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वहाणवडे तराय एवा ( श्रेष्ठ पुत्रोवाला ), वाडवाग्निने दीधुं ने स्थान जेणे एवा (ब्राह्मणोने श्राप्यो ने श्राश्रय जेमणे एवा), अगाध मध्यवाला (गंजीर अभिप्राय | वाला ), लक्ष्मीनी उत्पत्तिना स्थान रूप ( लक्ष्मीना नंमारवाला), अने निरंतर मेघना | उपर उपकार करनारा ( निरंतर गाढ उपकार करवामां तत्पर ) एवा समुष समान लोको वसे . ॥ १५ ॥ जे राजगृह नगरने विषे सुवर्णना उज्वल कंदोराने धारण कर ।।
यस्मिन् सुवर्णोज्ज्वलमेखलांकाः, सनंदना देवकृतानिलाषाः॥
अनेकरूपा इव मेरुनूम्यो, विलासवत्यो वनिता "विनांति ॥१६॥ नारी ( सुवर्णनी उज्वल मेखलानां ले चिन्ह जेणीने ), पुत्रवाली (नंदन वन । युक्त), अने देवताए जोगववा माटे करी २ वा जेणीउनी एवी ( देवताए । रहेवा माटे श्ला करेली ), विलासवाली स्त्री जाणे अनेक रूपवाली मेरुपर्वतनी पृथ्वी ज होयनी ! एवी शोने जे. ॥ १६ ॥
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