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सुलसा०
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पर्वतने विषे नख थकी पडतां एवां मुक्ताफलोने ग्रहण करनारा जिल्लो मार्गमां सिंह- सर्ग६हो. नां पगलां सरखां बते “ हस्तीने मारनारो सिंह या मार्गे जाय वे अने बीजा सिंहो या मार्गे जाय बे. " एम बोले . ॥ ८४ ॥ वली ए वैजार पर्वतने विषे जिल्ल लोकोए सर्व प्रकारे वस्त्र रूप करीने बाकीनी त्यजी दीधेली, वली प्रासुक एवा धातु
किरातवस्त्रीकृतमुक्तशेषा, न्यस्ताक्षराः प्रासुकधातुनीरैः ॥ सदा मुनीनां पठनक्रियानिर्देकत्वचोऽस्मिन् सेफलीनवंति ॥ ८५ ॥ तस्मिन् गिरौ रूप्य सुवर्णरत्तैर्विद्याप्रभावाद्विदधे त्रिशालान् ॥ चतुः प्रतोलीकपिशीर्षसारान्, कँकेल्लियुक्तान् कंपटैः पैटुः सः ॥ ८६ ॥
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(जल (गैरिकादिकना जल ) थी अक्षर लखायली वृनी बालो मुनिर्जने नित्य पठन क्रियाए करीने सफल थाय बे. अर्थात् वैजार पर्वत उपरना वृदोनी बालमां ( ताडप(त्रमां ) साधु पुस्तक लखीने जणे बे ॥ ८५ ॥ ते वैजार पर्वतने विषे चतुर एवा बडे कपटे करीने विद्याना प्रजावधी चार दरवाजा युक्त कांगरावाला अने अशोक
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॥ ए ॥