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ज्ञान, दर्शन श्रने चारित्र रूप त्रण रत्नोथी सुशोजित मूर्तिवालो अने निरंतर शरीरनी अंदर तथा ब्हार त्रण त्रण व विश्राउथी व्याप्त एवो नागसारथी, ऊर्ध्वलोक Ma( देवलोक )मा रहेला दौ{दिक देवनी पेठे था मनुष्य लोकमां पोतानी श्छा प्रमाणे अनेक जोगोने जोगवतो हतो. ॥ ३० ॥ म्होटा पर्वतोना शिखर उपरथी वहेता जग
रत्नत्रयालंकृतमूर्तिरतबदिस्त्रिवेट्याकलितः सदैव ॥ 'लुंक्ते स्म भोगान् "निजवांब्या यो, दौरांदिको "देव"वो ईलोके ३७
यस्मात् प्रैसत्ता उपकारवाराः, सदैव चित्तातिहरा नराणाम् ॥
नदीप्रवाहा व 'विश्वतृष्णाविदो महानूधरमूईदेशात् ॥३॥ नी तृषाने दूर करनारा नदीना प्रवाहो सरखा, जे नागसारथी थकी मनुष्योना चि त्तिमां थती एवी पीडाने हरण करनारा उपकारना समूहो निरंतर प्रवर्तता हता. अर्थात् |
नागसारथी मनुष्यो उपर उपकारने करतो बतो तेमना चित्तना उखने हरण करतो हतो. ॥ ३ ॥
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