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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुलसाव ॥ ६५ ॥ 0000000 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोइ पण देवता या प्रकारना मनोहर रूपवाला नथी. तेमज सर्वे असुरो तो सर्गभ्यो. | महा विकराल मूर्त्तिवाला बे. माटे हे सखीज ! ए व्यापारीनी पासे जइने निश्वे जाणो के, या प्रकारनो या महा रूपवंत कयो देवता बे ? ॥ ६१ ॥ पठी सर्वे सखीउए पाठी ते व्यापारी पासे ज‍ फरी सर्व वात जाणी ने हर्ष पामतां तां राजक न्याने कयुं. हे सखि ! या देव नथी, पण तेज माणस बे के, जेणे पोताने माटे वे सर्व पुनरेव देषिताः, स्मं संख्य आदुः प्रति राजकन्यकाम् ॥ यं देवः सखि किंतु मानवः, स एव येनात्मकृते वमर्थिता ॥ ६२ ॥ वाचसा कि 'ईदृशो यदि, कैथं ने तस्मै सखि मां ददौ पिता ॥ विलोक्यमाने मैं केि दाप्यते, जैनेन चिंतामणिनमंत्र किं ॥ ६३ ॥ व्हारी याचना करी हती. ॥ ६२ ॥ (ते सांजलीने) राजकुमारी सुजेष्टाए कयुं. हे स खि ! जो श्रेणिक राजा था प्रकारनो ( रूपवंत ) बे, तो पिताए मने तेने श्रर्थे केम न श्राप ? अर्थात् मने तेनी साथे केम न परणावी ? मणि जोवाए उते जो मनुष्यने चिंतामणि रत्न प्राप्त थाय, तो पढी अहिं ( त्यां) शुं बाकी (उनुं ) रहे बे ? अर्थात् For Private and Personal Use Only ॥ ६२ ॥
SR No.020772
Book TitleSulsa Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Kalidas Shastri
PublisherJain Vidya Shala
Publication Year1899
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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