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सुखसा० हाणिक राजाने लावू. ॥ ६६ ॥ श्रा प्रकारना संकेतने दृढ निश्चय करीने अने सुरंग सर्गधयो.
खोदनारा माणसोने श्राझा करीने, पढी प्रफुल्लित ले मुख जेर्नु थने मंत्रिमा ॥ ६३ ॥ हस्ति समान एवा अजयकुमारे राजगृही नगरी प्रत्ये श्रावीने सर्व वात श्रेणिक
राजाने कही. ॥६७ ॥ परी अजयकुमारना वचनथी हर्षवान्, कस्यो वे आयुधोने || विधाय संकेतममुं सुनिश्चितं, नरान्सुरंगाखनकान् नियोज्य चं॥ समेत्य सेवं नृपतेन्यवेदयकिस्वरास्योऽनयमंत्रिकुंजरः॥६॥ ततः सहर्षो मगधेश्वरोऽनयकुमारमंत्रेण कृतायुधश्रमः॥ समग्रमायुधपूरितांतररथाधिरूढः प्रचचाल साहसी॥६॥ तदा समस्ता अपि वीरमानिनः, स्वमित्रकार्योद्यतमानसाः सदा ।।
स्थाधिरूढाः सुलसातनूभवाः, महारथाः 'श्रेणिकराजमन्वगुः॥६ए॥ विषे श्रम जेणे, तेमज साहसी तथा सर्व प्रकारना दंम अने आयुधयी पूरी दीधेला ३॥ मध्य नागवाला रथ उपर बेठेलो श्रेणिक राजा चाट्यो. ॥ ६७ ॥ ते वखते वीर पुरुषोमां मानवंता, निरंतर पोताना मित्रना कार्यने विषे उद्यम युक्त मनवाला,
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