, जैनेन चिंतामणिनमंत्र किं ॥ ६३ ॥ व्हारी याचना करी हती. ॥ ६२ ॥ (ते सांजलीने) राजकुमारी सुजेष्टाए कयुं. हे स खि ! जो श्रेणिक राजा था प्रकारनो ( रूपवंत ) बे, तो पिताए मने तेने श्रर्थे केम न श्राप ? अर्थात् मने तेनी साथे केम न परणावी ? मणि जोवाए उते जो मनुष्यने चिंतामणि रत्न प्राप्त थाय, तो पढी अहिं ( त्यां) शुं बाकी (उनुं ) रहे बे ? अर्थात्
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॥ ६२ ॥
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का रहेतुं नथी. ॥६३॥ पठी सुज्येष्टाए कडं. हे सखि ! जो तुं म्हारु जीवित इ-all
ती होय तो ए व्यापारीने कहे के, जेम को प्रकारे श्रा तमारो देव म्हारो पति थाय ! तेम तमे तत्काल करो.॥ ६४ ॥ पठी सखिए तो ते सर्व वात तेवीज रीते श्र-1| नयकुमारने कही. तेथी अजयकुमारे पण तेणीने कडं. हे सुलोचना ! जो तमारो ||
ततो जगौ सा वैणिजोऽस्य कथ्यतां, यदीवसि त्वं मम जीवितं सखि ॥ यथा कथंचित्तव देव ऍप 'मे, 'पतिनवेत्त्वं कुरु सत्वरं तथा ॥६४ ॥ न्यवेदि तानिस्त्वेनंयाय तत्तथाऽनयेन चोक्तं यदि निश्चयोऽस्ति वैः॥
करोमि कार्य तेंदहें सुलोचनाः, परं कुंमार्या ने विचार्यमैन्यथा ॥६५॥ Me अधःप्रदेशे ध्रुवमेत्यमजसा, कृतं सुरंगामुखमस्त्यमुत्र चे॥ l तिथावमुष्यां नरराजकन्यया, नरेश्वरं तंत्र ययादमानये ॥६६॥ | निश्चय होय, तो ते कार्य ढुं करूं; परंतु पठी राजकुमारीए बीजो विचार करवो योग्य नथी. ॥ ६५ ॥ वली राजकन्या सुज्येष्टाए आ प्रदेशने विषे (अमुक जग्याए) सुरंगर्नु मुख करेलु डे, त्यां अमुक तिथिए निश्चे सुखे श्रावq अने जेम हुँ पण त्यां श्रे
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सुखसा० हाणिक राजाने लावू. ॥ ६६ ॥ श्रा प्रकारना संकेतने दृढ निश्चय करीने अने सुरंग सर्गधयो.
खोदनारा माणसोने श्राझा करीने, पढी प्रफुल्लित ले मुख जेर्नु थने मंत्रिमा ॥ ६३ ॥ हस्ति समान एवा अजयकुमारे राजगृही नगरी प्रत्ये श्रावीने सर्व वात श्रेणिक
राजाने कही. ॥६७ ॥ परी अजयकुमारना वचनथी हर्षवान्, कस्यो वे आयुधोने || विधाय संकेतममुं सुनिश्चितं, नरान्सुरंगाखनकान् नियोज्य चं॥ समेत्य सेवं नृपतेन्यवेदयकिस्वरास्योऽनयमंत्रिकुंजरः॥६॥ ततः सहर्षो मगधेश्वरोऽनयकुमारमंत्रेण कृतायुधश्रमः॥ समग्रमायुधपूरितांतररथाधिरूढः प्रचचाल साहसी॥६॥ तदा समस्ता अपि वीरमानिनः, स्वमित्रकार्योद्यतमानसाः सदा ।।
स्थाधिरूढाः सुलसातनूभवाः, महारथाः 'श्रेणिकराजमन्वगुः॥६ए॥ विषे श्रम जेणे, तेमज साहसी तथा सर्व प्रकारना दंम अने आयुधयी पूरी दीधेला ३॥ मध्य नागवाला रथ उपर बेठेलो श्रेणिक राजा चाट्यो. ॥ ६७ ॥ ते वखते वीर पुरुषोमां मानवंता, निरंतर पोताना मित्रना कार्यने विषे उद्यम युक्त मनवाला,
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| महारथी श्रने रथमां बेठेला सर्वे एवा पण सुखसाना पुत्रो श्रेणिक राजानी पाठल चाव्या. ॥ ६५ ॥ पठी महा वेगवंत अश्ववाला ते तेत्रीश रथो पण श्रखंकित प्रयाणे करीने तत्काल सुरंगना मुख आागल श्राव्या. पढी श्रेणिक राजाए पोताना माणसोनी साथे
रेयास्त्रयस्त्रिदेपि प्रयाणकैरेवं मितैः प्रापुरमंदवाजिनः ॥
डुतं सुरंगामुखमाप्तमानुषैस्त्वंची कथत् श्रेणिक आगमं निजम् ॥ ७० ॥ वादि सुज्येष्टिकयेति चिह्नणा, स्वसंर्गमिष्याम्यहमद्य वयसे ॥ तो नृपः श्रेणिक प्रागतोऽस्ति माँ, गृहीतुमंत्र प्रतिबिंबवीचितः ॥७२॥
| पोतानुं श्रागमन कदेवराव्यं ॥ ७० ॥ ते वखते सुज्येष्टार चिह्नणाने श्रा प्रकारे क. हे व्हेन ! जे तने पूर्वीने अर्थात् व्हारी थाझा लइने हुं जश्श. कारण के, प्रतिविंबमां जोएलो श्रेणिक राजा मने ग्रहण करवा माटे श्रहिं श्राव्यो बे ॥ ७१ ॥
१ जे एकलो, अगीयार हजार धनुर्धारी योद्धाओनी साथे युद्ध करे, तेमज शस्त्र विद्यामां अने शास्त्रमां प्रवीण होय, ते महारथी कहेवाय छे.
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सुलसा०
॥ ६४ ॥
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न्हानी व्हेन चिह्नणाए, म्होटी व्हेन सुजेष्टाने कयुं. हे जगिनि ! व्हारो पति एज म्हारो पण जर्तार था. कारण के, हे प्रियंकरे ! व्हारा बिना म्हारुं मन अर्ध क मात्र पण आनंद पामतुं नथी. ॥ ७२ ॥ ए प्रकारे परस्पर मनमां निश्चय करीने ते बन्ने व्हेनो, जे मार्गने विषे उत्साहवंत मित्रो सहित रथमां बेठेलो श्रेणिक राजा स्वसारमोद स्म चै चिला केनी, मैमपि नर्ता नैवतु त्वदीयकः ॥ विना यतस्त्वा रमते मनो नैं "मे, देणा ईमात्रं गिनि प्रियंकरे ॥ ७२ ॥ पेरस्परं ते इति निश्चिताशये, जैसे स्वसारौ त्वरितं समागते ॥ विलोकयन यंत्र पथे रेयस्थितो, नृपोऽस्ति मित्रैः सहितः समुत्सुकैः॥७३॥ विलोक्य नापाकमले वागते, स्वयंवरे श्रेणिक इत्यंचीकयत् ॥
दर्थमगां मृगलोचने अहं, यदीयो में चटतं रथं ततः ॥ ७४ ॥ वाट जोतो बतो रह्यो हतो, त्यां तत्काल यावी. ॥ ७३ ॥ पछी ( जाणे पोताने वरवाने ) स्वयंवरमां श्रावेली सरस्वती ने लक्ष्मीज होयनी ! एवी ते सुज्येष्टा श्रने चिह्नणाने जोइने श्रेणिके एम कयुं. 'हे मृगलोचने ! हुं तमारा माटे श्रहिं श्रव्यो
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सर्गभ्यो.
॥ ६४ ॥
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तुं, माटे जो तमे मने छती होय तो श्रा रथ उपर चढो. ॥ ७४ ॥ पठी जेटलामां न्हानी व्हेन चिलणा सहित म्होटी व्हेन सुज्येष्ठा, श्रेणिक राजा युक्त एवा रथ उपर बेठी, तेटलामां तेणीए ( सुजेष्टाए) श्रेणिक राजाने कयुं. " हे देव ! हुं म्हारो रत्न अने आभूषणथी नरेलो करंमि मूली गइ ढुं. ॥ ७५ ॥ हे वलन ! ज्यां सुधीमां हुं ज्येष्टिकारो दसौ से चिल्ला, यावत्प्रकृष्टा रँथमीशसंयुतम् ॥ बाण तावन्मं देव विस्मृता, कैरेमिका रेननृता भूषणा ॥ ७५ ॥ नयाम्यहं यावदिमां कैरमिकां विलंव्यतां तावदिदेवं वचन ॥ चिरं गता यावदिर्दे निगद्य सावदन् नृपं तावदेमी सदोगताः ॥ ७६ ॥ विलंबितुं देव चिरं न युज्यते, रिपोर्गृदे संप्रति गम्यते तम् ॥ asia गृहीतचित्रण चाल रौजार्थैरथ स्थितः पथि ॥ 99 ॥ ते म्हारा श्रलंकारोना करं मिश्राने लइने पाठी श्रावुं त्यां सुधी तमे हिंज उजार| हेजो. ' एम कहीने ते गइ अने घणी वार घर पण पानी न यावी. तेटलामां साथे | आवेला सुलसाना पुत्रोए श्रेणिक राजाने कयुं ॥ ७६ ॥ ' हे देव ! हमणां शत्रुना
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सुलसा०
॥ ६५ ॥
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घरने विषे वार लगाडवी ए योग्य नधी. माटे ऊट चालो. तेज॑नां एवां वचन सांजलीने फक्त एक चिह्नणानेज लइने मुख्य रथमां बेठेलो श्रेणिक राजा मार्गने विषे चाट्यो. ॥ 99 ॥ पढ़ी फरीथी पाठी आवेली सती सुज्येष्टिकाए सुरंग मार्गनुं मुख शून्य ( श्रेणिक राजा विनानुं ) दीतुं. तेथी तेणीए पोताने राजाना लाजथी बेतरायली
सुज्येष्टिको पुनरोगता सती, शून्यं सुरंगाध्वमुखं समैहत ॥ प्रमन्यत स्वं नृपलानवंचितं, चक्रे च 'बुंबारवमेवमुच्चकेः ॥ ७८ ॥ देतादाद नैगिनी हैता मैम, मैटा डुतं धावतधावताँधुना ॥ सुरंगया कि ऐष यात्यंहो, स्ववीरमानी नॅवतोऽवमानयन् ॥ ७९ ॥
मानी व्यर्थात् " श्रेणिक राजाए मने बेतरी " एम मानी अने उंचा सादथी या प्रकारे बुंबराण करी. ॥ ७८ ॥ हुं हाइ हाइ ! म्हारी व्हेननुं हरण थयुं. अरे सुजटो ! ऊट दोडो दोडो. अहो ! स्ववीरमानी एवो श्री श्रेणिक राजा तमारुं अपमान करतो बतो सुरंगनी वाटे जाय ठे. ॥ ७५ ॥
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सर्ग४थो.
॥ ६५ ॥
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ते वात सांजलीने क्रोधथी होग्ने मसता, राता मुखवाला अने हाथने पृथ्वी । उपर पढाडता एवा चेटक राजाए तत्काल उठीने अने बखतर धारण करीने जेटलामां ए श्रेणिक राजा रूप शत्रु उपर तैयारी करवा मांडी, ॥ ॥ तेटलामां वीरांगद नामना सेनापतिए प्रणाम करीने कडं. 'हे देव ! खेद न करो,अने प्रसन्न थश्ने । निशम्य तच्चेटकनूपतिः क्रुधाऽधरं देशंस्तावमुखो देतावनिः॥ सुतं समुत्राय गृहीतकंकटोऽन्यषेणयद्यावर्दै, "रिपुंति ॥॥ प्रणम्य वीरांगद कैचिवांस्तदा, "विषीद मा देव विधाविहाऽदिश॥ प्रसद्य मां येन करोमि सैंत्वरं, जैनेन साध्ये हि कयं नूद्यमः॥१॥ ततः स्वहस्तार्पितबीटकेन से, पेण नुन्नोऽविशदाशु साहसी॥ रैथान सुरंगाध्वनि संकटेयतोऽवगत्य चक्रध्वनिना तैतर्ज चे ॥२॥ मने श्रा कार्यने विषे श्राशा श्रापो; के जेथी ते कार्य हुं फट करूं. कारण के, सेवकथी। साध्य (थश् शके) एवा कार्यने विषे राजाए तैयारी करवी ए कांश योग्य ? अर्थात् सेवकने योग्य कार्यमां राजाए उद्यम करवो न जोशए. ॥ २ ॥ पठी पोताना हा-Mail
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सुलसा
यथी श्राप्यु के बी९ जेणे एवा चेटक राजाए प्रेरेखो (श्राझा करेलो) ते साहसी सर्गभयो,
वीरांगद नामनो सेनापति, तत्काल सांकडा एवा सुरंग मार्गने विषे गयो अने ॥६६॥ तेणे ) रथना पैडाना शब्दथी जता रथोने जाणीने (श्रेणिक राजाने ) तिर-18
स्कार कस्यो, ॥ २ ॥ ज्यारे ते वीरांगद मेनापति अनुक्रमे श्रेणिक राजानी पाउल
मेण पश्चाज्यसंस्थितान नटान्, शशाक नोखंघयितुं यदा तदा॥ सं एंकवाणं विससर्ज तेन तु, हताः सँमस्ताः मुंलसांगजाः समम् ॥७३॥ अपातयद्यावदेयं पृथक्टथक, रैथान समस्तानपि वैमनस्ततः॥ नॅपः स तावर्गत एवं दूरतो, नित्य वीरांगदवीर आगतः॥४॥ ना रथमा रहेला सुजटोने उलंघन करवाने समर्थ न थयो, त्यारे तेणे एक वाण
मूक्युं, अने ते बाणे करीने सुलसाना सर्वे ( बत्रीश) पुत्रो साथेज नाश पाम्या. 8॥ ६६ ॥ Manv३॥ पठी एणे जेटलामां ते सुरंगना मार्गमांधी सर्व रथोने जूदा जूदा पाडा)
नांख्या, तेटलामां तो ते श्रेणिक राजा घणे दूर जतो रह्यो. तेथी वीरांगद वीर
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पाठो वल्लीने पोतानी नगरी प्रत्ये व्यो. ॥ ८४ ॥ पछी ते वीरांगदे चेटक राजाने प्रणाम करीने पोते जेवी रीते वत्रीश वीर पुरुषोनो नाश करयो, तेवी रीते ते सर्व वात कही. ते वखते ज्ञाने करीने निर्मल एवो पण ते चेटक राजा एकी वखते। हर्ष ने खेदे करीने व्याप्त थयो. ॥ ८५ ॥ चेटक राजा पोतानी पुत्रीनुं हरण
प्रणम्य सर्वं निजगाद तर्त्तथा, कृतं यथा वीरनिषूदनं स्वयम् ॥ श्रुतावदातोपि बभूव भूपतिः, समं तदा षविषादसंकुलः ॥ ८५ ॥ ता ता तेन विषादमासदत्, जहर्ष चं श्रेणिकवीरमारणात् ॥ राज राजाऽयमिवोदयाचलस्तेमप्रकाशैः कैलितो दिवामुखे ॥ ८६ ॥
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धयुं तेथी ते खेद पामवा लाग्यो, अने पोताना सेनापतिए श्रेणिक राजाना वीर पुरुषोने मास्या, तेथी हर्ष पामवा लाग्यो. ए प्रकारे ते चेटक राजा प्रजातने विषे | अंधकार ने प्रकाशी व्याप्त एवा उदयाचलनी पेठे शोक ने हर्षथी दीपवा | लाग्यो. ॥ ८६ ॥
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सुखसा०
॥६
॥
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चेटक राजानीए प्रकारनी चेष्टाने सांजलीने विरक्त चित्तवाली सुजेष्टा पुत्री पण पो-सर्गधयो. ताना हृदयने विषे था प्रकारे विचार करवा लागी. “अरे! आलोकने विषे ते जोगने धिक्कार था! के, जे लोगोने माटे व्हेनो पण पोतानी वीजीव्हेनने तत्काल उतरे।
सुपि श्रुत्वापि तदीयचेष्टितं, विरक्तचित्तेति हँदि व्यचिंतयत् ॥ धिगैस्तु नोगानिद तान् स्वीपि यत्कृते चुतं वंचयते स्वसारमाः॥ ७ ॥ "धिगैस्तु कामान् मलमूत्रसंनवान्, परानवानां विहितास्पदान् सदा ॥
"निमेषमात्रं तनुसौख्यकारकान्, प्रनूतकालं नरकासुखप्रदान् ॥1॥ al धिगैस्तु किंपाकफलोपमानिमान्, मुखैकरम्यान् परिणामदारुणान् ॥
गुणधुमाणां देववन्दिसंनवान्, दयंकरान् देवलस्य नश्वरान् ॥५॥ मलमूत्र ने कारण जेमर्नु अर्थात् मलमूत्रथी उत्पन्न थता, वली निरंतर परानवोना स्था-॥ ६॥ नरूप, निमेषमात्र शरीरने सुखकारी अने घणा काल सुधी नरकना फुःखने आपनारा कामनोगोने धिक्कार था.॥॥ वली किंपाक वृक्षना फलनी उपमावाला, फक्त था-1||
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रंज (शरुयात) मांज रम्य, परिणामे दारुण, गुण रूप वृदोने बालवामां दावानल अनि सरखा, देहना वलने क्षय करनारा अने नाशवंत एवा ए कामनोगोने धिक्कार | था! ॥ नए ॥ ते कारण माटे जे पुरुष ए कामने विपे प्रीति करे , ते पुरुष खरेखर
तदेषु कामेषु करोति यो रेति, सँ एव मूकधुरंधरो नुवि॥ इमानिदानीमहमंप्यसंस्तुतान्, परित्यजाम्येकपदे व॒तं श्रये ॥ ए॥
(शार्दूलांवक्रोडितवृत्तम् ), ध्यात्वैवं सुचिरं विमुक्तविषया गत्वार्थ पित्रोः पुरः, तत्सर्वं स्वकृतं निवेद्य पितरावाटव्य गाढाग्रहात्॥
पित्री कोरितसन्महेन किल मुज्येष्टाकुंमायें सा, जैग्राद बैतमात्मना गवती श्रीचंदनासंनिधौ ॥ १॥ पृथ्वीमा मूखोंनी मध्ये एक धुरंधर ने. तेथी हमणां पण हुँ नहिं वखणायला ए काम जानोगोने एकी वखते त्याग करीने व्रतनो आश्रय करूं. अर्थात् व्रत थादरूं.॥ एala हए प्रकारे घणा काल सुधी विचार करीने पड़ी त्याग कस्यो वे विषय जेणीए एवी
रू०००००००००0000000000000००००००००००००००००
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बा सुलसाने खनावे करीने सुशोजित ते सुजेष्टा कुमारिकाएज पितानी पासे जश्ने श्रने पोता-सर्गधयो.
न सर्व कृत्यं निवेदन करीने तेमज गाढ श्राग्रहथी माता पितानी आझा लश्ने पिताए । ॥६०॥ करेला उत्सव पूर्वक श्री चंदना (चंदनवाला ) साध्वी पासे व्रत ग्रहण कखु. ॥१॥ हवे रथमां बेठेला अने मार्गने विपे जता एवा श्रेणिक राजाए, ते चिहणाने हे सु-||
(उपजातिवृत्तम् ) श्रीश्रेणिकोऽयोध्वनि यान् रेथस्थः, सुज्येष्टिके हे प्रतिचिलणां ताम्॥ इत्योलपंश्चिक्षणया बैनाषे, सुंज्येष्टिका नाम्यनुजा तु तस्याः॥ ए॥ श्रीश्रेणिकः स्मौद पुनस्त्वमेवे, ज्येष्टा गुणैर्देवि नेशं मैमेष्टा॥
झावेति नाम्ना किल चिल्लणां ती, सैमालपञ्चें प्रियवाग्विशेषः॥ ए३ ॥ ज्येष्टिके ! एम बोलावे बते चिसणाए उत्तर प्राप्यो के, हुँ "सुज्येष्टा नथी, पण तेणीनी न्हानी बहेन (चिहणा) हुँ.” ॥ ए५ ॥ फरीथी प्रिय वाणीवाला श्रेणिक राजाए कह्यं ॥६॥
के, “हे देवि ! गुणोए करीने म्होटी एवी तुंज मने घणी वहाली . एवीरीते तेMणीने चिल्लणा एवा नामवाली निश्चय जाणीने तेणीनी साये वातो करवा लाग्यो.
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॥ ९३ ॥ ए प्रकारे स्त्रीरत्नना लानयी श्रानंद पामेला थाने मित्रोना मृत्युथी दुःखित मनवाला श्रीमान् श्रेणिक राजाए, श्रेष्ठ पतिनी प्राप्तिथी दर्ष पामेली अने पोतानी बनने बेतरवार्थी कांइक खेद युक्त यएली, वली पोताना प्राण थकी पण अत्यंत वल्लज एवी. ते 'जाणे श्रीकृष्णे लक्ष्मीनेज ग्रहण करी दोयनी ! एम' चिलणाने ग्रहण ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्)
त्योंदाय सुवल्लनातिमुदितां दूंनां स्वसुर्वचनात् स्वप्राणादपि चिह्नां प्रियतमां लक्ष्मी मित्र श्रीपतिः ॥
श्रीमत्रे किनूपतिः प्रमुदितः स्त्रीरत्नलानात्पुन'मित्राणां मरणेन दुःखितमनाः शीघ्रं पुरं प्राविशत् ॥ ९४ ॥
करीने तत्काल पोताना पुर ( राजगृह नगर ) प्रत्ये प्रवेश कस्यो. ॥ ए४ ॥ इत्यागमिक श्री जयतिलकसूरिविरचिते सम्यक्त्वसंजवनाम्नी महाकाव्ये सुलसाचरिते चिल्लानयनो नाम चतुर्थः सर्गः
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सुलसा
सर्गरमो.
सर्ग ५ मो.
(वैतालियवृत्तम् ) पली पृथ्वीपति श्रेणिक राजा, ते प्रिया (चिबणा) ने अन्नयकुमार विगेरे सुजटो सहित पोताना घरने विषे मूकी पोते एकलो पुत्रना मृत्युनी वात कहेवा माटे ना
अथ भूमिपतिविमुच्य तां, देयितामात्मगृहेऽनयादिनिः॥ सुनटैः सह नागमंदिरे, सुतवार्ता गदितुं स्वयं ययौ ॥१॥ उपविश्य यथोचितासने, पंरिपिंचन्नयनांबुनिनुवम् ॥ युगपन्मरणं तेनूरुहामवदन्नागपुरः स मंदवाक् ॥२॥ अपतत्प॑विपातसंनिनं, सहसॉकर्ण्य वचस्तैदीयकम् ॥
'विनिवर्हितमूलपादपः, किल नागो गतचेतनो नुवि॥३॥ गसारथीना घर प्रत्ये गयो. ॥१॥ त्यां योग्य आसन उपर बेसीने नेत्रजल (आंसु) श्री पृथ्वीने सिंचन करता उता मंदवाणीवाला ते श्रेणिक राजाए, नागसारथिनी बागल तेना सर्व पुत्रोनी एकी वखते थएला मृत्युनी बात कही. ॥२॥ ए प्रकारे उचिंता
॥६ए।
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वजपातनां सरखां ते श्रेणिक राजानां वचन सांजलीने गयुं जे चैतन्य जेनुं श्रर्थात् | मूळ पामेलो ते नागसारथी, कपाश् गएला मूलवाला वृक्षनी पेठे पृथ्वी उपर पडीगयो! ॥३॥ पड़ी ते नागसारथी महा कष्टथी चेतनाने पामीने अर्थात् सचेतन थश्ने थ त्यंत विलाप करवा लाग्यो आने वारंवार मूळ पामवा लाग्यो, वली कगेर पृथ्वीने
विललाप नृशं सं चेतना, कैयमप्योप्य मुहुर्मुमूर्च च ॥ श्रेलुनकग्निावनौ पुनर्निजनालं स्वकरैरताडयत् ॥४॥ हैदये परिचिंत्य तान् ऐथकटयगुच्यैः सुतशोकसंकुलः॥
परिवारमैरोदय शं, से गुणग्रादमनेकधा रुंदन ॥५॥ विषे श्रालोटवा लाग्यो, तेमज पोताना हाथथी पोताना कपालने कूटवा खाग्यो. unil Malपुत्रना शोकथी व्याप्त थएलो ते नागसारथी, पोताना हृदयने विषे ते पुत्रोने जूदा जूदा
स्मरण करीने तेना गुण ग्रहण करवा पूर्वक अनेक प्रकारे म्होटा सादश्री रुदन करतो तो पोताना परिवारने अत्यंत रुदन कराववा लाग्यो. ॥५॥
क०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
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सुखसारे दुर्दैव! तें, जगत्प्रिय एवा म्हारा पुत्रोने एकी वखते केम हरण कस्या ? त्हारे पण सर्गएमो.
सहाय्यने माटे ते म्हारा पुत्ररूप सुनटोथी करी शकाय एवं कार्य पड्यु के शु?॥६॥हा ॥9 ॥
हा!अल्प फलने माटेज अत्यंत तराएलो, बल रहित श्रने नाश थया बेघणा पुत्रो
दतदैव हैता कथं त्वया, मम पुत्रा युगपऊँगत्प्रियाः॥ किमु तेऽपि सहायताकृते, सुनटैः कार्यमलं बनूव तैः॥६॥ अबलः फैलकार्यवंचितः, 'दितपोतः सुतरामहं दहा ॥ गुरुःखमहार्णवे कथं, पतितः कर्मवशादुरुत्तरे ॥७॥ मेयकेति मनोरथः कुतोऽनवदेते तनया नयान्विताः॥
जैरसोधिगतस्य मे वपुः, सैंतरां लालयितार ईश्वराः॥७॥ Ma(वहाण, होडी) जेना एवो हूं, कर्मना वशथी दुःखे तरी शकाय एवा म्होटा दुःख
रूप समुजमां केम पड्यो ? ॥७॥ में (अज्ञानथी ) एवो मनोरथ कस्यो हतो के, श्रा न्यायवंत एवा म्होटा समर्थ पुत्रो, वृद्धावस्थाथी व्याप्त थएला म्हारा शरीरने अत्यंत
॥४०॥
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लाड लडावशे. ॥ ८ ॥ हे दुर्दैव ! पुत्रोनो नाश करता एवा तें म्हारा मननो मनोरथ पण निष्फल कस्यो ! श्रर्थात् 'वृद्ध थएसा म्हारा शरीरने पुत्रो लाड लडावशे' एवो। जे में मनमां मनोरथ कस्यो हतो, ते पण व्हाराथी सहन न थइ शकवाने लीधे तें म्हारा पुत्रोनो नाश कस्यो े. ए प्रकारना शोकरूप पिशाच (नूत ) थी श्राश्रय
मनसोऽपि मनोरथस्त्वया, तनयान् संहरता कृतोऽफलः॥ इति शोक पिशाच संश्रितो, जैनको गाढतरं रुरोद सेः ॥ ए ॥ लयबाहुलता श्रियोनिता, विवशा पुत्रशुचा सुधीरिमाः ॥ सुलसापि पपात भूतले, केरिणोन्मीलितपद्मिनीव हैं ।॥ १० ॥
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| कराएला (ग्रसित थएला) ते नागसारथी पिताए अत्यंत रुदन कस्युं ॥ एए ॥ पुत्रना | शोकथी परखाधीन थपली, शीथिल थइ गइ बे हस्त रूप लता जेणीनी, शोजा र हित अने अत्यंत धीरजवाली सुलसा पण हस्तिए तोडी नांखेली कमलिनी ( पोय णी) नी पेठे पृथ्वी उपर पड़ी गई ! ॥ १० ॥
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सुखसान
विकणाना पवन श्रने चंदनना रस, तेमज वीजा अनेक प्रकारना उपचारोए करीने समो ,
बहु काले चेतनाने पमाडेली ते सुलसा, फरीथी या प्रमाणे विलाप करती उती रुदन ॥३१॥
करवा लागी. ॥ ११॥ अरे ! पुत्रना शोकनो नाश करनारी, सखीना सरखी म्हारी मूर्छना कोणे हरण करी? हे सखि मृर्वे! त्हारा विना हुँ पुत्रना शोक रूप था असह्य
व्यजनानिलचंदनवैरुपचारैरेपरैरनेकधा॥ गमिता सुचिरेण चेतना, "विलपंतीति सरोद सा पुनः॥११॥ मैम केन हैता हूँ मूर्चना, सुतशोकापनुदा सेखीसमा ।
अविषह्यमिदं सदाम्यहं, सखि मूवतीमते कैयम् ॥१२॥ बैत तेऽपि मृता मैदंगजा, अहमद्यापि नवामि सुंस्थिता॥
सहसा यदि नो" धौनवं,तदेही कग्निीस्मि "निश्चितम् ॥१३॥ उखने केम सहन करी शकुं? अर्थात् पुत्रना मरणतुं फुःख मू थी अथवा मरणथी।
विस्मृति पामे . वीजाथी विस्मृति पामतुं नथी.॥ १२ ॥ अरे! मने एज खेद थाय । Maa के, ते म्हारा पुत्रो पण मृत्यु पाम्या अने आज सुधी हुँ खस्थपणे रहेली . all
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अर्थात् जी, बं; परंतु हवे जो ढुं सहसा फाटी न ज तो खरेखर पारथी पण कठीण ९, एम मानवं जोए. ॥ १३ ॥ अरे ! वली पण मने वधारे खेद तो एज थाय ठे के, जेडए क्यारे पण कगेर नाषण कऱ्या नथी, अथवा जेमनुं मन क्यारे पण विनयने उल्लंघन करी गयुं नथी,तेमज माता पिताना चरणना नमनने विषेप्रीतिवाला
नं कदापि कैगेरनाषिणो, "विनयातिक्रममानसा न वा ॥ पितमातृपदानतौ रताः, के सुंता देत नवेयुरीहशाः॥१४॥ तेनयाः सततं 'विकाशिनां, नवतामांस्यसरोरुहां श्रिये ॥
अवतारणमस्मि चक्षुषां, वरसौनाग्यकलावतां पुनः॥१५॥ श्रावा पुत्रो क्याथी होय ? अर्थात् म्हारा पुत्रो जेवा विनयवंत पुत्रो मलवा दुर्लज . Mailna ॥ हे तनयो ! हुँ पण निरंतर प्रफुल्लित एवां तमारा मुख रूप कमलोना अने
वली उत्तम सौजाग्यनी कलावंत एवा तमारां नेत्रोना उतारवाना स्थान रूप ढुं माटे मृत्यु पामुं हुं. ॥१५॥
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सुलसा०
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विजयने विषे समर्थ ने घूंसरीना सरखा तमारा बन्ने दस्तनुं हुं बलि करुं बुं. तेमज : सर्ग मो. | कष्टने विषे धीरपणाने धारण करनारा तमारा खजानी जवारणा लनं तुं ॥ १६ ॥ श्ररे पुत्रो ! प्रणाम करवामां प्रेमवाला एवा तमारा विना हमणां दिवसना उदयने वखते नुजयोर्विजये समर्थयोर्युगसाम्यं दधतोर्वलिः क्रिये ॥
विधुरे संघरत्वधारिणोर्विदधे न्युनकानि चसियोः ॥ १६ ॥ दिवोदय एव "धुना त्वरितं देत संमेत्य पुत्रकाः ॥ नवतो नैतिवत्सला विंना, प्रणति कोऽत्र "विधास्यति ध्रुवम् ॥ १७ ॥ मातरितीरितं पुरा, नवदीयं वचनं स्मराम्यदम् ॥
जनतानयनामृतांजनं, के गेंता सा नैवदंगचंगिमा ॥ १८ ॥
तत्काल म्हारी पासे खावीने निश्चे श्रहिं बीजं कोण मने प्रणाम करशे ? ॥ १७ ॥ पूर्वे, हे मात ! एम कहेता एवा तमारा वचनने हुं स्मरण करुं हुं. मनुष्योना समूहना नेत्रोने अमृतना अंजन सरखी ते तमारा अंगनी मनोहरता क्यां जती रही ? ॥१८॥
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॥ १२ ॥
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अरे दुर्दैव ! जो म्हारा पुत्रोनी स्त्रीउने एकी वखते विधवा करवानी त्हारी बुद्धि न होत तो, सुरंग विना ए म्हारा पुत्रो लीलाए करीने एकी वखते सायेज केम पडे ?|| अर्थात् म्हारा पुत्रोनी स्त्रीउने एकी वखते विधवा करवानी हारी बुद्धि होवाथी सुरंगमा तेउनो तें साथेज नाश कस्यो. ॥ १५ ॥ श्रथवा गर ने बुद्धि जेणीनी अने
दतदेव ने चैवं ते मतिः, समवैधव्यविधौ वैधूजने ॥ सैममेव विना सुरंगया, कैथमेते निपतंति लीलया ॥१॥ अथवा स्वयमेव निर्मितं, गैतबुझ्या मंयका हताशया॥ युगपत्सुतमृत्युकारणं, "किमु जैग्धा ऍटिकाः समं ने चेत् ॥२०॥ हैदहा ईतका कथं मुखं, स्वमंहं दर्शयितुं जने दमा ।
युगपन्मरणेन 'देसुता, नैवतां ब्रूत गतानुकंप्यताम् ॥१॥ हणा गयो ने श्राशय जेणीनो एवी में पोतेज ते एकी वखते पुत्रना मृत्युनुं कारण | निपजाव्यु , जो में देवताए श्रापेली गोली साथे न खाधी होत तो शुं श्राम || थात ? अर्थात् न थात. ॥ २० ॥ हे पुत्रो ! मने ए बहुज खेद थाय ने के, तमारा
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सुलसाएकी वखतना मरणे करीने अनुकंपा (दया) नावने पामेली अने हणाएली हूँ हवेसर्गएयो.
मनुष्योने विषे म्हारं पोतार्नु मुख देखाडवाने केम समर्थ थलं ? ते कहो.॥२१॥ ॥७३॥ पी पतिना वधे करीने पीडा पामेलो अने स्मरण थयुं वे प्रियनुं खेलन जेने तेमज
जूदा जूदा ग्रहण करूया डे पतिना गुण जेणे एवो ते सुलसाना पुत्रोनी स्त्रीनो स
अथ नर्तवधेन पीडितोऽन्वैरूदत्ता पंतिमातरं भैशम्॥ स्मृतवल्लनखेलनः पृथक्टयगात्तेशगुणो वधूजनः॥२२॥ हेदयेश कयं विना वया, मम यास्यति सुशून्यवासराः ॥ मैं "विषोढुमदं "वियुक्तता, घटिकामात्रमैपि दमा यतः॥२३॥ अनवनवति प्रैनावती, सैति या मे दणदा हपोपमा॥
रंजनी यमजिविकेवे सा, नैयदा नाति सैमीपसर्पिणी॥२४॥ समूह, ते रुदन करती एवी पतिनी माता ( सुलसा) नी पाठल अत्यंत रोवा लाग्यो. ॥ ३॥
हे हृदयेश ! तमारा विना म्हारा अत्यंत शून्य दिवसो केम जशे ? कारण के, हुँ । एक घडीमात्र पण तमारा वियोगपणाने सहन करवाने समर्थ नश्री. ॥२३॥ हे नाथ! |
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हातमे विद्यमान बतां जे महा प्रनाववाली रात्री मने क्षणमात्रना सरखी थती
हती, तेज रात्री तमे थविद्यमान बतां पासे श्रावती यमनी जीन सरखी अत्यंत नयंकर देखाय . ॥ २४ ॥ यमराजना मार्गने विषे पथिक थएलो अर्थात मृत्यु पामेलो एवो पण कामदेव पोते पाठो श्रावीने पोतानी रति प्रियाने शुं नश्री भयो ?
में कथं पुनरेत्य मन्मथः, पंथि पांथोऽपि यमस्य 'संगतः॥ प्रिंयया सह कांत तत्त्वमप्यनुकंपां कुरु मैय्यमूहशीम् ॥२५॥ करकंकतकेशमार्जनं, 'प्रिय यन्मे "विहितं त्वया पुरा ॥
अधुनापि तदेव विद्यते, मॅगनानीश्वलेपनिश्चलम् ॥२६॥ अर्थात् मख्यो बे. माटे हे कांत ! तमे पण म्हारे विषे श्रा प्रकारनी अनुकंपा करो. अर्थात् तमे पण पालाश्रावीने मने मलो. ॥२५॥ हे प्रिय ! पूर्वे तमे पोतेज जे म्हारा कांकशीए करीने केश जेव्या हता तेज केशर्नु उलq हमणां पण कस्तूरीना रसना लेपे करीने युक्त होवाथी निश्चल . ॥६॥
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Mail जे पोतेज हर्षथी गूंथेखां पुष्पना आचरणो म्हारा हृदयने विषे तमे स्थापन कस्यांसर्गएयो. सुखसा
हतां, तेज आ पुष्पनां बाजरणो स्मृति प्रत्ये (स्मरणमां) श्रावीने था म्हारा हृदयने
विदारी नांखे ! ॥ २७ ॥ हे मुखमंगन पंमित ! तमे मनोदर आकारने माटे म्हारा | ॥ ७ ॥
कपालने मंमित कटुं. अर्थात् केसर चंदनादिके करीने सुशोजित क श्रने पोतेज
कुसुमानरणानि यानि मे, स्वयमेवे ग्रथितानि संमदात् ॥ हृदये निहितानि तानि "दि, स्मृतिमागत्य हैणति हैद् विधा ॥॥ "निहितं स्वयमेवें वीदितं, पुरतोनूय कैपोलममनम्॥ मुखममनपंमित त्वया, रुचिराकारकृते स्मरामि तत् ॥२०॥ इति तान् रुदतः पुनःपुनः, पतितान् शोकमहार्णवे नृशम् ॥
संदजामवलंब्य धीरतामनयोऽवक नवनावनिर्नयः॥२॥ फरीथी श्रागल श्रावीने जोयु, तेज मने वारंवार याद श्रावे . ॥ २७ ॥ ए प्रकारे ॥४॥ वारंवार रुदन करता अने अत्यंत शोकरूप महा समुजमां पडेला ते सर्वेनी प्रत्ये, जव नावनाथी निर्जय एवो अजयकुमार खाजाविक धीरजपणानो श्राश्रय करीने बोल्यो..||
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॥श्ए ॥ हे जनो! जैनमतना अर्थने जाणनारा श्रने संसार संबंधी जावनाने धारण || करनारा एवा पण तमारे अविवेकी मनुष्योनी पेठे शोकरूप समुअमां पडवू ए योग्य नथी.॥ ३० ॥ कारण के, श्रा संसार इंग्रजाल सरखो, इंऽधनुष्य सरखो, विजली सरखो, गजेंना कान सरखो अने पाबला पहोरना संध्याना वादलाना रंग तथा रूप
अयि जैनमतार्थवेदिनामपि सांसारिकनावनानृताम् ॥ नवतां नदि शोकसागरे, पतितुं युक्तमिवाविवकिनाम्॥३०॥ यदेयं नैव इंजालवहरिकोदंम चौतिचंचलः॥ चपलेव गेजेंकर्णवत्, पैरसंध्यानकरागरूपवत् ॥३१॥ पवनेरितवलपूरवन्मृगतृष्णे निदाघवासरे॥
युवतीनयनांतवत्संदा, इतकल्लोल इवांनसां निधौ ॥३२॥ सरखो अति चपल .॥३१॥ वली ते संसार पवने उडाडेला रुना समूहना सरखो, उनालाना दिवसे कांऊवाना जल सरखो तेमज निरंतर स्वीना नेत्रोना अंतनाग सर खो भने समुज्ने विषे ऊडपथी चालता एवा कबोलना सरखो चपख. ॥ ३५ ॥ell
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सुखसा
॥
था संसारमा प्राणियोनुंजे मरण थाय ,ते मरण देहधारीनी प्रकृति ने अने जीवनसर्गएमो.
(जीव) ते विकृति . माटे तेमां जे कां स्थिरता पमाय तेज लाल जाणवो. तो तमे ५॥ घणो शोक शा माटे करो बो? ॥ ३३ ॥ श्रालोकने विषे प्रजात वखते जे वस्तु |
इह यन्म्रियते शरीरिनिः, प्रकृतिः सा विकृतिस्तु जीवनम् ॥ "स्थिरता यदि 'कापि लेन्यते, मैं तु लानः किम शोच्यतेतराम् ३३ उदये यदिहेदयते ध्रुवं, नैं तदेवास्ति तु मध्ववासरे॥ पँसते प्रंबला डॅनित्यता, अॅवि नावानिव रौंदसी नृशम् ॥ ३४ ॥ कुंशकोटिगतोदबिज्वत्परिपक्वजमपत्रटंतवत् ॥
जलवुडुदवारीरिणां, दणिकं देहमिदं चैं जीवितम् ॥ ३५॥ निश्चे देखाय , ते वस्तु मध्यान्ह वखते देखाती नथी. श्रा उपरथी निश्चय थाय ने
के, पृथ्वीने विषे राक्षसी सरखी महा बलवंत थनित्यता सर्व पदार्थोंने गली जाय M. ॥ ३४ ॥ देहधारीऊनो देह अने था जीवित, ए बन्ने पदार्थों मानना अग्रजागने ||
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-
विषे रहेला पाणीना विंड सरखा, पाकेला वृदना पांदडाना दीटा जेवा श्रने पालणीना परपोटा जेवा क्षणिक . ॥ ३५ ॥ वली जव्यजीवोनुं यौवन पर्वत उपरनी न
दीना जलना उघ सरखं तत्काल नाश पामवाना खनाववाढुं . तेमज निरुपम एवं बल पण पवनथी कंपता एवा कमलना श्रग्रनाग सर चपल . ॥ ३६ ॥ अहो !
गिरिशैवलिनीजलौघव विनां यौवनौशु गत्वरम् ॥ चटुलं बँलमप्यपोपमं, पेवनांदोलननृत्कजांतवत् ॥३६॥ दणनश्वरनावसंसृतौ, नवतां भावनृतां कथं मनः॥ प्रविशति शुचः पिशाचवद्वंदुलीकतमहो अविझताम् ॥ ३७॥ अथवा मैहतामीदयते, चुरापत्यवियोगऊखिता॥
अधुनापि दि वल्लति दितौ, जलधिश्चमावियोजितः ॥३॥ शिक्षणमां नाश पामवाना खजाववाली संस्कृतिने विषे ( संसारना प्रभाहने विषे) जा
वने धारण करनारा अर्थात् विचारवाला तमारा मन प्रत्ये शोक, पिशाचनी पेठे अज्ञानने वधारवा माटे केम प्रवेश करे ? ॥ ३७॥ अथवा तो म्होटाउने पण घणा
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सुखसाग
॥
६॥
पुत्रोना वियोगर्नु पुःखीपणुं देखाय जे. जेम के, चंऽरूप पुत्र अने लक्ष्मीरूप पुत्रीथी|सर्गपमो. वियोग पामेलो समुह, पृथ्वीने विषे हमणां सुधी पण विलाप करे ले. ॥३०॥ जे था। सुखसाना पुत्रो एकज काले मृत्यु पाम्या, परंतु एमां कां आश्चर्य नथी; कारण के, सगर चक्रवर्तीना हजारो ( साठ हजार ) पुत्रो पोताना जाग्यना वश्यथी एकज काले
परमँत्र ने कोऽपि "विस्मयः, समकालं यदमी मृति गैताः॥ संगरस्य सुंताः सहस्त्रशो, नैं मैंता"किं युगपविधेर्वशात् ॥३॥ मरणं यदेबंधि'यैर्यथा, "किल तेषामुपयाति तत्तथा।
घंटिकॉपि नैं सैन्यतेऽधिका, समुपेतेऽत्र केतांतवासरे ॥४॥ शुं मृत्यु नथी पाम्या ? अर्थात् सगर चक्रवर्तीना साठ हजार पुत्रो एकी वखतेज मृl त्यु पाम्या बे.॥३॥ जे प्राणीउए जे प्रकारे जे मृत्यु बांध्यु , ते प्राणीने खरे- ॥७६॥ खर ते मृत्यु तेवीज रीते प्राप्त थाय . श्रालोकने विषे काल (मृत्यु) नो दिवस प्राप्त थए बते एक घडि पण अधिक प्राप्त थती नथी. अर्थात् मृत्युनो वखत श्रावे ते ||
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एक घडी पण वधारे जीवी शकातुं नथी. ॥ ४० ॥ थालोकने विषे कोर पण थ
वस्था, कोई पण काल, कोई पण देश, कोई पण जीव के, कोई पण एवी वस्तु नथी Malके, जेनाथी था कालरूप शत्रु जीती शकाय ! ॥४१॥ कोईथी पण न निवारी श
(उपजातिवृत्तम्.) न कॉप्यवस्था में चकोऽपि कालो, 'कोपि "देशो नै च कोऽपि जीवः॥ नै वैस्तु "किंचित्तदिहास्ति लोके, जीयेत “यैरेथें "रिपुः कृतांतः॥४१॥
(स्रग्धरावृत्तम् ) ___ गर्नस्थं जायमानं शयनतलगतं मातुरुत्संगसंस्थं, बालं टे युवानं परिणितवयसं "निस्वमौढ्यं खैलार्यम् ॥
टॅदाये शैलशृंगे नैनसि पॅथि जैले पंजरे कोटरे वो, MI पाताले वा प्रविष्टं रति "दि संततं उर्निवार्यः केतांतः॥४॥
काय एवो काल गर्नमा रहेलाने, जन्मेलाने, पयारीमा सूतेलाने, माताना खोलामा रहेलाने, बालकने, वृद्धने, युवानने, श्राधेड (वये पहोचेला)ने, गरिवने, तवंगरने, ख
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सुलसालने, आर्यने, वृक्षना अग्रजागमा रहेलाने, पर्वतना शिखर उपर चढेलाने, आकाश-IAL
मां रहेलाने, मार्गमा रहेलाने, पाणीमां पेठेलाने, पांजरामा पेठेलाने, ( वृक्षना) ॥ कोटरमा रहेलाने अने पातालमां पेसी गएलाने पण निरंतर निश्च हरण करे ॥४॥ व्य, गज, श्रश्व, रथ, सुनट अने वीजां घणां साधनोए करीने तेमज वली बंधु,
( आर्यावृत्तम् ) ने धनै गर्ने हयन रथैन नटैनों साधनैर्धनैः॥ नैं . "बंधुनिषगदेवैर्मृत्यो परिरहते प्राणी ॥ ४३ ॥ नो स्वामिनो न "मित्रान्न बांधवात् पक्षपातिनो ने पैरात् ॥
कि बहुना कैस्मादपि, नैं सँरति कार्य 'विधौ विमुखे ॥४४॥ वैद्य श्रने देवताउए करीने पण प्राणि मृत्युथी रक्षण करी शकातो नथी. ॥ ३ ॥
॥3 जाग्य श्रवदुं उतां खामीथी, मित्रोथी, बांधवोथी अने बीजा पक्षपातीथी, वली वधारे शुं कहुं ! परंतु बीजा कोईथी पण पोतानुं कार्य सरतुं नथी. अर्थात् यतुं नथी. namel
॥
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एप्रकारे संसारने पण निरंतर असार जाणीने अने विश्वनी नाशवंत पणाए करीने अस्थिरताने मानीने शोकनो त्याग करी तमे श्रात्महित करो के, जेणे करीने बीजा || नवने विषे पण एवं अःख न थाय. ॥ ४५ ॥ ए प्रकारे यजयकुमारे कहेला वचनने |
___ (वसंततिलकावृत्तम् ) संसारमेवमवगत्य संदौप्यसारं, 'विश्वस्य नंगुरतया स्थिरतां च मैत्वा ॥ यूयं "विमुच्य हुँचमात्मदितं कुरुध्वं, 'येनैवैमन्यजननेऽपिनवेन्नै खम्४५) श्रुत्वेति वाक्यमनयोदितमंजसामी, नागादयः किमपि शोकविहीनचित्ताः॥ तेषां विधाय मरणांत्यविधि "विशेषाद्देवार्चनादिजिनधर्मपरा बनूवुः॥४६॥
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सांजलीने तत्काल कांश्क शोक रहित थयां ले चित्त जेमनां एवा ते नागसारथी विगेरे माणसो, ते मृत्युपामेला पुत्रोनी मरणांत क्रियाने करीने अधिकताथी जिनेश्वर प्रजुनी पूजा, विगेरे जैनधर्ममां तत्पर थया. ॥ ६ ॥
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सुलसा
॥७
॥
| पढी अजयकुमार विगेरे मुख्य नरोए युक्त एवो श्रेणिक राजा पण, मित्रोना गुणोनुं Lो वर्णन करतो तो त्यांधी उठीने, पोताना जुवनमां श्रावीने अने ते पोतानी नवीन प्रिया चिलणाने परणीने खकार्यमां तत्पर एवो ते केटलेक काले करीने मित्रना शोक श्रीश्रेणिकोऽप्यनयमुख्यनरैः समेत, उचाय मित्रगुणवर्णनादधानः ॥ स्वंसौधमाप्य परणीय च वैल्लनांती,कालेनकार्यनिरतोजनि'दीनशोकः ४७ रहित थयो. ॥४॥ al इत्यागमिक श्रीजयतिलकसूरिविरचिते सम्यक्त्वसंजवनाम्नि महाकाव्ये सुलसाचरिते सुतशोकनिवर्त्तनो नाम पंचमः सर्गः ॥
॥७
॥
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१४
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सर्ग ६ हो.
हवे एवामां अंतरंग शत्रुर्जने दमन करनारा, सुर ने असुरोए नमस्कार करेला, | मिध्यात्वरूप अंधकारनो नाश करनारा, केवलज्ञाने करीने सूर्यरूप, सिद्धार्थ राजाना (अनुष्टुपवृत्तम् )
त पूर्वी चंपाया मुद्याने कुसुमाकरे ॥ ग्रामाकरपुर inबोर्व्या क्रमाद्मन् ॥ १ ॥ अंतरंगारिदमनः, सुरासुरनमस्कृतः ॥ "मिथ्यात्वतमसां देता, केवलज्ञाननानुमान् ॥ २ ॥ 'सिदार्थ पार्थिवसुतस्त्रिंशलाकु दिसंभवः ॥ प्रायासी महावीर तुर्विंशो "जिनेश्वरः ॥ ३ ॥ विशेषकम्
पुत्र ने त्रिशला माताना उदरमांथी उत्पन्न थएला एवा चोवीशमा जिनेश्वर श्री महावीर प्रभु गाम, श्राकर, द्रोण ने मैंब पृथ्वीने विषे अनुक्रमे फरता फरता चं
१ खाण. २ एक जातनुं गाम. ३ माणसोने विश्राम करवाना मांडवा.
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सुखसागपा नगरीने विषे कुसुमाकर नामना उद्यानमां समवसख्या. ॥१॥२॥३॥ प्रजुना ||सर्गक्षको.
थागमननी वखते एका थएला ते (जवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतषी अने वैमा॥७॥निक ए) चार प्रकारना देवताउँए श्रादरथी था श्रागल कहेवाशे एबुं समवसरण । रच्यु.॥४॥ ते स्थानके वायुकुमार देवताउँए योजन प्रमाणवाली चूमिने शोधन करी
तदीयागमने देवा, मिलितास्ते चतुर्विधाः ॥ समवसृतिसमेवं, रेचयामासुरादरात् ॥४॥ वायवः शोधयामासुस्तंत्रायोजनमुर्वराम् ॥ वपुर्मेघनामानः, सुगंधोदकरष्टिनिः ॥५॥ ऊतवः पंचवर्णाव्यैः, कुसुमैः स्ततरूंर्नुवम् ॥
व्यंतरा हेममणिऽनिश्चक्रश्चित्रं महीतलम् ॥६॥ अने मेघकुमार नामना देवताउँए सुगंधि जलना वर्षादयी ते पृथ्वी उपर बंटकाव क- ए॥ कास्यो. ॥५॥तुए पंचरंगी पुष्पोए करीने ते समवसरणनी पृथ्वीने श्राछादित करी.18 तथा व्यंतर देवताउए सुवर्णअने मणिठए करीने ते नूमीतलने चित्र विचित्र बनाव्यु.
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| ॥ ६ ॥ वैमानिक देवतार्जए अंदर, ज्योतषी ए मध्ये श्रने जवनपतिउँए बहार एम अनुक्रमे ण जातना देवतार्जए मणि, रत्न श्रने सुवर्णना कांगराईए करीने सुशोजित एवा रत्न, सुवर्ण अने रुपाना त्रण गढो अनुक्रमे रच्या ॥ ७ ॥ ८ ॥ जे प्रत्येक गढोने अंतर्वैमानिका देवा, ज्योतिष्का मध्यमं पुनः ॥ नवनेशा बैदिक, रेनहेमसितैः क्रमात् ॥ ७ ॥ मैं णिरत्नदेममयैः, कैमतः कैंपिशीर्षकैः ॥ "विराजमानांस्त्रीन् प्रस्त्रियेपि त्रिदिवौकसः ॥ ८ ॥ युग्मम् सत्र्यंशहस्तयुक्त्रयस्त्रिंशत्कोदं विस्तराः ॥ धनुः पंचशतोचाया, "रेजिरे यत्र नित्तयः ॥ ५ ॥ त्रयोदशशतेष्वासाः, प्रत्येकं नित्तिकांतरम् ॥ प्रतिवप्रं चतुर्धार), यंत्र रत्नमयी बनौ ॥ १० ॥
विषे तेत्रीश धनुष्य ने बत्रीश घांगलनो बे विस्तार जेनो एवी तथा पांचशो धनुष्य प्रमाण उंची जींतो शोजती हती. ॥ ए ॥ प्रत्येक जीतनी वचमां तेरशे धनुष्यनुं
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सुलसा०
॥ ८० ॥
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अंतर हतुं वली जे समवसरणमां प्रत्येक गढने विषे " चारे । दशार्द्धं तरफ रत्नमय चार चार दरवाजा शोजता हता ॥ १० ॥ श्रने जे समवसरणने विषे जाणे श्री जिनेश्वर प्रजुना मुखथी निकलेला एवा सरस्वतीना कल्लोल " तरंगो ज" होय नहिं शुं ! सहस्रा विंशतिर्येत्र, सोपानानि स्म भांति च ॥ 'जिनेशस्य विनिर्यात्याः, सरस्वत्या श्वोर्मयः ॥ ११ ॥ त्रिसोपानं चतुरं, तदंतमैणिपीठिकम् ॥ चतुरस्त्रं 'जिनांगोचं, 'विकोदशतं कृतम् ॥ १२ ॥ त्रिंशदिष्वासाः, पृथुः साधिकयोजनम् ॥ शोकतरुः काममेराजक्तपल्लवैः ॥ १३ ॥
| एवां वीश हजार पगथियां शोजतां हतां ॥ ११ ॥ तेनी मध्यमां त्रण पगथियावालुं चार द्वारवालूं, चोखंकुं, जिनेश्वरना चंग प्रमाण उंचुं धने बसे धनुष्य विस्तारवालुं मणिपीठ कस्युं दतुं ॥ १२ ॥ जे मलिपीठ उपर बत्रीश धनुष्य उंचो ने एक योजनथी
१ वाणी अथवा सरस्वती नदी.
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"
सर्ग६ हो.
॥ ८० ॥
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विधारे विस्तारवालो अशोकवृक्ष रक्त पल्लवोए करीने शोजतोहतो. ॥ १३ ॥ वली चू
मिथी श्रढी कोश ऊंचा पीठ उपर रहेला पादपीठ सहित चार सिंहासनो शोजतां | हाहता. ॥ १५ ॥ ज्यां आठ चामर धारण करनारा सहित चार बत्रत्रयो जगत्प्रजुनु
नमः साईविक्रोशोचपीठोपरिस्थितानि च ॥ संपादपीठसिंहासनानि चत्वारि रेजिरे ॥१४॥ उत्रत्रयाश्च चत्वारः, साष्टचामरधारकाः॥ त्रैलोक्यस्वामितां यत्र, कथयति जगत्प्रनोः॥१५॥ धर्मचक्रित्वमाख्याति, धर्मचक्रचतुष्टयम् ॥
योजनसहस्रदंमधर्मध्वजमिषादिद ॥१६॥ Ma(श्री जिनेश्वर प्रजुनुं ) त्रणलोकनुं खामीपणुं निवेदन करे बे. ॥ १५ ॥ आलोकमां जेमनुं चार प्रकारचें धर्मचक्र, एक हजार योजन प्रमाणना दंभवाला धर्मध्वजना १ पग मूकवाना वाजोठ.
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सुखसान
॥
१॥
मिषधी धर्मचक्रवर्तीपणुं निरूपण करे . ॥ १६ ॥ देवताए रचेला ते संपूर्ण एवा सर्गक्षको. समवसरणने विषे बार पर्षदा पण पोत पोताना स्थानके बेठे उते, पूर्वना छारथी प्रवेश करीने पड़ी करी ने प्रण प्रदक्षिणा जेमणे एवा तथा श्रीतीर्थने नमस्कार !
सेंपूर्णे तंत्र समवसरणे विहिते सुरैः। हादशसूपविष्टासु, यथास्थानं सनास्वपि ॥१७॥ विश्य पूर्वधारण, कृतप्रदक्षिणात्रयः॥ श्रीतीर्थाय नमः कृत्वा, "सिंहासनं समाश्रितः ॥१७॥ चेतुर्गतिसमुबेदचतुरां धर्मदेशनाम् ॥
चतुरूपधरचक्रे, श्रीमान्वीरजिनेश्वरः ॥ २ ॥ विशेषकम् ॥ करीने सिंहासन उपर बेठेला, वली चार रूपने धारण करनारा श्रीमान् वीर जिन-18 श्वरे चार प्रकारनी गतिनो उछेद करनारी धर्मदेशना दीधी. ॥ १७ ॥ १७॥ १५ ॥ l १ देव, मनुष्य, तिर्यंच अने नरक
॥
१॥
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MI अनेक प्रकारना जन्म रूप तरंगोथी व्याप्त एवा था अपार संसार समुजमा ll
दश दृष्टांतोए करीने मनुष्यनो जन्म घणोज उर्लन . ॥ २० ॥धान्यमां गढूंनी पेठे, पाणीमां पण मेघना जलनी पेठे, सर्व प्रकारना काष्टोमां सागनी पेठे अने धातुमा
संसारसागरे पारे, जन्मकल्लोलसंकुले ॥ उर्लनं मानुषं जन्म, दृष्टांतैर्देशनिर्देशम् ॥२०॥ गोधूम व धान्येषु, मेघांनः सलिलेष्वपि ॥ सो वा सर्वकाष्ठेषु, काचनमिवं धातुषु ॥१॥ सर्वकार्यकरः काम, सँर्वोत्कृष्टगुणाधिकः॥
भंवेषु लेदसंख्येषु, तोयं मानुषो वः ॥२२॥ युग्मम् Me सुवर्णनी पेठे अर्थात् जेम धान्योमां गहू, पाणीमां मेघनुं पाणी, काष्ठोमा सागर्नु काष्ठ ।
अने धातुमा सुवर्ण श्रेष्ठ , तेम लाखो नवमां सर्व कार्यनो करनार श्रने सर्वोत्कृष्ट गुणोथी अधिक एवो आ एक मनुष्यजव अत्यंत श्रेष्ठ ॥१॥२५॥
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सुलसा
॥
हे जव्यजनो! ते मनुष्यनवमां पण धर्मिष्ट देश, भावक कुल थने पंचेंजियनुं पटुपणुं सर्गक्षतो. (निश्चलपणुं) ए सर्व पुण्ये करीने प्राप्त थाय . ॥ २३ ॥ उपर कहेलो मनुष्य जव, धर्मिष्ट देश, श्रावक कुल अने पंचेंजियपटुपणुं ए विगेरे सर्वे संपूर्ण सामग्री बतां मि
तत्रापि धार्मिको देशः, कुलं श्रावकसनवम् ॥ पंचेंज्यिपटुत्वं च, पुण्येन प्राप्यते जनाः॥२३॥ सत्यां संपूर्णसामय्यां, 'मिथ्यात्वतमसौंधलाः॥ "विना सम्यक्त्वदीपं ने, जना जानंति सत्पथम् ॥२४॥ कुदेवं कुगुरुं चैवें, कुधर्ममिद – त्रयम् ॥
"मिथ्यात्वमोदुस्तेनांधाः, पैतंति जैतवो वे ॥२५॥ थ्यात्वरूप अंधकारे करीने शांधला थएला मनुष्यो, सम्यक्त्वरूप दीपकविना सन्मार्गने जाणता नथी. ॥२॥ आलोकमा कुदेव, कुगुरु थने एज प्रमाणे कुधर्म ए रणने मि-10 थ्यात्व कहेलुंडे, थने ते मिथ्यात्वथीयांधला थएला प्राणी संसारने विषे पडे ३.२५।
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जे देव, राग द्वेपथी अंकित डे, ते कुदेव कहेवाय डे, श्रने जे गुरु परिग्रहमां श्रने श्रारंजमा | मन , ते कुगुरु कहेवाय . ॥६॥ निश्चे थालोकमां जे हिंसायुक्त धर्म , ते कुधर्म कहेवाय बे. माटे उपर कहेला ए कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मथी मोह पामेला जीवो सं
रोगक्षेषांकितो 'देवो, यः कुंदेवः से उच्यते॥ कुगुरूर्यः परिग्रहारंनमग्नो गुरुर्यदि ॥२६॥ हिंसान्वितोऽपि यो धर्मः, कुंधर्मः स नवेदिहे ॥ 'एनिविमोदिता जीवा, संसारे 'संसरंति 'द। ॥२७॥ वीतरागः पुनर्देवो, 'निर्ग्रथा गुरवस्तथा ॥ दयाप्रधानो यो धर्मः, सैम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥२०॥ स्पष्टसम्यक्त्वदीपेन, 'निरस्याज्ञानजं तैमः॥
मोक्षमार्ग प्रपद्यते, जीवा लब्धविवेचनाः॥५॥ सारने विषे ब्रमण करे . ॥२७॥ वली राग रहित देव, निग्रंथ (परिग्रह रहित )गुरुङ, तेमज दयाप्रधान धर्म एज सम्यक्त्व कहेवाय डे. ॥२०॥ स्फुट एवा सम्यक्त्वरूप दीप-11
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सुलसा
॥
३॥
कश्री श्रज्ञानरूप अंधकारनो नाश करीने प्राप्त थयु ले विवेचन (सत् असत् ज्ञानको जेमने एवा जीवो मोक्षमार्गने पामे . ॥ श्ए ॥ धन्य मनुष्यो, धर्म कल्पवृक्षना मूल रूप, मोद नगरना घार रूप, संसार समुजने (तारवामां) म्होटा वहाण रूप, गुणोनां
धर्मकल्पतरोमलं, वारं मोदपुरस्य च ॥ संसाराब्धौ महापोतो, गुणानां स्थानमुत्तमम् ॥३०॥ "निधानं सर्वलक्ष्मीणां, "हेतुस्तीर्थकृत्कर्मणः॥ पालयंति जना धन्याः, सम्यक्त्वमिति "निश्चलम्॥३॥युग्मम् सम्यक्त्वसारो यो धर्मः, स धर्मः 'शिवशर्मणे॥
हँढमूल फेले दो, "विना मूलं तुं शुष्यति ॥ ३२॥ उत्तम स्थानरूप, सर्व संपत्तिना जंमाररूप अने तीर्थंकर नामकर्मना कारणरूप एवा,
॥ ३॥ सम्यक्त्वने निश्चलपणे पाले . ॥३॥३१॥ सम्यक्त्व दे सार जेने विषे एवो जे धर्म जे, ते धर्म मोदसुखने अर्थे थाय बे, दृढ मूलवालु वृक्ष फलने अर्थे थाय डे, परंतु ||
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मूल विनानुं वृक्ष तो सूका जाय . ॥ ३२ ॥ ते कारण माटे हे नव्यजनो! कोटि नवमां पुर्खन एवा मनुष्य जवने अने संपूर्ण एवी सुगुरु विगेरेनी सामग्रीने पण पामीने निरंतर श्रावक धर्मने विषे श्रादरवाला था.॥३३॥ए प्रकारेसनामां श्री महा-MI वीर प्रनु धर्मदेशना आपे, तेवामांप्रथमथी श्रावकपणाने अंगीकार करनारो, त्रिदंग
तेदेदो प्राप्य मानुष्यं, उष्प्रापं नवकोटिषु॥ सामग्रीमपि संपूर्णा, श्रीधर्मे सैंदाहेत ॥३३॥ इत्यादिशति श्रीवीरे, सनायामबडस्तैदा॥ पूर्वापन्नश्रावकत्वः, परिव्राजक आययौ ॥३४॥ "त्रिदंमकुंमिकादस्तो, धातुरक्तांबर शिंखी॥
₹षी 'पीवधरः काम, मंत्रिकावारितातपः॥ ३५॥ तथा कममलने धारण करनारो, गेरु विगेरे धातुथी रक्त वस्त्रवालो, शीखाधारी, ब्रह्म-II
चारी, मानना श्रासनने धारण करनारो, थत्यंत, उत्रीथी निवारण कस्यो ताप जेणे || Vएवो, आकाशगामिनी सिजि अने बीजी बहु विद्यामां प्रवीण, अनेक प्रकारनी -Mail
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सुलसा
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४॥
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ब्धियी व्याप्त अने सर्वानी श्राज्ञाने निरुपण करनार एवो अंबड नामनो परिवा-सहो. जक त्यां श्राव्यो. ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ जिनेश्वरने प्रदक्षिणा करीने हर्षित रोमवाला तथा कस्यो ठे प्रणाम जेणे एवा ते अंबडे बन्ने हाथ जोडीने प्रजुनी था प्रमा-|
आकाशगामिनीसिध्विविद्याविशारदः॥ अनेकलब्धिसंपन्नः, सर्वज्ञाशाप्ररूपकः ॥ ३६॥ विशेषकम् 'जिनं प्रदक्षिणीकृत्य, दैर्षरोमसमन्वितः॥ केतप्रणामः संयोज्य, कैरावे समस्तवीत् ॥ ३७॥ नानाधिव्याधिविध्वंसविधानैकमहौषधे ॥
कैल्याणकुंन नंद वं, प्रातिदायैर्विराजितः॥३०॥ ये स्तुति करी. ॥ ३७॥ नाना प्रकारनी श्राधि ( मन संबंधी पीडा) आने व्याधि | ( शरीर संबंधी पीडा) ने नाश करवाने एक महौषधि रूप तथा कल्याणना कुंजरूप एवा हे प्रजो! था प्रातिहार्यवडे विराजीत एवा तमे श्रानंद पामो. ॥ ३० ॥
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॥
४॥
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श्री गौतम गणधरादिक मुख्य साधु रूप ब्रमरोए सेवन करेला तमारा बन्ने चरणकमलनी हुँ हर्षथी स्तुति करूं बु. ॥३ए ॥ हे जिनेश्वर ! तमेज सूर्यादिक देव-1|| ताउंना देव डो. कारण के, ते सूर्यादिक देवता मरजी प्रमाणे तमारा चरणनी पासे
श्रीगौतमगणाधीशमुख्यसाधुमधुव्रतैः॥ सेंसेवितं मुदा नोमि, तव पादांबुजक्ष्यम् ॥३॥ त्वमेव 'देवो देवानां, सूर्यादीनां 'जिनेश्वरः॥ यतत्वचरणोपांते, लुति ते यदृचया ॥४०॥ अझोऽदं त्वजणान् देव, कथं स्तौम्यनंतगुण ॥
"खे नत्राणि मंदादो, "मितान्येव हि पश्यति ॥४१॥ बालोटे . ॥ ४० ॥ हे देव ! हे अनंतगुण ! अज्ञानी एवो हुँ तमारा गुणोनी शी रीते स्तुति करी शकुं ? कारण के, थोडं देखनारो माणस श्राकाशने विष रहेला (बहु) ताराऊने थोडा देखे . ॥४१॥
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॥
५
॥
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हे नाथ ! तो पण तमारी जक्तिए प्रेरेली श्रा म्हारी जीज, तमारा गुणोने कहे सर्गक्षको. वाने ( वर्णन करवाने ) श्छा करे . अहो! माणसोनु मन उर्गम स्थानने विषे । पण जाय बे. ॥ ४२ ॥ हे प्रजो! निरंतर पवित्र एवा श्रीमान् तमे श्राशाढ मा
मम नाथ तथाप्येषा, "जिह्वा त्वक्तिनोदिता॥ "ईहते ते गुणान्वक्तुं, मैनो उर्गेपि यात्यदो॥४२॥ "देवानंदोदरे श्रीमान्, श्वेतषष्ट्यां सदा शुचिः॥ अवतीणोंऽसि मासस्याषाढस्य शुचिता ततः॥४३॥ 'त्रिशला सर्वसिवा, त्रयोदश्यामनूद्यतः॥
तेवावतारस्तेनैषा, सर्वसिधा योदशी॥४४॥ सनी शुक्ल( अजवाली) बग्ने दिवसे देवानंदाना उदरने विषे श्रवतत्या बो. तेज ॥ ५ ॥ कारणथी ते श्राषाढ मासनी पवित्रता बे. अथवा आशाढ मासर्नु "शुचि" एवं नाम थापेलु २ ॥ ४३ ॥ हे प्रनो ! तेरशने दिवसे तमारो जन्म थयो ले के, जे तमारा ]
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अवतारथी त्रिशला माता सर्व प्रकारनी सिद्ध थडे इछा जेमनी एवां थयां. वली ते M तमारा जन्मने लीधे तेरश सर्व तिथिर्डमां सिक. ॥४१॥ वली जे तमारा अवतारे
शकतेरशने दिवसे अचल एवा मेरुपर्वतने चलावतां बतां लोकोने याश्चर्य कस्यं. तेनाज योगथी चैत्र मास पण कहेवाय ले. अर्थात् तमारा जन्म दिवसने विषे श्र.
शुक्लत्रयोदश्यां यश्चांचलं मेलं प्रचालयन् । "चित्रं कृतवांस्तंद्योगांच्चैत्रमासोऽपि कैटयते ॥४५॥ यस्याद्यदशम्यां उर्गमोदमार्गस्य शीर्षकम् ॥
चारित्रमादृतं युक्ता, मासोऽस्य मार्गशीर्षता ॥ ४६॥ चल एवो मेरुपर्वत चल्यो भने लोकोने श्राश्चर्य थयु. तेथीज ते मासर्नु नाम चैत्र कदेवाय . ॥ ४५ ॥ हे प्रलो! तमे जे महिनानी शुक्ल दशमीने दिवसे अगम्य एवा मोक्षमार्गना शीर्ष (मस्तक ) रूप चारित्र ग्रहण कखं, एज कारणथी था मासनी मार्गशीर्षता ( मार्गनी श्रेष्ठता ) योग्य . श्रथवा ए मासर्नु नाम मार्गशीर
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सुलसान
Mallपड्युं बे ते योग्य बे. ॥४६॥ दे प्रलो! अहो! तमे जे मासनी शुक्ल दशमीए केवल सर्गछो.
मीनो निश्चे अंगीकार कस्यो, ते कारणथी ए (वैशाख) मासनी माधवता (श्रेष्ठता)योग्य | ॥ ६॥ . अथवा ते मासनुं माधव (वैशाख ) ए नाम पण योग्य बे. ॥७॥ हे नाथ ! तमारु
देशम्यां यस्य शुक्लायां, केवल श्रीरंदो त्वया ॥ ह्यादत्ता "तेन मोसोईस्य, युक्ता माधवता प्रेनो॥४॥ तेव 'निर्वाणकल्याणं, यद्दिन पावयिष्यति ॥ तन्न वेद्मि यतो नाथ, मादशोऽध्यवेदिनः॥॥
(उपजातिवृत्तम् ) 'सिद्धार्थराजांगज देवराज, कल्याणकैः पइिनिरिति स्तुतस्त्वम्॥ Mail तथा विधेह्यांतरवैरिषटुं, यथा जैयाम्याँशु तैव प्रेसादात् ॥४॥ निर्वाण कल्याणक,जे दिवसने पवित्र करशे, ते हुँ जाणीशकतो नथी. कारण के, म्हारास- ६ । रखा प्रत्यक्ष वस्तुने जाणी शकनाराने ते ज्ञान क्यांधी होय ? अर्थात् नज होय. ॥४॥ हे सिद्धार्थ राजाना पुत्र देवराज !था उ कल्याणकोथी स्तुति करेला एवा तमे ते प्र-Mall
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माणे करो, के जे प्रकारे हुं म्हारा अंतरना व शत्रुने तमारा प्रसादथी तत्काल जीति | लऊं ॥४९॥ ए प्रकारे श्री जिनेश्वरनी स्तुति करीने अने तेमने त्रण वार प्रणाम करीने सजामां बेठेला तथा विस्मित मुखवाला अंबडमुनिए ते महावीर प्रजुनी धर्मदेशना सां(अनुष्टुपूवृत्तम् )
इति स्तुत्वा 'जनाधीशं, 'त्रिः प्रणम्यांबडो मुनिः ॥ विस्मितास्यः समासीनोऽश्रौषीत्तं धर्मदेशनाम् ॥ ५० ॥ प्रस्तावे 'जिनं नैवा, कृत्वा राजगृहं हैदि ॥ वलितो व्याहृतस्तेन, त्रिकालज्ञानवेदिना ॥ ५१ ॥ धर्मशीलांबडतस्त्वं, राजगृदपुरीगमी ॥ दृष्टया सुलसा तंत्राप्यस्म६चसा च सा ॥ ५२ ॥ जली. ॥ ५० ॥ हवे धर्मदेशना पूर्ण थया पढी व्यवसरे जिनेश्वर प्रजुने नमस्कार करीने अने मनमां राजगृह नगरनुं स्मरण करीने ते अंबड मुनि चाव्या. ते वखते त्रण |कालने जाणनारा श्रीमहावीर प्रजुए तेने कयुं ॥ ५१ ॥ हे धर्मशील अंबड ! तुं
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॥6
॥
सुखसा० अहिंथी राजगृही नगरी प्रत्ये जाय , तो त्यां त्हारे सुलसाने मल, अने तेने सर्गक्षको.
म्हारा वचनथी बोलाववी. अर्थात् तेने म्हारा धर्मलान कहेवा. ॥ ५५ ॥ श्लामि Ma() एम कहीने ए परिव्राजक अंबड, श्राकाशमार्गे थश्ने सुराज्यथी सुशोजित एवा राजगृह नगर प्रत्ये तुरत श्राव्यो. ॥ ५३॥ परी पोताना हृदयमां वीर प्रजुना
स्वामीति गदित्वाँसो, परिवाडंबराध्वना ॥ सौराज्यराजितं राजदं सत्वरमाययौ ॥५३॥ अचिंतयत्तत्र गॅतो, वीरवाक्यं हृदि स्मरन् । अहो सोनाग्यमेतस्याः, सुलसाया अपि स्त्रियः॥५४॥ यया 'निजगुणेनोच्चैर्वीतरागोऽपि रंजितः॥
सुरासुरसनामध्ये, पदपातोऽन्यथा कथम् ॥ ५५॥ वाक्यने स्मरण करतो राजगृह नगर प्रत्ये गएलो अंबड, विचार करवा लाग्यो के, अहो ! स्त्री एवी पण था सुलसानुं सौजाग्य आश्चर्यकारी . ॥५४ ॥ कारण के, जे सुलसाए पोताना श्रेष्ठ गुणोए करीने राग द्वेषथी रहित एवा ( जिनेश्वर ) ने पण
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आनंद पमाड्या. जो ते सुखसामा श्रेष्ठ गुणो न होय तो, देव अने, असुरोनी सनामां पक्षपात केम थाय ? अर्थात् नज थाय. ॥ ५५ ॥ ए सुलसाना कया गुणे करीने था जिनेश्वर प्रनु आनंद पाम्या ? सर्व प्रकारनी परीक्षा करीने ते गुणने हुँ जाणवानी ||
अस्या गुणेन केनोंयं, रंजितो जिननायकः॥ तेमदं ज्ञातुमिचामि, कृत्वा सर्वपरीक्षणम् ॥५६॥ ध्यात्वेति हैदये धीमान, कृत्वा रूपांतरं परम् ॥ ख्यापयित्वात्मपात्रत्वं, ययाचे जेमैनं तेकाम् ॥ ५ ॥ देदती सानुकंपातस्तेनेति वारिता शम्॥
"जेमयादरतो मां त्वं, पाददालनपूर्वकम् ॥ ५ ॥ श्छा करुं बु. ॥ ५६ ॥ बुद्धिवंत एवा अंबडे, ए प्रकारे मनमां विचार करीने तथा । श्रेष्ठ एवं रूप परावर्तन करीने, वली पोतानुं पात्रपणुं जणावीने सुलसा प्रत्ये जोजन | माग्यु.॥५७ ॥ पड़ी दयाधी जोजन आपती एवी सुलसाने ते अंबडे अत्यंत थाय
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सुखसाण हथी ना पाडीने कह्यु के, तुं पादप्रक्षालन पूर्वक अर्थात् म्हारा पग धोवा पूर्वक मने सर्गको.
थादरथी जोजन कराव्य. ॥५॥ ए प्रकारे याचना कस्यां बता पण ज्यारे सुलसाए । सत्पात्र एवा अंबडने जोजन न आप्यु, त्यारे विलद थएलो अंबड, ते नगरथी बहार चाल्यो गयो. ॥५ए। पनी चार मुखथी सुंदर, पद्मासन उपर बेठेला, हंसवाहन युक्त,
याचितापि न सा देत्ते, यदा सत्पात्रनोजनम् ॥ "विसतः स तदा तेस्मानिर्ययौ नंगराईदिः॥५॥ ब्रह्मरूपमेथो कृत्वा, चतुराननसुंदरम् ॥
पद्मासनसमासीनं, हंसवादनसंयुतम् ॥ ६ ॥ हाथमां कमंगल तथा अक्षसूत्र धारण करनारा, जटारूप मुकुटथी सुशोनित, सावित्रि स्त्री सहित अने चार मुखथी मनोहर एवा ब्रह्माना रूपने धारण करीने राज|| गृह नगरना पूर्वधारनी समीपे गतानुगतिक (गामरीया प्रवाहनी समान ) लो-18|| ॥७॥ कोए स्तुति करेलो ते अंबड, वेदमार्गने निरुपण करतो बतो बेठो. ॥६०॥६१॥६॥
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पढी ते ब्रह्माना जक्त एवा लोको त्यां विशेषे श्रववा लागे बते, सखिए त्यां ज| वामां आलसवाली सुलसा प्रत्ये क ॥ ६३ ॥ हे सखि ! श्राजे ब्रह्मलोकश्री पोते कुंरिका सूत्र करं, जटामुकुटमंमितम् ॥ सावित्रिकासपत्नीकं, चतुर्मुखविराजितम् ॥ ६१ ॥ पूर्वधारसमीपस्थो, "वेदमार्ग प्ररूपयन् ॥
गतानुगतिकैर्लोकः स्तूयमानः सें तस्थिवान् ॥ ६२ ॥ विशेषकम् ॥ Hariay alag, dahषु विशेषतः ॥ सखीभिः सुखसा प्रीचे, तंत्रागमनसालसा ॥ ६३ ॥ स्वयं ब्रह्मावतीऽद्य ब्रह्मलोकात्सखीक्ष्यताम् ॥ "दनोऽयमित्यवज्ञाय, नौययौ सौ पुनस्तदा ॥ ६४ ॥
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ब्रह्माज उतस्या बे, तेने जो, परंतु आ दंज बे. " एम जाणी सुलसा ते वखते त्यां गइ नहीं, ॥ ६४ ॥
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सुलसा
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ब्रह्मानुं रूप धारण करयां उतां पण सुखसाने पोतानी पासे नहिं आवेली जाणी, फरीसर्गक्षको. बीजे दिवसे ते अंबड, कपटथी पीला वस्त्रबालो, पद्म नानिने विषे जेने एवो, गरुडना वाहनवालो, चार हाथवालो, गदा, शंख, चक्र, श्रने धनुष्य के हाथमा
अनागतामिमां मत्वा, वितीयदिवसे पुनः॥ दैक्षिणेन पुरं नत्वा, "विष्णुस्तस्थौ स मायया ॥६५॥ पीतांबरः पद्मनानः, पन्नगारातिवादनः ॥ चतुर्नुजो गेंदाशंखचक्रकोदंमपाणिकः ॥६६॥ लक्ष्मीप्रमुखकांतानिः, परितः परिवारितः॥
कौस्तुनाश्लिष्टहृदयो, मैंदामायासमन्वितः॥ ६ ॥ विशेषकम् जेना एवो, वली चारे तरफ लक्ष्मी विगेरे स्त्रीजना परिवारथी व्याप्त, कौस्तुन मणिथीence ॥ व्याप्त हृदयवालो, अने महा मायाथी युक्त एवो विष्णु थश्ने राजगृह नगरना दक्षि ण दरवाजे बेगे. ॥६५॥ ६६ ॥ ६॥
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बीते वखते “था नगरनुं नाग्य श्राश्चर्यकारी के अने वैष्णव जनोनो म्होटो उदय । थियो ने के, विष्णुलोकथी पोते विष्णु अहिं श्राव्या ." एम सर्व स्थानके प्रसिद्ध हाथयु. ॥ ६७ ॥ केटलाक जक्तिथी श्राववा लाग्या श्रने केटलाक तो विस्मयथी वारं-18
"विष्णुलोकास्वयं विष्णुरीयातोऽऽस्तीति प्रेपथे॥ अहो नाग्यं पुरस्यौस्य, वैष्णवानां महोदयः॥६॥ केपि नक्त्या समाजग्मुः, केऽपि "विस्मयतः पुनः॥ केवलं सुलसा "सैवे, मैनागैपि ने चालिता॥६॥ तृतीयेऽपि दिने 'तेन, प्रतीच्यामुपगोपुरम् ॥
सुलसाचित्तमाक्रष्टुं, चक्रे माहेश्वरं वैपुः ॥ ७० ॥ वार श्राववा लाग्या; परंतु ते एकसी सुलसाज जरा पण चलायमान थ नहीं. ॥ ६ ॥ त्रीजे दिवस पण ते अंबडे, सुलसाना चित्तने थाकर्षण करवा माटे राजगृह नगरना | पश्चिम दरवाजा पासे जस्मथी खरडायला सर्व अंगवाडे, जटानी अंदर गंगावाद्यं, ||
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सुलसा
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आंगने विषे पार्वती ने श्रासक्त जेने एवं, मस्तके चंडवा, कंचने विषे मनुष्यना सर्गवतो. मस्तकनी मालावायु, कपालने विषे उज्वल नेत्रवाटुं, हाथमां खट्वांगवाद्यं, त्रिशूले । करीने जयने पण जयंकर एवं, चारे तरफ नंदी चंमी विगेरे गणोधी विंटायर्बु, मम
नस्मोलितसर्वांगं, जटांतस्त्रिदशापगम् ॥ अगिासक्तगौरीके, चंमःकृतशेखरम् ॥ १॥ "कंगश्लिष्टरुममालं, कपालोज्वललोचनम् ॥ पॉणिसंस्थितखटांगं, "त्रिशूलनयनीषणम् ॥ ७॥ पैरीतं परितः सर्वैनंदीचंम्यादिनिर्गणैः ॥ ममरुध्वनिसंलीनं, संवसानं गैजत्वचम् ॥ ३ ॥ कलापकम् ॥ तक्तशिवशास्त्राणि, केथितानि सखीजनैः ॥
चक्रिरे सुलसाचित्ते, शिवाफेत्कारचारुताम् ॥ ४॥ रुना शब्दमा लीन थएखं, अने हस्तीना चामडाथी श्राछादित एवं शंकरचें रूप धा-MIT रण कखं. ॥ ७० ॥ ३१ ॥ ७ ॥ ३ ॥ पड़ी ते अंबडे कहेलां शिवशास्त्रो सखिजनोए
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सुलसाने कह्यां, परंतु ते शास्त्रो सुलसाना चित्तने विषे शियालना फेत्कार शब्दनी || मनोहर करता जणायां. अर्थात् ते शास्त्रो सुखसाने शियालना शब्द करतां पण तुछ लाग्यां. ॥४॥ श्रालोकमां त्रण वार उडवाथी मोर पण ग्रहण करी शकाय , परंतु ते ॥ अंबड त्रण दिवसे करीने सुलसाना चित्तने ग्रहण करी शक्यो नहीं. ॥३५॥ कयु डे के,
तेतीयोग्यनेनेद, मयूरोऽपि हि गृह्यते॥ ने पुनः सुलसाचित्तं, तेनात्तं त्रिदिनैरपि ॥ ५॥ वैसतौ वीतरागस्य, सरागाणां स्थितिः कुतः॥ गृहीतं दस्तिनिर्वस्तु, त्याज्यते रोसनैः कथम् ॥ ७ ॥ नपोषितसमीपे हि, मायंते मोदकाः कथम् ॥
शर्करास्वादवांग "दि, कर्करै पूर्यते कथम् ॥ ७॥ राग रहित पुरुषोनी वस्तीमा रागवालानी स्थिति क्यांधी होय ? अने हस्तीउए ग्रहण करेली वस्तुने गधेडा शीरीते डोडावी शके ? ॥६॥ उपवासी माणसो पासे लाडु केम शोधाय ? अने साकरना स्वादनी श्छा कांकराउथी केम पूर्ण कराय ? ॥ ७ ॥
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सुलसा
॥ ए
महा श्रानंदना सुखमा श्रासक्त थएलो पुरुष, विषयोथी केम ताणी शकाय ? तेमज सर्गको. तत्त्वने जाणनारी ते सुलसा, बीजा पाखंमोथी केम तरी शकाय? ॥ ७ ॥ जेम श्ररण्यमां रुदन, शबने विलेपन, ब्हेराना कानमा वातो, खारी नूमिमा खेड, स्थल उपर ।
महानंदसुखासक्तो, वाह्यते विषयैः कथम् ॥ झाततत्वा कथं सान्यैः, पाखंमैविप्रतार्यते ॥ जज ॥ अरण्ये रोदनमिव, शवस्योर्त्तनं यथा॥ एमकर्णे येथा जापा, उषरे कैर्षणं यथा ॥७॥ स्थले यथार्बुजारोपो, यथांधमुखममनम् ॥ तैयौनफैिलं तैस्यां, सर्वमंबडचेष्टितम् ॥ ७० ॥ युग्मम् ॥ चतुर्थदिवसे तेन, यच्चक्रे चित्रकारिणा॥
तामानेतुं मदचित्रं, तंदीकर्णयाधुना ॥१॥ कमलनुं वावq अने बांधलाने मुखमंगन निष्फल , तेम सुलसाने विषे अंबडनी सर्व || चेष्टा फोगट यश. ॥७ ॥ पड़ी चोथा दिवसे आश्चर्य करनारा अंबडे, ते सुलसाने ||
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पोतानी पासे बोलाववा माटे जे म्होटुं श्राश्चर्य कर्तु, ते हमणां सांजलो. ॥१॥ तेरा जगृह नगरनी उत्तर दिशामा जाणे वर्ग अने पृथ्वीना मध्य जागने मापवा माटे उंचो करेलो म्होटो मानदंम (जरवानोदंम) होयनी! एवो अने शिखरोए करीने श्राकाशने
(उपजातिवृत्तम् ) अस्त्युत्तरस्यां दिशि तस्य शैलः, वैनारिनामा "शिखरैः खेलनः॥ उत्तंनितो मातुमिवांतरालं, द्यावाएथिव्योमुरुमानदंमः॥२॥ यस्मिन्मुनीनामपि वाचनेबां, तमस्वनीप्वौपधयो ज्वलंत्यः॥ 'संपूरयंति स्थिरकांतिनाजो, दीपा श्वोनग्निचिताः प्रसूताः॥३॥ 'सिंदोऽमुना याति पया दंतेनः, परेवनेनेति वदति यत्र॥
तुल्येमगारातिपदेऽपि 'भिल्ला, नैखास्तमुक्तौघविशेषनाजः॥४॥ स्पर्श करी रहेलो वैचारि नामनो पर्वत बे.॥७॥जे वैनार पर्वतने विषे जाणे अग्निहो : बना अग्नि विना उत्पन्न थएला श्रने स्थिर कांतिवाला दीवाउँ होयनी ! एम रात्रीए जा ज्वल्यमान एवी औषधि, मुनिउनी पण वांचवानी छाने पूर्ण करे .॥३॥ जे वेताढ्य
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सुलसा०
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पर्वतने विषे नख थकी पडतां एवां मुक्ताफलोने ग्रहण करनारा जिल्लो मार्गमां सिंह- सर्ग६हो. नां पगलां सरखां बते “ हस्तीने मारनारो सिंह या मार्गे जाय वे अने बीजा सिंहो या मार्गे जाय बे. " एम बोले . ॥ ८४ ॥ वली ए वैजार पर्वतने विषे जिल्ल लोकोए सर्व प्रकारे वस्त्र रूप करीने बाकीनी त्यजी दीधेली, वली प्रासुक एवा धातु
किरातवस्त्रीकृतमुक्तशेषा, न्यस्ताक्षराः प्रासुकधातुनीरैः ॥ सदा मुनीनां पठनक्रियानिर्देकत्वचोऽस्मिन् सेफलीनवंति ॥ ८५ ॥ तस्मिन् गिरौ रूप्य सुवर्णरत्तैर्विद्याप्रभावाद्विदधे त्रिशालान् ॥ चतुः प्रतोलीकपिशीर्षसारान्, कँकेल्लियुक्तान् कंपटैः पैटुः सः ॥ ८६ ॥
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(जल (गैरिकादिकना जल ) थी अक्षर लखायली वृनी बालो मुनिर्जने नित्य पठन क्रियाए करीने सफल थाय बे. अर्थात् वैजार पर्वत उपरना वृदोनी बालमां ( ताडप(त्रमां ) साधु पुस्तक लखीने जणे बे ॥ ८५ ॥ ते वैजार पर्वतने विषे चतुर एवा बडे कपटे करीने विद्याना प्रजावधी चार दरवाजा युक्त कांगरावाला अने अशोक
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॥ ए ॥
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वृक्षवाला त्रण गढो रूपुं, सुवर्ण थाने रत्नोधी रच्या. ॥७६॥ सिंहासन उपर विराजित वे चतुर्विध शरीर जेनुं, श्रेष्ठ श्राव प्रकरना प्रातिहार्ये करीने रची के पोतानी शोजा जेणे, वली देखाडी बे शत्रुर्जना विरोधनी शांति जेणे एवो ते अंबड, पोते चार प्रकारे | धर्मदेशना देवा लाग्यो. ॥ ८७ ॥ ते वखते श्रेष्ठ शीलवाली श्रने अत्यंत निश्चयवाली 'सिंहासनासीनचतुःशरीरः, सत्प्रातिहार्ये विदितात्मशोनः ॥ संदर्शितामित्रविरोधशांतिः, स्वयं चतुर्धा से जगाद धर्मम् ॥ ८७ ॥ * विना सुशीलां सुलसां सुनिश्चलां श्रोतुं जनोऽगान्नगराजेरीयान् ॥ आंदोलितानेकलताडुमेरा, किं "मेरुचूला पैवनेन चाव्या ॥ ८८ ॥ कथापयामास सदा से तस्यै, जनैरनेकैरिति चित्रकर्त्ता ॥
धर्मशीले सुलसे विधेदि, पापापहारं "जिनवंदनेन ॥ ८० ॥ सुलसा विना बीजा घणा माणसो बडनी धर्मदेशना सांजलवा माटे नगरथी गया. योग्य बे, अनेक प्रकारना लता वृने कंपावनारा पवनयी शुं मेरुपर्वतनां शिखरो कंपायमान थाय ? अर्थात् नज थाय ॥ ८८ ॥ पढी याश्चर्य करनारा ते अंबडे नित्य
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॥
३॥
सुखसाधनेक जनोनी साथे सुखसाने एम कहेवराव्यु के, “हे धर्मशीला सुलसा ! तुं था सर्गदतो.
नारगिरि उपर समवसरेला जिनेश्वरना वंदने करीने पोताना पापनो नाश कस्य.. nenG ॥ सुलसाए कयु. जे चोवीशज वे संख्या जेमनी एवा उत्तम जिनेश्वरोमां डेला थया के अने जेमने सौधर्मादि इंझो प्रणाम करे डे एवा वीर नामना जिनेश्वर
जवाच सानै जिनेश एपः, श्रीवीरनामा प्रणतामरेशः॥ अपश्चिमो यो जिनपुंगवेषु, जातातुर्विंशतिसंमितेषु ॥ ए॥ अनाणि तैः सा न स एष पंचविंशो "जिनोऽयं जगति प्रसिदः॥
'सोवाच मुंग्धा नै कैदीपि "पंचविंशो "जिनेंजो नैवती विश्वे॥१॥ Malla ते 'श्रा श्रत्यारे वैजार उपर रहेला ठे' ते नथी. ॥ए॥ माणसोए सुलसाने कडं.
ते (श्रत्यारे वैजार पर्वत उपर समवसरेला बे, ए) पोते वीरप्रनु नथी, परंतु जगत्ने mom
विषे प्रसिह एवा पच्चीशमा तीर्थंकर डे. सुलसाए कडुं. हे मूखों! आ विश्वमां पच्ची-Mal Milशमा तीर्थकर क्यारे पण थाय नही. ॥ १ ॥
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परंतु आ तो कपट करवामां एक चतुर अने कसावान् एवो कोइ पण पुरुष, मनुष्योने 1 बेतरवा माटे निर्मल एवो धर्म कहे . ए प्रकारे कहीने मौननो श्राश्रय करी ते सुलसा शांत थए बते जड हृदयवाला माणसोए फरीथी कह्यु. ॥ए । जिनशास
(वसंततिलकावृत्तम् ) 'कित्वेष कोपि कपटैकपटुः कैलावनाख्याति धर्मममलं जनवंचनाय ॥ उक्त्वैति 'मौनमवलंब्यशैमं गतायां, तस्यां जगाद पुनरेवैजनोजेंडात्मा एए
(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम्) मा कार्षी 'जिनशासनैककुशले त्वं लोकमध्ये निंदा
"मि स्यानिशासनस्य महती नूनं प्रेनावोन्नतिः॥ सौवीचन्नैनु कूटकोटिघटनैः सटीकते नावना,
२०किंतु प्रत्युत धर्मसंशयकरी सैषा भ्रिाजना॥ ३ ॥ नने विषे एक कुशल एवी हे सुलसा! तुं लोकनी मध्ये नेद न कस्य. कारण के, जिनशासननी म्होटी उन्नति तो खरेखर था प्रमाणेज थाय बे. सुलसाए कद्यु.||
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सुखसान
॥
४॥
हुँ एम संभावना करूं टुं के, निश्चे कोटी कपटोनी घटनाथी जावना नाश थती सर्गदहो. जाय डे, एटर्बुज नहि पण ते था जावना धर्मनो संशय करनारी होवाथी खरेखर 8 अपनाजना (शोजारहित) थाय . ॥ ए३ ॥ अंबड ज्यारे चार दिवसे करीने ते
(वंशस्थवृत्तम् ) शैशाक 'नो चालयितुं मनार्गपि, "दिनैश्चतुर्निर्यदि तां स्वनिश्चयात् ॥ तेदेति ध्यौ स "जिनेन 'संसदि, कृतंदि युक्तं सुलसाप्रशंसनम् ॥ ए४॥
(शालिनिवृत्तम् ) sil कारंकारं नित्यमेवं परीदां, स्मारंस्मारं गाढसम्यक्त्वमस्याः॥ Mail ग्राग्राहं तशुणानात्मचित्ते, जैने धर्मे "निश्चलः 'सोवंडोऽनूत् ॥ ५॥
सुलसाने तेना निश्चयथी जरा पण चलाववा समर्थ थयो नही, त्यारे श्रावी रीते || | विचार करवा लाग्यो के, सनामां जिनेश्वरे करेली सुलसानी प्रशंसा निश्चे योग्यज ॥ . ॥ ए ॥ ए प्रकारे नित्य परीक्षा करी करीने अने ते सुलसाना गाढ एवा |
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सम्यक्त्वने संजारी संजारीने वली तेना गुणने पोताना चित्तने विषे ग्रहण करी करीने ते अंबड जैनधर्मने विषे निश्चल थयो. ॥ ५ ॥
श्त्यागमिक श्री जयतिलकसूरिविरचिते सम्यक्त्वसंजवनाम्नि महाकाव्ये सुलसाचरिते सम्यक्त्वपरीक्षणो नाम षष्ठः सर्गः ॥ ६ ॥
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मो.
सुखसा
सर्ग ७ मो. पली पांचमे दिवसे विद्याथी बनावेली ते सर्व क्रियाने तत्काल त्याग करी, निर्मल श्रावकपणाने स्वीकारी.धोएला बे वस्त्रोने धारण करी, हाथमा श्रेष्ठ पुष्पना पात्रने
(स्वागतावृत्तम् ) पंचमेऽथ दिवसे तदशेष, 'विद्यया विहितमाशु विसृज्य ॥ श्रावकत्वममलं परिधाय, धौतवस्त्रयुगलं परिधाय ॥२॥ हस्तसंस्थवरपुष्पकपात्रश्चारुवेषनर्देनु इतगात्रः॥ "देवपूजनविधौ सुलसायाः, मंदिरेडंगमदेयं गतमायः॥॥युग्मम् धर्मबांधव समेदि मे गूदे, नाषिकेति सुलसांनिययौ सा ॥
आदरः प्रणयमांतरीँच्चैझैपयत्यतिथिषु प्रथमं "हि ॥३॥ धारण करनारो, उत्तम वेषधारी, सरल शरीरवालो अने कपट रहित एवो ते अंबड, देवपूजननी विधिवाला सुलसाना मंदिरने विषे गयो. ॥ १॥२॥ ते वखते “ हे |
॥
५
॥
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धर्मबांधव ! म्हारा घरने विषे पधारो.” एम कहती एवी ते सुलसा अंबडना सन्मुख गइ. कारण के, अतिथिने विषे आदर करवो एज प्रथम उंची अंतरनी नम्रता जणावे बे ॥ ३ ॥ म्हारा धर्मबंधु एवा आपनुं जले आगमन घयुं ( थाप जले पधारया.) | आपने जिनयात्रा सुखकारी बे ? श्राजे तमे पोताना आगमनथी श्रा म्हारुं घर पवित्र स्वागतं न भवतो मम धर्मबांधवस्य सुखदा जिनेयात्रा ॥ मामकं गृहमिदं जेवताऽद्य, पवितं "निजसमागमनेन ॥ ४ ॥ साधु साधु दिवसोय वरीयानू, सुप्रभात मिंदमंद्यतनं मे ॥ यंत्र 'संप्रति नूव समानधार्मिकाधिगम ष "विशेषः ॥ ५ ॥ प्रासनं स्वयमयदेषा, संभ्रमेण 'विकचाननपद्मा ॥ प्रेमधर्मविनयोद्यतचित्ता, लाघवं ने गणयंति हि संतः ॥ ६ ॥
कस् बे ॥ ४ ॥ याजे म्हारो दिवस घणोज श्रेष्ठ बे, अने था श्राजनुं प्रजात पण मंगलकारी बे, के जे दिवसना प्रजातने विषे दमणां श्रा विशेष एवं साधर्मिकनुं श्रागमन थयुं ॥ ५ ॥ प्रफुल्लित थयुं वे मुखारविंद जेनुं एवी सुलसाए संग्रमयी
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सुखसा०
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पोतेज ते साधर्मिक बंधुने माटे श्रासन पाथखं. कारण के, प्रेमना धर्मथी विनयने सर्गप्रमो. विषे उद्यम युक्त थयां ले चित्त जेमनां एवा संत जनो (पोताना )लघुपणाने गणता नथी. ॥६॥ पढी सुखसाए ते अंबडना चरणमां नमस्कार करीने, “हे सतीर्थ्य ! अदि बेसो.” एम कर्दा, एटले म्होटा श्राश्चर्य युक्त थएलो ते अंबड पण जाणे
आस्यतामिद सतीर्थ्य तयेति, नाषितोंघ्रिनमनं विधाय॥ सोअपि तत्र गुरुविस्मयपूर्णः, श्रीधर्म श्च मूर्त उपास्थत् ॥७॥ आग्रहं विदधतीषु धेनासु, चेटिकासु सुकृतार्जनलोनात्॥ सा देधाव जननी सुतस्य, तस्य पादयुगलं स्वयमेव ॥७॥ सङता ऊँटति कर्मकरोधैः, कारिता सुलसया गृहचैत्ये॥
अंबडेन विधिना "विदधेय, पूंजनं चे नवनं च "जिनानाम् ॥ ए मूर्तिमंत श्रावकधर्मज होयनी ! एम त्यां बेगे. ॥७॥ पुण्य संपादन करवाना लोजयी बहु चेटिका ( दासी) ए आग्रह करे बते सुलसाए पोतेज माता जेम पुत्रना पग
॥ ६ ॥ धुए, तेम ते अंबडना बे पग धोया. ॥ ७॥ सुलसाए दासीउना समूहवडे पोताना
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१७
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| घरदेरासरने विषे तत्काल तैयारी करावी. पढी अंबडे विधिए करीने जिनेश्वरोनुं पूजनाने स्तवन कस्युं ॥ ए ॥ जिनेश्वरनुं पूजन करी रह्या पढी ( सुलसाए ) - | पेला श्रासनने फरीथी पण ग्रहण करीने हर्षथी पूर्ण ते हृदय जेनुं अने दीर्घकाल सुधी करी बे यात्रा (सेवा) जेणे एवा श्रंबडे ते सुलसाने कयुं ॥ १० ॥ दे विवेकजैनपूजनविधेरेनु दत्तं विष्टरं पुनरपि प्रतिगृह्य ॥
दर्षपूर्ण हृदयः लसां तीं प्रत्युवाच सुचिरं कृतयात्रः ॥ १० ॥ 'विवेकनि यानि, शाश्वतानि मैयकॉप्यपराणि ॥ जैनबिंबपटलानि तानि, 'संप्रति त्वमपि तानि नमेदें ॥ ११ ॥ समदेन सुलसा शिरसाशु, वंदते स्मं निखिलान्यपि तानि ॥ सुः खलज्य सुकृतं सुखमतं, कैस्य 'नो हृदि मुदं कुरुते "दि ॥ १२ ॥ वाली श्राविके! सांजल, में शाश्वत तथा अशाश्वत एवा पण जे जिनबिंबना समूहने नमस्कार करयो बे, तेमने हमणां तुं पण अहिं नमस्कार कर ॥ ११ ॥ सुलसाए सर्व एवा पण ते जिनेश्वरना प्रतिबिंबने हर्षथी मस्तके करीने तत्काल वंदना करी.
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सुलसा०
॥ ए७ ॥
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कारण के, डुः खर्थी पामवा योग्य एवं सुकृत (पुण्य), जो सुखथी मले, तो ते कया पुरु- सर्ग मो. पना हृदयमां हर्ष न उत्पन्न करे ? अर्थात् सर्वने दर्ष उत्पन्न करे ॥ १२ ॥ अंबड फरीथी पण निंध एवी ते सुलसानी स्तुति वचन वडे प्रशंसा करवा लाग्यो के, हे जैन| मानिनी ! हे विवेकिनी ! तुं धन्य बे ने व्हारोज मनुष्यजव पण सफल वे ॥ १३ ॥ बडः पुनरेपि प्रशसंस, तामिँति स्तुतिवचोभिर्रेनिंद्याम् ॥ जैनमानिनि विवेकिनि धन्या, त्वं तवैवें सफलं नरजन्म ॥ १३ ॥ tear वितवैव विशिष्टा, लब्धतत्व निधिकाऽस्ति मतिस्ते ॥ सर्वसारगुणगुंफितगात्रि, वें संतीजन शिरोमणिरेवै ॥ १४ ॥ वीतरागजनशेखरदीरो, वीरतीर्थपतिरादरतोपि ॥
देवदानवनरेश्वरमध्ये, श्रीमुखेन कुरुते यडुदंतम् ॥ १५ ॥
सर्व प्रकारना श्रेष्ठ गुणोथी गूंथेलुं वे गात्र जेणीनुं एवी हे सुलसा! पृथ्वीमां ल्हारंज दाक्षिण्यपणुं श्रेष्ठ बे. वली व्हारी बुद्धि प्राप्त थयो बे तत्वनो समूह जेणीने एवी बे. जेथी तुं सती स्त्रीजंनी मध्ये शिरोमणि रूपज बे ॥ १४ ॥ राग रहित पुरुषो (सामान्य
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॥ ए१ ॥
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केवसिळ) नी मध्ये मुकुटमणि रूप श्री महावीर नामना चोवीशमा तीर्थकर, देव, दानव श्रने नरेंजनी सजा मध्ये पण पोताना श्रीमुखे करीने श्रादरथी जे हारी वार्ता करे . ॥ १५ ॥ श्रेष्ठ पुण्ये करीने प्रसिद्ध थएली हे कुशले! निश्चे पोताना चरणे । करीने चंपा नगरीने पवित्र करता बता जगवान् श्रीमहावीरखामी, म्हारा मुखे क
पावयन्निजपदैः 'किल चंपां, मन्मुखेन नगवान् जिनवीरः॥
बति प्रवरपुण्यप्रतीते, धर्मकर्मकुशलं कुंशले त्वाम् ॥ १६॥ तन्निशम्य सुलसा पुलकांगी, मेघशब्दमिव वैन्यमयूरी॥
स्मोबिर्ताशु मुंकुलीकृतपाणिः, स्तौति 'वीरजिनमित्यतिदर्षात् ॥१७॥ रीने तने धर्मकार्यनुं कुशल पूले ले. ॥ १६ ॥ ए प्रकारे अंबडनां वचन सांजलीने मेघनो शब्द सांजलवाथी बननी मयूरी-मोरनी स्त्री-ढेलनी पेठे पुलकित अंगवाली ते सुलसा तत्काल उजी थर हाथ जोडीने घणा हर्षथी श्री वीर जिनेश्वरनी श्रा प्रमाणे स्तुति करवा लागी. ॥१७॥
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सुखसान
मोहरूप मल्लना बलने मईन करवामां वीर, पापरूप कादवने धोश नांखवा माटे निसर्गप्रमो. मिल जलरूप थने कर्मरूप रजने उडाडी नांखवाने एक पवनरूप एवा हे जिनेश्वर पति! हे वीर ! तमे जयवंता वर्तो. ॥ १७ ॥ देव, दानव श्रने नरेश्वरोने वंदन करवा योग्य, चलायमान कस्वां अचल एवां मेरुपर्वतनां शिखरो जेमणे, केवलज्ञान रूप
मोदमल्लबलमर्दनवीर, पोपपंकगमनामलनी॥ कैर्मरेणुदरणैकसमीर, वं "जिनेश्वरपते जय वीर ॥ १७ ॥ 'देवदानवनरेश्वरवंद्य, चौलिताचलसुराचलशृंग॥ केवलादिकलिताखिल विश्व, रूपनिर्जितजगऊय वीर ॥२॥ वैईमान जनपावनपाथ, पादपीठलुम्तिामरनाथ ॥
तावकीनपदपंकजसंग, मौलिनापरि करोमि सुरंगम् ॥२०॥ नेत्रोए करीने जोयुं हे सर्व विश्व जेमणे अने रूपे करीने जीत्यु जगत् जेमणे एवा । हे प्रनो! तमे जयवंता वर्तो. ॥रए॥ जनोने पवित्र करवामां जलरूप अने जेमना : चरणकमलने विषे शो थालोटी रह्या वे एवा हे वर्तमान जिनेश्वर ! श्रेष्ठ रंगवाला |
॥
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तमारा चरण कमलना युगखने हुँ म्हारा मस्तक उपर धारण करूं . ॥२०॥ हे प्रनो ! जे कलंक सहित पुरुषो, पोताना कपालना तिलकने विषे तमारा चरणनी रजे करीने धारण कस्यां के चिन्ह जेमणे एवा . मन संबंधी वेदनाए करीने रहित एवा | ते पुरुषोने धारण करेला तमारा चरणनी रजना चिन्हथी जाणे शंका पाम्यो होयनी!
ये तैवाघ्रिरजसा जनितांका, नालपट्टतिलके विकलंकाः॥ स्वीकरोति नैं वो पि नरांस्तानकशंकित श्वाँधिनिरस्तान् ॥१॥ यढिनेपदपंकजमूले, लोलुगीति सततं शिवकूले॥
उत्तमांगमैरथार्थमनिंद्यं, तदति विबुधा भुवि 'वंद्यम्॥२२॥ एवो जव(संसार)पण ग्रहण करी शकतो नथी. अर्थात् तमारा चरणनी रजना चिन्हने । धारण करनारा पुरुषोने फरीथी संसार प्राप्त थतो नथी.॥२१॥पृथ्वीने विषे जे मनुष्य
मस्तक,मोदना तटरूप जिनेश्वरना चरण कमलना मूलने विषे निरंतर बालोटे बे, ते Malपुरुषनामस्तकने देवता सत्यार्थ रूप (उत्तम अंग),अनिंद्य अने वंदना करवायोग्य कहे
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सुलसा०
॥ एए ॥
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बे. २२ दे देव ! आलोकने विषे जे मनुष्यो तमारा अति सुंदर अंगने पुष्पनी लता (माला) : सर्गमो. | ए करीने पूजे बे, ते मनुष्योना शरीरनी श्रागल विकसित एवां चामरो निरंतर विलास करे बे. अर्थात् तमारुं पुष्पथी पूजन करनारा मनुष्योने चामरादिक जोगो प्राप्त थाय बे ॥ २३ ॥ श्रलोकमां ते पवित्र मनुष्य हमेशां सवारे जिनेश्वर प्रजुनुं पूजन करे ये प्रसूनलतिका निरिहागमंकयंति तव 'देव सुचंगम् ॥ चामराणि "नियतं विलसंति, तत्पुराणि पुरतो "विकसंति ॥ २३ ॥ यो 'जिनाधिपतिपूजन मंत्र, प्रातेरेव विदधाति पवित्रः ॥ पूज्यतां तु जैनते स परत्र, सर्वसाधुजनशस्यचरित्रः ॥ २४ ॥
शलेय चरणांबुजशेषां, 'ये वहति शिरसा हैतदोषाम् ॥ तपत्रममलं "किल तेषां, मस्तकोपरि "विनाति समेषाम् ॥२५॥ बे, ते मनुष्य, सर्व साधु जनोने वखाणवा योग्य बे चरित्र जेनुं एवो थर परलोकने विषे पूज्यपणुं पामे छे. ॥ २४ ॥ जे मनुष्यो पापने नाश करनारा त्रिशला माताना पुत्र ( श्रीमहावीरस्वामी ) ना चरण कमलनी शेषा (रज) ने मस्तके करीने बहन करे
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बे, ते सर्वे मनुष्योना मस्तकनी उपर निर्मख एवं बत्र निश्चे शोने .अर्थात् जिनेश्वर ना चरणानी रजने सेवनारा चक्रवर्तीनी पदवीने पामे डे. ॥२५॥ श्रालोकने विषे जे मनुष्य पोताना मनमां निरंतर पापने कापी नांखवामां दातरडा समान जिनेश्वर प्रजुना नाम रूप मंत्रनुं ध्यान करे , ते जविक जीवनुं पृथ्वीने विषे पाप वली जाय जे.
ध्यायतीद 'जिननामसुमंत्र, यः सदा मनसि पापलवित्रम् ॥ दह्यते चे रितं नविकस्य, बोनवीति भविकं भुविर्तस्य ॥२६॥ स्थापयात्मपदपद्मयुगं मे, मानसे 'जिनपते वसीमे॥
"रंरमीति परमात्ममरालस्तंत्र मे खेलु यथा शमशाली॥२०॥ अने कल्याण थाय . ॥ २६ ॥ संसारना सीमाडा रूप हे जिनेश्वर! तमे म्हारा मन रूप मान सरोवरने विषे पोताना बे चरणकमलने स्थापन करो, के जे प्रकारे शमे करीने सुशोजित एवो म्हारा परमात्मा रूप हंस, ते रणकमलने विषे निश्चे कीडा करे. ॥२७॥
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सुखसान
पावासगे मो.
॥१०॥
ए प्रकारे श्रादरमां तत्पर, उत्तम एवा रंगना तरं थएली तथा क्लेशनार्ग लेशथी रहित एवी सुलसाए स्तुति करीने, तेमज तख सुधी मस्तक नमावीने |||| (श्रीमहावीर प्रजुने) नमस्कार कस्यो. ॥ २७ ॥ पड़ी धर्मना निश्चयनी परीक्षा करनार ते अंबडे फरीथी ते सुलसाने कछु. में हारी परीक्षा करवा माटेज ब्रह्मा विगे-Mel
एवमोदरपरा स्तुतिमुक्त्वा, पूरिता प्रवररंगतरंगैः॥ केशलेशरहिता सुलसा स्म, 'वंदते लगितनूतलनालम् ॥२७॥ धर्मनिश्चयपरीक्षणका, तेन साथ सुलसा पुनरूंचे॥ त्वत्परीक्षणकृतेऽदमकार्ष, रूपमेवं चतुराननमुख्यम् ॥शए॥ नॉनवत्तव यदि श्रवणेबा, कौतुकार्दपि कथं ने सैमागाः॥
मंजुवाणि परमाईति तैथ्यं, कारणं कथय 'सुंदरि मह्यम् ॥३०॥ रेनुं रूप धारण कसु हतुं.॥ २९ ॥ हे मधुरवाणीवाली परमाईति ! जो के, तने म्हारो || धर्मोपदेश सांजवानी श्छा तो न थक्ष, परंतु तुं कौतुकथी पण केम न श्रावी? हे सुंदरी ! तेनुं खरं कारण मने कहे. ॥ ३० ॥
॥१०॥
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सुलसाए क. हे सुजग ! सर्व गुणने जाणनारो तुं श्रज्ञानीनी पेठे श्राम केम बोले डे ? म्हारुं मन श्री वीर प्रजुने नमस्कार करीने सत् एवा ते ब्रह्मादिकने विषे केम लागे ? अर्थात् जेनुं मन खरी वस्तुने विषे लागेलुं बे, तेनुं मन खोटी वस्तुने विषे चोटतुं नथी. ||३१|| दे बंधो ! कहे, वनमां जमता एवा गजराजना कपालथी गलता सुगंधी वाला सापत्नग जल्पसि किं त्वमिचज्ञ व सर्वगुणज्ञः ॥ 'वीरदेवनिनम्य कथं "मे, मानसं सँगति "तेषु सत्सु ॥ ३१ ॥ प्रिय कपोलगलगंधबंधुरमदैः परिपुष्टः ॥ "लेशतोऽपि रमते पिचुमंदे, कपि सोऽपि वेद श्रृंगयुवा "किम् ॥३२॥ नर्मदासलिलशा६लकच्छपुष्पमकरंदनुजः किम् ॥
कैरवनतः, षट्पदस्य हृदयं रतिमेति ॥ ३३ ॥
मदोए करीने पुष्ट थलो जे चमर बे, ते चमर कोइ पण स्थानके लींबडाने विषे लेशमात्र । पण रमे खरो ? अर्थात नज रमे. ||३२|| नर्मदा नदीना जलधी लीला घासवाला कांवाना प्रदेशमां उगेला वृदोना पुष्पोना मकरंदने पान करनारा चमरनुं हृदय निर्ज
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सुलसान
॥१०१॥
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ख नूमिने विषे केरडा उगेला प्रदेशमां शुं हर्ष पामे ? अर्थात् नज पामे. ॥ ३३ ॥ जे सर्गप्रमो.
मर मानस सरोवरमां बहु सुगंधवाला पद्मरूप महेलनी वली (तंतु)ने विषे पोतानी || मरजी प्रमाणे निवास करतो हतो, ते ब्रमर प्रफुलित एवा पण खाखराना पुष्पने | विषे विलास करवानी बुद्धि शुं करे खरो? अर्थात् नज करे. ॥ ३४ ॥ जे गजराज शी.
मानसे सरसि सौरननारपद्मसौधवलनीष यथेष्टम् ॥ योध्युवास विकचेऽपि पलासे, किं "विलासमतिमितिसोऽली ३४ नर्मदापयसि यो जलकेलिं, शीतले गजपतिर्विदधाति॥ सोपरे पैयसि तीरगतेऽपि, दृष्टिमात्रमैपि "किं प्रैतनोति ॥ ३५॥ शंखकुंदकलिकोपमकांति, 'निर्मलं "पिबति गांगजलं यः॥
पंकिलं गिरिनदीजलपानं, कर्तुमिवति स किं वरदंसः॥ ३६॥ तल एवा नर्मदा नदीना जलमां क्रीडा करे , ते गजराज, कांठे रहेला एवा पण ॥११॥ बीजा (नर्मदा नदी विनाना) जलने विषे पोतानी दृष्टिमात्रने पण शुं करे खरो ? अर्थात् नज करे. ॥ ३५ ॥ जे राजहंस शंख श्रने कुंदलतानी कली सरखी कांतिवा
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ला अने निर्मल एवा गंगाना जलनुं पान करे बे, ते राजहंस कादववाला पर्वतनी नदीना जलने पान करवानी इछा करे खरो ? अर्थात् नज करे. ॥ ३६ ॥ जे मृगे | निरंतर उत्तम सुगंधवाला मलयाचलनी भूमिने विषे निवास करयो बे, ते मृग, वृ| दवाला एवा पण बीजा बनने विषे रागवान् थयो तो शुं रमे खरो ? अर्थात् न
यः सदा प्रवरसौरजनाजि, वासमीप मलयाचलनूमौ ॥
harat " किमपरे स सैरंगो, टेकवत्यपि रैमेत कुरंगः ॥ ३७ ॥ एवमेव 'जिनवीरपदानं, वंदितं जैगति यैः सुरवंद्यम् ॥ तन्मनोऽपि कैामैन्यसुरेषु, "देषिरागिषु हैरादिषु यति ॥ ३८ ॥
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रमे ॥ ३७ ॥ एज प्रकारे विश्वमां जे मनुष्योए देवताउने पण वंदना करवा योग्य एवा श्री वीर जिनेश्वरना चरणकमलने वंदना करी बे, ते मनुष्योनुं मन पण द्वेषी ने रागी एवा हरादि बीजा देवताउने विषे केम गति करे ? अर्थात् जिनेश्वरना जक्तो वीजा द्वेषी ने रागी एवा देवताउने मानता नथी. ॥ ३० ॥
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Mसुलसा अंबडने कहे डे के, हे बंधो ! एज प्रकारे जे मनुष्ये मधुर, न्यायवाला अनेसर्गमो. सुलसा
चतुर एवा श्री वीरप्रजुनां वचननेसांजल्यां ,कल्पित (निश्चित) बुद्धिवाला ते मनुष्यने । ॥ श्रेष्ठ विचार विनानां वचनो सांजलवानी श्वा केम थाय? अर्थात् नज थाय. ॥३ए॥
'इनमेव मधुरं नयसारं, वीरवाक्यमशृणोच्चतुरं यः ॥ तस्य केल्पितमतेः श्रेवणेना, स्यात्कथं वैरविचारनिरासे॥३॥
(वसंततिलकावृत्तम् ) इत्यादिवाक्यविसरैर्जुिनवीरदेवपादारविंदयुगलं गुणगौरवान्यम् ॥
संस्थाप्य सा हरिदरादिषु दैवतेषु, नंक्तिप्रवीणहृदया शिरसा नैनाम| | कृत्वाग्रहं प्रवरनोज्यविवेकयुक्त्या, संनोज्य तं निजसहोदरतुल्यनक्त्या ॥ सम्यक्त्वनिश्चयवती सुलसा प्रकामं, सत्कारपूर्वमैकरोत् दृढधर्मनावम्॥४२॥ नक्तिथी प्रवीण हृदयवाली सुलसाए इत्यादिवाणीना समूहथी हरि हरादि देवोना ||| उपर गुणना गौरवपणाश्री युक्त एवा जिनेश्वर श्री वीर प्रजुना बे चरणकमलने स्थापन करीने मस्तकथी नमस्कार कस्यो. ॥ ४० ॥ पनी सम्यक्त्वना निश्चयवाली
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॥१०॥
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सुलसाए अत्यंत श्राग्रह करीने ते अंबडने पोताना बंधुना सरखी जक्तिथी श्रेष्ठ ll नोजनना विवेकनी युक्तिथी सत्कार पूर्वक जमाडीने दृढ एवा धर्मजाववालो कस्यो. ॥४१॥ त्यार पठी “सुलसानां" कस्यां ने वखाण जेणे एवो तथा सम्यक्त्वने विषे निश्चल बुद्धिवालो, जावना युक्त अने सुलसानी जावनाना रसथी दाइ गया वे सप्त
आएज्य तां गुणवतीं विहितप्रशंसः, सम्यक्त्वनिश्चलमतिः प्रतिनासमेतः॥
तेनावनारसविनेदितसप्तधातुः,
'स्वैरं जैगाम "निजधाम ततोबडः सः॥४२॥ धातु जेना एवो ते अंबड,गुणवती एवी ते सुखसानी रजा लश्ने मरजी प्रमाणे पोताना स्थान प्रत्ये चासी नीकट्यो. ॥ ४ ॥
इत्यागमिक श्रीजयतिलकसूरिविरचिते सम्यक्त्वसंजवनानि महाकाव्ये सुलसाचरिते सुलसाप्रशंसनो नाम सप्तमः सर्गः॥
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सुखसा०
॥१०३॥
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सर्ग मो.
पठी तपे करीने दुर्बल थर गएली ते सुलसा अनुक्रमे वृद्धावस्था पामी. कारण के, मनुष्योनुं वय पर्वतनी नदीना जल समूहनी पेठे शीघ्र गति करनारुं बे. ॥ १ ॥ पोतानुं पालुं श्रायुष्य जाणीने करयुं ने संलेखन जेलीए एवी ए सुलसाए पोतानुं. श(तालियवृत्तम् )
अथ सा सुलसा तपःकृशा, क्रेमतः प्राप वयोऽतियौवनम् ॥ गिरिशैव लिन जलौघवर्त्तनुनाजां हि वेयोऽतिगत्वरम् ॥ १ ॥ 'निजमायुरेवेत्य पश्चिमं कृतसंलेखनयानया वपुः ॥ 'विदधे सविशेष निर्मल, कैर्यमौचित्यमपैति तादृशाम् ॥ २ ॥ अवसान दिने समीपगे, हंदि कृत्वा जिनवीरदैवतम् ॥ सुलसा नलसा वृषार्कने, गुरुमांनम्य जंगाद सादरम् ॥ ३ ॥ रीर अत्यंत निर्मल कयुं. कारण के, तेवा माणसोनुं योग्यकार्य केम नाश पामे ? - र्थात् नज पामे ॥ २ ॥ पोतानो अवसान दिवस पासे श्रावे ते श्री जिनेश्वर एवा
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सर्ग०मो.
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वीरप्रजु रूप दैवतने हृदयमा धारण करीने धर्म संपादन करवामां श्रावस रहित एवी । सुखसाए गुरुने प्रणाम करीने श्रादर सहित कयु.॥३॥ हे जगवन् ! तमे मोक्षमार्गना दर्शक होवाथी श्रावक जनोने दीपक रूप बो. माटे श्रा समयने योग्य एवी क्रिया करो अने मने संसार समुज्थी निस्तारो. ॥॥ परी गुरु ते सुलसाने मधुर, कोमल
नगवन् शिवमार्गदर्शनात्, त्वमसि श्राइजनस्य दीपकः॥ तर्ददःसमयोचितां क्रियां, कुरु "निस्तारय माँ नेवार्णवात् ॥४॥ मधुरैर्मेनिमनोहरैजिनसिक्षांतगतैर्वचोनरैः ॥ सुनटानिव नट्टराईणे, गुरुरुत्सादयति स्म तामिति ॥५॥ अयि सर्वविवेकवयपि, मृतकृत्याऽसि गुणाग्रणीरसि ॥
परलोकहिताऽस्ति "निश्चला, यदियं धर्ममतिस्तवामला॥६॥ मनोहर श्रने जिनेश्वर प्रजुना सिद्धांतने विषे रहेला वचनना समूहे करीने रण संग्राममां सेनाधिपति सुजटोने जेम उत्साह पमाडे, तेम उत्साह पमाडवा लाग्या.॥५॥ हे सुखसे ! तुं सर्व प्रकारना विवेकवाली तेमज संजागुं ने परलोक संबंधी कार्य जेणीए ।
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सुखसान
एवी . वली गुणोए करीने मुख्य वे. कारण के, श्रा त्हारी निश्चल अने निर्मल सर्गमो.
एवी धर्मबुद्धि परलोकने विषे हितकारी जे. ॥६॥ जन्मथी आरंजीने करेला सु॥१०॥
कृत्य, फल उत्तम मृत्यु एज देरासर उपर कलश चढाववा जेवू दे. कारण के, नव हस्तना प्रमाणवाला श्रेष्ठ नाला- मजबुत लोहाग्रज वखाणवा लायक . ॥७॥
सुकृतस्य केतस्य जन्मनः, शुनमृत्युः केलशाधिरोपणम् ॥ नवदस्तमितस्य शंस्यते, वरकुंतस्य 'दि कोटिसारता ॥७॥ जैननं यदि जातमं गिनां, मरणं तन्नियतं नविष्यति ॥ इति "निश्चयतः प्रमोदनाक, तैदिमें "पंमितमृत्युमाश्रय ॥७॥ अतिचारविशोधनं त्रैतोचरणं दामणमागसां कुरू॥
त्यज पातककारणानि वा, श्रेय चत्वारि च "निंद उष्कृतम् ॥ ए॥ जो प्राणीनो जन्म थयो . तो मरण पण निश्चे थवानुंज . श्रावा निश्चयथी प्र-IITRam
मोदने नजनारी हे सुलसे! तुं तेज था पंमित मरणनो श्राश्रय कर. ॥७॥ दे M सुखसे! तुं अतिचारोनुं विशोधन कर, व्रत, उच्चरण कर श्रने अपराधोनी दमण al
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(क्षमा) कर. वली पापना कारणोने त्याग कर, चार शरणो (अरिहंत, सिद्ध, साधु अने धर्म) नो श्राश्रय कर अने पुष्कृतनी निंदा कर. ॥ ए॥ पोतानासुकृत्योनी श्रनुमोदना कर, शुज नाव कर श्रने अशन (जोजन) ने त्यजी दे. वली हर्षथी पंचन
सुकृतान्यनुमोदयात्मनः, शुननावं कुरु वाँशनं त्यज ॥ स्मर 'पंच नेमस्कृतीच्दा, "शिवशर्माशुं यथा पद्यसे ॥१०॥
(उपजातिवृत्तम्.) झानादिकाचारकपंचकेत्राँतिचार आगात्तव योऽपि सूक्ष्मः॥
आलोचय त्वं तमशेषमैद्य, "त्रिधा "विशुझ्या गुरुदेवसाति॥१९॥ मस्कार, स्मरण कर के, जे प्रकारे तुं तत्काल मोक्षसुख पामे. ॥१०॥ हे सुलसे ! श्रा ज्ञानादिक पांच श्राचारने विषे त्हारो सूक्ष्म एवो पण जे अतिचार श्राव्यो होय, ते सर्वने तुं श्राजे गुरु अने देवनी समक्ष त्रण प्रकारनी शुद्धिए करीने बालोव.
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सुखसा/॥ ११ ॥ वली तें पोते जे अकाल अविनय विगेरे आउने विषे झाननो अभ्यास कस्यो सर्गप्रमो.
होय,श्रथवा बीजाने कराव्यो होय, तेमज विधियी जणनारने विघ्न कमु होय अनेजे ॥१५॥|| ज्ञाननी अथवा नणनारनी श्रवज्ञा करी होय; के ज्ञान अभ्यास करीने गर्व कस्यो ।
(वैतालियवृत्तम् ) यदकालमुखाष्टके त्वया, पवितं ज्ञानमंपावि चाँपरान् ॥ "विधिना पैठतां च "विनितं, यदेवज्ञातमधीत्य गैर्वितम् ॥१२॥ वैसनरेशनैश्च पुस्तकैर्न च साहाय्यमकारि शैक्तितः॥ करसंपुटकादि वस्तु यत्त्वयकाशातितमस्तु तथा॥१३॥ मलिनं फलशंकनादिनिः, शुनसम्यक्त्वमेकारि कारणैः॥
न कृतं जिनपूजनं मुदा, "जिनपाशापि न चोरु पालिता ॥२४॥ होय, ते सर्वने त्रण प्रकारनी शुद्धिए करीने बालोव. ॥ १२ ॥ तें शक्ति प्रमाणे वस्त्र, नोजन अने पुस्तकोए करीने कोश्नी सहाय्य करी नहीं, वली जे सांपडा आदि वस्तुनी आशातना करी ते सर्व मिथ्या था.॥ १३ ॥ तें जे करेला पुण्यकार्यना फ
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रच्या
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लनी शंकाए करीने (अर्थात् में जे या पुण्य कस्युं बे, तेनुं फल मने मलशे के नही ?) एवा कारणोए करीने उत्तम एवा सम्यक्त्वने मलीन कर होय, तेमज जे हर्षश्री जिनेश्वरनुं पूजन न कस्युं होय, अने जे जिनेश्वरनी श्रज्ञा पण सारी रीते न पाली होय, ॥ १४ ॥ वली तें जे सामर्थ्य बतां पण कोइ बलने विषे नाश पामता गुरुना श्रने
गुरुदेवधनं चिले, संति सामर्थ्य उपेति नैश्वरम् ॥ "निखिलं रितं वृथास्तु "ते, तमाशातनयांनयपि च ॥ १५ ॥ समितीत गुप्तिनिः समं, चरणं सम्यगिदं न पालितम् ॥ कवह्निवाद्यगादय केंद्रियजंतवो हैताः ॥ १६ ॥
दल
| देवना द्रव्यनी उपेक्षा करी होय, अने ते गुरु ने देवनी कां या यशातना वडे करीने पण कांइ कयुं होय, तो तेल्हारुं सर्व पाप मिथ्या याउं ॥ १५ ॥ तें जे | पांच समिति ने त्रण गुप्ति सहित या सम्यक् प्रकारे चारित्र न पाल्युं होय; वली जे पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पतिकाय विगेरे एकेंद्रिय जीवो हष्या होय,
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सुलसा०
॥ १६ ॥ हे सुलसे ! तें तेज प्रमाणे करमीया, पूरा, शंख अने ठीप विगेरे जे बेइंसर्गज्मो. प्रिय जीवो तेमज धूप, मांकड, कीडी तथा कुंथुच्या विगेरे जे तेंद्रिय जातिना जीवो ॥१०६॥ माख्या होय, ॥ १७ ॥ तें जे जमरा, कुत्तिका, मधमांखी, वींटी, छाने करोलीया विगेरे चतुरिंद्रिय तथा जलचर, स्थलचर, श्रने खेचर अर्थात् जल, भूमि धने श्राकाशमां कृमिपूतर शंखशुक्तिका प्रमुखा प्रियकास्तथैव ये ॥ घुमकुकी टिकुंथुकाप्रनृतित्रींद्रियजंतुजातयः ॥ १७ ॥ चेतुरिंडियनृगकुत्तिकासरघाटश्चिकको किलादयः ॥ खजलस्थलचारिदेदिनः, 'किल पंचेंजियका स्त्रिधा पुनः ॥ १८ ॥ इति संसृतिसंश्रिता देता, अभिघातादिदशप्रकारकैः ॥ तनुबादरजंतवस्त्वया, तव मिथ्याऽस्तु तदेंद्य दुष्कृतम्॥ १९ ॥ गति करनारा त्रण प्रकारना पंचेंद्रिय प्राणी माया होय ॥ १८ ॥ ए प्रमाणे तें जे जन्म मरणनो आश्रय करी रहेला सूक्ष्म बादर जीवोने निघातादि दश प्रकारे करीने माया होय, ते सर्व व्हारुं दुष्कृत ( पाप ) आजे मिथ्या थाई ॥ १९॥
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॥१०६॥
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Maiवली क्रोधादिके करीने जे जूतुं बोली होय, अथवा जे नहिं थापेली पारकी वस्तु
पोतानी मानी ग्रहण करी होय, तेमज जे पशु, माणस अने देव संबंधी त्रण प्रकारर्नु Mall मेथुन सेव्यु होय, तेमज जे नव प्रकारना धन धान्यादिक परिग्रहने विषे ममता पण
अनृतं जगदे क्रुधादिनिर्यददत्तं जगृहे स्वमस्वकम् ॥ पेशुमानवदेवसंनवं, "त्रिविधं "मैथुनमैद्यसेवितम् ॥ २० ॥ नैवधा धनधान्यकादिके, ममताकारि च यत्परिग्रहे॥ नियमै"निशाशनादिषु, यैदेतीचारितमैस्तु तथा॥२॥ युग्मम् । सति शक्तिनरेजेपि यत्तपो, न कृतं घादशधा जिनोदितम् ॥
"शिवंसाधकधर्मकर्मसूद्यमितं "नैव तदये "निंदय ॥२२॥ करी होय अने रात्रिभोजनादिकने विषे नियमे करीने जे अतिचार लाग्यो होय, ते ३ सर्वश्राजे मिथ्या था.॥२०॥२१॥ हे सुलसे ! तें शक्ति बतां पण जिनेश्वर प्रजुए | कहेढुं जे वार प्रकारचं तप ते श्राचघु नहीं. तेमज मोदना साधन रूप धर्मना का
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कार्यने विषे उद्यम कस्यो नहीं, तेनी आजे तुं निंदा कर.॥३॥ हे साध्धि ! उत्तम बुद्धि-सर्गणमो. सुखसा०
वाली तें पूर्व प्राणातिपात विरति विगेरे जे व्रतोने विधि प्रमाणे श्रादस्यां होय, हि11 तकारी एवां ते व्रतोने 'अतिचार रहित श्राजथी हुँ पालीश' एम हमणां तुं फरी ना
(वसंततिलकावृत्तम् ) प्राणातिपातविरतिप्रमुखव्रतानि, पूर्व यथाविधि सुधीस्वयकाँहतानि ॥
नावेन 'संप्रति पुनर्नण साध्वि तानि, त्वं पोलये "निरतिचारमैतो 'हितानि॥ २३ ॥
(वैतालियवृत्तम् ) संद संप्रति सर्वदेहिनामपराधं दमयस्व तानिजम् ॥ नज मैत्र्यमतिं त्यज हुँधं, शैमसंवेगसुधारसं "पिव ॥२४॥
॥१०॥ वथी बोल. ॥३॥ हमणां सर्व प्राणीजना अपराधने सहन कस्य. तेमज ते प्राणी प्रत्ये पोताना अपराधने खमाव. वली मित्राश्नी बुद्धिने धारण कर, क्रोधने त्याग कर अने |
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| शांति युक्त वैराग्य रूप श्रमृतरसने पान कर. ॥ २४ ॥ हिंसा, मृषावाद, चोरी, मैथुन, धननी इवा, क्रोध, मान, माया, लोभ, क्लेश, रति रति, अयाख्यान, चाडी, द्वेष, प्रेम, परना अपवादनुं कहेतुं, मायामृषावाद श्रने मिथ्यादर्शनशल्य रूप पापनां ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् )
'हिंसाऽसूनृत चौर्यमैथुनधनाकांक्षाः क्रुध मानकं, मायां लोनकली च रत्यरतिर्मत्र्याख्यानपैशून्यके ॥ द्वेषं प्रेम पैरापवादवदनं मायामृषाभाषणं, " मिथ्यादर्शनशल्यपातकपदं चाष्टादशपि त्यज ॥ २५ ॥ (वैतालियवृत्तम् )
द ये कथितार्श्वतुर्विधा, निधास्थापनश्व्यभावतः ॥ शरणं चरणं तदर्दतां, ब्रेज मृत्योरंवनं वितन्वताम् ॥ २६ ॥
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| स्थानक एवां ए अढारने पण त्याग कर. ॥२५॥ श्रालोकमां नाम, स्थापना, द्रव्य अने जावथी जे चार प्रकारना जिनेश्वर प्रभु कहेला बे, मृत्युची रक्षण करनारा एवा ते
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सुलसा०
॥२०८॥
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जिनेश्वरोना चरण रूप शरण प्रत्ये जा. ॥ २६ ॥ वली जुवनपति, वाणव्यंतर, मनुष्य सर्गणमो. लोक, ज्योतिषी ने वैमानिक देवलोकमां असंख्य शाश्वत एवा चैत्यने विषे रहेलां अरिहंतनां प्रतिबिंबोने जावथी नमस्कार कर ॥ २७ ॥ सिद्धशैल (शत्रुंजय ), श्राबु, गिरनार, कनकाचल ने अष्टापद पर्वतादिकने विषे रहेलां, वली जिनेश्वरनी वे उत्पत्ति वनाधिपवानव्यंतरमनुजज्योतिरमर्त्यभूमिषु ॥
शाश्वतचैत्यसंस्थिताऽई तर्बिवान्यमितानि भवतः ॥ २७ ॥ 'विमलार्बुदरैवताचले, केनकाष्टापदपर्वतादिषु ॥ परास्वपि तीर्थभूमिका स्वपि वेदस्व जिनोभवादिषु ॥ २८ ॥ कर्ममलं विदा 'ये, तपसापुः परमात्मरूपताम् ॥
देश पंच च " बिभ्रतो "निदस्तव "सिद्धाः शरणं नैवंतु "ते ॥ २९ ॥ विगेरे जेमने विषे एवी बीजी पण तीर्थजू मिमां रहेलां एवां पण जिनेश्वरोनां प्रतिबिंबोने | वंदन कर. ||२८|| जे गाढ एवा कर्मना मलने तपथी बालीने परमात्म स्वरूपने पा म्या बे, अने पंदर प्रकारना भेदने धारण करनारा ते सिद्धो व्हारुं शरण था. ॥२॥
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॥१००॥
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मोक्षसाधक योगोनुं साधन करनारा, विषयना समूहनी श्राझाने बाध करनारा (अमर्थात् विषय नहिं जोगवनारा ), वली मनुष्यक्षेत्रमा रहेला श्रने दमादिक दश प्रका-1||
रनी धर्मनूमि रूप सर्वे साधु हारुं शरण था. ॥३०॥ संसार रूप समुज्ने तारवामां समर्थ, सर्व प्राणीउने हितकारी, शमताए करीने उत्तम, दश प्रकारे जिनेश्वर प्रजुए।
'शिवसाधकयोगसाधका, विषयग्रामनियोगबाधकाः॥ शरणं तव सर्वसाधवो, मनुजदेवगताः दमानुवः॥ ३० ॥ नवसागरतारणहमः, सकलप्राणिदितः शमोत्तमः॥ शरणं देशधा जिनोदितस्तव धर्मः शिवशर्मसाधनम्॥३१॥ कुमतं यदि प्ररूपितं, "जिनधर्मो यदपतस्त्वया ॥
गुणिनां गुणमत्सरः कृतः, कुंकुटुंबं पुंपुषे मैमत्वतः ॥ ३॥ कहेलो श्रने मोक्ष सुखनुं साधन एवो धर्म, हारं शरण था. ॥३१॥ तें श्रा खोकमां
जे कुमतने निरुपण कस्यो होय थने जे जिनधर्मनो उपरोह कस्यो होय, तेमज गु-18 पाणी पुरुषोना गुणनो मत्सर कस्यो होय अथवा ममत्वपणाची खराब कुस, पोषण
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सुलसा
॥१०॥
कघु होय, ॥ ३॥ धर्मादि सारा कार्यामां अंतराय कस्यो होय, मनुष्यना समूहने सर्गप्रमो. पापकर्ममां प्रेख्यो होय, वली प्रमादथी खोटी बातो करी होय, ते सर्व पोताना पुष्कत्यनी गुरुनी सादीए निंदा कर. ॥ ३३ ॥ ते जे अव्य जिनेश्वरोनां मंदिर, तेमनां प्रतिविंब, पुस्तक अने संघ ए चारने विषे पण वाव्युं ( वापखं) होय, शीघ्र प्रतिमादि तप
प्रेकृता सुकृतांतरायता, जनता पातककर्मणीरिता॥ "विकथा कथिता प्रमादतः, परिगर्दस्व तदात्मप्कृतम् ॥३३॥ "जिनमंदिरबिंबपुस्तकेप्वपि संघे धनमुप्तमंजसा॥ प्रतिमादितपः समर्थितं, यदलं धर्मविधौ संहायितम् ॥३४॥ "विदधे विधिदेशना त्वया, पतितः पावित आगमोऽपि यत् ॥
समयानुगमायदप्येलं, "निजपुण्यं वनुमोदयांतरा ॥ ३५॥ कलं होय, तेमज धर्मविधिमा घणी सहाय्य करी होय, ॥३४॥ वली ते जे समयने ॥१ ॥ अनुसरी विधिपूर्वक देशना श्रापी होय, तेमज आगमनो श्रन्यास कस्यो होय श्रथवा कराव्यो होय श्रने जे वीजुं पण पोतार्नु घणुं पुण्य होय, ते सर्व पोताना पुण्यनी
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मनने विषे अनुमोदना कर.॥३५ ॥ वली तुं संसार रूप पांजराने जागवामां दृढ, ते. मज दया, शमता, अने समाधिना बंधु रूप एवी उत्तम नावनाउने हमणां पोताना मनमा वार प्रकारे जाव्य. ॥३६ ॥ वली पोताना शासनने विषे तथा परशासनने विषे जेनो म्होटो महिमा कहेवाय ने एवा ते अनशन व्रतने विधिए करीने ग्रहण कर, ते
नवपंजरनंजनोइराः, कैरुणासाम्यसमाधिबंधुराः।। परिनावय नव्यनावना, मनसि वादशसंख्ययाधुना ॥ ३६॥ स्वमते परशासने तेथा, महिमा यस्य मदानिगद्यते॥ "विधिनांनशनं गृहाण तन्निखिलादारमति "विमुच्यताम् ॥३७॥ कलमंगलकेलिमंदिरं, सुरसंपशदेतुत्तरम्॥
अघसंघविघातसत्वरं, स्मर मंत्रं परमेष्ठिविष्टरम् ॥ ३०॥ मज सर्व प्रकारना श्राहारनी बुद्धिने त्याग कर. ॥ ३७ ॥ मनोहर मंगल क्रीडाना मंदिर रूप, देवतानी संपत्तिना वश्यतुं कारण, पापना समूहनो नाश करवामां शीघ्र गति करनार अने पंच परमेष्ठिना थारू रूप एवा उत्तम नवकार मंत्रने स्मरण
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सुलसा०
॥१२०॥
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| कर. ॥ ३० ॥ सम्यक्त्वनुं पालन करवामा पर एवी ते सुलसाए ते वखते एवी रीते : सर्गज्मो. म्होटा उद्यमथी आराधना करीने अने उत्तम एवा समतारसने विषे चित्तने धारण करीने तीर्थंकरगोत्रनुं पवित्र कर्म बांध्युं ॥ ३ए ॥ वैराग्यथी पूर्ण हृदयवाली अने प्र
(वसंततिलकावृत्तम् )
प्राराधनामिति मंदोद्यमतो विधाय, "चित्तं "निधाय परमे संमतारसे सा ॥ श्रानंद तीर्थ करगोत्रपवित्रकर्म, सम्यक्त्वपालनवशा सुलसा तदानीम् ॥३ ॥ ( शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) आराध्यांनशनं गुरुक्तविधिना संवेगपूर्णाशया,
श्रीमद्दीर जिनेश्वरांघ्रिकमलं स्मेरं स्मरंती हृदि ॥ त्यक्त्वा जीर्णकलेवरं कृतमदापुष्पप्रभावानुतं,
सर्वांगी सुखास्पदं सुरजवं सुश्राविका सा ययौ ॥ ४० ॥ फुलित एवा श्रीवीर जिनेश्वरना चरण कमलने मनमां स्मरण करती एवी ते उत्तम श्राविका सुलसा, गुरुए कहेली विधि प्रमाणे अनशन व्रतने श्राराधीने तथा जीर्ण
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॥१२०॥
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कलेवरने त्याग करीने पोते करेला महा पुण्यना प्रजावधी अमृत अने प्राणीउना सर्व शरीर संबंधी सुखना स्थान रूप देव जवने पामी.॥४०॥ त्यां देव लवने विषे दिव्य सुख जोगवी अने पठी त्यांथी च्यवीने ते सुलसा पुरुष रूपे श्रा चरत क्षेत्रने विषेश्रा-18
(वसंततिलकावृत्तम् ) नुक्त्वा सुखं त्रिदशजन्मनितंत्र दिव्यं, च्युत्वातंतोऽपि सुलसा पुरुषोऽत्र वर्षे । नाविन्यनेहसि विष्यति निर्ममाख्यस्तीर्थंकरो जैगति पंचदशःप्रेसिपः४
___(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् ) केल्याणदणदत्तसर्वजगतीसौख्यातिरेकस्तैदा,
झानं केवलमोप्य देवमनुजैः संस्तूयमानक्रमः॥ संपूर्णातिशयैर्निराकृततमाः 'संस्थाप्य तीर्थ "दितौ,
श्रीमन्निर्ममनायकः स परमानंदं पदं यास्यति ॥४२॥ वता कालमां (श्रावती चोवीशीमां) जगत्ने विषे प्रसिद्ध एवा पंदरमा निर्मम । नामना तीर्थकर थशे. ॥ ४ ॥ ते वखते कल्याणकारी समये करीने श्राप्यु डे सर्व
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सुलसा
लोकोने अत्यंत सुख जेमणे एवा, तेमज देव अने मनुष्योए जेमना चरण कमलनी सर्गप्रमो. स्तुति करी ले एवा, वली समग्र अतिशयोए करीने अज्ञानने नाश करनारा ते श्री निर्मम नामना जिनेश्वर केवलझानने पामी श्रने पृथ्वीने विषे तीर्थने स्थापना करी परम श्रानंद श्रापनारा मोक्षपद प्रत्ये पामशे.॥४२॥ ए प्रकारे में सम्यक्त्वसंजव ना
(वसंततिलकावृत्तम् ) इचं मैया विरचितं सुलसाचरित्रं, सम्यक्त्वसंनव ईतीहै "चिराय'जीयात्॥
संशोधितं जयसमुज्कवींमुख्यैः,
पूर्वप्रतौ "विलिखितं गणिनामरेण ॥४३॥ हामना महा काव्यने विषे रचे, जयसमुत विगेरे मुख्य पंमितोए शोधेलुं अने अमर |॥११॥ नामना गणिए पूर्व प्रतमां लखेलुं श्रा सुलसाचरित्र एज प्रकारे पृथ्वीने विषे घणा | काल सुधी जयवंतु वर्तो. ॥४३॥
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श्रा सम्यक्त्व संजव महाकाव्य ( सुलसा चरित्र) - से चालीश श्लोक
(अनुष्टुप्वृत्तम् ) सम्यक्त्वसंनवेत्रांस्ति, लोकानां शतसप्तकम् ॥
चत्वारिंशतथा सर्वसंख्ययादरविंशतिः॥४४॥ तथा वीश श्रदरनी संख्या . ॥ ४ ॥
श्त्यागमिक श्री जयतिलकसूरि विरचिते सम्यक्त्व संजवनाम्नि महाकाव्ये सुख[साचरिते सुलसा स्वर्गगमनो नाम श्रष्टमः सर्गः ॥७॥
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सुलसा०
॥१९२॥
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सुलसाचरितम्
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मूलसंस्कृत पद्यात्मक
तेनुं मूल अने अन्वयांक साथे गुजराती भाषामां शास्त्री हरिशंकर कालिदास पासे भाषांतर करावी
छपावी प्रसिद्ध करनार श्रीजैन विद्याशाला डोशीवाडानी पोळ, अमदावाद.
मुंबई निर्णयसागर प्रेस,
सने १८९९ संवत् १९११, किम्मत १ रुपियो.
प्रसिद्धकतीए आ प्रधने छापवा छपाववा संबंधी सर्व प्रकारना हक
पोताने स्वाधीन राख्यो हे
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सर्ग मो.
॥१२२॥
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