Book Title: Samyag Gyanopasna Evam Sarasvati Sadhna
Author(s): Harshsagarsuri
Publisher: Devendrabdhi Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यगज्ञानोपासना एवम् सरस्वती साधना -आचार्य हर्षसागरसरि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्वती वन्दना वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! हाथ जोडकर मैं तेरी करुं वन्दना, मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! मानव को उसका विश्वास छल रहा आज सुभ्रा ही को क्यों ? मधुपा न छल रहा, सरगम मे यह कैसी, यह विकल वेदना मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! वसुधा क्यों व्यथित हुई, अंतरज्वाला से, बिखर रहे सुमन आज क्यों वनमाला से, अलसाई सी है क्यों ? मधुर कल्पना मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! मधुबन में कोयल ने बिरहा गाया क्यों ? पावस में आँखियों ने नीर बहाया क्यों ? पूनम की साँझ छिपा क्यो है चन्द्रमा ? मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! जकड रहा अन्तरतम गहन अंधकार से तडफ रहा मन यह अज्ञान के विकार से बिखरा दो माँ, इसमें शुभ्र ज्योत्सना मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! कलुषित को निष्कलंक कर दे, माँ तू, कुंठा को आज नया स्वर दे, माँ तू, जागृत कर दे मन की सुप्त चेतना मेरी वन्दनीय माँ ! पूजनीय माँ ! Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु || ODI परम दयालु श्री ऋषभ-शान्ति-नेमि-पार्श्व-महावीर जिनवरेभ्यो नमः || || अनंत कृपालु श्री गौतम-सुधर्मा-आनन्द-चन्द्र-देवेन्द्र-दौलत नंदिवर्धनसागरसूरिवरेभ्यो नमः ॥ श्री सम्यग ज्ञानोपासना एवं 6 सरस्वती साधना । तीसरी आवृत्ति (२०००)] आशीर्वाद दाता 'जिनागमसेवी' प.पू, आचार्य देवेश श्री दौलतसागरसूरीश्वरजी महाराजा _ 'अजातशत्रु' प.पू.आचार्य देवेश श्री नन्दिवर्धनसागरसूरीश्वरजी महाराजा प्रेरणा दाता शासन प्रभावक-मालव शिरोमणी-प्राचीन तीर्थोद्धारक प.पू.आचार्य देवेश श्री हर्षसागरसूरीश्वरजी महाराजा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोलागिांधीनगरी पि.३८२००९ मामीट SHORT & SWEET । पुस्तक का नाम : श्री सम्यग्ज्ञानोपासना एवं सरस्वती साधना 'घुफ संशोधक : विद्वान सुश्रावक श्री छगनलाल खंगार सवाल (पूना) प्रथम आवृत्ति : १००० पुस्तक द्वितीय आवृत्ति : १००० पुस्तक तृतीय आवृत्ति : २००० पुस्तक पुस्तक मूल्य : मात्र रु. २५/विमोचन : संवत् २०६३/२००७ पालीताणा (गुज.) पुस्तक प्रकाशक : श्री देवेन्द्राब्धि प्रकाशन प्राप्ति स्थान : मयुर जे. जैन/ई-९७, आदिनाथ सोसायटी, पूना-सातारा रोड, पूना-३७. फोन : ०२०-२४२६३२५३ मुद्रक : राजुल आर्टस्, घाटकोपर, मुंबई. फोन : २५१४ ९८६३ पुस्तक प्रकाशन विशेष सहयोगी मारवाड-सणपुर निवासी पूज्य पिताश्री शा. पूनमचंदजी केशरीमलजी जैन एवं पूज्य मातोश्री श्रीमती मांगीबाई पूनमचंदजी जैन के स्मृत्यर्थे । सुपुत्र पौत्र जयंतिलाल, रमेशचंद्र, प्रकाश ललितकुमार, भावेश, मीतेश, मोनिष एवं समस्त कासवा, गोत्र-परमार परिवार-पूना फर्म पूजा स्टेनलेस ६५२, रविवार पेठ, पूना-२. एवं वर्धमान स्टील सेंटर ६५३. रविवार पेठ पूना-२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन सहयोगी पूज्य पिताश्री शा. पूनमचंदजी केशरीमलजी जैन नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें. पूज्य मातुश्री श्रीमती मांगीबाई पूनमचंदजी जैन Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A) १) २) ३) ४) ५) ६) ७) ८) ९) १०) ११) १२) १३) १४) १५) १६) १७) १८) श्री सम्यग ज्ञानोपासना एवं सरस्वती साधना पन्ना फिरे..... .प्र. विषय मिले..... विषय श्री सम्यगज्ञानोपासना विभाग आचार और अतिचार नमो नमो नाण दिवायरस्स क्याँ, यह सत्य नहिं है ? एक सफर भूतकालमें वाह, ज्ञानप्रेमीओ ! वाह !! क्याँ, आपको यता है ? ज्ञानवर्धक सूचनाए आपको बुद्धि क्यों चाहिए ? ज्ञानसाधना और मुद्रा विज्ञान विद्यार्थी के पांच लक्षण विशिष्ट लाभदायी मुद्राए योग और ज्ञानसाधना ग्रहणशील व्यक्तित्व कैसे बनाए ? श्री सम्यग्ज्ञान की विशिष्ट आराधना श्री सम्यग्ज्ञान की स्तुति काउसग्ग कैसे करें ? श्री श्रुतज्ञान वंदना श्री सम्यग्ज्ञानके ५ खमासमणे पृष्ठ क्रमांक १ ३ ५ ६ ९ १० | | | ११ १३ १४ १६ १७ १८ २० २७ २७ २८ २९ ३० Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ३६ ३८ ३८ ३९ विषय .. ..पृष्ठ क्रमांक १९) श्री सम्यग्ज्ञानके ५१ खमासमणे. ३१ २०) १४ पूर्वको वंदना २१) ४५ आगमों को वंदना २२) श्री सम्यग्ज्ञान का चैत्यवंदन ३६ २३) आगम याने क्या ? २४) श्री सम्यग्ज्ञान का स्तवन एवं थोय (स्तुति) ३७ २५) श्री सम्यग्ज्ञान की अद्भूत सज्झाय २६) अमृत के कुछ बुंद २७) श्री ज्ञानपद पूजा ढाळ .. २८) श्री सम्यग्ज्ञान वंदना ४१ B) श्री सरस्वती साधना विभाग १) मंत्र साधना की पंचसूत्री । २) माँ सरस्वती का दिव्य स्वरुप । ३) श्री सरस्वती माता के चमत्कारी मंत्र । ४) वंदना पाप निकंदना ५) श्री सरस्वती साधकों को संदेश ६) सरस्वती साधना-शुद्धि __७) माँ सरस्वती संवेदना ८) श्री सरस्वती साधना की दैनिक-विधि ९) माँ सरस्वती की विशिष्ट पूजा १०) सरस्वती देवी की आरति ४२ ४३ ४3 ४४ -४५ ४७ ५१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ . विषय पृष्ठ क्रमांक ११) जैन साहित्य के विशिष्ट ज्ञान भंडार कहाँ-कहाँ ? ५४ १२) श्री सरस्वती साधना मांत्रिक क्रिया-विधि ५५ १३) श्री सरस्वती-मंत्र प्रदान विधि १४) महाप्रभावी श्री अल्पश्रुतं यंत्र १५) महाप्रभावी श्री सरस्वती यंत्र-साधना १६) 'एँ नमः' सवा लाख समुह जप-विधि १७) अद्भूत त्रिवेणी संगम (विशिष्ट तीन श्लोक) १८) श्री नमस्कार महामंत्र १९) मंगल पाठ २०) श्री पंच-परमेष्ठि स्तुति २१) भाववाही प्रभु-स्तुति | प्रार्थना 22) श्री सरस्वती स्तुति विभाग ___A) हे शारदे माँ | B) श्री श्रृतदेवी सरस्वती भगवती | c) जेना नाम स्मरणथी ___D) श्वेतांगी श्वेतवस्त्रा __E) दीठी दीठी अमृत झरती . श्री सरस्वती माता की संस्कृत स्तुति ६७ श्री सरस्वती माताकी English Stutis and Proverbs ६८ ६४ ६४ ६५ ६५ ६५ ६५ દદ, ६७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ ७० ७० ७१ ७२ ७३ ७४ विषय पृष्ठ क्रमांक 23) श्री सरस्वती गीत-गुंजन विभाग . ६९ A) माँ भगवती ! विधानी देनारी माता सरस्वती ! ६९ B) माँ शारदा तुं माता c) सरस्वती मात छो प्यारी ____D) शोभती श्रीमती भारती देवता . E) मात हे भगवती ! आव मुज मनमहिं __E) अहो ! भगवती ! आव मुज मनमहिं 24) महाप्रभावी श्री सरस्वती स्तोत्र विभाग A) श्री बप्पमट्टिसूरि कृत श्री सिद्ध सारस्वती स्तोत्र ७३ B) मंत्रगर्मित श्री सरस्वती स्तोत्र c) नमामि भारती देवी D) चिरंतनाचार्य विरचित श्री सरस्वती स्तोत्र E) नमस्ते शारदा देवी ) श्री शारदे ! नमस्तुभ्यं G) मातरं भारती दृष्ट्वा ७९ . H) श्री अष्टोत्तरशतनामा शारदा देवी स्तोत्रं ।) श्री सरस्वती देवी के १०८ नाम व अर्थ २५) अप्राप्य श्री शारदा महाकाव्यम् (गुजराती) २६) चलो कंठस्थ एवं हृदयस्थ करे...! २६) श्री सरस्वती भक्तामर की महिमा २६) महाचमत्कारी श्री सरस्वती भक्तामर स्तोत्र २७) बुद्धि एवं स्मृतिवर्धक आयुर्वेदिक औषधि प्रयोग - ११० ७५ ૭૬ ७७ ७८ ८० ८१ ८५ ९३ ९३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती.. १ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग आचार और अतिचार `आचारो खलु प्रथमो धर्मः' कहकर विश्वपूज्य अनंतोपकारी करुणासागर प्रभु महावीरने धर्मका वास्तविक स्वरुप प्रगट किया है । जिस धर्म में आचार की महत्ता है और उन आचारों की चुस्तता मुताबिक ही जीवन जीने की पद्धति है, वही धर्म वास्तविक सद्धर्म है । जिनशासन में आचार शुद्धि एवं विचारशुद्धि पर विशेष भार दिया गया है। इन सदाचार एवं सद्विचारों की नीव पर तो, जिनशासन की भव्यातिभव्य विख्याति की इमारत खडी है । अन्य सभी धर्मों की तुलना में जैन धर्म के सिद्धांत ही सविशेष प्रकाश्यमान है । जैन धर्म में आचारों के मूख्य पांच भेद है । १) ज्ञानाचार, २) दर्शनाचार, ३) चारित्राचार, ४) तपाचार ५) वीर्याचार इन सभी में प्रथम ज्ञानाचार को जानना अत्यंत जरुरी है, कारण, बिना ज्ञान अन्य चार को समझना और उनका पालन करना भी मुश्किल है । ज्ञानाचार के यथोचित पालन से बुद्धि की शुद्धि एवं जिन कर्मों के कारण केवलज्ञान का प्रगटी करण रुक जाता है, ऐसे मोहनीय-ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय अंतराय रुप चार घाती कर्मों का भी विनाश होता है । अर्थात् हमारा ज्ञान सम्यग् एवं विशुद्ध बनता है । तो चलिये ! ज्ञानाचार के आठ आचारों को जानकर उसकी पालना करे | , श्लोक : काले, विणये, बहुमाणे, उवहाणे तह अनिन्हवणे | वंजन, अत्थ, तदुभए, अठ्ठविहो नाण मायारो || १) काल आचार : निश्चित बताये हुए समय में ही विद्या अभ्यास करना । २) विनय आचार : विद्या-अभ्यास करते गुरुजनों का उचित विनय-विवेक Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग करना । ३) बहुमान आचार : ज्ञानी तथा ज्ञान पर अंतर से प्रेम- बहुमान करना । ४) उपधान आचार : सूत्रादि की पढाई करने से पहले सविशेष तप-जप करना । ६) व्यंजन आचार ७) अर्थ आचार ८) तदुभय आचार ५) अनिन्हव आचार : विद्या दाता गुरुदेव / शिक्षक का नाम छुपाना नहि । उनकी निंदा-अपमान नहिं करना । : सूत्रादि के १-१ अक्षर शुद्ध उच्चार पूर्वक पढना । : सूत्रादि के अर्थ - भावार्थ- गूढार्थ शुद्ध पढना । : सूत्र + अर्थ दोनो के गुढार्थ को शुद्धता पूर्वक एवं शुद्ध भावसे हृदयस्य एवं आत्मस्थ करना । इन आचारों का पालन करने से पापों का नाश होता है । और आचार का पालन न करनेसे भयंकर दोष लगता है, जिसे अतिचार कहते है । अतिचार से बचने हेतु आचारों का पालन अवश्य करे, फिर तो केवलज्ञान नजदीक है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती सम्यगज्ञान नमो नमो नाण दिवायरस्स.... ज्ञान के दो प्रकार है । १) सम्यग्ज्ञान और २) मिथ्याज्ञान... ३ ५) पावन बनाता है । ६) सद्गुणों का विकास करता है । (७) दुःख में भी मार्ग सुझाता है ८) नम्र और विवेकी बनाता है । ९) स्वभावदशा है, आबादी हैं । १०) आत्मा के शुद्ध स्वरुप का ज्ञान कराता है । श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग १) तारता है । मारता है । २) उत्थान करता है । २) पतन करता है । ३) सद्गति / परमगति देता है । ३) दुर्गति देता है । ४) आत्मा का मित्र है । ४) आत्मा का शत्रु है । ५) पापी बनाता है । ६) सद्गुणोंका विनाश करता है । । ७) सुख में भी मार्ग भुलाता है । ८) अभिमानी और अविवेकी बनाता है । विभावदशा है, बरबादी है । ९) मिथ्याज्ञान (१०) आत्मा और मोक्ष को ही भुला देता है । अब हमें पसंदगी करनी है... दोनों में से कौनसा ज्ञान अपनाना है ? हमारा जवाब एक ही होगा -सम्यग्ज्ञान । सम्यग्ज्ञान एक दीपक है, जो हमारे भवोभव के मिथ्यात्व और अज्ञान रूपी अंधकार को क्षण में नष्ट कर देता है । जिस तरह सिंह की गर्जना से हाथी, मयुर को देखकर साप और बिल्ली को देखकर चुहे भाग जाते है, उसी तरह सम्यग्ज्ञान का आगमन होते ही मिथ्यात्व अज्ञान भाग जाता है । सम्यग्ज्ञान द्वारा ही हम कृत्य अकृत्य, पेय-अपेय, भक्ष्य-अभक्ष्य . पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक, मोक्ष - निगोद, संयम - संसार आदि का भेद समझ सकते है | विवेक - अविवेक को पहचान सकते है । इसलिए हमें सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने प्रचंड पुरुषार्थ करना ही चाहिए । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग सम्यग् दर्शन, चारित्र और तप भी तभी सफल होते है, जब उस में सम्यग्ज्ञान हो ... तभी तो कहा है- 'पढमं नाणं तओ दया' पहले ज्ञान और फिर दया ... लेकिन, कुछ लोग ऐसे भी होते है, जो सिर्फ ज्ञानको ही मान देते है । परंतु, जिस तरह रथ के दो पहिये होते है, उसी तरह धर्म रथ के भी दो पहिये है, पहला है ज्ञान और दुसरा है क्रिया... ज्ञान के बिना क्रिया व्यर्थ है । क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है । • परंतु, खेद की बात तो यह है, आज के कलियुग में डॉक्टर / इंजिनियर / वकील / बी. कॉम./एम.ए./सी. ए. आदि की पढाई करनेवाले हमारे लोगों को दो प्रतिक्रमण तो क्या, गुरुवंदन और चैत्यवंदन करना भी नही आता । जितनी मेहनत मिथ्याज्ञान- व्यवहारिक ज्ञान के पीछे है, उसके १% मेहनत भी इस सम्यग्ज्ञान को पाने नहीं करते । सम्यग्ज्ञान को छोडके मिथ्याज्ञान को पाना याने • ४ · जब कि, ज्ञानयुक्त क्रिया ही मोक्ष है । मोक्ष तक पहुँचने दोनों की अत्यंत जरुरत है 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः ' । ऐसे सम्यग्ज्ञान को पाने अंतर में तीव्र झंखना उत्पन्न होनी चाहिए । रत्न को छोडके काँच के टुकडे ग्रहण करने जैसी नादानी है । गंगा में स्नान करने के बजाय तालाब के गंदे नीर में डुबकी लगाने जैसा बचपना है । चंदन वृक्ष को छोडकर (काँटे) बबुल पेड के निचे बैठने जैसी हरकत है । ऐरावण हाथी को छोडकर गधे को खरीदने जैसी बेवकुफी है । हीरे को छोडकर कोयले को ग्रहण करने जैसी मूर्खता है । कई भवों तक हम यह नादानी, बेवकुफी, गलती, मूर्खता करते ही आये है । पर अब नही ! हमे हमारे अज्ञान को पूर्णविराम करके सम्यग्ज्ञान प्रति लक्ष देना है । प्रभु महावीर के निर्वाण को २५०० से भी जादा साल बीत जाने के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग बावजुद भी आज तक जिनशासन अमर है- जाज्वल्यमान है, इसका मुख्य कारण है- सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र । २५०० साल पूर्व जिन सिद्धांतों की गणधर भगवंतोंने, प्रभु महावीर की आज्ञानुसार रचना की थी, वे सभी सिद्धांत आज तक हमें सही राह दिखा रहे है । उन सिद्धांत एवं शास्त्रों के कारण ही जिनशासन का सदा जयजयकार है । आत्मा का वास्तविक ज्ञान कराके जीवन की सही दिशा बतानेवाले श्री सम्यग्ज्ञान को हमारी अनंतशः वंदना ...! क्याँ, यह सत्य नहीं है... ? ज्ञानप्रेमी !... जहाँ सूरज और चाँद का प्रकाश नहीं पहुँचता, वहाँ छोटासा दीपक काम आता है । गुप्त अंधकार को दूर करने की शक्ति एक छोटेसे दीपक में होती है । एक दीपक से अनेक दीपक प्रगट हो सकते है । जरुरत है, सिर्फ एक टिमटिमाते दीपक की ... अरिहंत भगवान सूरज समान है और विशिष्ट पूर्वधर ज्ञानी गुरुदेव चंद्रमा समान है। इस कलियुग में न तो प्रत्यक्ष अरिहंत है और न हि पूर्वधर महापुरुष... २५०० वर्ष बीत जाने के पश्चाद् भी आज हमें जिनशासन एवं शास्त्रसिद्धांत की प्राप्ति बडी आसानी से होती जा रही है, कारण है टिम टिमाते दीपक समान गुरु भगवंतों के उपस्थिती की । हमारे पूर्वज ऋषि-महर्षियों ने एवं साधु-संतों ने प्रभु महावीर के शासन को तथा शास्त्र सिद्धांत की इस विशाल गंगोत्री को आगे बढाने अनंत कष्ट उठाये है । अगर यह महापुरुष न होते, तो हमें जिनशासन की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती । हम वही अज्ञान रूपी अंधकार में भटकते रहते । शायद...हम बिलकुल बरबाद हो जाते । लेकिन नही ! ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि हमारे महापुरुषों ने हम पर बड़ा उपकार किया है, हमें इस सम्यग्ज्ञान से परिचित रखा है । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग - एक सफर भूतकालमें.... । अच्छा...तो चलो, देखते है...वो महापुरुष कौन थे ? कैसे थे वे, और उन्हों ने जिनशासन एवं सम्यग्ज्ञान की क्या सेवा की ? १) भगवान श्री महावीर के मुख्य ११ शिष्य (गणधर) थे । जिनमें प्रथम थे, गुरु गौतमस्वामी और पाँचवे थे, गुरु सुधर्मास्वामी । त्रि-पदी को पाकर ११-गणधर भगवंतोने द्वादशांगी की रचना की थी। २) पूज्य सुधर्मास्वामीजी के शिष्यरत्न थे, आर्य-जंबुस्वामिजी, जो अंतिम केवलज्ञानी थे । जंबुस्वामिजी, के बाद आज तक इस भरतक्षेत्र में किसीको भी केवलज्ञान नही हुआ है। ३) जंबुस्वामि के शिष्य-प्रशिष्यों में ६ श्रुत-केवली थे, जिनका ज्ञान केवल ज्ञानी जितना ही था । ६ श्रुत केवली अर्थात् १४ पूर्वधारी के नाम(१) श्री प्रभवस्वामिजी म.सा. (२) श्री 'दशवैकालिक' आगम सूत्र रचयिता आचार्य श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी म.सा.... (३) आचार्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी म.सा.... (४) श्री संभूतिविजयजी म.सा.... (५) कल्पसूत्र आगम रचयिता श्रीमद् भद्रबाहु स्वामीजी म.सा. तथा (६) काम विजेता/अंतिम श्रुत-केवली श्री स्थुलिभद्र स्वामीजी म.सा. ४) सिर्फ ३ वर्ष की उम्र में दिक्षा लेकर ११-अंग (आगम सूत्र) को कंठस्थ करनेवाले अंतिम १० पूर्वीधर आर्य वज्रस्वामिजी । अपनी ज्ञान शक्ति द्वारा देव से वरदान प्राप्त किया और बौद्ध राजा को 'जैन' बनाया । ५) श्री मानदेवसूरि : संघ कल्याण हेतु श्री 'लघु शांति स्तोत्र' की रचना की। ६) श्री मानतुंगसूरीश्वरजी : महाप्रभाविक, महाचमत्कारिक श्री भक्तामर स्तोत्र की रचना की । ७) श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी : ४ वर्ष की बाल्य अवस्था में दिक्षा और ११ वर्ष की छोटीसी उम्र में जिन शासन के विद्वान आचार्य बने । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ८) श्री बप्पभट्टसूरिजी : सोलहवें वर्ष की उम्र में आचार्य बने । रोज ७०० नई गाथा कंठस्थ करना, यह उनकी विशेषता थी । श्री हेमचंद्राचार्य : ६ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की । ८ वर्ष की उम्र में तीव्र बुद्धिशाली बालमुनिश्रीने सिद्धराज जयसिंह के राजदरबार में दिगंबर आचार्य कुमुदचंद्र का पराभव किया । २१ वर्ष की उम्र में आचार्य बने । 'कलिकालसर्वज्ञ' का बिरुद पाया । जीवनमें साडेतीन करोड (३,५०,००,०००) श्लोक प्रमाण साहित्य का सर्जन किया । १०) श्री हरिभद्रसरि : आपश्रीने १४४४ ग्रंथों का सर्जन किया । ११) श्री देवेन्द्रसूरि : आपश्रीने सवा करोड (१,२५,००,०००) श्लोक (गाथा) का सर्जन किया । १२) श्री मुनिसुंदरसूरि : आपश्री प्रचंड मेधावी होने से सहस्त्रावधानी बने । १३) श्री उमास्वाति वाचक : आपश्रीने जीवन में तत्त्वार्थ प्रमुख ५०० ग्रंथों का सर्जन किया । १४) श्री महोपाध्याय यशोविजयजी : ६ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की । काशी में ब्राह्मणों द्वारा आपश्री को 'न्यायाचार्य' का बिरुद मिला | जीवन में ३५० ग्रंथों का सर्जन किया । १५) पू. उपाध्याय श्री यशोविजयजी और पू. विनयविजयजी म.सा. ने सिर्फ १ रात्रि में न्याय ग्रंथ के ७०० श्लोक कंठस्थ कीये थे । १६) श्री शोभनमुनि : आपश्रीने गौचरी (भिक्षा) वहोरते वहोरते मन में ९६ संस्कृत स्तुतियाँ बनाई। १७) दुर्बलिका पुष्पमित्र : आपश्री इतनी पढाई करते थे कि रोजका १ मटका (घडा) भरके घी पीते थे, फिर भी हजम हो जाता था । . १८) उपाध्याय समयसुंदरजी : आपश्रीने 'राजानो दधते सौख्यम्' इस __ छोटेसे वाक्य के आठ लाख (८,००,०००) अर्थ किये है। १९) विजयसेनसूरिजी : आपश्रीने 'नमो दुर्वार रागादि' इसके ७०० अर्थ किये है। २०) श्रीदेवरत्नसूरि : आपश्रीने 'नमो लोए सव्व साहूणं' इस पद में सिर्फ 'सव्व' शब्द के ३९ अर्थ किये है । २१) श्री संतिकरं रचयिता मुनिसुंदरसूरिजी रोज के १००० श्लोक कंठस्थ करते थे। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग २२) श्री विजयप्रभसूरीश्वरजी के शिष्य श्री जितविजयजी ९६ मिनिट में ३६० नई गाथा करते थे । २३) श्रीमद् विजय देवसूरि-आपश्रीने बाल्य अवस्थामें ६ लाख और ३६ हजार श्लोक की वाचना ग्रहण की थी । २४) श्री सोमप्रभसूरि-आपश्रीने ११ अंग अर्थ सहित कंठस्थ किये थे। २५) श्रीलावण्यसूरि-आपश्रीने ९४ हजार श्लोक प्रमाण व्याकरण का बृहन्न्यास बनाया । जिन शासन शणगार सागर समुदाय के हृदय सम्राट प.पू. आगमोद्धारक आचार्य भगवंत श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी म.सा. • आपश्रीने जीवन के अंतिम श्वास तक श्रुत भक्ति की है। • अस्त-व्यस्त अवस्था में रहे हुए ४५ आगम ग्रंथों का उद्धार आपश्रीके कर कमलों द्वारा ही हुआ है । आगम शास्त्रों के संरक्षण हेतु पूरे साधु-समुदाय और गच्छों में आपश्री अग्रणी थे, जिन्होंने शिलापट और ताम्रपट पर आगम लिखवाकर उन्हें चिरस्थायी स्वरूप दिया तथा विभिन्न स्थलोंपर विशाल ७-आगम वाचनाए दी । स्व-जीवन में अनेकविध अर्वाचीन ग्रंथों का सर्जन किया । आपश्री के प्रचंड मेधा-शक्ति से प्रभावित होकर 'शैलाना नरेश' अहिंसक बन गये । • 'आगमोद्धारक' का बिरुद पाकर आपने जीवन में अनंत ज्ञानोपासना की है। ऐसे तो अनेक महापुरुष भूतकाल में हो चुके है और वर्तमान में विचर रहे है, जिन्होंने तन-मन लगाकर ज्ञानोपासना द्वारा जिन शासन की अजोड सेवा की है । इन सभी महापुरुषों का स्मरण करके हम भी मन में ज्ञानोपासना करने का दृढ निश्चय करें । हररोज कम से कम १/५ गाथा अवश्य करें । और हाँ, ज्ञान की आशातना तथा उपेक्षा कभी न करें, इसपर विशेष ध्यान रखा जाय । ऐसे भूत-भावि और वर्तमान के सभी ज्ञानी महापुरुषों के चरण कमलों में कोटि-कोटि वंदना... Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग वाह !... ज्ञान प्रेमीओ ! वाह !!.. १) महा मंत्रीश्वर वस्तुपाल- तेजपाल : आपश्रीने पाटण-खंभात-धोळका आदि नगरो में अठारह करोड (१८,००,००,०००) सुवर्ण मुद्राओं की धनराशी का सद्व्यय करके विशाल २१ ज्ञानभंडार (लायब्ररी) बनाये | २) कुमारपाल महाराज : आपश्रीने ताडपात्र प्राप्ति हेतु अट्ठम तप किया था । ७० वर्ष की उम्र में १८ हजार (१८,०००) श्लोक प्रमाण 'सिद्धहेम' व्याकरण कंठस्थ किया । नित्य ३२ दांत की शुद्धि हेतु (लगभग १४०० श्लोक प्रमाण) ३२ प्रकाश (शास्त्र) का स्वाध्याय करते थे । जीवन में २१ विशाल ज्ञानभंडार कराके ४५ आगम के ७ संच (प्रति) सुवर्ण अक्षर में लिखवाये । ३) पेथड शाह मंत्री : आपश्री ने गुरुमुख से ११ अंग (आगम) सुने तथा ३६ हजार (३६,०००) सुवर्ण मुद्राओं से श्री भगवती आगम की पूजा की । जीवनमें ७ कोटी (७,००,००,०००) सुवर्ण मुद्राओं का व्यय करके विशाल ज्ञान भंडार बनाये । ४) संग्राम सोनी : आपने भी ३६ हजार सुवर्ण मुद्राओं से भगवती आगमसूत्र की पूजा की । ५) थराद निवासी आबु श्रेष्ठि : आपश्रीने ३ करोड धनराशी का सद्व्यय करके ४५ आगम सुवर्णाक्षर में लिखवाये । ६) लल्लीग श्रावक : गुरु भगवंत रात्रि के अंधकार में भी ज्ञानोपासना कर सके, इस हेतु, आपने उपाश्रय की दिवांलों में चमकते रत्न जड दिये थे । ७) मेडता की एक श्राविका बहन ने तीन लाख (३,००,०००) श्लोक प्रमाण साहित्य स्वहस्त से लिखा । कहाँ यह ज्ञानप्रेमी और कहाँ हम ? आज तक हमने ज्ञान और शास्त्र ग्रंथों की जादातर उपेक्षा ही की है, परिणामतः हम जैनों का सबसे बड़ा ज्ञान भंडार हमारे भारत में न होते हुए जर्मनी में है । हमारी घोर उपेक्षा के कारण ही जर्मनी वासीओं ने हजारों लाखों आगम ग्रंथ चुराए । खेद की बात तो यह है, फिर भी हम जागृत नहीं हो रहे है । ८४ आगम में से आज सिर्फ ४५ आगम Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ग्रंथ ही उपलब्ध है । अगर हम सब ऐसे ही उदासीन (सुषुप्त) रहेंगे, तो शायद ४५ में से भी अब कम होने में देरी नही लगेगी । नही ! हम ऐसा हरगीज होने नही देंगे । हम भी हमारे महापुरुषों की तरह हमारी यह धरोहर तन-मन-धन और जीवन सर्वस्व अर्पण-समर्पण करके भी सुरक्षित रखेंगे । तो, आज से आप भी इन महापुरुषों की तरह सच्चे ज्ञान-प्रेमी बन जाओ और शास्त्रों में अपना नाम अमर बना दो । क्याँ, आपको पता है ? जैसे हमारी हाथ की उँगलीयाँ पाँच है, उसी प्रकार परमेष्ठि-५, महान तीर्थ-५, प्रतिक्रमण -५, आचार-५, महाव्रत- ५, इंद्रिय-५, शरीर-५, कल्याणक-५ और ज्ञानके प्रकार वह भी ५ ही है । १० १) मतिज्ञान, २) श्रुतज्ञान, ३) अवधिज्ञान, ४) मनः पर्यवज्ञान और ५) केवलज्ञान | व्याख्या १) मतिज्ञान-पाचों इंद्रियों और मन द्वारा पदार्थ / वस्तु का जो ज्ञान होता है, उसे मतिज्ञान कहते है । मतिज्ञान के २८/३२/३४० भेद है । २) श्रुतज्ञान-सुनने से अथवा पढने लिखने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते है । श्रुतज्ञान के १४/२० भेद है। (यह दोनों ज्ञान संसार के छोटे-बडे प्रत्येक जीवमात्र को अल्प-अ -अधिक मात्रा में होते ही है ।) ३) अवधिज्ञान-इंद्रियों की साहायता / अपेक्षा बिना रूपी द्रव्य पदार्थ का मर्यादापूर्वक जो ज्ञान होता है, उसे अवधिज्ञान कहते है । इसके ६ भेद है । विशेष- २४ तीर्थंकर भगवान के कुल मिलाकर (१,३३,४००) १ लाख, ३३ हजार और चार सो अवधिज्ञानी मुनिभगवंत थे । ४) मनः पर्यवज्ञान-ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मनोगत भाव (मन के विचार) को जानने का जो ज्ञान होता है, उसे मनः पर्यवज्ञान कहते है । इसके २ भेद है । विशेष-२४ तीर्थंकर भगवान के कुल मिलाकर (१,४४,५९१) १ लाख, Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ११ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ४४ हजार और ५९१ मनः पर्यवज्ञानी मुनि भगवंत थे । ५) केवलज्ञान-लोक- अलोक में रहे हुए सभी रूपी अरूपी पदार्थों का एक ही साथ त्रिकाल (भूत- भावि - वर्तमान) ज्ञान होता है, उसे केवलज्ञान कहते है । इसका एक ही भेद है । सभी ज्ञानों में अंतिम ज्ञान केवल ज्ञान ही श्रेष्ठतम है । ८ कर्मो में से जब ४ घाति कर्म- १) ज्ञानावरणीय कर्म, २) दर्शनावरणीय कर्म, ३) मोहनीय कर्म और ४) अंतराय कर्म का संपूर्ण सर्वथा क्षय (नाश) होता है, तभी केवलज्ञान प्रगट होता है । केवल ज्ञान होने के बाद ही हम मोक्ष में जा सकते है । आत्मा का उत्थान करानेवाले पाँचों सम्यग्ज्ञान को हमारी अक्षय अनंत वंदना... .! ज्ञानवर्धक सूचनाए - इतना अवश्य पढे... क्या आपको ज्ञान नहीं चढता ? याद नहीं रहता ? सब कुछ भूल जाते हो ? बार-बार फेल हो रहे हो ? बुद्धि ओर तीक्ष्ण एवं तेज बनानी है ? परिक्षामें अच्छे अंक (मार्कस) से पास होना है ? शास्त्र और सद्धर्म का सार प्राप्त करना है ? तो फिर, आपको इतने नियमों का पूरा पालन करना ही होगा । जिस तरह दवाई के साथ परेजी उतनी ही जरुरी होती है, वैसे ही ज्ञान आराधना एवं सरस्वती साधना के साथ निम्नलिखित नियमों का पालन करने से ही ज्ञान-प्राप्ति होना संभव है, वरना नहीं । नियमावली १) सरस्वती माता को प्रसन्न करने हेतू सर्व प्रथम अपने (माता) मम्मी को खुश करें । माता-पिता की बाते जरुर सुने । उनका कभी भी अपमान न करें । २) माता-पिता एवं बुजुर्गों (अपने से बड़ों) को नित्य नमन करें । ३) बड़ों को कभी भी उल्टा जवाब न देवे । ४) कभी झुठ न बोलें एवं चोरी न करें । ५) रोज कम से कम एक घंटा मौन रखें । ६) अक्षरवाले एवं पशु-पक्षी और मानव के चित्रवाले कपडे कभी न पहनें । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग (अक्षर लेबल निकालकर ही कपडे पहनें, वरना भयंकर पाप लगता है ।) ७) भोजन करते समय मौन रखे । झुठे मुँह से न बोलें, न पढ़ें एवं न तो लिखें । (बोलना अनिवार्य हो, तो पानी पी के बोले) ८) भोजन करते समय T.V./V.D.O. न देखें । (बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । वास्तविकरित्या T.V./V.D.O. देखना ही नही है ।) ९) भोजन कभी झुठा न छोडें तथा हमेशा थाली धोकर ही पीवे । १०) नित्य-नवकारशी का पच्चक्खान करें तथा रात्रिभोजन का त्याग करें । ११) प्रभु पूजा एवं गुरुवंदन अवश्य करे । (शीघ्रता से बुद्धि बढती है ।) १२) (दीपावली में) फटाके न फोडे । (भयंकर पाप लगता है ।) १३) पेन-पेन्सिल मुख में, कान में न डालें । १४) (धार्मिक) पुस्तक रद्दी (पस्ती) में न डालें । १५) कभी भी अपशब्द न बोले तथा गुस्सा न करें । १६) खाते-पीते-संडास बाथरुम जाते, कागज, पैसे, घडीयाल, मोबाईल, नोट-पेन, पुस्तक वगैरे ज्ञान के साधन साथ में न रखें । १७) कागज की - डीश / ग्लास / रुमाल वगैरे का खाने में उपयोग न करें । १८) कागज-पुस्तक-पोथी- नवकारवाळी आदि ज्ञान के साधन को कभी भी न फेकें तथा उन्हें पैर न लगाए । १२ १९) ३ दिन M. C. का चुस्त पालन अवश्य करें । शक्य उतना मौन रखें और हाँ...M.C. में (अंतरायमें) ज्ञान के साधन, पेपर, मासिक, पैसे, पेन, फोन वगैरे को स्पर्श भी न करें । २०) पाठशाला के पंडितजी, स्कूल टीचर्स, ट्युशन टीचर्स का अपमान कभी न करें । उनका उचित आदर-सत्कार और बहुमान करने से ज्ञान हमारी आत्मा में शीघ्रतः परिणमित होता है । २१) ज्ञान की नित्य आराधना करें। कम से कम एक गाथा (श्लोक) कंठस्थ करें । २२) ज्ञान-ज्ञानी एवं ज्ञानके साधनों का अवश्य बहुमान करें । इन तीनों की आशातना करनेसे भयंकर दोष / पाप लगता है, जिसके प्रभावसे हम तोतडे-बोबडे, गुंगे-बहरे, लंगडे-पांगडे, रोगीष्ट तथा मंद बुद्धिवाले बन जाते है । अतः हमेशा सावधान रहे । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १३ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग - आपको बुद्धि क्यों चाहिए ? म पृथ्वी पर रही हुई सभी जीव-सृष्टि में सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य है । मनुष्य के दो विभाग है-सज्जन और दुर्जन । मनुष्य को सज्जन या दुर्जन उसकी अपनी बुद्धि बनाती है । बुद्धि अगर सुबुद्धि है तो वह वरदान है । बुद्धि अगर दुर्बुद्धि है, तो वह अभिशाप है । जिस बुद्धि में स्वार्थ छलकता है वह दुर्बुद्धि है और जिस बुद्धि में परमार्थ-परोपकार छलकता है वह सुबुद्धि है | सबुद्धि युक्त मनुष्य ही सज्जन कहलाता है और दुर्बुद्धि युक्त मनुष्य दुर्जन... संस्कृत में बडा मजेदार श्लोक हैविद्या विवादाय धनं मदाय, शक्तिः परेषां पर-पीडनाय । खलस्य साधो विपरीत मेतज, ज्ञानाय-दानाय च रक्षणाय || दुर्जन मनुष्य की (बुद्धि) विद्या विवाद के लिए, संपत्ति अभिमान के लिए तथा शक्ति (सत्ता) अन्य जीवों को पीडा देने के लिए ही होती है । जबकि, सज्जन की बुद्धि सम्यग्ज्ञान एवं आत्मविकास के लिए, संपति दान के लिए, एवं शक्ति (सत्ता) अन्य जीवों की रक्षा एवं परोपकार के लिए ही होती है । आज के वर्तमान जगत में चारों ओर जो अनाचार-भ्रष्टाचार-व्याभिचारहिंसाचार की ज्वालामुखी फैली है, उसका मूल कारण मात्र अज्ञानता एवं दुर्बुद्धि ही है । अपने सुख एवं स्वार्थ के खातिर, मनुष्य कौनसा पाप नहि कर रहा यही आश्चर्य है। ___ भले , आज विज्ञान बहोत आगे बढ़ रहा है । लेकिन, वह ज्ञान किस काम का जिसने मात्र पूरे विश्वमें विनाश और तबाह मचा दिया है, दु:ख और अशांति की आग लगाई है, मानसिक-आर्थिक-शारीरिक-पारिवारिक-धार्मिक भावनाओं को भारी नुकसान पहोंचाया है, ८०% लोगों की नींद हराम कर दी है, प्राणी-प्राणी के बीच दिवाल खडी कर दी है, ऐसा विनाशकारी ज्ञान भला किस कामका ? तभी तो किसी चिंतक को लिखना पडा "यह सच है कि आज विज्ञान का तुफान आया है, क्योंकि हर कदम-कदम पर आदमी, आदमी से घबराया है। हंसी आती है यह सोचकर, क्या करेगा वह चाँद पर जाकर; जो इस धरति पर भी, रहना सीख न पाया है...?'' "कितना बदल गया इन्सान" को देखकर अब यही प्रार्थना करे-सबको 'सन्मति' दे भगवान...सबको 'सद्गति दे भगवान... Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती | १४ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ज्ञानसाध साधना और मुद्रा विक मुद्रा चिकित्सा कहते है कि-जिन पांच तत्त्वों से यह ब्रह्मांड बना है, उन्ही पांच तत्त्वों से अपना शरीर भी बना है । अपनी पांच उंगलियाँ इन्हीं पंचतत्त्वों का प्रतिनिधीत्व करती है। उंगली का नाम तत्त्व का नाम Thumb अंगुठा Fire-Sun अग्नि . Index तर्जनी Air-Wind वायु Centre मध्यमा Ether-Space आकाश Ring अनामिका Earth पृथ्वी Little कनिष्ठा Water जल हाथ में से निरंतर विशेष प्रकार की प्राण उर्जा , विद्युतशक्ति, इलेक्ट्रीक तरंग और जीवन शक्ति निकलती है । विभिन्न उंगलियों की मुद्राएं शरीर में स्थित चेतन शक्ति केंद्रों पर रिमोट कंट्रोल बटन समान कार्य करती है। | मुद्रा करने के सामान्य नियम ___ पाँच तत्त्वों के संतुलन से स्वास्थ्य बना रहता है । अंगूठे के टोक पर अन्य उंगलि का टोक रखने से उंगलिका तत्त्व बढता है और उंगलि का टोक अंगुठे के मूल पर लगाने से वह तत्त्व घटता है। मुद्रा स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, रोगी-निरोगी कोई भी कर सकता है । मुद्रा दोनों हाथों से करनी चाहिये । बाये हाथ की मुद्रा से शरीर के दाहिने भाग को और दाहिने हाथ की मुद्रा से शरीर के बाये भाग को लाभ होता है । मुद्रा करते वक्त उंगलियों का अंगुठे के साथ सहज स्पर्श होना जरुरी है । अंगुठे से हलका सहज दबाव देना चाहिये, जबकि अन्य उंगलियाँ सीधी तथा एक दुसरे से जुडी रहनी चाहिये । किसी कारणवश अन्य उंगलियाँ सीधी न रह सके, तो आरामदायक स्थिति में रखें | धीरे धीरे बिमारी हटके उंगलियाँ सीधी रहकर सही मुद्रा हो सकती है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग पूरे दिन में मुद्रायें कम से कम ४८ मिनिट होनी चाहिये । सुबह शाम १५/१५ मिनिट मुद्रा कर सकते है । ध्यानमें रहे कि भोजन के बाद ३० मिनिट तक मुद्रा न की जायें । • १५ तथापि, श्वास या गॅस की तकलिफ दूर करने हेतु भोजन के बाद वायु मुद्रा की जा सकती है। मुद्राएं पद्मासन, वज्रासन और ध्यान दरम्यान करने से अधिक लाभकारी होती है । पद्मासन, वज्रासन करने में कोई दिक्कत हो, तो अन्य कोई भी आसन में की जा सकती है । उपासना या साधना में वृद्धि हेतू जिन मुद्राओंका प्रयोग करना आवश्यक है, वे मंत्र - दिशा-आसन तथा समय के ध्यान के साथ की जाये, तो अधिक लाभकारी होती है । मुद्राओं से अलग अलग तत्त्वों में परिवर्तन, विघटन, अभिव्यक्ति और प्रत्यावर्तन होके, तत्त्वों का संतुलन हो जाता है, जिससे स्वास्थ्य का लाभ और वृद्धि होती है । प्रस्तावना चेतन का एक विशिष्ट गुण है, ज्ञान । ज्ञान ही जीव और निर्जीव (अजीव) पदार्थों को पृथक् करता है । ज्ञान का विकास ही व्यक्ति को सामान्य से विशिष्ट बना देता है । ज्ञान के उपलब्धी के निम्न दो साधन है । १. अभ्यास एवं ज्ञानावरणीय कर्मक्षय इन्द्रिय तथा मन द्वारा विकसित होनेवाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते है । वही ज्ञान जब अन्य लोगों को समझने की क्षमता रखता है, तब श्रुतज्ञान बन जाता है । स्मृति और ज्ञान को विकसित करने हेतू जिन मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है, उन्हे ज्ञानमुद्रा या चिन्मय मुद्रा कहते है । परिणाम १. ज्ञान का विकास होता है । २. स्मरणशक्ति का विकास होता है । ३. स्वभाव में परिवर्तन आता है । जिद्दीपन, गुस्सावृत्ति, अस्थिरता, क्रोध, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग तथा व्याकुलता की मनोवृत्ति आदि का निराकरण होता है । ४. मन शांत और प्रफुल्लित होता है । ५. एकाग्रता बढती है, कार्यक्षेत्र में सफलता की प्राप्ती होती है | ६. अभ्यास में मन केंद्रिभूत होता है | ७. मस्तिष्क के स्नायु शक्तिशाली बनते है । ८. सिरदर्द तथा अनिद्रा का रोग दूर होता है। अंगुठे के उपर की जगह पिच्युटरी ग्रंथी केंद्र है । उसे दबाने से मैत्री, करुणा, अभय, स्थिरता, ऋजुता वगैरे शांत भाव प्रगट होने लगते है । ज्ञानमुद्रा करके मस्तिष्क पर पीले रंग का ध्यान जप करने से स्मृती तथा ज्ञान का विकास होता है । साथ ही स्नायु मंडल शक्तिशाली बनते जाते है । उससे अध्ययन में आलस, तंद्रा, निद्रा वगैरे से वाचक अप्रभावित रहते है । सावधानियाँ ज्ञानविकास के इच्छुकों के लिये तीव्र खट्टा, चटपटा , अतिउष्ण तथा अति शीत पदार्थों का सेवन सर्वथा वर्ण्य बताया है । पानपराग, सुपारी, गुटका , तमाखु, इ. व्यसनों के सेवन से भी वे अपने को दूर ही रखें । टेबल, कुर्सी, पाट आदिपर बैठकर पैर को अनावश्यक रीतसे हिलाना नहीं चाहिये । दुसरों की निंदा, इर्षा तथा घृणा से दूर रहें । ज्ञान का अहंकार कभी न करे । ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय हेतु ज्ञान और ज्ञानियों का आदर करें, बहुमान करें, उनके प्रति सदा विनयभाव रखें । विद्यार्थी के पंच लक्षण काकचेष्टा बक ध्यानं, श्वान निद्रा तथैव च । अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम् ।। १) कौवे की तरह चेष्टा करना-यानि रटना, २) बगुले जैसा ध्यान-एकाग्र चित्त होना, ३) कुत्ते जैसी गहरी नींद, किंतु थोडीसी आवाज में उठ जाना ४) कम खानेवाला एवं ५) घर से दुर अर्थात् गुरुकुल वास में रहनेवाला-यह पांच विद्यार्थी के लक्षण है। इतनी शक्ति हमें देना माता ! मनका विश्वास कमजोर हो ना... हम चले नेक रस्ते में लेकिन, भुलकर भी कोई भुल हो ना... Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १७ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग विशिष्ट लाभदायी मुद्राए... Left १. ज्ञानमुद्रा तर्जनी के टोक पर अंगुठे का टोक लगाये , बाकी उंगलिया सीधी तथा एक दूसरे से जुडी रहनी चाहिये । • दाया / दाहिना → Right २. तत्त्वज्ञान मुद्रा : बाये हाथकी पृथ्वीमुद्रा (अंगुठा और अनामिका के टोक को जुडने से) और दाहिने हाथ की ज्ञान मुद्रा करके दोनों तरफ के घुटनों पर दोनो हाथ रखने से तत्त्वज्ञान मुद्रा बनती है | ३. अभयज्ञान मुद्रा दोनो हाथों की ज्ञानमुद्रा करके खभे (खंधे) के आजुबाजु में सिधी लाईन में हथेली दिखे, ऐसे हाथ सीधा रखने से यह मुद्रा बनती है | लाभ-इस मुद्रा से ज्ञानमुद्रा के समस्त लाभ के साथ ही निर्भयता प्राप्त होती है । मृत्यु तथा अन्य प्रकार के डर से मुक्त बनते है । ४. ज्ञान ध्यान मुद्रा दोनों हाथों से ज्ञान मुद्रा करके बाये हाथ के हथेली पर दाहिना हाथ रखें । पद्मासन या सुखासन करके नाभी के पास दोनों हाथ रखने से ज्ञान-ध्यान मुद्रा बनती है | लाभ : ज्ञान मुद्रा के समस्त लाभों के व्यतिरिक्त ध्यान में प्रगती के लिये सहायक । ५. ज्ञान वैराग्य मुद्रा दाहिना हाथ ज्ञानमुद्रा में हृदय के पास (आनंदकेंद्र-अनाहत चक्र) रखें और बाया हाथ ज्ञानमुद्रा में बाये घुटने पे रखने से ज्ञान वैराग्य मुद्रा बनती है । लाभ : ज्ञान मुद्रा के समस्त लाभों के साथ ही पापोदय के कारण संसार में रहते हुए भी वैरागी तथा निष्पाप जीवन में साहायक बनती है । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १८) श्री सम्यगज्ञानोपासना विभाग योग और ज्ञानसाधना। योगासन : शरीर के सुखपूर्वक स्थिती को आसन कहते है । आसन की पूर्ण अवस्था मे पहुंचने और वहाँ से वापिस आने के लिये शरीर की सुयोग्य हलन चलन बहुत जरुरी है । पूर्ण अवस्था में पहुंचकर कुछ समय के लिये स्थिर रहना ही आसन है । इस स्थिती मे शरीर, मन और श्वास का सुमेल होता है। 'घेरंड संहिता के अनुसार जीवों की जितनी योनी, उतने ही आसन के प्रकार याने ८४ लाख प्रकार है । उनमे ८४ आसन महत्व के है और उन में भी ३२ आसनों को विशेष बताये गये है। इन आसनों का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है । १. ध्यानात्मक आसन. २. संवर्धनात्मक आसन और ३. शिथिली करणात्मक आसन १. ध्यानात्मक आसन बैठकर किये जाते है । इनमे रिढ की हड्डी सीधी रहती है, और पैरों की स्थिती अलग अलग । पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन आदि ध्यानात्मक आसन है । २. संवर्धनात्मक आसन पवन मुक्तासन, भुजंगासन, पर्वतासन, ताडासन, सर्वांगासन इत्यादी शरीर के विविध स्थिती के संवर्धनात्मक आसन है। ३. शिथिलीकरणात्मक आसनों मे शवासन यह प्रमुख आसन है। | प्राणायामः प्राण आयाम + (नियमन) = प्राणायाम | श्वास के संयम, (नियमन) से चित्तवृत्ति का निरोध होता है । प्राणायाम द्वारा स्थुल रीति से शरीर पर और सुक्ष्म रीति से मनपर प्रभाव पड़ता है। प्राणायाम करते समय १. श्वास धीमा और दीर्घ लेवे । २. श्वास छोडने मे, श्वास लेने से दुगुना समय लगे । ३. श्वास लेते वक्त नाभी के निचला भाग बाहर न आवे | Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १९ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग प्राणायम के लिये शुरू मे पूरक, रेचक और कुंभक करें । नित्य ३ से ६ महिने के अभ्यास के बाद आंतरकुंभक किया जा सकता है । लोम-विलोम, उज्जयी, भस्त्रिका , शीतली ऐसे प्राणायाम के अनेक प्रकार है । विशेष जानकारी उसके ज्ञाता से प्राप्त करें । ज्ञानसाधना याने क्या ? साधना का अर्थ है कुछ पाने का प्रयत्न । ज्ञानसाधना का अर्थ है, ज्ञान प्राप्ती करने हेतू किया हुआ पुरुषार्थ । ज्ञान दो प्रकार के होते है | व्यवहारिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान । व्यवहारिक ज्ञान-जिस ज्ञान द्वारा बुद्धि, पसंदगी, चतुराई आदि विकास होती है, वह है व्यवहारिक ज्ञान । आध्यात्मिक ज्ञान-आत्मा और कर्म का सम्बन्ध जानना, जीव-अजीव का भेद आदि जानकर पूर्णता में पहुंचने (मोक्षप्राप्ती) मदद रूप होने वाला ज्ञान है, अध्यात्मिक ज्ञान । ज्ञानसाधना हेतू जरूरत है, स्वस्थ शरीर और मन । 'शरीर माद्यं खलु धर्मसाधनम्। चुंकी , शरीर ही धर्मसाधना का साधन है, आरोग्यमय शरीर होना अत्यंत जरुरी है । साथ साथ मन की शुद्धता और निर्मलता ज्ञान प्राप्ति के लिए अत्यंत साहायक बनती है । योगद्वारा तन मन की तंदुरूस्ती हटयोग के आसन, प्राणायम, मुद्रा, षक्रिया और अष्टांग योगराजयोग के यम, नियमादि अंग, तन-मन के दुरुस्ती और संतुलन मे बहुत ही लाभदायक है । आसनों के अभ्यास से शरीर की संपूर्ण निरोगीता और प्राणायम द्वारा मन की एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है । शरीर मे जो ९ प्रकारकी विविध प्रणालीया है, उनका कार्य व्यवस्थित हो और प्रणालियो में अंतस्थ संतुलनं हो, तो कोई भी प्रकार का रोग होने की संभावना ही नही रहती । योग से इन प्रणालियोंका संचालन खुब व्यवस्थित एवं सरल हो सकता है और हर साधना सिद्धि में रुपांतरित हो सकती है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २० श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ग्रहणशील व्यक्तित्व कैसे बनाए ? वृक्ष लगाना हो और फल प्राप्त करना हो, तो जमीन खोदकर उसमें से कंकर हटाने पडते है, खाद डालना पडता है, बीज बोना पडता है पानी देना पडता है, तथा अन्य आवश्यक सुरक्षाओं का प्रबन्ध करना पडता है । तो ही वृक्ष का बडा होना तथा फल प्राप्त होना संभव है । कोई बड़ा और सुंदर भवन बनाना हो, तो भी भवन का नक्षा बनाना पडता है, जमीन समतल बनानी पडती है, नक्षानुसार नीव की रेखायें जमीनपर खिंचनी पडती है, पाया खोदना पडता है, आवश्यक सामग्री जुटानी पडती है, कॉन्ट्रेक्टर को काम सौंपना पडता है, इंजिनीयर-आर्किटेक्ट के निर्देषानुसार रेती, सिमेंट, स्टील आदि उपयोग में लाने पडते है । सही तरीके से दिवारें खडी करनी पडती है, प्लॉस्टर सफाईसे करना पडता है, सिमेंट-काँक्रेट काम होने के बाद निर्धारित काल तक पानी देना पडता है, फर्श की तरफ ध्यान देना पडता है। रंग देना पडता है, तो ही सही भवन बन सकता है । विद्यार्थीओं को पेन, पुस्तक, नोटबुक देने पर भी, उन को अच्छी ट्युशन लगाने पर भी खूब लिखने-पढने को कहने पर भी, गृहपाठ देते हुए भी तथा अन्य अनेक कोशिशे करने पर भी अपेक्षित परिणाम आते नहीं । उसका अर्थ ही यह है कि इतना सबकुछ करने पर भी कुछ महत्त्व का निश्चित ही कम पड़ता है, और वह है ग्रहणशीलता (Catch up power...) , • जिस प्रकार चलने के लिए पैर में शक्ति होना जरुरी है, खाने के लिए भूख लगी होनी चाहिये, सोना हो तो, निंद आनी चाहिए, याद रखने के लिये तीव्र स्मरण शक्ति चाहिये, वैसे ही पढने के लिए समग्र व्यक्तिमत्व ग्रहणशील होना चाहिये । इसके लिए शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक ऐसी सज्जता प्राप्त करने की जरुरत होती है । १. शारीरिक १. अभ्यास करते समय सीधा बैठना चाहिये । झुककर बैठने से रीढ की हड्डी की स्थिती टेढी होती है, उससे शरीर और बुद्धि दोनों को नुकसान पहुंचता है । सिर झुकाकर लिखने से भी नुकसान पहुंचता है । अतः जब Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग जमीन उपर बैठकर अभ्यास करना हो, तो सुयोग्य उंचाई का टेबल सामने रखकर उस पे नोटबुक रखकर लिखे अथवा पुस्तक रखकर पढे । • पैर लटका कर बैठने के बदले पालखी पुरकर (पलाठी मारकर अर्थात् सुखासन में) बैठे । इस से कमर के उपर के अवयवों को जादा खून तथा प्राणिक शक्ति का पुरवठा (Supply) होता है, जो ग्रहण शक्ति बढाने में अत्यंत साहय्यकारी होता है । २१ • बैठने के लिए आरामदायी आसन का होना जरुरी है। (सूती अथवा ) उनी आसन उपयोग में लावे, ठंडे जमीन पर कभी भी नहीं बैठना चाहिये । • बूट, मोजे (सॉक्स) पहनकर कभी भी पढाई न करे । पवित्रता एवं आरोग्य की द्रष्टि से भी वह अयोग्य है । भारत जैसे गरम प्रदेश में बूट-मोजे पहनना उचित नहीं है, उससे पैर तल को खुली हवा मिलने में अवरोध भी होता हैं । • घुटने, कमर और खंधे पर अनैसर्गिक भार न आए, इस प्रकार खडे रहने की आदत रखनी चाहिये । उत्तर देने के लिए जब खड़ा होना पडता है, तब दोनों हाथ पिछे एक दूसरे में गुंथे हुए या आगे एक दूसरे में गुंथे हुए अथवा बाजू में सीधे रखे | अन्य किसी भी प्रकार से रखना उचित नहीं है । • सीधे खडे रहकर सामने देखकर बोलने की आदत शारिरिक तथा बौद्धिक आरोग्य में सुधार लाती है। इससे आत्मविश्वास जागृत होता है, तथा प्रभाव बढता है । मुह पे ओढकर अथवा गंदे कपड़ों में नही सोना चाहिये । • ठंड के दिनों में उनी एवं गरमी के दिनों में सूती कपडे पहनने चाहिये । शरीर सिकुड के, जेब मे हाथ डालकर, खंधे आगे झुकाकर चलना नहीं चाहिए । २. सोने, बैठने, खडे रहने के आदत के साथ साथ आरोग्य की तरफ भी ध्यान रखना चाहिये । विद्यार्थी का पेट साफ होना चाहिये, उन्हें कब्ज नही होना चाहिये, जल्दी सोने की और जल्दी उठने की आदत होनी चाहिये । उन्हें पूर्ण तथा शांत निंद मिलनी चाहिये । विद्यार्थीओं को शुद्ध घी, दूध, फल, कम मसालेवाला खुराक जरुरी होता है । इससे सात्त्विक प्रवृत्ति Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ माँ सरस्वती ... श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग में बढोतरी आती रहेगी । शरीर-बल में वृद्धि होगी और आरोग्य बना रहेगा । शरीर के साथ मानसिक और बौद्धिक आरोग्य में सुधार आएगा । ३. क्लासरुम में बैठते वक्त पूर्व दिशामें मुह होवे, शुद्ध हवा का आवागमन रहें, धूप न आवे, पढते वक्त पुस्तक पर छाया न पडे, पवन के साथ धूल न आवे, ब्लॅकबोर्ड नजर के स्तर के उपर न होवे, फर्श जादा ठंडा न होवे । इन सब बातों का शरीर और मन के स्वास्थ्य से गहरा संबंध है | इन सब बातों की अनुकुलता अभ्यास में प्रगतिकारक होती है | २. प्राणिक प्राणशक्ति के कारण शरीर, मन और बुद्धि की कार्य क्षमता में बढोत्तरी होती है । जिनकी प्राणशक्ति दुर्बल होती है, उनमें बौद्धिक साहस का अभाव रहता है । ऐसे विद्यार्थी अधुरी पढाई करते है या नापास हो जाते है । अच्छे गुण पाने की उन्हे कोई महत्त्वाकांक्षा नही होती, पास होने का भी आत्मविश्वास नही होता । 'ए.टी.के.टी.' नकल करने की उनको शर्म नहीं लगती। ट्युशन, गाईड, गृहपाठ आदि उनके उपयोग में नही आता | ऐसे लोगों की प्राणिक शक्ति बढाने के बड़े ही आसान तरीके है । वे इस प्रकार १. उन्हें आकर्षक, अच्छे और सूती कपडे पहनावे । २. उनका नाक तथा श्वसन मार्ग सदा स्वच्छ रखें । ३. नाक से ही श्वास लेते है, इस पे ध्यान रखें । ४. वे माथा ढककर न सोवे, इसपर ध्यान रखें । ५. इसके बाद दीर्घ श्वास लेने का (Deep Breathing) वे अभ्यास करते है, यह देखें । ६. छाती सिधी रखकर बैठे, इस का ध्यान रखें । ७. हररोज 'ॐ' का जोर से उच्चार का अभ्यास करावें । ८. हो सके तो तानपुरा के स्वर में दीर्घ समय तक 'ॐ' कार का दृढ उच्चारण करावें । ९. प्राणायम का योग्य प्रकार का अभ्यास बहुत ही लाभदायक होता है । इन से प्राणिक शक्ति का विकास होकर ग्रहणशीलता बढ़ती जाती है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ माँ सरस्वती २३ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ३. मानसिक १. ग्रहणशीलता में मन का सहभाग बहुत ही विशेषता रखता है । मन की अनुकुलता से अन्य सभी प्रतिकुलताए गौण बन जाती है । अभ्यास में मन ही न होवे, तो सर्व अन्य मेहनत निष्फल है । इसके लिए पालक तथा शिक्षकों ने सब मुमकिन प्रयत्न करने चाहिए । विद्यार्थीओं के लिए एक सुभाषित हैसुखार्थी चेत्, त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी चेत् त्यज्येत् सुखम् । सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थीनः कुतो सुखम् ।। अर्थात् : सुख की इच्छा हो, तो विद्या की इच्छा छोड देनी चाहिए, विद्या की इच्छा हो तो सुख की इच्छा छोड देनी चाहिए, कारण कि विद्यार्थी को सुख और सुखार्थी को विद्या कहाँ से मिलेगी ? • पढने के लिए कठोर परिश्रम का कोई पर्याय नहीं है | ज्ञान सहजता से नहीं, कडी साधना से प्राप्त होता है । विद्या प्राप्ति के लिये संयम, सादगी, साधना एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है । जिसकी यह करने की तैयारी है, वही पढ सकता है, पढा सकता है | • आज का शिक्षण-तन्त्र विद्यार्थी को विद्यार्थी नहीं, अपितु परीक्षार्थी मानता है और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के एक मात्र ध्येय को अपना लक्ष्य बना देते है । वे तन्त्र, विद्या प्राप्त हेतु कुछ भी उपयोगी नहीं पडते । अपनी संतान को विद्यार्थी बनाना हो, तो उन्हें विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा हमे ही देनी होगी । सादगी, संयम, परिश्रम को आभूषण मानना होगा। तो जरुरी है, विद्यार्थी को बालक नहीं, अपितु विद्यार्थी ही मानने की । २. आजकल विद्यार्यों में मनोबल, एकाग्रता, शांति का अभाव है । पूरे वर्ष में हररोज सोलह घंटे अभ्यास की , न वो कल्पना कर सकते, न साल में सौ पुस्तक पढने की । 'मौखिक' तथा 'रिटन' परीक्षा के वक्त, वे अपना आत्मविश्वास खो बैठते है। उनमें विचारों की न तो स्पष्टता होती है, न ही अभिव्यक्ति की क्षमता । उनके मन में अपने स्वयं प्रति चीड भी होती है और शरम भी । • इसके लिये घर में तथा विद्यालय में शांत वातावरण की जरुरत Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग है । इसके लिये हल्के स्वर में बोलना, टेप, टी. व्ही. बंद रखना, दरवाजे खिडकियाँ बंद करते वक्त धीरेसे बंद करना, खुर्सी आदि कर्कश आवाज करते न घसीटणा, चप्पल आदि का फट-फट आवाज न करना आदि तरफ ध्यान देना जरुरी है । • टी.वी. उपर के चित्रहार जैसे कार्यक्रम विद्यार्थीओं के लिये बहुत ही खतरनाक होते है । माता-पिता इस बारे में अवश्य ध्यान रखे । २४ • सदा सात्विक आहार ग्रहण करे । तले हुए अथवा मसालेदार पदार्थों पर रोक लगावे । विद्यार्थीओं की एकाग्रता टिकी रहने के लिए कपडा, गहेना और खाने पीने का आकर्षन कम करना चाहिए । शिक्षक तथा मातापिता मिलके मौजशोक और फॅशन को मर्यादा में रखने की उसे प्रेरणा देवे । • प्रेरणादायी प्रसंग, महापुरुषों के चरित्र आदि मनोबल बढाने में साहाय्यक बनते है | सदगुणों की प्रेरणा, जीवन का कोई लक्ष्य रखना, ये मनोबल बढाने के आलंबन हो सकते है । ३. मन को अनुकुल बनाने का सरल सच्चा उपाय है, योगाभ्यास | क्षमता के अनुसार बचपन में ही योगाभ्यास सीखना, मन का विकास करता है । ४. बौद्धिकः बुद्धि ही तो शिक्षा का, ज्ञान का धाम है । उसके बिना पढा ही नही जा सकता । ग्रहणशीलता बनाने के लिए कुछ मूलभूत बाते समझने की आवश्यकता है । १. विद्यार्थ्यो का दप्तर का बोजा तथा 'मजुरी' कम करनी चाहिए । 'स्व' अध्ययन जरुरी है । छोटे-बडे विद्यार्थी खुद ही अभ्यास करें, उसमें बड़े लोग साहाय्य करें । लेसन तैयार करके देनेवाली मम्मी तथा परिक्षा में पास करने के लिए प्रयत्न करनेवाले पप्पा उस बालक के सबसे बड़े दुश्मन है । जब तक विद्यार्थी स्वयं अपने बुद्धि का उपयोग नहीं करेगा, उसकी बुद्धि ग्रहणशील नहीं बन सकेगी । २. अभ्यास क्रम के बाहर की बहुत सारी योग्य पुस्तकों का वांचन बुद्धि को परिपक्व, विशाल तथा सूक्ष्म बनाती है । भवन जितना उंचा बांधना होता है, उतना उसका पाया गहरा तथा मजबूत स्तर पर लेना चाहिये और Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग क्षेत्रफल भी अधिक । उसी प्रकार ज्ञान बढाने के लिए वाचन का विस्तार भी बढाना होगा । आजकल की अमेरिकी संस्कृति 'युज ॲण्ड थ्रो' फेकू संस्कृति हमें नहीं अपनानी है । फेकू साहित्य मे से केवल मनोरंजन प्राप्त हो सकता / है, सच्चा ज्ञान नहीं । हर घर में सुसंस्कार-वर्धक पुस्तकालय होना चाहिए और विद्यार्थी उसका सदस्य बनना चाहिए । २५ ३ . मात्र लेखन वाचन तक ही पढने की प्रवृत्ति सीमित न की जाय । शरीर और मस्तक दोनों ही क्रियाशील बनें, तो ही ग्रहण शक्ति बढ़ सकती है । नोट्स, गाईड में या पुस्तक में देखकर लिखना यह व्यर्थ क्रिया है । गृहपाठ में देने योग्य कार्य, जिससे ग्रहणशीलता बढ सकती है१) सीधी लाईन खिंचना २) सुंदर अक्षर में सुवाक्य लिखना ३) श्लोक की हस्तलिखित प्रत बनाना ४) रास्ते में आनेवाली दस दुकानों के बोर्ड की भाषाशुद्धि तपासना ५) दस दुकानों में जाकर विविध वस्तुओं के भाव पूछना और उसकी तुलना करना ६) गाव में आए हुए मंदिरों की जानकारी तथा इतिहास लिखना ७) गाव के चारों सीमाओं पर क्या क्या आया है, वह जानना तथा उसकी नोंद करना ८) गाव का विस्तार - मापना ९) रोज के कमालकिमान तापमान की जानकारी प्राप्त करना तथा उसकी नोंद करना १०) गाव में आये हुए झोपडे, कौनसे क्षेत्र में, उसमे की लोकसंख्या इ. बारे में सर्वेक्षण करना ११) गाव के नाकाबंदी की योजना बनायें १२) गाव के लोगों का सर्वेक्षण करना तथा शिक्षण, व्यवसाय, साक्षर निरक्षर, स्त्री-पुरुष, बालक आदि में वर्गीकरण करना १३) श्रमदान तथा सेवाकार्य के प्रकल्पों की योजना बनाना तथा स्तर अनुसार विद्यार्थ्यो को कार्य सोपना वगेरे...। ४. ध्यान करने से एकाग्रता तथा आंतर प्रेरणा प्राप्त होती है। ध्यान यह जीवन का अंग बने, ऐसा प्रयत्न घर तथा विद्यालय में होना चाहिए। आंतर प्रेरणा से कितनी ही कठीण बातें सहज-सरल बन जाती है। इसके लिये परमात्मा प्रति अपार विश्वास बडोंका मार्गदर्शन तथा स्वयं का प्रयत्न चाहिए । • क्लास रुम हो अथवा घर, विद्यार्थी को पोपट, मजूर या तो यन्त्र मानव बनाने के बदले जीता-जागता, उत्साहपूर्ण, कल्पनाशील, उछलताकूदता मनुष्य बनाने से ही वह अधिक अच्छी पढाई कर सकता है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २६ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग |५. आत्मिक पढने के प्रवृत्ति को शुष्क और व्यवसायिक न बनाईये । ज्ञान प्राप्ति का सच्चा सम्बन्ध तो आत्मा से है | आत्म प्रकाश पडते ही कोई भी ज्ञान, अनुभव ज्ञान बन जाता है । इसलिये ध्यान रखें । १. शिक्षक और विद्यार्थीओं का सम्बन्धं भौतिक नही , आत्मिक होना चाहिए । विद्यार्थी को पूत्रवत् मानकर अपने को 'मास्तर' माँ का स्तर बनाकर प्रेम से माँ की लागनी से ज्ञान देने से शिक्षक और विद्यार्थी में एकरसता निर्माण होती है और जैसे दीप से दीप प्रगटता है, वैसे ही शिक्षक के अंतःकरण में रहा हुआ ज्ञान, विद्यार्थी के अंतःकरण में प्रगट हो जाता है। पढाई से पूर्व ऐसा सम्बन्ध निर्माण करना निश्चित ही लाभदायक होता है | २. प्रसन्न वातावरण निर्मिती के साथ साथ प्रसन्न रहने की सलाह विद्यार्थी को देनी चाहिए । हररोज मार डाट कर, दंड करके या अन्य कोई सजा करके उन्हें पढाया नहीं जा सकता । उदात्त तथा अन्य की भलाई करने का लक्ष्य रखकर प्रसन्न रहा जा सकता है। अच्छे कार्य, उत्तम विचार, उदात्त लक्ष्य से प्रसन्नता आती है और प्रसन्नता तथा प्रेम से ग्रहणशीलता बढती है। ३. अपना स्वयं का जीवन आत्म-मोक्ष-जगत हितार्थ है, ऐसी अनुभूती उन्हें करानी चाहिए । सब के साथ अच्छे सम्बन्ध, प्रकृति प्रति स्नेह, सब के कल्याण की.कामना रखना यह उनके अपने स्वयं के विकास के साधन है । दीन दुखियों का दुःख दूर करने की तत्परता, देशभक्ति का भाव , सबके प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ भाव रखने से व्यक्तिमत्व संवेदनशील बनता जाता है । ज्ञान प्राप्ति के लिए संवेदनशीलता बहुत जरुरी है । • सेवा करने में हृदयपूर्वक भाग लेनेवाले विद्यार्थी, शिक्षण प्रति भक्तिभाव का अनुभव करते है, अच्छे कामों से आनंदित होने से आप ही आप ज्ञान प्राप्ति हो जाती है । वासना में रस लेना, सुस्त होना, स्वार्थी होना यह अंधकार है। प्रेम, प्रसन्नता तथा संवेदनशीलता का सूर्य उगने से ही अंधकार का लोप होता है। अज्ञान रुपी अंधकार का लोप करना यही सरस्वती साधना है। सच्चे अर्थ में विद्यार्थी बनिए, उसी में देश तथा दुनिया एवं आत्मा की भावी उन्नती का रहस्य छिपा हुआ है । सा विद्या या विमुक्तए...!!! Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २७ सम्यग्ज्ञान की विशिष्ट आराधना ज्ञान प्राप्ति के श्रेष्ठ उपाय १) ज्ञान की स्तुति बोलकर, प्रतिदिन२) ५-लोगस्स ( २०- नवकार) का काउसग्ग करें । ३) ज्ञानके समक्ष ५/५१ खमासमणे देवे । ३) 'ॐ ह्रीँ नमो नाणस्स' की ५/२० माला अवश्य गिने । सम्यग्ज्ञान की स्तुति धार्मिक पुस्तक / पोथी सापडे (स्टँड) के उपर रखकर उसके समक्ष यह स्तुति बोले ४) श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग प्रति मास के शुक्ल पंचमी के दिन उपवास / एकासणादि तप करके ५१ लोगस्स ( २०४ नवकार) का काउसग्ग, ५१ खमासमणे और 'ॐ ह्रीँ नमो नाणस्स' इस मंत्र की २० माला जपने से शीघ्रता से ज्ञान की प्राप्ति होती हैं । १) णिव्वाण मग्गे वर जाण कप्पं, पणासियासेस कुवाइ दप्पं, मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, णमामि णिच्चं ति जग पहाणं ॥ २) बोधा गाधं सुपद पदवी नीर पूरा भिरामं, जीवाऽऽ हिंसा विरल लहरी संगमा ऽ गाह देहम् । चूला वेलं गुरुगम मणि संकुलं दूर पारं, सारं वीरागम जलनिधिं सादरं साधु सेवे ॥ अर्हद् वक्त्र प्रसूतं गणधर रचितं द्वादशांगं विशालं, चित्रं बह्वर्थ युक्तं मुनिगण वृषभै र्धारितं बुद्धि मद्भिः, द्वार भूतं व्रत चरण फलं ज्ञेय भाव प्रदीपं, भक्त्या नित्यं प्रपद्ये श्रुत मह मखिलं सर्व लोकैक सारम् ॥ जिन जोजन भुमि, वाणीनो विस्तार प्रभु अर्थ प्रकाशे, रचना गणधर सार । सो आगम सुणतां, छेदी जे गति चार जिन वचन वखाणी, लहीये भवनो पार ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २८ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग काउसग्ग कैसे करें ? स्तुति बोलने के बाद खमासमणा देकर प्रथम इरियावहिसूत्र का पाठ बोले । इरियावहि-तस्सउतरि अन्नत्थ-१ लोगस्स (चार नवकार) का काउसग्ग करें फिर काउसग्ग पार के प्रगट लोगस्स बोले । लोगस्स बोलकर फिर खमासमणा देवे | इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि । इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! श्री सम्यगज्ञान आराधनार्थे काउसग्ग करूं ? इच्छं... श्री सम्यग्ज्ञान आराधनार्थे करेमि काउसग्गं... वंदनवत्ति आए, पूअणवत्तिआए सक्कारवत्तिआए सम्माणवत्तिआए बोहिलामवत्तिआए निरुवसगवत्तिआए सद्धा मेहाए घिईए धारणाए अणुप्पेहाए वड्डमाणीए ठामि काउस्सग्गं । अन्नत्थ उससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए, सुहुमेहिं अंग संचालेहिं, सुहमेहिं खेल संचालेहिं, सुहुमेहीं दिट्ठि संचालेहिं, एवमाइएहिं आगारेहिं, अभग्गो अविराहिओ, हुज्ज मे काउस्सग्गो जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि [५ या ५१ लोगस्स का काउसग्ग करें (अथवा लोगस्स न आये तो - २० या २०४ नवकार का काउसग्ग करे ) ।] काउसग्ग पूर्ण होने के बाद हाथ जोड़ के सिर्फ 'नमो अरिहंताणं' कहकर फिर प्रगट लोगस्स कहना - लोगस्स उज्जो अगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली ॥१॥ उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल - सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥३॥ कुंथुं अरं च मल्लिं, वंदे मुनिसुव्वयं नमि जिणं च । वंदामि रिद्वनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग एवं मए अभिथुआ, विय-रय-मला पहीण जरमरणा। चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ||५|| कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्ग बोहिलाभं , समाहि-वर-मुत्तमं दिंतु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा सागर-वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ||७|| (अंतमें १ खमासमण देना) (काउसग्ग विधि संपूर्ण) -श्रुत ज्ञान वंदना १) श्रुतज्ञान ने स्थापित करे ते अर्हतो ने वंदना श्रुतज्ञान ने हृदये धरे ते गणधरोने वंदना श्रुतज्ञान ने ले वारसे, दे वारसे तस वंदना श्रुतज्ञानने करी वंदना, करुं पापनी निकंदना. २) जे शुद्ध केवलज्ञान छे, तस सूर्य सम सन्मान छे, . वळी तस हयाती न होय तो, सुयनाण दीप समान छे, स्व-पर प्रकाशक जेह छे, श्रद्धा तणु सोपान छे... श्रुत० ३) श्रुत प्राण छे श्रुत त्राण छे, प्रभुवर प्रति जे प्रयाण छे, मुगति तणा पथ ने कहे, ते भोमियो सुयनाण छे, श्रुत आंख छ श्रुत पांख छे, वळी सुख रयणनी खाण छे...श्रुत० ४) जिन-वयण ने जे लखावशे, ते दुर्गति पामे नहि, मुंगापणुं, वळी जडपणु ने अंधतां आवे नहि, जिन-शास्त्र ने जे लखावशे, ते बुद्धि हीन बने नहि... श्रुत० ५) श्रुतज्ञान जगदाधार छे, श्रुतज्ञान रक्षणहार छे, श्रुत शास्त्र छे, श्रुत शस्त्र छे, वळी जिन वचन आकार छ, चैतन्य ने जागृत करे, ते तेहवो चमकार छे... श्रुत० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग सम्यगज्ञानके ५ खमासमणे. १) समकित श्रद्धावंतने, उपन्यो ज्ञान प्रकाश, प्रणमुं पदकज तेहना, भाव धरी उल्लास, ॐ ह्रीँ श्री मतिज्ञानाय नमो नमः । इच्छामि खमा० २) पवयण श्रुत सिद्धांत ए, आगम-समय वखाण, पूजो बहुविध रागथी, चरण कमल चित्त आण. ॐ ह्रीँ श्री श्रुतज्ञानाय नमो नमः । इच्छामि खमा० ३) उपन्यो अवधिज्ञाननो, गुण जेहने अविकार, वंदना तेहने माहरी, श्वासमांहे सो वार, ॐ ह्रीँ श्री अवधिज्ञानाय नमो नमः । इच्छामि खमा० ४) ए गुण जेहने उपन्यो, सर्व विरती गुण ठाण, प्रणमुं हितथी तेहना, चरण कमल चित्त आण. ॐ ह्रीँ श्री मनः पर्यवज्ञानाय नमो नमः । इच्छामि खमा० ५) परम ज्योति पावन करण, परमातम परधान, केवलज्ञान पूजा करी, पामो केवलज्ञान. ॐ ह्रीँ श्री केवलज्ञानाय नमो नमः । इच्छामि खमा० ___ (ज्ञान के उत्कृष्ट ५१-खमासमणे देते यही दोहे बोले) अर्थात् : १) मतिज्ञान के २८ भेद होने से २८ खमा० २) श्रुतज्ञान के १४ भेद होने से १४ खमा० ३) अवधिज्ञान के ६ भेद होने से ६ खमा० ४) मनःपर्यवज्ञान के २ भेद होने से २ खमा० ५) केवलज्ञान के १ भेद होने से १ खमा० कुल मिलाकर ज्ञान के ५१ भेद होने से ५१ खमा० देने चाहिए... Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३१ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ॥श्री सम्यग्ज्ञान के ५१ खमासमणे ॥ • ज्ञानावरणीय जे कर्म छे, क्षय उपशम तस थाय रे, तो हुए एहिज आतमा, ज्ञान अबोधता जाय रे, वीर०... (यह दुहा एवं नीचे का पद बोलकर खमासमण देना ।) १. श्री स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । २. श्री रसनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ३. श्री घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ४. श्री श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ५. श्री स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ६. श्री रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ७. श्री घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ८. श्री चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ९. श्री श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । १०. श्री मनो अर्थावग्रह मतिज्ञानाय नमो नमः । ११. श्री स्पर्शेन्द्रिय इहा मतिज्ञानाय नमो नमः । १२. श्री रसनेन्द्रिय इहा मतिज्ञानाय नमो नमः | १३. श्री घ्राणेन्द्रिय इहा मतिज्ञानाय नमो नमः | १४. श्री चक्षुरिन्द्रिय इहा मतिज्ञानाय नमो नमः । १५. श्री श्रोत्रेन्द्रिय इहा मतिज्ञानाय नमो नमः । .. १६. श्री मन इहा मतिज्ञानाय नमो नमः । १७. श्री स्पर्शेन्द्रिय अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । १८. श्री रसनेन्द्रिय अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । १९. श्री घ्राणेन्द्रिय अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । २०. श्री चक्षुरिन्द्रिय अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । २१. श्री श्रोत्रेन्द्रिय अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । २२. श्री मनो अपाय मतिज्ञानाय नमो नमः । २३. श्री स्पर्शेन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग २४. श्री रसनेन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । २५. श्री घ्राणेन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । २६. श्री चक्षुरिन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । २७. श्री श्रोत्रेन्द्रिय धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । २८. श्री मनो धारणा मतिज्ञानाय नमो नमः । २९. श्री अक्षर श्रुतज्ञानाय नमो नमः | ३०. श्री अनक्षर श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३१. श्री संज्ञि श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३२. श्री असंज्ञि श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३३. श्री सम्यक् श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३४. श्री मिथ्या श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३५. श्री सादि श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३६. श्री अनादि श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३७. श्री सपर्यवसित श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३८. श्री अपर्यवसित श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ३९. श्री गमिक श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ४०. श्री अगमिक श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ४१. श्री अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ४२. श्री अनंगप्रविष्ट श्रुतज्ञानाय नमो नमः । ४३. श्री अनुगामी अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४४. श्री अननुगामी अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४५. श्री वर्धमान अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४६. श्री हीयमान अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४७. श्री प्रतिपाति अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४८. श्री अप्रतिपाति अवधिज्ञानाय नमो नमः । ४९. श्री ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानाय नमो नमः । ५०. श्री विपुलमति मनःपर्यवज्ञानाय नमो नमः । - ५१. श्री लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञानाय नमो नमः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग १४ पूर्व को वंदना..., श्री उत्पाद पूर्वाय नमो नमः । श्री अग्रायणी पूर्वाय नमो नमः । श्री वीर्य-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । ४) श्री अस्ति-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः | ५) श्री ज्ञान-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । ६) श्री सत्य-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । ७) श्री आत्म-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः | ८) श्री कर्म-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । ९) श्री प्रत्याख्यान-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । १०) श्री विद्या-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । ११) श्री कल्याण-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । १२) श्री प्राणवाय-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । १३) श्री क्रिया-प्रवाद पूर्वाय नमो नमः । १४) श्री लोक-बिंदुसार पूर्वाय नमो नमः । इस तरह १४-पूर्वोको नित्य वंदन करो और शक्य हो तो १४ खमासमणे दो । १४ पूर्व शास्त्र की विशिष्टता... इन १४ पूर्वो की रचना, तीर्थंकर भगवान के मूख्य शिष्य जिन्हें गणधर (गणेश) कहाँ जाता है वे ही करते है । कुल मिलाकर (देवकुरु-उतर करु क्षेत्रके) १६ हजार ३८३ हाथी के वजन जितनी सुकी स्याही (Ink) इकट्ठी करना । फिर उसमें पानी डालना । अब इतनी स्याही से जितने शास्त्र लिखे जाये उसे १४ पूर्व कहते है। | बार-बार नमन हो इस अद्भूत-अनमोल सम्यग्ज्ञान के खजाने को... | Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३४ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग मूल श्लोक (प्रायः) २६६४ २१०० ४५ आगम को वंदना... १) श्री आचारांग सूत्राय नमो नमः । २) श्री सूत्र - कृतांग सूत्राय नमो नमः । ३) श्री ठाणांग सूत्राय नमो नमः । ४) श्री समवायांग सूत्राय नमो नमः । ५) श्री भगवती सूत्राय नमो नमः । ६) श्री ज्ञाता-धर्मकथांग सूत्राय नमो नमः । ७) श्री उपासक दशांग सूत्राय नमो नमः । ८) श्री अंतकृत-दशांग सूत्राय नमो नमः । ९) श्री अनुत्तरो - पपातिक सूत्राय नमो नमः । १०) श्री प्रश्न-व्याकरण सूत्राय नमो नमः । ११) श्री विपाक सूत्राय नमो नमः । १२) श्री औपपातिक सूत्राय नमो नमः । १३) श्री राज-प्रश्नीय सूत्राय नमो नमः । १४) श्री जीवा-भिगम सूत्राय नमो नमः । १५) श्री प्रज्ञापना सूत्राय नमो नमः । १६) श्री सूर्य - प्रज्ञप्ति सूत्राय नमो नमः । १७) श्री चंद्र-प्रज्ञप्ति सूत्राय नमो नमः । १८) श्री जंबू-द्विप-प्रज्ञप्ति सूत्राय नमो नमः । १९) श्री निरयावलिका सूत्राय नमो नमः । २०) श्री कल्प- वसंतिका सूत्राय नमो नमः २१) श्री पुष्पिता सूत्राय नमो नमः । २२) श्री पुष्प चुलिका सूत्राय नमो नमः । २३) श्री वहिनदशा सूत्राय नमो नमः । २४) श्री चउशरण पयन्ना सूत्राय नमो नमः । २५) श्री आउर-पच्चक्खान पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३७०० १६६७ १६,७६१ ६४६० ८१२ ९०० १९२ १३०० १२६० ११६७ २१२० ४७०० ७७८७ २२९६ २३०० ४४६४ ११०० ८० १०० Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २६) श्री महा-पच्चक्खान पयन्ना सूत्राय नमो नमः । २७) श्री भक्त-परिज्ञा पयन्ना सूत्राय नमो नमः । २८) श्री तंदुल - वैचारिक पयन्ना सूत्राय नमो नमः । २९) श्री संथारा पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३०) श्री गच्छाचार पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३१) श्री गणि-विज्जा पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३५ ३२) श्री देवेन्द्र-स्तव पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३३) श्री मरण- समाधि पयन्ना सूत्राय नमो नमः । ३४) श्री निशीथ सूत्राय नमो नमः । ३५) श्री बृहत्-कल्प सूत्राय नमो नमः । ३६) श्री व्यवहार सूत्राय नमो नमः । ३७) श्री दशा- श्रुतस्कंध सूत्राय नमो नमः । ३८) श्री जीत-कल्प सूत्राय नमो नमः । ३९) श्री महानिशीथ सूत्राय नमो नमः । ४० ) श्री आवश्यक सूत्राय नमो नमः । ४१) श्री ओघ - निर्युक्ति सूत्राय नमो नमः । ४२) श्री दशवैकालिक सूत्राय नमो नमः । ४३ ) श्री उत्तराध्ययन सूत्राय नमो नमः । ४४) श्री नंदी सूत्राय नमो नमः । ४५) श्री अनुयोग-द्वार सूत्राय नमो नमः । श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग तेज होती है । ३२५ १३६६ ८३६ २००० ७०० २००० इस तरह ४५-आगम को दिन में १ बार वंदना करने से शीघ्र बुद्धि १७६ २१६ ६०० १६६ १७६ १०६ ३७६ ८३७ ८२२ ४७३ ७०० ८९६ १३० ४६४८ क्यों अनमोल खजाना है ? 'ज्ञाता धर्म कथांग' नामक आगम ग्रंथ में कुल 'साडे तीन करोड' कहानीयाँ थी । '४५ आगम ग्रंथों' के मूल श्लोकों की कुल संख्या प्रायः ७९,४१४ श्लोक प्रमाण है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३६ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग श्री सम्यग्ज्ञान का चैत्यवंदन त्रिगडे बेठा वीरजिन, भाखे भविजन आगे । त्रिकरण शुं त्रिहुं लोक जन, निसूणो मन रागे ||१|| आराधो भली भातसें, पांचम अजुवाली । ज्ञान आराधना कारणे, ऐहिज तिथि निहाळी ॥२॥ ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो एने संसार । ज्ञान आराधना थी लहे, शिवपद सुख श्रीकार ||३|| ज्ञान रहित क्रिया कही, काश कुसुम उपमान । लोकालोक प्रकाश कर, ज्ञान एक प्रधान ||४|| ज्ञानी श्वासोश्वासमां, करे कर्मनो छेह | पूर्व कोडी वरसे लगे, अज्ञानी करे जेह ॥५॥ देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान । ज्ञान तो महिमा घणो, अंग पांचमे भगवान ||६|| पंचमास लघु पंचमी, जावज्जीव उत्कृष्टि | पंचवर्ष पंच मासनी, पंचमी करो शुभ दृष्टि ||७|| अकावन ही पंचनो ए, काउस्सग्ग लोगस्स केरो । उजमणुं करो भावशुं, टाळो भवनो फेरो ॥८॥ इणी पेरे पंचमी आराधीए, आणी भाव अपार । वरदत्त गुणमंजरी परे, 'रंगविजय' लहो सार || ९ || आगम याने क्याँ ? हर धर्म के अपने-अपने स्पेश्यल एवं प्रख्यात धर्म ग्रंथ होते है । जैसे किहिंदुओ में गीता-रामायण- ज्ञानेश्वरी, मुस्लिमोमें कुरान, क्रिश्चनों में बाइबल, खो में ग्रंथ साहिबा मूख्य रुप से माना जाता है, उसी तरह जैन धर्म में सर्वाधिक महत्व भगवान श्री महावीर प्ररुपित आगम शास्त्र को दिया गया है । जी हाँ ! इस विषम-काल में 'जिन-प्रतिमा' और 'जिन आगम' ही हमारे सच्चे आधार है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३७ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग श्री सम्यगज्ञान का स्तवन ।। श्री जिनवरने प्रगट थयुं रे, क्षायिक भावे ज्ञान | दोष अढार अभावथी रे, गुण उपन्या ते प्रमाण रे, भविया.. वंदो केवल ज्ञान, पंचमी दिन गुण खाण रे...भविया, वंदो० ॥१॥ अनामीना नामनो रे, किश्यो विशेष कहेवाय । एतो मध्यमां वैखरी रे, वचन उल्लेख ठराय रे...भविया० ||२|| ध्यान टाणे प्रभु तुं होये रे, अलख अगोचर रूप | परा पश्यंति पामीने रे, काइ प्रमाणे मुनि भूप रे...भविया० ।।३।। छती पर्याय जे ज्ञाननां रे, ते तो नवि बदलाय । ज्ञेयनी नवनवी वर्तना रे, समयमां सर्व जणाय रे...भविया० ||४|| बीजा ज्ञान तणी प्रभा रे, ओहमां सर्व समाय । रवि प्रभाथी अधिक नहीं रे, नक्षत्र गण समुदाय रे...भविया० ।।५।। गुण अनंता ज्ञाननां रे, जाणे धन्य नर तेह । विजय 'लक्ष्मी सूरी' ते लहे रे, ज्ञान महोदय गेह रे...भविया० ।।६।। सिम्यगज्ञान की थोय मतिश्रुत इन्द्रिय जनित कहीए, लहीए गुण गंभीरोजी, आतमधारी गणधर विचारी, द्वादश अंग विस्तारोजी, अवधि मनः पर्यव केवल वळी , प्रत्यक्ष रूप अवधारोजी, ओ पंच ज्ञानकुं वंदो पूजो, भविजनने सुखकारोजी ।।१।। वाह ! क्या खूब कहाँ दुःख से यदि छुटना है तो सुख की आशा छोड दो मौत से यदि बचना है तो, जन्म का धागा तोड दो । आत्मानंद की गिरी का स्वाद, अगर चखना चाहते हो, तो । सम्यग्ज्ञान के हथोडे से, मोह का नारीयल फोड दो... जी हाँ!! अज्ञानी रोते है, जो नहिं है, उसे जोड़ने के लिए ज्ञानी रोते है, जो है, उसे छोड़ने के लिए... HARYA म त्रप्रप्रमप्रऋऋऋऋऋऋत्र Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३८ . श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ॥सम्यग्ज्ञान की अदभूत सज्झाय ।। • श्री गुरु चरण पसाउले रे लाल, पंचमीनो महिमाय रे, हो आतमा । विवरीने कहिशुं सुणो रे लाल, सुणंता पातिक जाय रे, हो आतमा, पंचमी तप प्रेमे करो रे लाल... ||१|| . मन शुद्ध आराधतां रे लाल, तुटे कर्म निदान रे, हो आतमा । आ भव सुख पामे घणां रे लाल, परभव अमर विमान रे, हो आतमा ।२।। सयल सूत्र रचना करी रे लाल, गणधर हुआ विख्यात रे, हो आतमा ज्ञाने करीने जाणतां रे लाल, स्वर्ग नरकनी वात रे, हो आतमा ||३|| गुरु ज्ञाने दीपता रे लाल, ते तरीया संसार रे, हो आतमा । ज्ञानवंतने सह नमे रे लाल, उतारे भवपार रे, हो आतमा ||४|| . अजवाली पक्ष पंचमी रे लाल, करो उपवास जगीश रे, हो आतमा । 'नमो नाणस्स' गणणुं गणो रे लाल, नवकार वाली वीश रे, हो आतमा ||५|| पंच वरस ओम कीजीये रे लाल, उपर वली पंच मास रे, हो आतमा । शक्ति अनुसार उजवो रे लाल, जेम होय मनने उल्लास रे, हो आतमा ||६|| वरदत्तने गुण-मंजरी रे लाल , तपथी निर्मल थाय रे, हो आतमा । कीर्ति विजय उवज्झायनो रेलाल, कांति विजय गुण गाय रे,हो आतमा ||७|| अमृत के कुछ बुंद.... ज्ञान-ज्ञानी और ज्ञान के साधनों का उचित बहुमान करे | जेसलमेर ज्ञान-भंडार में रुपेरी (चांदी के) अक्षरवाले २६८३ ताडपत्रीय अनमोल-बहुमूल्य ग्रंथ विद्यमान है। देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण महाराज से लगाकर आज तक करोडों धर्म ग्रंथ ताडपत्रादि में लिखे गये है । हस्त लेखित साहित्य लिखाना चाहिए...| जैन शास्त्र-ग्रंथों का सबसे अधिक विनाश मुस्लिम एवं क्रिश्चनों ने किया है । भगवान सभी को सद्बुद्धि दे । आत्मा को परमात्मा की ओर ले जाये वही सच्चा ज्ञान है। बाकी सब विज्ञान-वि(याने-उल्टा) ज्ञान है । विद्या यह ऐसा धन है, आप जितना बांटोंगे, बढता ही जायेगा । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ३९ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग श्री ज्ञानपद पूजा श्री कल्पसूत्र वांचन पूर्वे, श्री ज्ञानपंचमी दिने, आसो / चैत्र मास की शाश्वती ओली में तथा सूत्र के वांचन पूर्वे श्री जिनेश्वरदेव , श्री गुरुमहाराज तथा श्री ज्ञान सन्मुख श्री ज्ञानपद आराधना एवं सविशेष बहुमान निमित्ते नीचे मुजब पूजा पढानी चाहिए। श्री लक्ष्मीसूरीश्वरजी महाराज कृत श्री वीशस्थानक तप की पूजा में से अध्यातम ज्ञाने करी, विघटे भव भ्रम भीति, सत्यधर्म ते ज्ञान छे, नमो नमो ज्ञाननी रीति, ज्ञानपद भजिये रे जगत सुहंकरूं, पांच एकावन भेदे रे सम्यग्ज्ञान जे जिनवरे भाखियुं, जडता जननी उच्छेदे रे, ज्ञानपद ।।१।। भक्षाभक्ष विवेचन परगडो, खीर नीर जेम हंसो रे, भाग अनंतमो रे अक्षरनो सदा, अप्रतिपाति प्रकाश्यो रे, ज्ञानपद ||२|| मन थी न जाणे रे कुंभकरण विधि, तेहथी कुंभ केम थाशे रे, ज्ञान दयाथी रे प्रथम छे नियमा, सदसदभाव विकासे रे,ज्ञानपद ||३|| कंचननाणुं रे लोचनवंत लहे, अधो अंध पुलाय रे, एकांतवादी रे तत्व पामे नही , स्याद्वाद स्स समुदाय रे, ज्ञानपद ||४|| . ज्ञान भर्या भरतादिक भव तर्या, ज्ञान सकल गुण मूल रे, ज्ञानी ज्ञानतणी परिणति थकी, पामे भवजल कूल रे, ज्ञानपद ||५|| अल्पागम जई उग्र विहार करे, विचरे उद्यमवंत रे, उपदेशमालामा किरिया तेहनी , कायक्लेश तस हुंत रे, ज्ञानपद ।।६।। जयंत भूपो रे ज्ञान आराधतो, तीर्थंकर पद पामे रे रविशशि मेह परे ज्ञान अनंतगुणी, 'सौभाग्यलक्ष्मी' हित कामे रे, ज्ञानपद ||७|| Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४० श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराजकृत श्री नवपदकी पूजा में से अन्नाण संमोह तमोहरस्स, नमो नमो नाण दिवायरस्स पंचप्पयारस्स गारगरस्स, सत्ताण सव्वत्थ पयासगस्स || होये जेहथी ज्ञान शुद्ध बोध, यथावर्ण नासे विचित्रावबोध, तेने जाणिये वस्तु षड्द्रव्यभावा, न हुये वितत्था निजेच्छा स्वभावा । होये पंच मत्यादि सुज्ञानभेदे, गुरुपास्तिथी योग्यता तेह वेदे, वळी ज्ञेय हेय उपादेय रूपे, लहे चित्तमां जेम ध्वांत प्रदीपे ॥ भव्य नमो गुण ज्ञानने, स्वपर प्रकाशक भावेजी । परजाय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावेजी || जे मुख्य परिणति सकल ज्ञायक, बोध भाव विलच्छना, मति आदि पंच प्रकार निर्मल, सिद्ध साधन लच्छना, स्याद्वाद संगी तत्त्व रंगी, प्रथम भेदाभेदता, सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल संशय छेदता, 1 • भक्षाभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपेय विचार, कृत्य अकृत्य न जे विण लहिये, ज्ञान ते सकल आधार रे, भविका सिद्धचक्र पद वंदो. १ • प्रथम ज्ञान ने पछी अहिंसा, श्री सिद्धांते भाख्युं, ज्ञानने वंदो ज्ञान न निंदो ज्ञानीए शिवसुख चाख्युं रे... भविका २ • सकल क्रियानुं मूल जे श्रद्धा, तेहनुं मूल जे कहिये, तेह ज्ञान नित नित वंदीजे, ते विण कहो केम रहिये रे... भविका ३ • पंच ज्ञानमांहि जेह सदागम, स्वपर प्रकाशक जेह, दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वळी जेम रविशशि मेह रे... भविका ४ • लोक उर्ध्व, अधो, तिर्यग, ज्योतिष, वैमानिक ने सिद्ध, लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, तेह ज्ञान मुज शुद्ध रे... भविका ५ • ज्ञानावरणी जे कर्म छे, क्षय उपशम तस थाय रे, तो हुए एहि ज आतमा, ज्ञान अबोधता जाय रे, वीर जिनेश्वर उपदिशे, तुमे सांभळजो चित्त लांइ रे, आतम ध्याने आतमा, रिद्धि मले सवि आयी रे... . महावीर ... Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४१ श्री ज्ञानकी स्तुति • निव्वाण मग्गे वरजाण कप्पं, पणासिया सेस कुवाइ दप्पं । मयं जिणाणं सरणं बुहाणं, नमामि निच्चं तिजगप्पहाणं बोधागाधं सुपद पदवी नीर पूरा भिरामं, जीवा हिंसा-विरल-लहरी-संगमा गाह देहं, चूलावेलं गुरुगम मणि संकुलं दूर पारं सारं वीरागम जलनिधिं सादरं साधु सेवे श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग " 11911 अर्हद् वक्त्र प्रसूतं, गणधर रचितं, द्वादशांगं विशालं, चित्रं बह्वर्थ युक्तं मुनिगण वृषभै, र्धारितं बुद्धिमद्भिः, 113 11 मोक्षाग्र द्वार भूतं, व्रत चरण फलं, ज्ञेय भाव प्रदीपं, भक्त्या नित्यं प्रपद्ये, श्रुत मह मखिलं, सर्व लोकैक सारम् जिन जोजन भूमि, वाणीनो विस्तार, प्रभु अर्थ प्रकाशे, रचना गणधर सार, सो आगम सुणतां, छेदी जे गति चार, प्रभु वचन वखाणी, लइये भवनो पार ||४|| सम्यग् ज्ञान वंदना • कर्मो खपावी घातीया, केवल लही प्रभु शुभ समे, खोले खजानो गूढ हितकर, मोह- मिथ्या तम शमे, आपे त्रिपद गणधारने, करे चौद पूरव सर्जना, सद्ज्ञानना शुभ चरणमां, करूं भावथी हुं वंदना ... • छे शास्त्र दिपक सांरीखा मोहांधकार घने वने, ॥२॥ हे शास्त्र दिवादांडी सम मिथ्या महोदधि तारणे, पद-पद परम पावन शुचि अनेकांतवाद निदर्शना, • आतम स्वरुपने शोधवा सद्ज्ञान छे साचो सखा, स्व-पर प्रकाशक जे कह्यं, आत्मिक गुण अमुलखा, मति-श्रुत-अवधिज्ञान, मन-केवल विभेदो ज्ञानना • ज्ञानी खपावे चीकणा कर्मो जे श्वासोश्वासमां, क्रोड़ों वर्षे ना छुटे अज्ञानना अंधारमा, ज्ञाने हीणा पशु सम कह्यां, किश्या कहु गुण ज्ञानना सद्ज्ञानना... सद्ज्ञानना... सद्ज्ञानना... Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४२ श्री सरस्वती साधना विभाग C श्री सरस्वती साधना विभाग मन्त्र साधना की पंचसूत्री ध्यान का विशिष्ट महत्व है। ध्यान की धारा पर चढे बिना प्रगति साध्य नही होती | सच्चे साधक के लिये स्वाध्याय एवं ध्यान की प्रवृत्ति जरुरी है । स्वाध्याय से सच्चा मार्ग समझता है, तो ध्यान से उसका अमल होता है... ध्यान, मन्त्र साधना का अनिवार्य भाग है । मन्त्र साधना का पहला अंग है- मन्त्र देवता की पूजा । वह विविध प्रकार से करनी चाहिये । मन्त्र साधना का दूसरा अंग है- स्तोत्र पाठ । पूजा से भी कित्येक गुना फल स्तोत्र में है । इसलिये, सुंदर, भाववाही स्तोत्रों द्वारा मन्त्र देवता की स्तुति करनी चाहिये । स्तोत्र पाठ अलग अलग राग में करना चाहिये । मन्त्र साधना का तृतीय अंग है- जप साधना । स्तोत्र से भी करोड गुना फल जप में है, अतः मूल मन्त्र का जाप नियत प्रमाण में अवश्य करना चाहिये । निश्चित्त संख्या का नियम धारण करके जप करना चाहिये । मन्त्र साधना का चतुर्थ अंग है- ध्यान । ध्यान, जाप से ज्यादा फलदायी है । हररोज थोडे समय के लिये क्यों न हो, मन्त्र देवता का ध्यान अवश्य करना चाहिये । मन्त्र साधना का पांचवा अंग है- लय । ध्यान से भी ज्यादा फल 'लय' में है । अपने मन की समस्त प्रवृत्तियों को मन्त्र देवता में लय (विसर्जित) कर देनी चाहिये । इस प्रकार करने से कालान्तर में 'सिद्धी' प्राप्त की जा सकती है । मंत्र विशारदों ने मन्त्र साधना को पाँच विभागों में विभक्त की है । . उन्होंने उसका स्वरुप इस प्रकार माना है । १) अभिगमन : मन्त्र साधना हेतु निश्चित किये हुए स्थान पर जाकर उसकी शुद्धि करनी चाहिये । वे २) उपाधन : मन्त्र साधना हेतु जो भी उपकरणों की जरुरत होती है, बटोर लेवे (इकट्ठी करे) । ३) इज्या : भूतशुद्धि, प्राणायाम तथा न्यासपूर्वक मन्त्र देवता की विविध उपचारों द्वारा पूजा करनी चाहिये । ४) स्वाध्याय : मन्त्र का विधिपूर्वक जप करना चाहिये । ५) योग : मन्त्र देवता का ध्यान करना चाहिये । 'आत्म-सिद्धी' तक पहुंचने के लिये इन साधनों का उपयोग आवश्यक है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४३ श्री सरस्वती साधना विभाग माँ सरस्वती का दिव्य स्वरुप ज्ञान-विज्ञान, साहित्य तथा विविध प्रकार की कलाओं की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती है, जो हंसवाहिनी है । 'हंस' शब्द ज्ञान और विवेक के अर्थ मे होने से ज्ञानी को 'हंस' शब्द से भी संबोधित किया जाता है । माता सरस्वती के दोनों हाथों में वीणा रहती है, तो तीसरे हाथ में मोती की माला और चौथे में आगम की पोथी। जो व्यक्ति पूर्ण समर्पित भाव से ज्ञान की साधना करता है, कला की सिद्धी के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहता है, माँ सरस्वती उसे अवश्य वरदान देती है । वाणी की देवी होने से, उन्हे 'वागिश्वरी' तथा श्वेतवस्त्रधारिणी होने से उन्हें 'शारदा' नाम से भी जाना जाता है | माँ शारदा की कृपा से मूर्ख भी पण्डित बन जाता है। कोई भी जाती,धर्म, वंश का व्यक्ति माँ सरस्वती का कृपा-पात्र हो सकता है, जरुरत है केवल सच्ची श्रद्धा की । जिसके उपर माँ सरस्वती की कृपा हो जाती है, वह कम समय में भवसागर पार कर सकता है | श्रुत, वागेश्वरी, गीर्वाणी, वीणा-पाणी, शारदा, त्रिपुरा, ब्रह्माणी आदि उनके १०८ नाम है । वह कमल पर भी विराजमान रहती है । ऐसे माँ सरस्वती के चरणों में हम प्रार्थना करें 'हे शारदे माँ ! हे शारदे माँ ! अज्ञानता से हमे तार दे माँ !' श्री सरस्वती माता के चमत्कारी मंत्र १) एँ नमः । (मूल बीज-मंत्र) २) ॐ ह्रीँ नमो अरिहंताणं वद वद वाग्वादिनि स्वाहा । ३) ॐ क्लीं वद वद वाग्वादिनी ! ह्रीँ नमः। ४) ॐ ह्रीं श्रीं ऐं हंसवाहिनी मम जिव्हाग्रे आगच्छ आगच्छ स्वाहा । ५) ॐ ह्रीँ श्रीँ श्रीँ अ॒ श्रः हं तं यः यः ठः ठः ठः सरस्वती भगवती विद्या प्रसादं कुरु कुरु स्वाहा । ॐ ह्रीं सरस्वत्यै नमः Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४४ श्री सरस्वती साधना विभाग वंदनापापनिकंदना.... • शरद पूर्णिमा के चाँद समान संपूर्ण बदनवाली, __हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • श्रेष्ठ निर्मल कमल के पत्र सदृश दीर्घ लोचन (आँख) वाली, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • मोती का हार, सरोवर में स्थित हंस, कुंद नामके उज्जवल पुष्प एवं चाँद समान श्वेतवर्णवाली, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • अत्यंत उज्ज्वल लता (पुष्प) है हाथ में जिसके, ऐसी हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • रत्नों और सुवर्ण से अलंकृत किये हुए सुंदर कंठवाली, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • सभी भाषाओं के विषय में वाणी स्वरूप से फैली हुई, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • भक्तजनों द्वारा नमस्कृता तथा जगत के सभी जीवों के अज्ञानरुपी अंधकार को दूर करनेवाली, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • शास्त्रकी अत्यंत उत्तम पुस्तकें स्थापन है कर (हाथ) में जिसके, ऐसी, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • जिनेश्वर भगवंत के मुख-कमल में उत्पन्न हुई, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । - दिव्य ज्ञानियों से ज्ञात हुआ है रहस्य जिसका, ऐसी, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • नमन किये हुए सकल जनके चित्तके लिये अचिंत्य चिंतामणी सदृश, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • मिथ्यात्त्वरूपी अंतर - शत्रुओं का नाश करने में चतुर, ऐसी, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • पतित को पावन और मूर्ख को पंडित बनानेवाली, हे शारदा मैया ! तुझे नमस्कार हो । • श्री सम्यग्ज्ञान की ज्योति-स्वरुप, ऐसी हे शारदा मैया ! • हे गौरी ! हे जोगेश्वरी ! हे भुवनेश्वरी ! हे वागिश्वरी ! हे सरस्वती ! तुझे मेरा अनंत नमस्कार हो ! • माता ! तेरे अंतर - आशिष सदा मुझपर बरसते रहे और तेरा 'वरदान' प्राप्त करने के लायक मैं बन जाऊँ यही मनोकामना... Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४५ श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती साधकों को संदेश समयग्-ज्ञान की उपासना, ज्ञानवरणीय कर्मो की निर्जरा एवं स्मरणशक्ती की बौद्धिक निर्मलता के लिए 'माँ सरस्वती' की जाप-साधना श्रेष्ठ अनुष्ठान है। जो मन्दबुद्धि है, बोलने में तुतलाते है, जिनके अस्पष्ट या अशुद्ध उच्चारण है, जो अपनी बात सही तरीके से समझा न पाते है, जिनकी स्मरण-शक्ति कमजोर है, जिन्हें बुरे या दुर्विचार आते है अथवा ज्ञान के प्रति जिनकी रुचि न जगती है-ऐसे लोग सरस्वती जाप-साधना में अवश्य जुडे । स्मरण रहे कि माँ सरस्वती की जाप-साधना एक सात्विक व सम्यक् साधना है और इसका कोई बुरा प्रभाव नहीं पडता | मंत्र की सिद्धि व साधना की फलश्रुति के लिए १,२५,००० (सव्वा लाख) जप करने का लक्ष्य रखें । उससे कम ५१,००० (इक्यावन हजार), २७,००० (सत्ताईस हजार) अथवा १२,५०० (बारा हजार पांचसो) जाप का लक्ष्य तो रखा हो जाना चाहिए । उच्चारण पूर्वक जाप न करें, कोशिश करें कि जाप के दौरान होंठ व जीभ भी न हिलें; यह जाप की श्रेष्ठ प्रक्रिया है और उससे जाप अधिक सार्थक होते है। किसी भी स्थान पर या किसी व्यक्ति के समक्ष मंत्र की चर्चा हरगीज न करें । स्मरण रहें कि मंत्र की चर्चा मंत्र की सिद्धि में बाधक होती है । साधना के दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करें, आहार पर संयम रखें और व्यसन मुक्त रहें । साधना-काल के दिनों में क्रोध, अभिमान, माया-कपट, लोभ, ईर्षा व राग-द्वेष से बचते हुए मन को निर्मल रखने का प्रयास करें । अधिक से अधिक मौन रखें, गलत स्थानों व गलत व्यक्तियों से दूर रहें और इस प्रकार साधना की उपलब्धियों की अनुभुति करें । • साधना के साफल्य के लिए शक्ति व भावना हो तो उपवास, अन्यथा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग आयंबिल, एकासणा या बियासणा का पच्चक्खाण करें । यद्यपि तप करने का सामर्थ्य न हो, तो, कम से कम नवकारसी करे तथा रात्रि भोजन त्याग करे। जाप के लिए नये अथवा धुले हुए सफेद वस्त्रों का परिधान आवश्यक है। साधको ने बैठने के लिए ऊन का सफेद कटासना (आसन) व सफेद माला का उपयोग करना चाहिए | कोशिश की जाये कि उस सफेद कटासने व माला का उपयोग केवल सरस्वती के जाप के लिए ही हो; अन्य किसी साधना के लिए न हो । इससे जाप साधना को पुष्टी मिलती है । मोती, स्फटीक अथवा सूत की माला भी उपयोग में ली जा सकती है। माला पर जाप न करने के इच्छुक साधक उंगलियों पर जाप कर सकते है। सा 103iHV श्री सुध उधर्म आगम म दर्शन नव्या-मओवर-me-sui, सिबा a gard-cul, માં જિગાણસર Hd, નમામિ નિર્ચ વિશ્વભd. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४७ श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती-साधनाशुद्धि मंत्र जप शुरु करनेसे पहले अति आवश्यक सामान्य विधी याने साधना शुद्धि। १) किसी भी प्रकारके देव-देवीयों के मंत्र जप की शुरुआत करने से पहले गुरु म.सा. की आज्ञा या अनुभवी बुजुर्गों की संमती लेवे । २) कोई भी मंत्र की शुरुआत दिनशुद्धी, चंद्रबल आदि देखके श्रेष्ठ समय पर शुरु करें। ३) मंत्र साधना हेतू तीर्थभूमी, वनप्रदेश, पर्वत, शिखर, नदीतट अथवा मंदिर-उपाश्रय या घर के एकांत स्थानपर जहाँ शांति, स्वच्छता तथा . स्वस्थता हो, वहां जप करें। ४) प्रभु या इष्ट देव-देवीयों के प्रतिमा की पूर्व दिशा मे विधीपूर्वक स्थापना करके जप करें। ५) जप दरम्यान संपूर्ण मौन रखें और शांत चित्त बनायें । ६) जप करने से पहले जगह शुद्ध करें, शुद्ध (कोरा) वस्त्र पहनें । ७) धूप-दीप तथा सुगंधित वातावरण के बीच जप चालू करें । ८) किसी भी मंत्र की शुरुआत करने से पहले कम से कम एक बांधी (१०८) नवकार महामंत्र की माला गिनें । ९) माँ सरस्वती देवी की साधना करने से पहले पवित्र स्थान पर भगवान महावीरस्वामी, गौतमस्वामी और माँ सरस्वती देवी की मूर्ती या आकर्षक फोटो सुंदर लगें, इस प्रकार रखें । उनकी स्थापना ऐसी करें कि जहां से वे न गिर जाय और वापस रखना न पडे । देवीकी पीठीका रचें । १०) मंत्र जप स्फटिक या सूत की माला से करें । इस माला से कोई अन्य मंत्र का जप न करें या किसी अन्य व्यक्ति को वह जप करने न देवे | ११) जप की दिशा-पद-आसन-माला-समय एक ही निश्चित रखें । खास कारण विना फेरफार न करें । १२) जप की जो भी संख्या निश्चित की हो, उतनी नित्य अखण्ड गिनें । बीच मे एक भी दिन खाली न जायें, इस पर खास ध्यान रखें । १३) जप करते वक्त हो सकें तो पद्मासन में, नही तो सुखासन मे बैठकर दृष्टी प्रतिमा सन्मुख या नासिकाग्र पर स्थिर कर के जप करें । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ माँ सरस्वती __ श्री सरस्वती साधना विभाग १४) मंत्र जप करते मन मे उद्वेग या खिन्नता न रखें । कलुषित मन से किया हुआ जप निष्फल जाता है। १५) जप उतावलेपन से या अस्पष्ट उच्चार से न करें, भले ही जप थोडा हो, किन्तु शुद्ध और प्रसन्न मन रहें, इस तरह नियमित करें । १६) जप करते बीच मे खण्ड पडें, अखंड न होवे तो वह त्रुटित गिना जाता है। इसलिए अखण्ड (कोई दिन जप बिना न जायें ऐसे) गिने । यदि कोई दिन, जप बिना जाय तो दूसरे दिन शुरु से गिनें । १७) जप करते वक्त दोनों होंठ बंद रखे, तथापि दांत को दांत न लगें और शरीर सीधा और स्थिर रखें । १८) मंत्र जप की शुरुआत श्रेष्ठ मुहूर्त पर सूर्य स्वर (अपने दायें नासिका से श्वास चलता हो तब) चलते वक्त प्रबल संकल्प के साथ करें, त्वरित सिद्धी प्राप्त होती है। १९) कोई भी मंत्र गुरुमहाराज से विधिपूर्वक ग्रहण करने के बाद कम से कम १२,५०० बार उसका जप करें । सवा लाख जप अवश्य फल देता है और उससे ज्यादा हो, तो अधिक ही अच्छा । (यदि उपरोक्त नियम पालनपूर्वक हो तो...) २०) जप काल मे साधा, सात्विक और हलका आहार लेवें । अभक्ष्य , कंद मूल, तामसी या बाजार के खाद्य चिजों को एवं रात्रि भोजन को अवश्य त्यागे तथा ब्रह्मचर्य का पालन करें | २१) आराधना शुरु करने पूर्व 'श्री तीर्थंकर गणधर प्रसादात् एषः योगः फलतु मे श्री लब्धिधरगौतम कृपया च' यह पद तीन बार और 'इमं विजं पउंजामि सिज्झउ मे पसिज्झउ' यह पद एक बार बोलें, फिर जप शुरु करें । इससे जप सफल होता है। जप पूर्ण होने के बाद क्षमायाचना किंजिये । २२) साधना सिद्धीके सहायक अंग १) दृढ निर्णय २) श्रद्धा-स्वजप में विश्वास बाहुल्य ३) शुद्ध आराधना ४) निरंतर प्रयत्न ५) निंदावृत्ति त्याग ६) मितभाषा ७) अपरिग्रह वृत्ति ८) मर्यादा का पूर्ण पालन वगैरे... Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ४९ श्री सरस्वती साधना विभाग माँसरस्वती संवेदना ओ माँ सरस्वती...! ओ माँ भगवती...!! ओ माँ श्रुतदेवी !!! चरण कमल में अंतरकी अक्षय-अनंत-अनंतानंत वंदना... माँ ! तुझे देखता हूँ और दुनिया भुल जाता हूँ। तेरे दर्शन मात्र से मैं अपने आपको भुल जाता हूँ। तेरा संस्मरण होते ही मेरे रोम-रोम में अनंत शुभ स्पंदनों का अनोखा आविष्कार होता है। हे शारदे ! सच कहुँ तो, आज तक मैने तेरी अवगणना, उपेक्षा, विराधना कर-करके बडी घोर आशातना की है। माँ ! तेरा यह बालक जैसा भी है, लेकिन तेरा ही है । अगर, तुं मुझे छोड देगी, धिक्कारेगी, तो मैं कहाँ जाऊंगा ? .. मेरे मनकी वेदना-संवेदना किसको कहुँगा ? नहि, माँ ! नहिं... मुझे इस दुःख और दोषरुप संसार से बचावो...मुझे सदबुद्धि दो...सन्मार्ग दो... सदगति और परमगति दो...हमारा मन निर्मल-निर्दभ-निर्मम-निष्पाप बने...हमारा जीवन हमेशा पवित्रमय, आराधना-साधनामय, उल्लासमय, मंगलमय, प्रसन्नतामय, परोपकारमय, सुख-शांति-समाधिमय, कृतज्ञतामय, जिनाज्ञा-गुर्वाज्ञा-शास्त्राज्ञामय एवं कर्म निर्जरामय बने ऐसी सन्मति का वरदान दो... पा ... तेरे आशीर्वाद के प्रभावसे... • हमारा तन सद्कर्तव्यों से सुवासित बने... • हमारा मन सद्विचारों का भंडार बने... हे अम्बे ! तेरी साधना एवं भक्ति के फल स्वरुप अन्य कुछ अपेक्षित नहि है। बस, हमेशा तेरा वरद-हस्त मेरे नत-मस्तक पर स्थिर रहे । मैं तेरा कृपापात्र बन सकु ऐसी शक्ति देना। तेरी कृपासे जीव मात्र के समस्त पापों का नाश हो...ॐ शान्ति । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ५० श्री सरस्वती साधना विभाग श्री सरस्वती साधना की दैनिक विधि १) समुह ३-नवकार २) चत्तारी मंगलं पाठ ३) अर्हन्तो भगवंत-स्तुति ४) परमात्मा की ३-स्तुति ५) हे शारदे मां-स्तुति ६) अन्य सरस्वती स्तुति एवं शारदा वंदना... ७) श्रुतज्ञान/श्रुतदेवी की अष्ट प्रकारी पूजा (बीच-बीचमें स्तवन) ८) सम्यग्ज्ञान की स्तुति ९) इरियावहि से लोगस्स १०) ५ लोगस्स का काउसग्ग ११)ज्ञानके ५ खमासमणे १२) सरस्वती-जाप पूर्वकी मांत्रिक-विधि १३)'एँ नमः' की १/५ माला १४) अंतिम प्रार्थना-संवेदना-ध्यान १५)भक्तामर की ५/६/१५ वी गाथा-(३ बार) १६)श्रुतज्ञान एवं सरस्वती आरति १७)विसर्जन विधि-सर्व मंगल १८)वासक्षेप पूजा करके समाप्ति... विशेष : अगर यह साधना १-दिन से अधिक एवं समुह में हो तो इतना अवश्य ख्याल रखे । प्रतिदिन१) अष्टप्रकारी पूजा के पूर्व प्रवचन एवं विविध चढावे हो सकते है । २) अष्टप्रकारी पूजा के पश्चाद् ज्ञानवर्धक सूचनाए देनी चाहिए । ३) 'ऐं नम:' का जाप करते एकाग्रता बढाने हेतु दोनो आँखों पर पट्टी बांध सकते है। ४) बीच-बीचमें विविध स्तुति-सत्वन-भक्ति गीत-धून लगा सकते है। ५) विविध मुद्राओं में जाप करा सकते है । ६) विभिन्न यंत्र-मंत्र-औषधिओं का तथा मंत्रगर्मित सरस्वती स्तोत्र का सदबुद्धि वर्धक प्रभाव एवं विशिष्ट रहस्य समझा सकते है । ७) श्रुतज्ञान एवं श्रुतदेवी की पूजार्थे क्या-क्यां सामग्री लाना एवं अन्य जरुरी बातों की सूचनाएँ अवश्य देनी चाहिए। ८) प्रतिदिन मंत्रगर्मित विविध सरस्वती स्तोत्र सुना सकते है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ५१ माँ सरस्वती की विशिष्ट पूजा १) प्रथम सामुहिक ३ नवकार गीने । (देखो पृष्ठ क्र. ६२) २) पश्चात् 'अर्हन्तो भगवंत इन्द्र महिता' स्तुति द्वारा पंच परमेष्ठि की स्तुति करें । ३) पश्चात् 'चत्तारी मंगलं... चत्तारी लोगुत्तमा... चत्तारी सरणं' का स्मरण करे | श्री सरस्वती साधना विभाग ४) पश्चात् (कोई भी ५) भाववाही प्रभु-स्तुति बोले और... अष्टप्रकारी पूजा करे ५) तीर्थंकर परमात्मा की अष्टप्रकारी पूजा याने १) जल पूजा, ३) पुष्प पूजा ५) दीपक पूजा ७) नैवेद्य पूजा । २) चंदन पूजा ४) धूप पूजा ६) अक्षत पूजा ८) फल पूजा श्रुतदेवी माँ शारदा की पूजा विधि १) माँ शारदा की मूर्ति (फोटो अथवा यंत्र) पूर्व या उत्तरदिशा में स्थापन करे | २) माँ शारदा की स्तुति - स्तवनादि करके भावपूर्वक अष्टप्रकारी पूजा प्रारंभ करे | ३) महामंत्र गर्भित श्री सरस्वती स्तोत्र की गाथा बोलते हुए अष्टप्रकारी पूजा करे । १ श्लोक...मंत्र...२७ डंके... और क्रमसे एक-एक पूजा इस विधि से स्वद्रव्य एवं श्रेष्ठ द्रव्य से (हो सके तो नित्य) अष्टप्रकारी पूजा करे । १) जल पूजा श्लोकः ॐ ऐं ह्रीँ श्रीँ मंत्र रुपे, विबुध जन नुते, देव देवेन्द्र वंद्ये, चंच च्चंद्रा वदाते, क्षिपित कलि मले, हार- नीहार गरे । भीमे भीमाट्ट हास्ये, भव भय हरणे, भैरवे भीम वीरे, हाँ ह्रीँ हूँकार नादे, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ||१| मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीँ सरस्वती देव्यै जलं समर्पयामि स्वाहा । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग | २) चंदन पूजा श्लोकः हा पक्षे बीज गर्भे, सुर वर रमणी, चर्चिता नेकरुपे, . कोपं वं झं विधेयं, धरित धरि वरे, योग नियोग मार्गे । हं सं सः स्वर्ग राज, प्रति दिन नमिते, प्रस्तुता लाप पाठे. दैत्येन्द्र या॑यमाने, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ||२|| मंत्र : ॐ ह्रीँ श्री सरस्वती देव्यै चंदनं समर्पयामि स्वाहा । [३) पुष्प पूजा श्लोकः दैत्यै दैत्यारि नाथै, नमित पद युगे, भक्ति पूर्व स्त्रि सन्ध्यम्, यक्षैः सिद्धेश्च नमै, रह मह मिकया, देह कान्तिश्च कान्तिः । आँ इँ ॐ विस्फुटाभा, क्षर वर मृदुना, सुस्वरेणा सुरेणा त्यन्तं प्रोद्गीय माने, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ॥३॥ मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीँ सरस्वती देव्यै पुष्पं समर्पयामि स्वाहा । [४) धूप पूजा श्लोकः क्षाँ क्षी यूँ क्षः स्वरूपे, हन विषम विष, स्थावरं जंगमं वा, संसारे संसृतानां, तव चरण युगे, सर्व कालं नराणाम् । अव्यक्ते व्यक्त रूपे प्रणत नर वरे, ब्रह्म रुपे स्वरूपे, ऐं ऐं ब्लूँ योगिगम्ये, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ||४|| मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीँ सरस्वती देव्यै धूपं आघ्रापयामि स्वाहा । |५) दीपक पूजा श्लोकः सम्पूर्णा त्यन्त शोभैः, शश धर धवलै, र्रास लावण्य भूतैः, रम्यैः स्वच्छैश्च कांतै, निज कर निकरै, चंद्रिका कार भासैः । अस्माकिनं भवाब्जं , दिन मनु सततं, कल्मषं क्षालयन्ती, आँ श्रीँ यूँ मंत्र रुपे, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ।।५।। मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं सरस्वती देव्यै दीपं दर्शयामि स्वाहा । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ५३ श्री सरस्वती साधना विभाग ६) अक्षत पूजा श्लोक भाषे पद्मासनस्थे, जिन मुख निसृते, पद्म हस्ते प्रशस्ते, प्राँ प्री | प्रः पवित्रे, हर हर दुरितं, दुष्टजं दुष्ट चेष्टं । वाचां लाभाय भक्त्या, त्रि दिव युवतिभिः, प्रत्यहं पूज्य पादे, चंडे चंडी कराले , मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ।।६।। मंत्र : ॐ ह्रीँ श्रीँ सरस्वती देव्यै अक्षतं समर्पयामि स्वाहा । |७) नैवेद्य पूजा श्लोक नम्री भूत क्षितीश, प्रवर मणि मुकुटोद्, घृष्ट पादार विंदे, पद्मास्ये पद्म नेत्रे, गज गति गमने, हंसयाने विमाने । कीर्तिश्री बुद्धि-चक्रे, जय विजय जये, गौरी गंधारी युक्ते, ध्येया ध्येय स्वरूपे, मम मनसि सदा, शारदे देवि तिष्ठ ||७|| मंत्र : ॐ ह्रीँ श्री सरस्वती देव्यै नैवेद्यं समर्पयामि स्वाहा । [८) फल पूजा प्लोक विद्य ज्ज्वाला प्रदिप्ता, प्रवर मणि मयी, मक्ष मालां सुरूपां, रम्या वृत्ति र्धरित्री, दिन मनु सततं, मंत्रकं शारदं च । नागेन्द्र रिन्द्र चन्द्रे, मनुज मुनि जनैः संस्तुता या च देवी, कल्याणं सा च दिव्यं, दिशतु मम सदा, निर्मलं ज्ञान रत्नम् ।।८।। मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं सरस्वती देव्यै फलं समर्पयामि स्वाहा । अंतिम प्रार्थना श्लोक कर बदर सदृश मखिल, भुवतलं यत् प्रसादतः कवयः । पश्यंति सूक्ष्म मतयः, सा जयति सरस्वती देवी ।।९।। (अंत में सरस्वतीजी की आरती उतारें।) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ५४ श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती देवी की आरती । - जय वागीश्वरी माता, जय जय जननी माता पद्मासनी ! भवतारीणी ! अनुपम रस दाता जय वागीवरी माता...१ हंसवाहिनी जलविहारिणी, अलिप्त कमल समी (२) हो देवी इन्द्रादि किन्नरने (२) सदा तुं हृदये गमी जय वागीधरी माता...२ . तुज थी पंडीत पाम्या, कंठ शुद्धि सहसा (२) हो देवी यशस्वी शिशुने करतां (२) सदा हसितमुखा जय वागीश्वरी माता...३ . ज्ञान ध्यान दायिनी, शुद्ध ब्रह्म रुपा (२) हो देवी, अगणित गुणदायिनी (२) विश्वे छो अनूपा जय वागीश्वरी माता...४ उर्ध्वगामिनी माता तुं, उर्चे लई लेजे (२) हो देवी... जन्ममरणने टाळी (२) आत्मिक सुख देजे जय वागीश्वरी माता...५ रत्नमयी ! 'एँ' रूपा, सदा य ब्रह्म प्रिया (२) हो देवी... कर कमले वीणा थी (२) शोभो ज्ञान प्रिया जय वागीश्वरी माता...६ . दोषो सहना दहतां दहतां, अक्षय सुख आपो (२) हो देवी साधक इच्छित अपी (२) शिशु उरने तर्पो जय वागीवरी माता...७ जैन साहित्य के विशिष्ट ज्ञान भंडार कहाँ-कहाँ? पालीताणा २) खंमात अहमदाबाद ४) कोबा (गांधीनगर) सुरत ६) लिमडी आग्रा ८) पूना जेसलमेर १०) पाटण जामनगर १२) उज्जैन बेंगलोर १४) कलकता मुंबई १६) जर्मनी १३) १५) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग श्री सरस्वती देवी के साधना जप करने पूर्व सेवारुप मांत्रिक क्रिया विधि • स्नानादि से पवित्र होकर और शुद्ध वस्त्र परिधान करके माँ के छबी को भावपूर्ण नमस्कार करें । इमं विइजं पउंजामि सिज्झउ मे पसिज्झउ यह पद एक बार बोलकर मनपसंद ४-५ स्तुति बोले, बाद में इरिया वहिया करें, सुखासन में बैठे (शरीर ढीला रखें) नीचे के मंत्र का तीन बार उच्चारण करें। श्री तीर्थंकरगणधर प्रसादात् एषः योगः फलतु मे, सर्वलब्धिधर गौतम कृपया च • बाद मे साधक, माँ सरस्वती के मूर्ति या चित्र को केशर से तिलक करें । हाथ में वासक्षेप लिये, अन्य देव-देवियों की सहायता हेतू निम्न मंत्र बोलें । मंत्र ॐ नमो अरिहंताणं भगवईए सुअदेवयाए संतीदेवीए चउण्हंलोगपालाणं नवण्हं गहाणं दसण्हं दिग्पालाणं षोडषविज्जादेवीओ थंभनं (स्तम्भनं) कुरु कुरु ॐ ऐं अरिहंत देवाय नमः स्वाहा। • आराधना मे शुद्धि की नितांत आवश्यकता होती है । अतः भूमि शुद्धि मंत्र : वासक्षेप हाथ मे लेके 'ॐ भूरसि भूतधात्रिः सर्वभूतहिते भूमिशुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।। धेनु मुद्रा में : 'ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवाहिनी अमृतवर्षिणी अमृतं स्रावय स्रावय ऐं क्लीं ब्लूँ द्राँ द्रीं द्रावय द्रावय स्वाहा । ऐसे बोलके अमृत घट की कल्पना किजीये । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ५६ पंचाक्षर मंत्र स्थापना हाँ ह्रीँ हूँ अंगुठा तर्जनी मध्यमा अरिहंत सिद्ध आचार्य श्री सरस्वती साधना विभाग अनामिका उपाध्याय हः कनिष्ठ साधु इस प्रकार पंच परमेष्ठि का चिंतन किजीये और तीन बार उस उस उंगली पर हाँ ह्रीँ.... बोलते हुए मंत्र स्थापना करें । पंचांग स्नान मंत्र हथेली मे समस्त तीर्थोंका पवित्र जल है, ऐसा संकल्प करके मस्तिष्क से लेकर चरण के तल तक निम्न मंत्र बोलकर भावस्नान करें । ॐ अमले विमले सर्वतीर्थजले पाँ वाँ इवीं क्ष्वीं अशुचिः शुचिर्भवामि स्वाहा ॥ वस्त्र शुद्धि मंत्र वस्त्रोंपर हाथ फिराते निम्न मंत्र बोलें । ॐ ह्रीँ इवीँ क्ष्वीं पाँ वाँ वस्त्र शुद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ॥ हृदयशुद्धी मंत्र ॐ विमलाय विमलचित्ताय इवीं क्ष्वीं स्वाहा ॥ | कल्मष दहन मंत्र भुजाओं को स्पर्श करते हुए निम्न मंत्र बोलें । ॐ विद्युत्स्फुलिंगे महाविद्ये मम सर्व कल्मषं दह दह स्वाहा ।। रक्षा मंत्र निम्न मंत्रोच्चार करते हुए उन उन स्थानों पर दाहिने हाथ से स्पर्श करें उतरते-चढते तीन बार करें, अंत में ॐ आता है । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ माँ सरस्वती श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग कु ल्ले स्वाहा मस्तिष्कपर बाये बायी बाये | दाहिने दाहिने दाहिने हाथ के | कुक्षी पर पैर पर | पैर पर कुक्षी पर हाथ के सांधे पर सांधे पर मंत्र प्रभाव से कुस्वप्न, कुनिमित्त , अग्नि , बिजली, शत्रु वगैरे से रक्षा होती है । सकलीकरण पंचतत्त्वभूत शुद्धिमंत्र (तीन बार चढें-उतरें) मंत्र- | क्षि | प | ॐ | स्वा | हा स्थान-| घुटन | नाभी | हृदय मुख शिखा रंग- | पीत | श्वेत | रक्त हरित नील तत्त्व- पृथ्वी जल अग्नि । वायु । आकाश रक्षा कवच (मंत्र बोलते वक्त, मंत्र के नीचे दी हुई क्रिया करें) . ॐ वद वद वाग्वादिनी हाँ शिरसे नमः । (मस्तक पर हाथ फिराये) ॐ महापद्मयशसे हूँ योगपीठाय नमः । ॐ वद वद वाग्वादिनी हूँ शिखायै नमः । (शिखा उपर हाथ रखिये) ॐ वद वद वाग्वादिनी हूँ नेत्र द्वयाय वषट् । (दोनों नेत्र पर हाथ रखें) . ॐ वद वद वाग्वादिनी ह्रौं कवचाय हूँ। | . ॐ वद वद वाग्वादिनी हूँ: अस्त्राय फट् | (अस्त्र मुद्रा करें।) १. आव्हान मंत्र (आह्वान मुद्रा मे) ॐ नमो अणाईनिहणे तित्थयरपगासिए गणहरेहिं अणुमण्णिए, द्वादशांगपूर्वधारिणि श्रुतदेवते ! सरस्वति ! अत्र एहि एहि संवौषट् । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २. स्थापना मंत्र (स्थापना मुद्रा मे ) ॐ अर्हन्मुखकमलवासिनि ! वाग्वादिनि ! सरस्वति ! अत्र तिष्ठ ठः ठः ५८ श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग ३. संनिधान मंत्र (संनिधान मुद्रा में, दोनो हाथों की मुठ्ठी सामने रखकर अंगुठे अंदर रखे) ॐ सत्यवादिनि ! हंसवाहिनि ! सरस्वति ! मम संनिहिता भव भव वषट् । ४. सन्निरोध मंत्र (संनिरोध मुद्रामें अंगुठे बाहर निकाले) ॐ ह्रीँ श्रीँ जिनशासन श्री द्वादशाङ्ग्यधिष्ठात्रि ! श्री सरस्वति देवि ! जापं पूजां यावदत्रैव स्थातव्यम् नमः । ५. अवगुंठन मंत्र (अवगुंठन मुद्रा में, दोनो मुट्ठी सामने रखकर दोनों तर्जनी ऊँगली लम्बी करें 1) ॐ सर्वजणमणहरि ! भगवति ! सरस्वति ! परेषामदीक्षितानां अदृष्यो भवभव ।। इस तरीके से क्रिया पूर्ण किये बाद सरस्वती देवीके स्तवन- भक्तीगीत गायें। फिर मंत्र प्रदान विधी करें । सरस्वती मंत्र प्रदान विधि माँ सरस्वती श्रुतदेवी की छबी के सामने स्तुति करें । इरियावहि से लोगस्स तक बोलकर खमासमणा देकर इच्छाकारेण संदिसह भगवन् श्रुतदेवता आराधनार्थे काऊस्सग करूं ? इच्छं, श्रुतदेवता आराधनार्थं करेमि काऊस्सगं कहकर अन्नत्थ कहकर एक नवकारका काऊस्सग, पारके निम्न थोय बोलें । सुदेवया भगवई नाणावरणीय कम्मसंघायं । तेसिं खवेउ सययं जेसिं सुयसायरे भत्ती फिर खमासमण देवे । • फिर प्राणायम की विधी निम्न लिखेनुसार करें ।.. १) स्वस्थ बनके, दाहिनी नासिका दबाके (बंद करके) बायी नासिका से धीरे धीरे श्वास निकाले । श्वास निकालते समय 'रागात्मकं रक्तवायुं विसर्जयामि' ऐसा बोले । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग २) फिर बायी नासिका दबावें (बंद करे)...धीरे धीरे श्वास निकालें और श्वास निकालते हुए 'द्वेषात्मकं कृष्णवायुं विसर्जयामि'...। ऐसे बोले । ३) फिर, शांत बनके, समता रखके दाहिनी नासिका दबाके, बायी नासिका से श्वास लेवे और लेते वक्त 'सत्वात्मकं शुक्लवायुं आगृह्णामि आधारयामि' ऐसे बोलें । फिर दीर्घ श्वास लेके क्षणभर स्तब्ध रहकर निम्न मंत्र (इष्टजप मंत्र) धारण करें। ॐ ह्रीं क्लीं ब्लूँ श्री हसकल ह्रीं ऐं नमः । फिर तीन बार उच्चार करके, प्रगट बोलिये । हररोज (कम से कम) एक माला गिनें । जप पूर्ण होने के बाद प्रार्थना आरति एवं विसर्जन विधि करे । महाप्रभावी श्री अल्पश्रुतं यंत्र (भक्तामर स्तोत्र-६ठा श्लोक तुटे बंधन... करोवंदन... परिहासधाम न है। भरे मावदा।। Quriuo तच्चारूचूतकलिकानिकरैकहेतुः । बदभक्तिरेय मुखरीकुरुते बलान्माम् ।। लय 2 1 ..!' Patlirtix i : myth Hansgey : - त्रा ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो कुट्टबुद्धीणं । मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीँ श्रीँ श्रृं अः हैं सँ यः यः ठः ठः सरस्वति भगवती विद्याप्रसादं कुरु कुरु स्वाहा । प्रभाव - अनेक विद्याएँ सहज ही आ जाती है वाणी के दोष दूर होते हैं। ___Mastering of Arts & Speech. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६० श्री सरस्वती साधना विभाग महाप्रभावी सरस्वती यंत्र-साधना ८४ | २ | ७ ३३ २६ | ३१ ३ | ८१ | ८० ३० | ३२ २९ | ३४ | २७ ४ | ५ | ७९ | ८२ D सरस्वती सिद्ध यंत्र क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं मंत्र युक्त सारस्वत चिंतामणी । क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं معلم عطا عمل ७४|| ७ १४ २१ २६ | ८५ ८ २८ | ४९९/ ५६ ८ | ५ | ३९ | ५७ । प्रतिदिन नम्र भाव से भावपूर्वक उपर दर्शाये हुए सभी यंत्रों के दर्शन करने से एवं अष्टगंध द्वारा पूजन करने से अपूर्व विद्याप्राप्ती एवं वाक्शक्ति प्राप्त होती है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६१ ३) ४) श्री सरस्वती साधना विभाग एक विशिष्ट साधना 'ऐं नमः सवा लाख समुह जाप विधि १) ३ नवकार से अष्टप्रकारी पूजा तक दैनिक विधि की तरह ही करें । २) पश्चाद्-प.पू. आ. श्री बप्पभट्टीसूरिजी महाराज विरचित 'श्री सारस्वत स्तोत्र' का पाठ करें । मूल मंत्र का दान करें । (शक्यतः) पद्मासन एवं योग मुद्रा अथवा ज्ञान मुद्रामें (समुह ) १०८ बार मूल मंत्र का जाप करे । साथ-साथ (चढावे बोलने वाले) साधक द्वारा सरस्वती-मूर्ति अथवा यंत्र पर श्रेष्ठ १०८ कमल के पुष्पों द्वारा मंत्र जाप दौरान पुष्प-पूजा कराये । ५) पश्चाद्-सरस्वती जाप पूर्व की मांत्रिक विधि करे । ६) अगर १२५ साधक है तो सभी को १००८ श्वेत पुष्प (पुष्प न तो वासक्षेप ) एवं सरस्वती यंत्र अथवा फोटो दिया जाए। (मूल मूर्ति अथवा यंत्र की पुष्प-पूजा का चढ़ावा हो सकता है ।) ७) समुह में 'ऐं नम:' का जाप करते-करते १००८ पुष्पों द्वारा यह अनुपम साधना कर सकते है । (जितने साधक उपस्थित हो, ध्यान में रखकर जप संख्या एवं पुष्प संख्या निश्चित करे ।) पश्चात् शक्य हो तो-सं. ज्ञान की स्तुति काउसग्ग-खमासमण की विधि करे । सभी साधकोंको सरस्वती माताजी का लाल दोरा दे सकते है । (१ साधक को १ ही दोरा देना) । १०) १ नवकार एवं भक्तामर ही ६ठ्ठी गाथा १ बार तथा सरस्वती माताका १ मूल मंत्र जाप करके १ गठान बांधे । इसी क्रम से २७ बार मंत्र जाप तथा २७ गंठान बांधे । ख्याल रखे हर वक्त मंत्र पूर्णहूति के बाद २७ डंके बजाये । ११) २७ गठान बांधने के पश्चाद् इस दोरे को संपुट मुद्रामें (बाया (Left) हाथ नीचे, दाया (Right) हाथ उपर बीचमें दोरा । दोनों हाथों को हृदय के पास रखकर, आंखे बंदकर के शुभ संकल्प पूर्वक ३ नवकार महामंत्र का जाप करे । १२) पुनः गंभीर नादसे एवं भाव से एकाग्रता पूर्वक (१०८) अथवा २७ बार 'ऐं नमः' का जप करे । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ६२) माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग १३) हाथ को ऐसे ही रखते हुए (अगर याद अथवा कंठस्थ है तो) भक्तामर महास्तोत्र की ५/६/१५ वी गाथा का तीन बार स्मरण/रटण करें । १४) श्रुतज्ञान एवं श्रुतदेवी की आरति उतारकर वासक्षेप पूजा अवश्य करें। १५) अंतमें विसर्जन विधि करके सर्व मंगल करे । - अदभूत त्रिवेणी संगम जहाँ गंगा-जमना और सरस्वती जैसी पवित्र महानदी का त्रिवेणी संगम होता है वह संगम-स्थान अपने आप पवित्र 'प्रयाग' एक 'तीर्थ' तुल्य बन जाता है। ___ जी हाँ ! मोक्ष पाने के लिए अर्थात् 'सकल कर्म के विनाशार्थे अथवा केवलज्ञान जैसे संपूर्ण ज्ञान की प्राप्त्यर्थे सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप त्रिवेणी धर्म की साधना-शुद्धि एवं वृद्धि अत्यंत जरुरी है। श्री उमास्वाति वाचक वर्य विरचित श्री तत्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही लिखा है-सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः । • सम्यग् दर्शन + सम्यग् ज्ञान + सम्यक् चारित्र = मोक्ष । सवाल यह है कि अगर इन तीन प्रकार के धर्म के संयोजन से हि मोक्ष प्राप्ति हो सकती है, तो इन तीनों की प्राप्ति-शुद्धि एवं वृद्धि के लिए क्याँ करना चाहिए ? हाँ जी ! नीचे श्रीमान् युगपुरुष श्री मानतुंगसूरीश्वरजी विरचित श्री भक्तामर महास्तोत्र की ५-६ और १५ वी गाथा दी गई है। इन महाप्रभावी एवं महाचमत्कारी गाथा का प्रतिदिन एकाग्रता एवं विधिपूर्वक तथा शुद्धि उच्चारण पूर्वक कम से कम २१ बार (शक्यत: १०८ बार) अगर स्मरण किया जाए, तो निश्चित रुप से द्रव्य एवं भाव दोनों तरह से अवश्यमेव लाभ होगा। १) सम्यग्दर्शन की शुद्धि-वृद्धि एवं आंखो के तेज को बढाने भक्तामर की ५ वी गाथा गिने-सोऽहं तथाऽपि तव भक्ति वशान्मनीश ! कर्तुं स्तवं विगत शक्ति रपि प्रवृत्तः । प्रीत्याऽऽत्म वीर्य-मविचार्य मृगो मृगेन्द्रं; नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपाल नार्थम् ?|| २) सम्यग्ज्ञान की शुद्धि-वृद्धि एवं बुद्धि को सतेज बनाने भक्तामर की ६ट्ठी गाथा गिने-अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम, त्वद् भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान् माम् । यत् कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारू चूत-कलिका-निकरैक हेतुः ॥ ३) सम्यग्चारित्र की शुद्धि-वृद्धि एवं ब्रह्मचर्य का तेज बढाने भक्तामर की १५वी गाथा गिने- चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांग-नाभिर्, नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् । कल्पान्त काल मरूता चलिता-चलेन, कि मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित् ? | Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६३ श्री सरस्वती साधना विभाग 'महाप्रभाविक महाचमत्कारी श्री नमस्कार महामंत्र ॥ णमो अरिहंताणं ॥ ॥ णमो सिद्धाणं ॥ ॥ णमो आयरियाणं || ॥ णमो उवज्झायाणं ॥ ॥ णमो लोए सव्व साहूणं ॥ | एसो पंच णमुक्कारो; सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं; पढमं हवई मंगलं ॥ मंगल पाठ (B) चत्तारी लोगुत्तमा । चत्तारी मंगलं । अरिहंता मंगलं । अरिहंता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । सिद्धा मंगलं । साहू मंगलं । साहू लोगुत्तमा । केवली पन्नत्तो धम्मो मंगलं । केवली पन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो । © चत्तारी सरणं पवज्जामि । अरिहंते सरणं पवज्जामि । सिद्धे सरणं पवज्जामि । साहू सरणं पवज्जामि । केवली पन्नत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६४ श्री सरस्वती साधना विभाग श्रीपंच-परमेष्ठी स्तुति अर्हन्तो भगवन्त ईन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ।। श्री सिद्धान्तसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु वो मंगलम् ।। भाववाहीप्रभु स्तुति हे ! प्रभु ! आनंददाता ज्ञान हम को दीजीये, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हम से कीजीये । लीजीये हमको शरण में हम सदाचारी बने, ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीर व्रतधारी बने ।।१।। . सागर दयाना छो तमे, करुणा तणा भंडार छो, अम पतितोने तारनारा, विश्वना आधार छो । तारा भरोसे जीवन नैया, आज में तरती मूकी , लाख लाख वंदन करूं, जिनराज तुज चरणे झुकी ||२|| जेना गुणोना सिंधुना, बे बिंदु पण जाणुं नहिं, पण एक श्रद्धा दिलमहिं के, नाथ समको छे नहिं । जेना सहारे क्रोडो तरीया, मुक्ति मुज निश्चय सहिं, एवा प्रभु अरिहंतने पंचांग भावे हुं नमुं ।।३।। सबका करो कल्याण, कृपानिधि-सबका... • निरखत तन मन के दुःख मेरे, दुर करो भगवान . कृपानिधिः • महावीर स्वामी करते वंदन , अंतर में तुम ध्यान .. कृपानिधिः • पापों में लयलीन बना हुं, पाया नहिं कुछ ज्ञान .... कृपानिधिः • ज्ञान बिना मैं भव-भव भटकुं, लाओ आतम भान ... कृपानिधि० • तुम भक्ति के पुण्य प्रभाव से, प्रगटो केवलज्ञान .... कृपानिधिः • शिवमंगल सब जीवों का हो, प्रियदर्शन भगवान ... कृपानिधि० Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६५ श्री सरस्वती साधना विभाग श्री सरस्वती स्तुति विभाग हे शारदे मां-प्रार्थना हे शारदे माँ, हे शारदे माँ, अज्ञानता से हमे तार दे माँ, . तूं स्वरकी देवी, ये संगीत तुझसे; हर शब्द तेरा, हर गीत तुझसे, हम है अकेले, हम है अधुरे; तेरी शरण में हमें प्यार दे माँ... ||१|| मुनिओंने समझी, गुणीओंने जाणी; संतोकी भाषा , आगमोंकी वाणी, हम भी तो समझे, हम भी तो जाणे, विद्याका हमको अधिकार दे माँ... ||२|| • तूं श्वेतवर्णी, कमल में बिराजें; हाथोंमें वीणा, मुकुट शिरपें छाजें, मनसे हमारे, मिटा दे अंधेरा; हमको उजालों का परिवार दे माँ...||३|| श्री सरस्वती स्तुति श्री श्रुतदेवी सरस्वती भगवती, हमको वर देना तूं माँ, जीवन की बांसुरी में देवी, श्रद्धा का स्वर भर देना । सम्यग्ज्ञान का दीप जलाकर, मनका तिमिर हटाना माँ, ना भूले ना भटके माता, ऐसी राह बताना माँ । जेना नाम स्मरणथी...| (राग : स्नातस्या प्रतिमस्य) . जेना नाम स्मरणथी अबुधना, कष्टों बधा नासता, जेना जाप करणथी विबुधना, कार्यो सदा शोभता, जेना ध्यान थकी मळे भविकने, पुन्यौघनी संपदा, भावे ते श्रुत शारदा चरणमां, होजो सदा वंदना...(१) . जे विलसे सचराचर जगतमां, हंसाधिरुढा बनी, शोभे पुस्तक पंकजे ग्रही थकी, मौक्तिक माला वळी, विद्या वाणी प्रमोदने यशः दई, कामितने पूरती. भावे ते श्रुत शारदा चरणमां, होजो सदा वंदना...(२) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती तीर्थंकर मुख सेवती भगवती, विख्यात जे लोकमां, भंजे संशय लोकना तिमिरने, जैनेश्वरी जोड ना, पूजे दानव-मानवो लळी लळी, पापो तूटे थोकमां, भावे ते श्रुत शारदा चरणमां, होजो सदा वंदना... .(३) ६६ श्री सरस्वती साधना विभाग श्वेतांगी श्वेतवस्त्रा... (छंद : स्रग्धारा (राग) आमूलालोलधूली बहुल) श्वेतांगी श्वेतवस्त्रा धवल कमलमां, ज्ञान मूर्ति प्रतापी, क्षीराब्धि रंक लागे विमल मुख विभा, सौ दिशे भव्य व्यापी ॥ शोभे श्वेतानभे शी ? शरदविधु तजे, गर्व सौन्दर्य केरो, माता वागीश्वरीना चरण युग नमी, हर्ष पामुं अनेरो...॥१॥ वीणाना तार छेडे मृदूमृदू कवने, संगीते मस्त लागे, ग्रंथे शोभा प्रसारी धवल तम भुजा, भाव वैविध्य जागे ।। अज्ञानी ज्ञान पामे मनुज पथ विषे, ज्ञानना पुष्प वेरो, माता वागीश्वरीना चरण युग नमी, हर्ष पामुं अनेरो.... ॥२॥ माला हस्ते प्रकाशे स्फटिक मणि तणी, जापथी दुःख टाळे, इन्द्रादि स्तोत्र गाये परम सुख वरे, ज्ञानना पंथवाळे || आशा सौ पूर्ण थाये उर तमस हरो, व्यापती ज्ञान ल्हेरो, माता वागीश्वरीना चरण युग नमी, हर्ष पामुं अनेरो... ॥३॥ पृथ्वी वायु नभेथी अनल जल तणा, पंच तत्त्वे रचाये, पृथ्वीना मानवी जे तुज भजन करी, देवता रुप थाये ॥ टाळो हे दिव्यमाता ! मुज हृदय वश्यो, मोह अंधार घेरो, माता वागीश्वरीना चरण युग नमी, हर्ष पामुं अनेरो...॥४॥ तारो सर्वत्र गाजे विजय दश दिशे, दिव्य ज्योति प्रकाशी, पापो तापो ज टाळो विमल वदन हे, शारदे ! ज्ञानराशी || दिव्यानंदे जे राचे अहर्निश करे, पाठ जे शास्त्र केरो, माता वागीश्वरीना चरण युग नमी हर्ष पामुं अनेरो... ||५|| Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६७ श्री सरस्वती साधना विभाग | दीठी दीठी अमृत झरती...| (राग : आजे पाम्यो परम पदनो...) दीठी दीठी अमृत झरती , अंग प्रत्यंग देवी, मीठी मीठी सकल जननी, मात वागीश्वरीजी लीधी लीधी चरण युगनी, सेवना पुण्यकारी कीधी कीधी अंतःकरणथी, वंदना भाव धारी...(१) . जीत्यां जीत्यां अखिल जगना, मान ने काम गाळी मीट्यां मीट्यां सरल जीवना, मोह अंधार खाळी खुल्यां खुल्यां भविक गणना, सत्यना द्वार माडी, मील्यां मील्यां सकल सुखना, सार तारी कृपाथी...(२) कीजे कीजे अबुध शिशुने, प्रेरणा सत्य कीजे दीजे दीजे परम पदनी, जिंदगी एवी दीजे गीते गीते हृदय मननां; ठाल, भाव गीते लीजे लीजे विनति उरमां, मात आजे ज लीजे...(३) संस्कृतस्तुति (राग : स्नातस्या प्रतिमस्य...) या कुन्देन्दु तुषार हार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता, या वीणा वर दण्ड मण्डित करा, या श्वेत पद्मासना । या ब्रह्माच्युत शंकरः प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती, निःशेष जाड्याऽपहा ।। (१) • शुक्लां ब्रह्म विचार सार परमां, आद्यां जगत् व्यापिनीम् । वीणा पुस्तक धारिणी अभयदां, जाड्यान्धकारा पहाम् ।। हस्ते स्फटिक मालिकां विदधतीं, पद्मासने संस्थिताम् । वन्दे तां परमेश्वरी भगवती, बुद्धिप्रदां शारदाम् ।। (२) • कुंदिदु गोक्खीर तुसार वन्ना, सरोज हत्या कमले निसन्ना - . वाएसिरी पुत्थय वग्ग हत्था, सुहायसा अम्ह सया पसत्था ।। (३) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६८ श्री सरस्वती साधना विभाग ENGLISH STUTIS इंग्लिश स्तुति (1) S for O my 'Saraswati !' Be with me in every 'gati' Never forget naughty son, you are mother super one. (2) Save me Saraswati Mata, show me true way o'mata ! How to walk in blakish night, give me your super light. (3) Flowing water I have seen, make my heart so pure and clean, Saraswati ! wash my dirty mind, remove dust of every kind. (4) So many stars are in the sky, counting ever can't I try. Ocean I can not measure, such is Saraswati's treausre. (5) In my heart you own a place, this is like a special case, You are Ocean, I am drop; I at bottom you at top. (6) Zuk...Zuk...Zuk...Zuk running train, world is full of sorrow pain Open for me mukti gate, Saraswati Mata you are great..." GREAT-ENGLISH-PROVERBS 1) The Goal of life is light within. Light alone can save the man from the knocks of the world. 2) Every day is a new light for a wise man. 3) Bless is our own reality, we can experience when we like. 4) More the desires belittled is the man, less the desires, elevated is the man. 5) Mother is the Foundation of our existence Guru is the source of our knowledge and God is the source of the Bliss. But, ourself (Atma) is existence, knowledge and bliss. 6) By living in solitude away from multitude, One get's enlightened attitude. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ६९ श्री सरस्वती साधना विभाग श्री सरस्वती गीत गुंजन विभाग | मां भगवती (राग : सुणो चंदाजी) माँ भगवती विद्यानी देनारी, माता सरस्वती ! • तुं वाणी विलासनी करनारी, अज्ञान तिमिरनी हरनारी, तुं ज्ञान विकासनी करनारी...माँ भगवती...(१) . तुं ब्रह्माणी तुं जगमाता, आदी भवानी तुं त्राता; काश्मीर मंडनी (मंदिरनी) सुखशाता...माँ भगवती...(२) • तुज मस्तके मुगुट बिराजे छ, दोय काने कुंडल छाजे छे, हैये हार मोतीनो राजे छे...माँ भगवती...(३) • एक हाथे वीणा सोहे छे, बीजे पुस्तक पडिबोहे छे, कमलाकर माला मोहे छे...माँ भगवती...(४) . हंसासना बेसी जगत फरो, कवि जननां मुखमां संचरो, माँ मुजने बुद्धि प्रकाश करो...माँ भगवती...(५) । • सचराचरमें तुह वसी, तुज ध्यान धरे चित्त उल्लसी, ते विद्या पामे हसी हसी...माँ भगवती...(६) . तुं क्षुद्रोपद्रव हरनारी, शासनदेवी छे मनोहारी, हुं जाउं तोरी बलिहारी...माँ भगवती...(७) • माता सरस्वती विद्यानी दाता, तुं त्रिभुवनमा छे विख्याता, तुज नामे लहीए सुखशाता...माँ भगवती...(८) शारदा तुं माता (राग : तुम्ही हो माता) . शारदा तुं माता, सभी की माता ; अज्ञान त्राता, ज्ञान प्रदाता बालक तेरा आया शरणमें, वंदन करके शीश झुकाता...शारदा० (१) - हंसवाहिनी वीणा वादिनी, कमलासनी तुं देवी महान; मानव देव पंडित तेरे, ध्यान से बनते बडे विद्वान...शारदा०(२) - विद्या को पाने आये शरणमें, हृदयकमल में तेरा ही ध्यान; वीणावाली माँ अधरो पें आके, बसो सदा ही हमे हो ज्ञान...शारदा० (३) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती मात छोप्यारी (राग : प्रभु जेवो गणो तेवो) सरस्वती मात छो प्यारी, तुमारो बाळ सत् बोले; करोने म्हेर क्षण देवी, टळे मुज अज्ञता जोरे...सरस्वती० . बूरो-मूंडो मुरख पूरो, कपटने कामे वळी शूरो, बधा दुर्गुणोनो दरीयो, छतां तुज बाळ नही भूलो...सरस्वती०(२) . कदी पत्र-पत्र थाय, नही माता-कुमाता थाय, भली भोळी तुम हो मात , जगतनी रीत ए ना छोड...सरस्वती० (३) • छतां तरछोडशो मुजने, थशे अपजश जग तारो, हवे शुं सोचवू तुजने , ग्रही ले हाथ बाळकनो...सरस्वती० (४) . मळे तुज रागीने ज्ञान, फळे ध्यानीने उजमाळ परंतु आपो निजज्ञान, मानुं के आपनो नही पार...सरस्वती० (५) . भरी श्रद्धा हृदय भारी, जगतमां तूं ही एक साची; करीश ज्ञानी आतमरागी, अंतरना पाप दई टाळी...सरस्वती० (६) शोभती श्रीमती भारती देवता (राग : जागने जादवा) . शोभती श्रीमती भारती देवता, पूर्णिमां चंद्रशी कांतिने पेखतां दीर्घ वीणा थकी लीन ज्ञाने सदा, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा० १ • दीपतो हार मुक्तातणो हीयडे, हस्तमां माळ मोती तणी विलसें, ____ दीसतो ग्रंथ जे ज्ञानने आपशे ! भक्तने ज्ञाननो सार द्यो.....शारदा० २ • त्रिहु लोके सुधा सुंदरी देखतां, स्वर्गना लोक जे मातने पूजतां, राजती नन्दिनी श्रुतनी देवतां, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा० ३ • सेवती मातने मानहंसी हसें, नीरखें नित्य नीर-क्षीर विवेके, भेद विज्ञानथी आत्मज्ञाने रमें, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा० ४ मृदु गंभीर जे मीठडं बोलती, जोडती ज्ञानमा अज्ञता रोकती, पूजतां प्रेमथी लोकने भावती, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा० ५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग • वाणीनी स्वामिनी एक तूं दीसती, हारिणी पापनी पुन्यनी पोषिणी, पाणिनी पार पामे सदा प्रेमथी, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा०६ • बाळ शा ! भावथी पाय जे सेवतां, 'एँ नमः' मंत्रने चित्तमां धारतां , त्रिक जे योगनी शुद्धता पामतां, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा०७ • सत्यनिष्ठा थकी आत्मज्ञाने करी, मोहना वृंद मोडुं तुज म्हेरथी, मांगु ना अन्यने कीमती कांईना, भक्तने ज्ञाननो सार द्यो....शारदा०८ मात हे भगवती! झुलना छंद (धार तलवारनी सोहली...) . मात हे भगवती ! आव मुज मनमहिं, ज्योति जिम झगमगे, तमस जाये टळी ; कुमति मति वारिणी, कवि मनो हारिणी, जय सदा शारदा, सारमति दायिनी ।। मात हे...भगवती०....१ . श्वेत पद्मासना, श्वेत वस्त्रावृता, कुन्द-शशि-हिम, समा गौर देहा; स्फटिक माळा वीणा, कर विषे सोहता, कमळ पुस्तक धरा, सर्व जन मोहतां || मात हे...भगवती०....२ अबुध पण बैंक तुज, महेंर ने पामीने, पामता पार, श्रुतसिन्धुनो ते; . अम पर आज तिम, देवी ! करुणा करो, जेम लहीए मति, विभव सारो || मात हे...भगवती०....३ । • हंस तुज संगना, रंगथी भारति ! जिम थयो क्षीर-नीरनो विवेकी; तिम लही सार-निःसारना भेदने, आत्महित साधु कर, मुज पर म्हेंरने ।। मात हे...भगवती०....४ . देवि ! तुज चरणमां, शिर नमावी करी, एटलुं याचीए, विनय भावे करी; याद करीए तने, भक्तिथी जे समे, जीभ पर वास करजे, सदा ते समे || मात हे...भगवती०....५ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ७२ श्री सरस्वती साधना विभाग ||१|| ||२|| अहो ! ज्ञाननी ज्योतने ते जगावी (राग : तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो...) अहो ! ज्ञाननी ज्योतने ते जगावी, अहो ! ब्रह्मना दीव्य तेजे तुं न्यारी; महा पद्मना गर्भमां दीसे प्यारी, सदा भक्तने राखजे चित्तमाहि... • गमे आखंडी दीर्घ जे पूतकारी, रमे कर्णमां कनक कुंडल भारी, समे हस्तमां माळने पोथी सारी, सदा भक्तने राखजे चित्तमाहि... . अरुणोदये अंधता ग्राम गाळे, वळी वस्तु विडंबना व्रात टाळे, तमारा पसाये बधा लाभ आणे, सदा भक्तने राखजे चित्तमांहि.... भजे पंडितो प्रेमथी ज्ञान भारे, तजे पापना पुंजने शीघ्र सारे, बजे पुन्यना घंट जे द्वार तारे, सदा भक्तने राखजे चित्तमाहि... मुजे पुन्यना योग थी आज दीठी, मुजे ज्ञानना धामने आप मीठी तुमे तारजो-पाळजो तूं ही तूं ही, सदा भक्तने राखजे चित्तमांहि... ||3|| ||४|| ॥५॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ७३ श्री सरस्वती साधना विभाग - महाप्रभावी श्री सरस्वती स्तोत्र विभाग श्री बप्पभट्टिसूरि कृत-अनुभूत सिद्ध-सारस्वत-स्तवः। कल मराल विहंगम वाहना, सित दुकूल-विभूषण लेपना । प्रणत भूमि रुहा मृत सारिणी, प्रवर देह विभाभर धारिणी ॥१॥ • अमृत पूर्ण कमण्डलु धारिणी, त्रिदश दानव-मानव सेविता । भगवती परमैव सरस्वती, मम पुनातु सदा नयनाम्बुजम् ॥२॥ जिनपति प्रथिता खिल वाङ्मयी, गणधरानन मण्डप नर्तकी । गुरु मुखाम्बुज-खेलन हंसिका, विजयते जगति श्रुतदेवता ॥३॥ • अमृत दीधिति-बिम्ब-समाननां, त्रिजगति जन निर्मित माननाम् । नवरसामृत वीचि-सरस्वतीं, प्रमुदितः प्रणमामि सरस्वतीम् ||४|| वितत केतक पत्र विलोचने, विहित संसृति-दुष्कृत मोचने । धवल पक्ष विहंगम लाञ्छिते, जय सरस्वति ! पूरित वाञ्छिते ॥५|| • भव दनुग्रह लेश तरंगिता, स्तदुचितं प्रवदन्ति विपश्चितः । नृप सभासु यतः कमलाबला, कुचकला ललनानि वितन्वते ।।६।। • गतधना अपि हि त्वदनुग्रहात्, कलित कोमल-वाक्य सुधोर्मयः । चकित बाल कुरंग विलोचना, जन मनांसि हरन्ति तरां नराः ||७|| . कर सरोरुह-खेलन चंचला, तव विभाति वरा जपमालिका | __ श्रुति पयोनिधि मध्य विकस्वरो, ज्ज्वल तरंग कलाग्रह-साग्रहा ||८|| . द्विरद केसरि मारि भुजंगमा, सहन तस्कर राज रूजां भयम् । तव गुणावलि गान तरंगिणां, न भविनां भवति श्रुतदेवते ॥९॥ ॐ ह्रीं क्लीं ब्लूँ ततः श्री तदनु हस कल ही अथो एँ नमोऽन्ते, लक्षं साक्षा ज्जपेद् यः कर समविधिना, सत्तपा ब्रह्मचारी । निर्यान्ती चन्द्रबिम्बात् कलयति मनसा, त्वां जग च्चन्द्रिकाभां, सोऽत्यर्थं वह्नि कुण्डे विहित धृत हुतिः स्याद् दशांशेन विद्वान् ।।१०।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ७४ श्री सरस्वती साधना विभाग शार्दूल ( राग : अर्हन्तो भगवंत इंद्र...) • रे रे लक्षण काव्य नाटक तथा, चम्पू समा लोकने क्वायासं वितनोषि बालिश मुधा, किं नम्र वक्त्रा म्बुजः । भक्त्या राधय मन्त्र राज सहितां, दिव्य प्रभां भारतीं येनत्वं कविता वितान सविता, द्वैत प्रबुद्धायसे " • चंच च्चन्द्रमुखी प्रसिद्ध महिमा, स्वाच्छन्द्य राज्य प्रदाः Sनायासेन सुरासुरेश्वर गणै, रभ्यर्चिता भक्तितः । देवी संस्तुत वैभवा मलयजा, लेपांग रंग द्युतिः सा मां पातु सरस्वती भगवती, त्रैलोक्य संजीवनी स्तवनमेतदनेक गुणान्वितं पठति यो भविकः प्रमनाः प्रगे । स सहसा मधुरैर्वचनामृतै र्नृपगणानपि रञ्जयति स्फुटम् । इति सरस्वती स्तवः सम्पूर्णः । प्रभावी मंत्र : ॐ ह्रीँ क्लीँ ब्लूँ श्रीँ हसकल ह्रीँ मेँ नमः || 119911 मंत्र गर्भित श्री सरस्वती स्तोत्र ॐ ऐं ह्रीँ श्रीँ मंत्ररुपे, विबुध जन नुते, देव देवेन्द्र वंद्ये, चंच च्चंद्रा वदाते, क्षिपित कलि मले, हार नीहार गौरे । भीमे भीमाट्ट हास्ये, भव भय हरणे, भैरवे भीम वीरे, हाँ ह्रीँ हूँ कार नादे, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ 119211 ॥१३॥ 11911 हा पक्षे बीज गर्भे, सुर वर रमणी, चर्चिता नेकरूपे, कोपं वं झं विधेयं, धरित धरि वरे, योग नियोग मार्गे । हं सं सः स्वर्ग राजं, प्रति दिन नमिते, प्रस्तुता लाप पाठे,. दैत्येन्द्रै र्ध्यायमाने, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ ॥२॥ दैत्यै र्दैत्यारि नाथै, र्नमित पद युगे, भक्ति पूर्व स्त्रि सन्ध्यम्, यक्षैः सिद्धैश्च नम्रै, रह मह मिकया, देह कान्तिश्च कान्तिः । आँ इँ ॐ विस्फुटाभा, क्षर वर मृदुना, सुस्वरेणा सुरेणात्यन्तं प्रोद्गीय माने, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ 113 11 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग क्षाँ क्षीँ क्षू क्षः स्वरुपे, हन विषम विषं, स्थावरं जंगमं वा, संसारे संसृतानां, तव चरण युगे, सर्व कालं नराणाम् । अव्यक्ते व्यक्त रुपे प्रणत नर वरे, ब्रह्म रुपे स्वरुपे, ऐं ऐं ब्लूँ योगिगम्ये, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ ||४|| सम्पूर्णा ऽत्यन्तशोभैः, शशधर धवलै, रास लावण्य भूतैः, रम्यैः स्वच्छैश्च कान्तै, र्निज कर निकरै, श्चंद्रिका कार भासैः । अस्माकीनं भवाब्जं, दिन मनु सततं, कल्मषं क्षालयन्ति, श्रीँ श्रीँ भूँ मंत्र रुपे, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ ७५ 1 ॥६॥ भाषे पद्मासनस्थे, जिन मुख निसृते, पद्म हस्ते प्रशस्ते, प्राँ प्रीँ पूँ प्रः पवित्रे, हर हर दुरितं, दुष्टजं दुष्ट चेष्टं । वाचां लाभाय भक्त्या, त्रि वि युवतिभिः प्रत्यहं पूज्य पादे, चंडे चंडी कराले, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ नम्री भूत क्षितीश-प्रवर मणि मुकुटोद्, घृष्ट पादारविन्दे, पद्मास्ये पद्म नेत्रे, गज गति गमने, हंसयाने विमाने । कीर्तिश्री बुद्धि-चक्रे, जय विजय जये, गौरी गंधारी युक्ते ध्येया ध्येय स्वरूपे, मम मनसि सदा, शारदे देवि ! तिष्ठ " कर बदर सदृश मखिल भुवतलं यत् प्रसादतः कवयः । पश्यंति सूक्ष्म मतयः सा जयति सरस्वती देवी ॥ 1 विद्युज्ज्वाला प्रदीप्तां प्रवर मणी मयी, मक्ष मालां सुरूपां रम्या वृत्ति र्धरित्री, दिन मनु सततं, मंत्रकं शारदं च । नागेन्द्रै रिन्द्र चन्द्रै, र्मनुज मुनि जनैः, संस्तुता या च देवी, कल्यांणं सा च दिव्यं दिशतु मम सदा, निर्मलं ज्ञान रत्नम् ॥८॥ नमामि भारतीं देवीं " नमामि भारतीं देवीं चतुर्भुजां महाबलां । काश्मीरे वसति नित्यं, ब्रह्मरुपा सरस्वती ||१|| 11411 " बालानां ज्ञान दात्री च दुर्बुद्धि ध्वंस कारिणी । , त्रिनेत्रा पातु मे देवी, वीणा-पुस्तक धारिणी ॥२॥ ॥७॥ 11811 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्वेताम्बरा श्वेतवर्णा, श्वेत चन्दन चर्चिता । हंसस्य वहते नित्यं, पद्मासनो पवेशिता ॥३॥ ७६ मालिकां दक्षिणे हस्ते, वामहस्ते कमंडलुं । संयुक्तेन्दुं च मुकुटे, मुक्ताहारै र्विभूषिता ॥४॥ परिहीता न्यलंकारं, तस्य द्युति प्रकाशिता । सौन्दर्येण समायुक्ता, सर्वा भरण भूषिता ||५|| श्री सरस्वती साधना विभाग ओंकारं आदिमं बीजं, मायाबीजं समीरितं । तृतीयं लक्ष्मीबीजं च, वाग्वादिनी चतुर्थकं ॥६॥ ॐ ह्रीँ श्रीँ च क्लीँ मंत्रं, वाग्वादिनी च संयुतां । एक लक्षं जपेत् मन्त्रं स स्याद् वाचस्पतिः समः ||७|| · इत्यनेन प्रकारेण, सरस्वत्या समं जपेत् । त्रिसन्ध्यं पठते नित्यं तस्य कंठे सरस्वती ॥८॥ चिरंतनाचार्य विरचित श्री सरस्वती स्तोत्र " " ॐ ह्रीँ अर्हं मुखाम्भोज-वासिनीं पाप नाशिनीम् । सरस्वती महं स्तौमि श्रुत सागर-पारदाम् ||१|| लक्ष्मी-बीजा क्षर मयीं, माया बीज- समन्विताम् । त्वां नमामि जगन्मात स्त्रैलोक्यैश्वर्य दायिनीम् ||२|| सरस्वति ! वद वद, वाग्वादिनि मिता क्षरैः । येनाहं वाङ्मयं सर्वं, जानामि निज नाम वत् ||३|| भगवति सरस्वति, ह्रीँ नमोऽहीँ द्वय प्रगे । ये कुर्वन्ति न ते हि स्यु, र्जाड्यांध-विधुरा शयः ||४|| · त्वत् पाद सेवी हंसोऽपि विवेकीति जन श्रुतिः । ब्रवीमि किं पुन स्तेषां, येषां त्व च्चरणौ हृदि ||५|| तावकीना गुणा मातः, सरस्वति ! वदामि किम् । यैः स्मृतै रपि जीवानां, स्युः सौख्यानि पदे पदे ||६|| त्वदीय-चरणाम्भोजे मच्चित्तं राजहंस वत् । भविष्यति कदा मातः, सरस्वति वद स्फुटम् ॥७॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ وافا माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग . श्वेताब्ज-मध्य चंद्राश्म-प्रासादस्थां चतुर्भुजाम् । हंस स्कन्ध-स्थितां चन्द्र, मू! ज्ज्वल-तनु प्रभाम् ।।८।। वाम दक्षिण-हस्ताभ्यां , बिभ्रतीं पद्म पुस्तिकाम् । तथेतराभ्यां वीणाक्ष मालिकां श्वेत-वाससाम् ।।९।। . उद् गिरन्ती मुखाम्भोज, देना मक्षर-मालिकाम् । ध्यायेद् योग स्थितां देवीं, स जडोऽपि कवि भवेत् ||१०|| • यथे च्छया सुर संदोहं संस्तुता मयका स्तुता । तत्तां पूरयितुं देवी ! प्रसीद परमेश्वरि ।।११।। इति शारदा स्तुति मिमां हृदये निधाय , ये सुप्रभात समये मनुजाः स्मरन्ति । तेषां परिस्फुरति विश्व विकास हेतुः, सद् ज्ञान-केवल महो महिमा निधानम् ||१२|| | नमस्ते शारदा देवी नमस्ते शारदा देवी, काश्मीर प्रति वासिनी । त्वामहं प्रार्थये मात, विद्या दानं प्रदेहि मे ||१|| • सरस्वती मया दृष्टा, देवी कमल लोचना । हंसयान समारुढा, वीणा पुस्तक धारिणी ।।२।। सरस्वती प्रसादेन, काव्यं कुर्वन्ति मानवाः । तस्मा न्निश्चल भावेन, पूजनीय सरस्वती ||३|| . प्रथमं भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती । तृतीयं शारदा देवी, चतुर्थं हंसवाहिनी ||४|| पंचमं विदुषां माता, पष्ठं वागीश्वरी तथा । कौमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्म चारिणी ||५|| • नवमं त्रिपुरा देवी, दशमं ब्रह्मणी, तथा । एकादशं तु ब्रह्माणी, द्वादशं ब्राह्म वादिनी ।।६।। • वाणी त्रयो दशं नाम, भाषा चैव चतुर्दशम् । पंचदशं श्रुतदेवी, षोडशं गौरी गद्यते ।।७।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग • एतानी शुद्ध नामानि , प्रातः रुत्थाय यः पठेत् । तस्य संतुष्यते देवी, शारदा वर दायिनि ||८|| या देवी श्रूयते नित्यं विबुधै र्वेद पारगैः । सा मे भवतु जिह्वाग्रे, ब्रह्म रुपा सरस्वती ।।९।। . या कुन्देन्दु तुषार हार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता, या वीणा वर दण्ड मण्डित करा, या श्वेत पद्मासना । या ब्रह्माऽच्युत शंकर प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता, सा मां पातु सरस्वती भगवती, निःशेष जाड्या पहा ||१०|| श्रीशारदे ! नमस्तुभ्यं...] • श्री शारदे ! नमस्तुभ्यं, जगद् भुवन दीपिके ! विद्वज्जन मुखाम्भोज, भुंगिके ! मे मुखे वस ||१|| . वागीश्वरि ! नमस्तुभ्यं, नमस्ते हंसगामिनि ! नमस्तुभ्यं जगन्मातर्, जगत् कत्रि ! नमोऽस्तुते ।।२।। शक्तिरुपे ! नमस्तुभ्यं, कवीश्वरि ! नमोऽस्तुते ! नम स्तुभ्यं भगवति ! सरस्वती ! नमोऽस्तुते ॥३॥ • जगन्मुखे ! नमस्तुभ्यं, वरदायिनी ! ते नमः ! नमोऽस्तु तेऽम्बिका देवि ! जगत् पाविने ! ते नमः ||४|| शुक्लांबरे ! नम स्तुभ्यं, ज्ञान दायिनि ते नमः ! ब्रह्मरुपे ! नमस्तुभ्यं , ब्रह्मपुत्रि ! नमोऽस्तुते ।।५।। • विद्वन्मात ! नमस्तुभ्यं, वीणा धारिणि ! ते नमः ! सुरेश्वरि ! नमस्तुभ्यं, नमस्ते सुर वन्दिते ! ॥६।। . भाषा मयि ! नमस्तुभ्यं, शुक धारिणि ! ते नमः ! पंकजाक्षि ! नमस्तुभ्यं माला धारिणि ! ते नमः ||७|| पद्मा रुढे ! नमस्तुभ्यं, पद्म धारिणि ! ते नमः ! शुक्लरुपे ! नमस्तुभ्यं, नमस्त्रि-पुर सुन्दरि ! ||८|| धीदायिनि ! नमस्तुभ्यं, ज्ञानरुपे नमोऽस्तुते ! सुरार्चिते ! नमस्तुभ्यं , भुवनेश्वरि ! ते नमः ।।९।। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग • कृपावति ! नमस्तुभ्यं , यशो दायिनि ! ते नमः ! सुखप्रदे ! नमस्तुभ्यं, नमः सौभाग्य वर्द्धिनि ||१०|| - विश्वेश्वरि ! नमस्तभ्यं, नम स्त्रै लोक्य धारिणि ! जगत्पूज्ये नमस्तुभ्यं, विद्यां देहि महामहे ! ||११|| . श्री देवते नमस्तुभ्यं, जगदम्बे ! नमोऽस्तुते ! महा देवि ! नमस्तुभ्यं , पुस्तक धारिणि ! ते नमः ! ।।१२।। कामप्रदे ! नमस्तुभ्यं, श्रेयो मांगल्य दायिनि ! सृष्टिकत्रि ! नमस्तुभ्यं, सृष्टि धारिणि ! ते नमः ! ||१३|| • कविशक्ते ! नमस्तुभ्यं , कलि नाशिनि ! ते नमः ! कवित्वदे ! नमस्तुभ्यं, मत्त मातंग गामिनि ! ||१४|| - जगद्धिते ! नमस्तुभ्यं, नमः संहार कारिणी ! विद्यामयि ! नमस्तुभ्यं, विद्यां देहि दयावति ! ॥१५॥ मातरं भारती दृष्टवा मातरं भारती दृष्टवा, वीणा-पुस्तक धारिणीम् । हंसवाहन संयुक्तां, प्रणमामि महेश्वरीम् ।।१।। • प्रथम भारती नाम, द्वितीयं च सरस्वती । तृतीयं शारदा देवी, चतुर्थं हंसवाहिनी ।।२।। - पञ्चमं विश्व विख्याता षष्ठं वागीश्वरी तथा । कौमारी सप्तमं प्रोक्ता, अष्टमं ब्रह्मचारिणी ||३|| • नवमं बुद्धिदात्री च, दशमं वर दायिनी । एकादशं चन्द्रघण्टा, द्वादशं भुवनेश्वरी ||४|| • द्वादशैतानि नामानि, त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । सर्व सिद्धि प्रदेह्य स्तु, प्रसन्ना परमेश्वरी ||५|| . जिह्वाग्रे वसति नित्यं, ब्रह्म रूपा सरस्वती । सरस्वति ! महाभागे ! वरदे काम रुपिणी ॥६।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती - ८० श्री सरस्वती साधना विभाग. ||१|| ||२|| ||३|| ||४|| ||५|| KAY ॥अष्टोतरशतनाम शारदादेवी स्तोत्रम् ।। छंदः अनुष्टुप . शारदा विजया नंदा, जया पद्मा शिवा क्षमा दुर्गा गौरी महालक्ष्मी, कालिका रोहिणी परा . माया कुण्डलिनी मेधा, कौमारी भुवनेश्वरी । श्यामा चंडी च कामाक्षा, रौद्री देवी कला इडा - पिंगला सुषुम्णा भाषा, हीं कारी घिषणा बिं (छिं) का । ब्रह्माणी कमला सिद्धा, उमा पर्णा प्रभा दया . भर्भरी वैष्णवी बाला, वश्ये मंदिरा च भैरवी । जालया शांभवा या मा, सार्वाणि कौशिकी रमा चक्रेश्वरी महाविद्या, मृडानी भगमालिनी । विशाली शङ्करी दक्षा, कालाग्नी कपिला क्षया ... . ऐंद्री नारायणी भीमा, वरदा छांभवी हिमा । गांधर्वी चारणी गार्गी, कोटिश्री नंदिनी सूरा . अमोघा जांगुली स्वाहा, गंडनी च धनार्जनी । कबर्यश्च विशालाक्षी, सुभगा चकरालिका . वाणी महानिशा हारी, वागेश्वरी निरंजना । वारुणी बदरीवासा, श्रद्धा क्षेमंकरी क्रिया . चतुर्भुजा च द्विभुजा, शैला केशी महाजया । वाराही यादवी षष्ठी, प्रज्ञा गी गौमहोदरी • वाग्वादिनी क्लीं कारी, ऐंकारी विश्वमोहिनी । सर्व-सौख्यप्रदां नित्यं नामोच्चारणमात्रतः पावनानि प्रसिद्धानि तकार रहिता । त्रिसन्ध्यं (यः) पठेद्धीमान् स्यादम्बा तद्वरप्रदा ॥ इति सम्पूर्णम् ॥ ॥६॥ Toll ॥८॥ ||९|| ||१०| ||११|| Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १. २. ३. ४. शारदा विजया नंदा जया ५. पद्मा ६. शिवा ७. ८. ९. क्षमा दुर्गा गौरी १०. महालक्ष्मी ११. कालिका. १२. रोहिणी १३. परा 98. माया १५. कुंडलिनी .. १६. मेधा . १७. कौमारी १८. भुवनेश्वरी १९. श्यामा २०. चंडी २१. कामाक्षी २२. रौद्री २३. देवी २४. कला श्री सरस्वती देवी के १०८ नाम व अर्थ श्वेतकमलवाली | विशिष्ट जय करनेवाली । आनंद करनेवाली । २५. इडा २६. पिंगला ८१ श्री सरस्वती साधना विभाग जय स्वरुपा । कमल में रहनेवाली । मंगलरूपा । सामर्थ्यरूपा । कठिनाई से पाई जा सकनेवाली । उज्वल स्वरूपवाली । महासमृद्धि स्वरूपा । विनाश-शक्तिरूपा । विकास शीला | अति उत्तम-रूपा | माया (मोह) रूपा । कुंडलिनी शक्ति | बोध शक्तिरूपा । बाल मनोहररूपा । तीन भुवनों की स्वामीनी | श्याम वर्णा, उत्तम स्वरुपा । उग्ररूपा । मनोहर नयनोवाली । प्रचंड रूपा । तेजस्वी रूपवाली । ह्रीँ कारस्थित () ध्येयस्वरूपा । देहस्थित 'इडा' नाडी की देवी । देहस्थित 'पिंगला नाडी की देवी । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २७. सुषुम्णा २८. भाषा २९. ह्रीँ कारी ३०. धीषणा.. ३१. बिंछिका ३२. ब्रह्माणी ३३. कमला ३४. सिद्धा. ३५. उमा ३६. अपर्णा ३७. प्रभा ३८. दया ३९. भर्भरी.. ४०. वैष्णवी ४१. बाला ४२. वश्या ४३. मंदिरा ४४. भैरवी . ४५. जालया ४६. शांभवी ४७. ४८. ४९. यामा शर्वाणी.. कौशिका ५०. रमा ५१. चक्रेश्वरी ५२. महाविद्या ५३. मृडानी ५४. भगमालिनी ८२ श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती । भाषारूपा । ह्रीँ बीज मंत्ररूपा ज्ञानस्वरूपा । मंडलाकारा, वर्तुलरूपा वृद्धिरूपा । कमल पर विराजनेवाली । सिद्ध स्वरूपा । कल्याण रूपा । तपस्विनी | दीप्तिमया । करुणा शीला । पोषणरूपा । सर्व व्यापक शक्ति बालस्वरूपा । भक्तप्रिया । (समस्त जगत की ) निवासरूपा । भय रूपा । आच्छादन करनेवाली । शांति देनेवाली, शांतिस्वरूपा । नियंत्रक शक्ति | (अज्ञान) छेदनेवाली । गुप्त स्वरूपा । आनन्द स्वरूपा । (षट्) चक्रों की स्वामिनी । महाविद्या स्वरूपा । प्रसन्नरूपा । ऐश्वर्यरूपा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . . . . . . . . . . व र ............... कल्य . . . . . . . . . . माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग ५५. विशाली...... विशाल स्वरूपवाली। ५६. शंकरी शांति प्रदा । ५७. दक्षा.... . निपुण स्वरूपा । ५८. कालाग्नि प्रलय कालकी अग्निरूप । ५९. कपिला. उत्तम वर्णवाली। ६०. क्षया. विनाश रूपा । ६१. ऐद्री श्रेष्ठत्वरूपा । ६२. नारायणी ज्ञानमार्गरूपा । ६३. मीमा . भयंकर स्वरूपवाली। ६४. वरदा.... वरदान देनेवाली । ६५. शांभवी कल्याण करनेवाली । ६६. हिमा शीतलता देनेवाली। ६७. गांधर्वी संगीत की देवी। ६८. चारणी. स्तुति स्वरूपा । वर्णन करनेवाली । ७०. कोटिश्री. उत्तम स्वरूपा । ७१. श्री .......... श्री लक्ष्मी रूपा । ७२. नंदिनी..... आनंद देनेवाली । ७३. सूरा .... उत्पत्ति करनेवाली । ७४. अमोघा ...... सदा सफल रुपा । ७५. जांगुली दोष हरनेवाली। ७६. स्वाहा. अच्छे ढंग से बुलाई गई । ७७. गंडनी ज्ञान का सिंचन करनेवाली । ७८. धनार्जनी ... ज्ञानरुपा धन की स्वामीनी । ७९. कबरी......... प्रशस्ति रूपा । ८०. विशालाक्षी विशाल नयनोवाली। ८१. सुभगा ........... सौभाग्यवाली । ८२. चकरालिका .............. भयानक रूपवाली । ६९. ............ . . . . . . . . Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ८३. वाणी ८४. महानिशा ८५. हारी ८६. वागेश्वरी ८७. निरंजना ८८. वारुणी ..... ८९. बदरीवासा ९०. श्रद्धा ९१. क्षेमंकरी ९२. क्रिया ९३. चतुर्भुजा ९४. द्विर्मुजा ९५. शैला केशी ९६. ९७. महाजया ९८. वाराही . ९९. यादवी. १००. षष्ठी .. १०१. प्रज्ञा १०२. गीः १०३. गौ. १०४. महोदरी. १०५. वाग्वादिनी १०६. क्लीँ कारी १०७. ऐंकारी १०८. विश्वमोहिनी ८४ श्री सरस्वती साधना विभाग उच्चारण रूपा । सुक्ष्म, संक्षेपकरनेवाली, अतिसुक्ष्मरूपा आकर्षक स्वरूपा । वाणी की स्वामीनी । दोष रहिता । मोह करनेवाली । बदरीवन में रहनेवाली । श्रद्धा-स्वरूपा । क्षेम-कुशल करनेवाली । क्रियारूपा । चार हाथोवाली । दो हाथोवाली | पर्वत पर रहनेवाली । उत्तम केशोवाली । महान विजयवाली । कल्याण स्वरूपा । उपासना रूपा । षष्ठी देवी, कार्तिकेय की शक्ति । विशिष्ट बोधन शीला । वर्णन शक्ति । गतिस्वरूपा । विश्वको अपनेमें धारण करनेवाली । वाणी की बोलनेवाली । क्लीँ मंत्रबीजवाली । ऐं कार स्वरूपा । विश्वको मोहनेवाली । (इति सरस्वती के १०८ नाम सम्पूर्ण) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ८५ अप्राप्य श्री शारदा महाकाव्यम् छंद - वसन्ततिलका (भक्तामर स्तोत्र) रचयिता : प्रज्ञाचक्षु पंडितवर्य श्री दिव्यानंदजी (ढंकगिरी) ज्योती तणा किरणनी करे दिव्य स्वारी, आवो तमे सरस्वती अति ज्ञान धारी । कृपा करी हृदय मंदिरमां पधारो, अज्ञानता मुज तणी सघळी निवारो ||१|| हे शारदा ! सरस्वति ! शुभज्ञान दाता, तारो महान महिमा जन सर्व गाता । हेमाद्रिना धवल मंदिरमां बिराजे, गांधर्व-किन्नरतणा मधु गीत गुंजे ||२|| वीणा मनोहर सोहे कर मां रहेली, ग्रंथ गीत रचना रसथी भरेली । माळा हे स्फटीकनी फळ सर्व आपे, वांछीत पूर्ण करती तुज मंत्र जापे ||३| तारी कृपा भगवती जन सर्व मागे, श्रद्धा धरी हृदयमां भजता सुरागे । तुं शारदा ! परम ज्ञान प्रकाश आपे, अज्ञान दूर करती सुख-शांती स्थापे ||४| • श्वेतांबरी ! सुनयना ! नयनो नशीला, ओष्ठो प्रवाल सम सुंदर ने रसीला । शा केश कुंचीत सुकोमल दीर्घ तारा, मां रह्या हिरकना चमके सीतारा ॥५॥ तुं चंद्रनी धवल सुंदर चांदनी शी, वाणी रसिक मनमोहक मोहीनी शी । श्री सरस्वती साधना विभाग व मधुर तुज स्मित छटा ज न्यारी, तु शांत सौम्य सुखदायक हर्षकारी ||६|| Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग • तुं रिद्धी-सिद्धी बल बुद्धी प्रताप आपे.. . .. . दारिद्र दुःख भय संकट सर्व कापे । तेजस्विनी तप तणो तुज तेज न्यारूं, तुं शारदा सरस्वती तुज नाम प्यारुं ||७|| श्री शारदा वदननी सुरभि सुनेरी, चोरे हवा वदननी खुशबू अनेरी | तो आवती विचरती वन वाटिकामां, व्यापे सुवास वन-पुष्प समी हवामां ||८|| निशांत मां विचरती शुभ शारदा ज्यां, केवी मधूर मनमोहक शी हवा त्यां । सौंदर्यता वनतणी निरंखी विचारे, आवी उभी विचरती सरिता-किनारे ।।९।। • हेमाद्रि पूर्ण निरखं मन ओ ज मांगे, कैलाशमां विचरवा मन भाव जागे । त्यांथी उडी गगनमा तरती हवामां, हेमाद्रिने निरखती सघळी दिशामां ||१०|| . हेमाद्रिना धवल शिखर भव्य शोभे, कासार हंस कमलो मनने प्रलोभे । पंखी पशु पवन सौ निज मस्ती धारे, नाचे कलापी निज पिच्छ कला प्रसारे ||११|| . तुषार पुष्प नभथी वरसी रह्यां ज्यां, केवी सुहे शशी समी धवली धरा त्यां । मीठा मधुर जलना झरणां वहे ज्यां, शी यौवने मद भरी सरिता वहे त्यां ।।१२।। धुजावती वदन शीतल त्यां हवा शी, भींजावती जलभरी नभ वादळी शी । ज्यां सूर्य ताप अति कोमलता बतावे, शी रोशनी रवि तणी रस रूप लावे ||१३|| Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग केवु सरोवर मनोहर रूप धारे, दोडे रमे मृग शिशु सरना किनारे । शोभी रह्यां परम सुंदर पुष्प केवा, आवी रह्यां मधुकरो रसपान लेवा ||१४|| . वृक्षो उभा गढ समां सरना किनारे, चारुलता हरित सुंदर वृक्ष धारे । नाचे मयुर वन वृक्ष तणी घटामां, केवी ललित मनमोहक शी छटामां ||१५|| • मैत्री सरोवर तणी पशु पंखी धारे, आवे सदाय सघळा सरना किनारे । त्यां खान पान मधुगान सुस्नान धारे, शी कोकीला टहुकती अतिवार वारे ।।१६।। उडे नभे युगल सारस हर्ष धारे, के सरोवर सुहे महिमा वधारे | हंसो तणा कवनथी सर रम्य लागे, निहाळवा पथिकने मन भाव जागे ||१७|| • उग्यो शशी धवल सुंदर शी कलामां, शुं चंद्र मुख निरखे सर आयनामां । रे ! श्याम डाघ निरखी मन वेदनामां, ते छुपतो शरमथी नभ वादळो मां ||१८|| केयूँ तपोवन सुहे गिरी कंदरा ज्यां, योगीजनो मुनिजनो तप सौ करे त्यां । पंखी तणा मधुर गीत सदाय गुंजे, आ रम्य धाम निरखी मन खुब रिझे ।।१९।। . योगीजनो नित जपे पर ब्रह्मने ज्यां, ते तीर्थरूप बनती शुचि ए धरा त्यां । तेनो प्रभाव महिमा धरती बतावे, ते काम क्रोध मद सौ जगमां भुलावे ||२०|| Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ८८ श्री सरस्वती साधना विभाग . आत्मा बने विमल ने शुभ भाव जागे, आनंद दिव्य प्रगटे मन मुक्ति मांगे । मिथ्या मनोरथ तजी मन शांत थातुं, आनंद रूप बनतुं शीव गान गातुं ।।२१।। . ज्ञानी बने सुख दुःखे समभाव धारे, संसार चित्र सघळा मनना निवारे । ना राग-द्वेष-ममता मनने सतावे, तेवो प्रभाव धरती निज नो बतावे ||२२।। को अप्सरा नभ तजी उतरी धराये, तेवी सुहे वसुमती सुर गुण गाये । दीपी रही हरीत शी धरती अनेरी, नाची उठी सुर रमा निरखी नवेली ।।२३।। . कैलाश आदि-प्रभुना शुभ मुक्तिधामे, अष्टापदो शिखरना चढता सुनामे । आवे रवि सुरगणो प्रभु पाद पुंजे, मृदुंग वाद्य सुर संगीत दिव्य गुंजे ।।२४।। देवांगना मधुर गीत सुसाथ गाये, त्यां रास भव्य रमती नव हर्ष माये । गांधर्व यक्ष सुर किन्नर सर्व आवे, श्री आदिनाथ प्रभुने भजता सुभावे ।।२५।। हिमाद्रिनु अतुलरूप महान जोती, आकाशमां विचरती शुभ गान गाती । ते शारदा गगनथी उतरी रही शी, छायी घटां कच तणी बदरी समीशी ।।२६।। कैलाशना शिखरथी उतरी धराये, जाणे उषा नभ तजी प्रगटी धराये । केली ललित तरुणी शुभ शारदा शी ? कैलाशने निरखती विचरी रही शी ||२७|| Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ८९ ८९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग . मंदीर भव्य निरखी बनी मुग्ध भावे, त्यां भुपति भरतनी कृति याद आवे | कैलाश मेघ जल वादळथी छवायो, तुषारनी धवल चादरमां छुपायो ||२८|| . ए निरखी भगवती गिरनार आवी, सिद्धोतणी शुचि धरा मन खुब भावी । चंदा तणी धवल शीतल चांदनी मां, बेसी वीणा कर ग्रहे मधु रागणीमां ||२९।। गाती प्रसन्न वदना शुभ गान प्यारु, संगीत भक्ति रसथी भरपूर तारुं । भावे विभोर बनती अति दिव्यगाने, पामे समाधि क्षणमा सघळु विरामे ||३०|| तुं ज्ञानमूर्ति ! अति कोमल भाव धारे, भक्तो तणां सकल संकटने निवारे | आपे सदा परम सुंदर दिव्य ज्ञान, आत्मा तणुं मनुजने निज थाय भान ॥३१।। . हे शारदा ! भगवति ! करुणा बतावो, भुली गयो ज पथ हं पथ तो बतावो । मुक्ती तणो परम बोध प्रकाश आपो, संसार बंधन तणा दुःख सर्व कापो ||३२।। . आ जन्मने मरणनां दुःखने निवारो, नावि बनी भगवती ! भव सिंधू तारो | नौका फंसी भमरमां न मळे किनारो, कृपा करो भगवती डुबती उगारो ||३३।। • अश्रूभर्या नयनमां तुजने पुकारुं, छुपी कहाँ भगवती तुजने न भाळू | हं शोधतो भगवती सघळी दिशामां, विहार-बाग वन सुंदर वाटिकामां |३४|| Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ९०) श्री सरस्वती साधना विभाग आशा निराशा हृदये प्रगटी रही शी, ---- . -.. श्रद्धा सदाय मनने समजावती शी । विश्वास धैर्य धरतो मन मान मारुं, ते आवशे प्रगट रूप धरी ज न्यारूं ।।३५।। . अंधार घोर नभमां चमके सीतारा, शी स्वप्नमां प्रगटती शुचि तेज धारा । सुगंध दिव्य सघळे प्रसरी हवामां, शुं ब्रम्हनाद प्रगटे सघळी दिशामां ॥३६।। . ज्योती स्वरूप प्रगटी तुजने निहाळी, छुपी रही हृदयमां नव केम जाणी । अज्ञान तिमीर समुहथी दूर थाता, ज्योती स्वरूप प्रगटी बहू वर्ष जाता ||३७|| . भावे विभोर बनतो तुजने निहाळी, सिंधू समी ललीत सुंदर ने दयाली । ज्योत्स्ना समु धवल सुंदर रूप तारूं, संसारना सकल रूप थकीज न्यारं ॥३८॥ . मांगु सुबुद्धी विमला शुभ भाव आपो, माया ममत्व जग बंधन सर्व कापो । सहु राग-द्वेष मनना हर पाप तापो, मुक्ति तणो परम उज्ज्वल मार्ग आपो ||३९।। देवी वदे कवि ! सुणो जन निती त्यागी, लक्ष्मी तणी मनुजने मन प्यास जागी । त्यागी शके न ममता मरता सुधीमां, केवी मति मन गति समजी शके ना ||४०॥ • रे ! राग द्वेष जनने अति प्रिय लागे, ना ओकता शितलता मन तेनुं मागे । प्रीति मनुष्य करतो अति बंधनोमां, मुक्ति रही सकल केवल वातुओमां ।।४१।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ९१ ---------श्री सरस्वती साधना विभाग . तृष्णा भरी हृदयमां जन शांती मागे, शांति मळे न मनने अति मोह रागे । शोधी-रह्यं मृगजले मृग शीत वारी, तेवी दशा मनुजना मननी ज भारी ||४२।। मारुं करी दुःख वरे ममता वधारी, थाये न कोइ निजनुं धन पुत्र नारी | दु:खी थतुं मन अति उर क्लेश जागे, तोये छतां मन अरे ! ममता न त्यागे ||४३।। . जे मानवी मनतणी स्थिरता धरे ना, तिमीर मां भटकतो पथ तो मळे ना | जो शांत-स्थिर.मन नीर सम बनावे, ते ज्ञान युक्त बीज जीवनने सजावे ||४४।। अज्ञान मुळ दुःखनुं समजाय क्यारे ? जो ज्ञान दिप प्रगटे समजाय त्यारे । पामे प्रकाश हृदये शुभ ज्ञान केरो, तो जन्म मृत्यु दुःखनो न रहे ज फेरो ||४५।। . आपो क्षमा भगवती तु ज सत्य दावो, बाहोश मानव प्रति करुणा बतावो | भुल्यां पड्यां मनुजने पथ तो बतावो, रे ! काम क्रोध मदमां डुबता बचावो ||४६।। . तुं शारदा परम सिद्धी महान दाता, योगीजनो मुनिजनो गुणगान गाता | व्यापी रही जल स्थले नभने अणुमां, तुं सर्व रूप धरती सघळी दिशामां ॥४७॥ • तुं काव्य रूप धरती मुज कल्पनामां, तुं आद्ररूप धरती मुज अश्रुओमां । तुं तेज रूप धरती सघळे प्रकाशे, तुं सूर्य-चंद्र धरती नभमां विलासे ॥४८॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ७) पढमं नाणं तओ दया ।। माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग तुं मोहीनी रूप धरी विचरे हवामां, " विज्ञान रूप धरती सघळी दिशामां |--- भोगी विलास जन माणस धर्म त्यागे, विनाश रूप बनती अति घोर नादे ॥४९।। . श्रद्धा धरी हृदयमां मन भक्ती धारे, दारिद्र दुःख भय संकटथी उगारे । तुं शारदा भगवती सुखमा झुलावे, भक्तोतणा भुवनना सुख सिद्धी लावे ||५०|| . चिंतामणी सम अनुपम शारदा शी, तुं धर्म-अर्थ-सुख काम प्रदायनी शी । अंते विरक्त करती शुभ मुक्ति आपे, 'आनंद दिव्य' प्रगटे भव दुःख कापे ||५१।। चलो कंठस्थ एवं हृदयस्थकरे...!" १) ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः ॥ नमो नाणस्स ॥ ११) सा विद्या या विमुक्तये । निर्वाण पद मप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्महुः । तदेव ज्ञान मुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ।। बहु क्रोडो वरसे खपे, कर्म अज्ञाने जेह । ज्ञानी श्वोसोश्वासमां, कर्म खपावे जेह ।। तन पवित्र तीरथ गये, धन पवित्र कर दान। . मन पवित्र होत तब, उदय होत जब ज्ञान ।। ज्ञान समुं कोई धन नहिं, समता समुं नहिं सुख । जीवित सम आशा नहि, लोभ समुं नहिं सुख । सकल क्रियानुं मूल जे श्रद्धा, तेनुं मूल जे कहीए। तेह ज्ञान नित-नित वंदीजे, ते विण कहो किम रहीये ।। विद्या ने धन ज्यां हशे, त्यां छे लीला-लहेर । विद्या विण धन शुं करे ? अंते झाझां वरे ।। सार यही ज्ञानी होने का, दे जीवों को जीवदान । करे ना हिंसा किसी जीव की, यही अहिंसा-विज्ञान ।। ४) विद्वान... २) विद्या विनयेन शोभते... ८) नात्थि नाणा... . ५) तृतीयं लोचनं ज्ञानं.... ६)ज्ञानेन हिना पशुभिः समाना... ३) सज्झाय समो तवो तत्थि... Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती २३ श्री सरस्वती साधना विभाग श्री सरस्वती भक्तामर की महिमा श्री सरस्वती भक्तामर श्री धर्मसिंहसूरीश्वरजी म.सा. द्वारा विरचित है, इस भक्तामर में मा सरस्वती महादेवी का सुंदर वर्णन है । इस भक्तामर के स्मरण से अज्ञान रूप अंधकार नाश होता है, मन प्रसन्न बनता है, मुर्खता नाश होती है, बुद्धि सहस्त्रमुखी गंगा एवं चंद्र की कला के जैसी बढती है, बुद्धि सहस्त्रमुखी गंगा एवं सहस्रमुखी चंद्र की कला के जैसी बढती है, पित्तविकार-वायु-आदि व्याधिओं नाश होती है | तर्क-न्याय आदि विद्या के स्वामी बनते है | ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है, जिसको ज्ञान न याद होता हो, बुद्धि कम हो, याद रहता न हो, भूल होती हो, उन महानुभावोंको इस सरस्वती भक्तामर के मंगलपाठ से बहुतही लाभ होता है | महाचमत्कारी श्री सरस्वती-भक्तामर स्तोत्र भक्तामर भ्रमर विभ्रम वैभवेन । लीलायते क्रम सरोज युगो यदीयः ।। निघ्न न्नरिष्ट भय भित्तिम भीष्ट भूमा । वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।१।। मत्वैव यं जनयितारम रंस्त हस्ते । या संश्रितां विशद वर्ण लिपि प्रसूत्या ॥ ब्राह्मीम जिह्म गुण गौरव गौरवर्णां । स्तोष्ये किला हमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् (युग्मम्) ||२|| सरोवर मे उत्पन्न होने वाले कमल पुष्प पर गुंजन करके अपनी प्रीति प्रदर्शित करनेवाले भ्रमर समूह के समान जिनके युगल चरणकमल अनेकानेक भक्तसुर-सुरेन्द्रों द्वारा भक्तिभाव से सेवित हैं तथा जिनका आश्रय, मनुष्यों के संसार से उत्पन्न कर्मों के लेपसे व्याप्त उपद्रव एवं भयरुपी दिवारो का नाश करने और वांछित विषयों का आधार भूत है, ऐसे विशाल ज्ञान के धारक तथा सामान्य केवलियों में मुख्य प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव को अपना जन्मदाता मानकर उन्ही के हाथों में क्रीडा करते हए, निर्मल प्रकाश Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग एवं लिपी रूपमें अपनी उत्पत्तिद्वारा, उन्हीका आश्रय लेनेवाले अनंतज्ञान और दर्शन रुप सरल गुण के गौरवसे गौर वर्ण अर्थात् उज्जवल प्रकाश से युक्त श्रुतदेवता की मैं स्तवना करता हूं । ९४ ब्रम्ही लिपी- प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेवजी ने अपनी सांसारिक अवस्था में राज्यारुढ़ होने के बाद अपनी पुत्री ब्राह्मी को, अपने मनोविचारों को लिखकर व्यक्त करने हेतु दाहिने हाथ में लिखी जानेवाली अक्षर लिपी का ज्ञान दिया । सबसे पहले राजकुमारी ब्राह्मी द्वारा ही इस अक्षर लिपी का प्रचार प्रसार होने से यह लिपी ब्राह्मीलिपी के नाम से प्रसिद्ध हुई । " मातर् ! मतिं सति ! सहस्त्र मुखीं प्रसीद । नालं मनीषिणी मयीश्वरि ! भक्तिवृत्तौ || वक्तुं स्तवं सकल शास्त्रनयं भवत्या । मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ? ॥३॥ हे माता ! उत्तम शीलवती होने से आप साध्वी हो अथवा अक्षर रूप लिपी के शाश्वतपन के कारण आप सती हो । वरदानादिक प्रदान करनेवाली होने के कारण आप ईश्वरी हो । नैगमादिक सात प्रकारके नयरूपी समस्त शास्त्रों के मार्ग को एकदम ग्रहण करने या जानने के साथ ही अपने अभीष्ट देवता के गुण रूपी स्तोत्रगान की इच्छा रखने वाला एवं भक्ति करने की प्रवृत्ति में तत्पर मुझे आप सहस्त्र मुखी बुद्धि प्रदान करो अर्थात् मुझे हजार प्रकार की प्रज्ञा से विभूषित करो क्योंकि आपश्री द्वारा मान्य मनुष्य ही अनेक शास्त्रों का ज्ञाता ( जानकार) होने में एवं अपने इष्ट देव की स्तुति करने में समर्थ होता है । अन्यथा नहि... त्वां स्तोतु मत्र सति ! चारू चरित्र पात्रं । कर्तुं स्वयं गुणदरी जल दुर्विगाह्यम् ॥ एतत् त्रयं विडुप गूहयितुं सुराद्रिं । को वा तरीतुमलमम्बु निधिं भुजाभ्याम् ? ॥४॥ हे सती ! मनोहर गुणों से परिपूर्ण आपकी स्तुति करना उतना ही कठिन है जितना कि, लाख योजन की उंचाई वाले मेरू पर्वतका आलिंगन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग करना या समुद्र को अपने दोनो हाथों से तैरकर पार करना। ये तीन कार्य जो कि मनोज्ञता, उन्नति एवं गंभीरता इत्यादि मनोहर गुणों के आधारभूत हैं । इन कार्यो को स्वयं अपनी बुद्धि द्वारा पूरा करने अर्थात् आपकी स्तुतिगान रूपी यह स्तोत्र प्रारंभ करने में सभी विषयों में महान् विचारक या पूर्ण ज्ञानी हो ऐसा कौन सा पंडित समर्थ हो सकता है ? इस कार्य को संपन्न करने के लिये केवल सर्वगायक ब्रह्मा ही समर्थ हो सकते हैं । ९५ त्वद्वर्णना वचन मौक्तिक पूर्णमेक्ष्य । मातर् ! न भक्ति वरटा तव मानसं मे ॥ प्रीते जगत्त्रय जन ध्वनि सत्यताया । नाभ्येति किं निज शिशोः परि पालनार्थम् ? ||५|| हे माता ! जिस प्रकार कोई भी माता प्रीतिवरा अपने बालक के पालन एवं रक्षण हेतु आती है, त्रिभुवन के लोगों की इस उक्ति की सत्यता का निर्वाह करने हेतु आपके बालक के समान ही मेरे मानस को भी आपकी स्तुति के वचन रूपी मुक्ताफल से परिपूर्ण करने के लिये, क्याँ आपकी भक्तिरूपी हंसी मेरे मानस की तरफ नहीं आयेगी ? अर्थात् मुझे द्रढ़ विश्वास है कि जरूर आयेगी क्योंकि, राजहंस भी मानसरोवर के प्रति आकर्षित होकर निश्चित रूप सें आते ही हैं, यह बाततो जग प्रसिद्ध है । वीणा स्वनं स्व सहजं यदवाप मूर्च्छाम् । श्रोतु र्न किं त्वयि सुवाक् ! प्रिय जल्पितायाम् ॥ जातं न कोकिल रवं प्रतिकूल भावं । तच्चारू चूत कलिका निकरैक हेतुः ||६|| हे माँ सरस्वती ! (अथवा सुंदर वाणी धारक श्रुतदेवते !) आपकी सुंदर और मधुर वाणी के प्रियबोल सुनने के बाद वीणा के स्वाभाविक स्वर भी मानो मूर्छना या बेभान अवस्था को प्राप्त हो जाते है । अथवा बसंतऋतु में खिलती हुई आम्रमंजरी के समुदाय से प्रेरित होकर अपनी मीठी बोली में टहुका करती हुई कोकिला का स्वर भी श्रोता जनों को कटु लगने लगता है, अर्थात् आपकी मधुरवाणी रूपी अमृतपान करने के बाद वीणा के स्वर या कोयल की कूक भी सुनने में कानोंको कटु लगना इसमें कोई नवाई नहीं है । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग त्वन्नाम मन्त्र मिह भारत सम्भवानां । भक्त्यैति भारति ! विशां जपता मघौघम् ।। सद्यः क्षयं स्थगित भूवलयान्तरिक्षं । सूर्यांशु भिन्न मिव शार्वर मन्धकारम् ।।७।। हे देवी सरस्वती ! भरतक्षेत्र में जन्म लेने वाले जिन मनुष्योंका अपने पूर्व संचित पाप समूह के कारण भविष्य में मनुष्यलोक एवं स्वर्गलोक अर्थात् ऊर्ध्वगतिमें जाने का निरोध होता है, परन्तु इस लोक में आपके नामरूपी मंत्र का भक्तिपूर्वक जाप जपने वाले मनुष्यों के पाप समूहों का वैसे ही नाश हो जाता है, जैसे कि प्रातः काल में उदय होने वाले सूर्य की किरणों से समस्त भूमंडल एवं आकाश में फैला रात्रि का अंधकार स्वतः ही दूर हो जाता है। 'श्री हर्ष' माघ-वर-भारवि-कालिदास | वाल्मीकि पाणिनि-ममट्ट महा कवीनाम् ।। साम्यं त्वदीय चरणाब्ज समाश्रितोऽयं । .. मुक्ता फल द्युति मुपैति ननूद बिन्दुः ।।८।। हे सरस्वती ! जिस प्रकार कमल पुष्प का आश्रय ग्रहण करने वाले जल बिन्दु भी निश्चितरूप से मुक्ताफल की आभा प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही हे माता शारदा ! आपके चरणकमल का आश्रय ग्रहण कर लेने के बाद आपका यह चरण सेवक ऐसा मैं भी श्री हर्ष, माध, श्रेष्ठ भारवि, कालिदास, बाल्मिकी, पाणिनी एवं ममट्ट जैसे महाकवियों की तुलना को प्राप्त करता हूँ। विद्या वशा रसिक मान सलालसानां । चेतांसि यान्ति सुद्धशां धृति मिष्टमूर्ते ! ॥ त्वय्यर्य मत्विषि तथैव नवोदयिन्यां । पद्मा करेषु जलजानि विकास भाञ्जि ।।९।। हे सुदर्शन मूर्ति वाली माँ सरस्वती ! आपके विद्या विलासिन रूपमें श्रृंगारादिक ज्ञान के अभिलाषी रसिक जन अथवा विद्यारूपी वनिता में स्त्री रस संबंधी ज्ञान के अभिलाषी जन अपने सम्यग्ज्ञान के उपयोग सहित अच्छी द्रष्टी रखने वाले और उसीमें आनंद प्राप्ति की कामना करने वाले आपके Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती . ९७ . श्री सरस्वती साधना विभाग दर्शन से आनंद प्राप्त करते हैं । अर्थात् विद्याविलासी जन आपके संसर्ग में रहकर ऐसे हर्षित होते है, जैसे की सरोवरों में रहे हुए कमलपुष्प प्रातः काल उदित होते सूर्य की प्रभा से विशेष आनंदित होकर खिल उठते हैं । त्वं किं करोषि न शिवे ! न समान मानान् । त्वत् संस्तवं पिपठिषो विदुषो गुरूहः ।। किं सेव यन्नुपकृतेः सुकृतैक हेतुं । भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।।१०।। हे कल्याणी ! आपके स्तवन का पाठ करने के अभिलाषी पंडितों को आप ज्ञान प्रदान करके, पूर्ण ज्ञानी बनने का सन्मान प्रदान करती हो । जैसे कि, अपने पुण्य के प्रभावसे सम्पत्ति को प्राप्त करके, परोपकार की उत्कृष्ट भावना रखने वाला धनाढ्य, अपने आश्रित सेवकों को अपने समान ही लक्ष्मीवान् या सम्पत्ति का स्वामी बना देता है। सरस्वती स्तोत्र का अमृतरस यत् त्वत् कथा ऽमृतरसं सरसं निपीय । मेधाविनो नव सुधामपि नाद्रियन्ते ।। क्षीरार्णवार्ण उचितं मनसा ऽप्यवाप्य । क्षारं जलं जलनिधे रशितुं क इच्छेत् ? ||११|| हे मां शारदा ! ज्ञानी पंडित जनों को आपके स्तवन रूपी अमृतरस का आकंठ पान करने के बाद, उन्हें किसी नये अमृतरसपान की इच्छा नहीं रहती है । जैसे कि क्षीर समुद्र का जल पीकर तृप्त होने वाला कभी लवण समुद्र का खारा जल चखने की इच्छा नहीं करता। [ आपके सारस्वतरूप की अनेकता जैना वदन्ति वरदे ! सति ! साधु रूपां । त्वा मामनन्ति नितरा मितरे भवानीम् ।। सारस्वतं मत विभिन्न मनेकमेकं । यत् ते समान मपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग हे सती ! हे वरदात्री माता सरस्वती ! आपका अपूर्व ज्ञान युक्त सारस्वतरूप निश्चित रूपसे एक नही, अनेक है। जैन दर्शनानुसार आप साधु स्वरूपी हो एवं शैव मतानुसार आप ही भवानी रूप हो । इसी प्रकार विभिन्न दर्शनों के अनुसार आप ही भिन्न भिन्न स्वरूपी हो ।। माता सरस्वती के अलग अलग नाम १) भारती, २) सरस्वती, ३) शारदा, ४) हंसगामिनी, ५) विद्वन्माता ६) वागीश्वरी ७) कुमारी ८) ब्रह्मचारिणी ९) त्रिपुरा १०) ब्राह्माणी ११) बृह्माणी १२) ब्रह्मवादिनी, १३) वाणी, १४) भाषा १५) श्रुतदेवी १६) गो.. मन्ये प्रभूत किरणौ श्रुतदेवि दिव्यौ । त्वत् कुण्डलौ किल विडम्बयत स्तमाया । मूर्तम् दशा मविषयं भवि भोश्च पूष्णो । यद् वासरे भवति पाण्डु पलाश कल्पम् ।।१३।। श्रुत अर्थात् ज्ञान की अधिष्ठात्री, हे देवी सरस्वती ! आपके अद्भुतकिरणों से युक्त दिव्य कर्ण कुंडलो के तेज के आगे सूर्य एवं नक्षत्रपति चंद्रमा के मंडलों की आभा भी निःस्तेज हो जाती है । इसी कारण सूर्य मंडल रात्रि में नेत्रों से ओझल हो जाता है एवं चंद्र मंडल भी दिन में खांखरे के पके हुए पत्तों के समान निस्तेज और फीका लगता है। ये व्योम वात जल वह्नि मृदां चयेन । कायं प्रहर्ष विमुखां स्त्वद्दते श्रयन्ति । जाता नवाम्ब ! जडताध गुणा नणून मां । कस्तान् निवारयति सञ्चरतो यथेष्टम् ? ||१४|| हे माता ! आप मेरी रक्षा किजिये क्योंकि, आकाश, पवन, जल, अग्नि एवं पृथ्वी रूपी पंचतत्व से बने इस शरीर का मूर्खतादिक दोष आश्रय लेते हैं और शरीर में उत्पन्न हो कर सदबुद्धि की वृद्धि में निरोधक बनते हैं। ऐसे मूर्खतादिक दोषों को शरीर से पूर्णरूप से दूर करने में केवल आपके सिवाय अन्य कोई भी समर्थ नहीं है। अस्मा दृशां वर मवाप्त मिदं भवत्याः । सत्या व्रतोरू विकृतेः सरणिं न यातम् ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग किंचौद्य मैन्द्र मनघे ! सति ! शारदेऽत्र । किं मन्दराद्रि शिखरं चलितं कदाचित् ? ॥१५॥ हे नि:ष्पाप ! हे सती ! हे शारदा ! आपके इस स्तोत्र को प्रारंभ करते समय आपश्री द्वारा प्राप्त वरदान ही इस स्तोत्र को रचने में कारण भूत हुआ है । महर्षि व्यासजी की माता सत्यवती या अयोध्यापतिश्री रामचंद्रजी की पत्नि सीताजी के अडिग वृतके समान किसी भी प्रकार के विकार के मार्ग को प्राप्त मैं नहीं हुआ हूँ। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, क्योंकि, देवराज इन्द्र के सानिध्य को प्राप्त पर्वतराज मेरू का शिखर कभी भी चलायमान नहीं होता है । निर्माय शास्त्र सदनं यतिभिर्ययैकं । प्रादुष्कृतः प्रकृति तीव्र तपो मयेन ॥ उच्छेदितां हउलपैः सति ! गीयसे चिद् । दीपो ऽपर स्त्वमसि नाऽथ जगत्प्रकाशः ||१६|| हे सती ! आपने वरदान देकर अद्वितीय शास्त्ररूपी गृह का निर्माण करके, जगत को प्रकाश देने वाले अपूर्व ज्ञान दिपक को प्रकट करवाया है । अत: हे । माता ! अपने असाधारण स्वभाव से उत्कृष्ट तपरूपी तलवार से पाप गुच्छों से लदी लता को काटने वाले ज्ञानी मुनि जन भी सदैव आपकी ही स्तुति करते हैं। यस्या अतीन्द्र गिरि रांगि रस प्रशस्य । स्त्वं शाश्वती स्वमत सिध्धि मही महीयः ।। ज्योतिष्मयी च वचसां तनु तेज आस्ते । सूर्यातिशायि महिमाऽसि मुनीन्द्र लोके ।।१७।। हे सती ! आपने इन्द्रगिरि मेरू का भी अतिक्रमण किया है अर्थात् आप मेरू पर्वत से भी अधिक स्थिर एवं उच्च हो, अतः आप बृहस्पति द्वारा भी प्रशंसित हो । आपके वचनों की महिमा एवं लिपी रूपी देहकी मनोहर रचना का तेज, सूर्य से भी अधिक है । अतः आपकी वाणी एवं लिपी ये दोनो ही गणधरादि योगीश्वरों के लोक में भी माननीय है । स्व मतानुसार सिद्धि नामकी पृथ्वी रूप सिद्धि शिला के समान एवं शैव मतानुसार अणिमादिक आठ सिद्धियों के उत्पत्तिस्थान रूपी हे माँ शारदे ! आप ही सर्वोत्तम कांतिवाली एवं शाश्वती हो। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती १०० श्री सरस्वती साधना विभाग सरस्वती के वदनकमलकी शोभा स्पष्टाक्षरं सुरभि सुभ्रु समृद्ध शोभं । जेगीयमान रसिक प्रियपञ्चमेष्टम् || देदीप्यते सुमुखि ! ते वदना रविन्दं । विद्योतय ज्जगद पूर्व शशाङ्कबिम्बम् ||१८| हे सुन्दर वदन वाली माता सरस्वती ! अकारादि ५२ अक्षरों को स्पष्ट रूप से प्रकट करनेवाली माँ, सुगंधमय सुन्दर भावों वाली एवं अच्छी तरह से वृद्धि को प्राप्त आप के मुखमंडल की शोभा, संगीतरस के रसिक को मनोहर पंचमराग के समान ही सर्व प्रिय है एवं जगतको विशेष प्रकार से प्रकाश देने वाले, मृग लंछन से युक्त असाधारण गोल चंद्रमंडल के समान ही आपका वदनकमल भी अतिशय शोभा को प्राप्त हो रहा है । प्राप्नोत्य मुत्र सकला वयव प्रसङ्गि । निष्पत्ति मिन्दु वदने ! शिशिरात्म कत्वम् ।। सिक्तं जगत् त्वदधरा मृत वर्षणेन । कार्यं कियज् जलधरै र्जल भार नम्रैः ||१९| चंद्रमा के समान शीतल मुखवाली हे "मां” ! चंद्रमुखी शारदा ! आपके अधरो से झरते हुए अमृत की वर्षा से सिक्त हुए सारे जगतको शीतलता एवं समृद्धि तथा रस एवं सिद्धि रूपी समस्त अवयवों को संचालित करने वाली शक्ति प्राप्त हो जाती है, तब फिर, जल के भार से नम्र बने हुए श्यामवर्णी मेघ समूह की कोई आवश्यकता ही नही रह जाती । मात स्त्वयी मम मनो रमते मनीषि । मुग्धा गणे न हि तथा नियमाद् भवत्याः || त्वस्मिन्न मेय पण रोचिषि रत्न जातौ । नैवं तु काच शकले किरणा कुलेऽपि ||२०|| माता ! मेरा मन जिस तरह आपश्री के प्रति अनुरागी हुआ है, वैसा आपश्री से हीन वर्ग की चतुर एवं मन मुग्धकारी सुंदरियों के समूह के प्रति, निश्चितरूप से जरा भी आकर्षित नही हो सकता, क्योंकि, मेरे समान रत्न Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग पारखी के लिये अतिशय प्रभा युक्त उत्तम जाति के अनमोल रत्नों के प्रति जो आकर्षण होता है, वैसा आकर्षण किरणों से प्राप्त चमक वाले कांच के टुकडे के प्रति कभी भी नहीं हो सकता । चेत स्त्वयि श्रमणि ! पातयते मनस्वी। स्याद्वादि निम्न नयतः प्रयते यतोऽहम् ।। योगं समेत्य नियम व्यव पूर्वकेन । कश्चिन् मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ।।२१।। अष्ट कर्मों से उत्पन्न हुए खेद को हरने वाली एवं रागद्वेष रूपी श्रमसे रहित मां शारदा ! कदाच किसी अन्य भवमें कोई स्व कपोल कल्पित विचारों को प्रकट करने वाले मनस्वी आकर, स्याद्वाद की प्ररूपणा करने वाले तीर्थंकरों के द्वारा प्ररूपित नैगमादिक गंभीर नय से मुझे भ्रष्ट करे, तो भी "निश्चय एवं व्यवहार नय से युक्त जैन धर्म है" इस बातको हृदय में धारण करके 'सप्तभंगी' स्वरूपी आपके प्रति मैं अपने मन को निश्चल करता हूं | ज्ञानं तु सम्य गुदयस्य निशं त्वमेव । व्यत्यास संशय धियो मुखरा अनेके | गौरांगि ! सन्ति बहुभाः ककुभोऽर्कमन्याः । प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशु जालम् ।।२२।। हे उज्जवल देह वाली, गौरवर्णी, माँ शारदा ! विपर्यय एवं संशय से युक्त अनेक वाचाल अर्थात् मिथ्याज्ञानी तो सर्वत्र मिल सकते हैं, परन्तु केवल आपका ज्ञान ही सम्यगज्ञान है अर्थात् आपही सदैव सम्यग्ज्ञान धारिणी माता हो । जैसे कि, अनेक नक्षत्रों से युक्त तो, सभी दिशाए होती हैं, परन्तु खिली हुई प्रकाश किरणों के समूह को जन्म देने वाली अर्थात् सूर्योदय से विभूषित होने का गौरव तो केवल पूर्व दिशा को ही प्राप्त होता है । यो रोदसी मृति जनी गमयत्यु पास्य । जाने स एव सुतनु ! प्रथितः पृथिव्याम् ।। पूर्वं त्वयाऽऽदि पुरुष सदयो ऽस्ति साध्वि । नान्यः शिवः शिव पदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ।।२३।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ माँ सरस्वती ... श्री सरस्वती साधना विभाग हे सुन्दर शरीर वाली माँ सरस्वती ! संयमादिक गुणों द्वारा मोक्षपद को साधनेवाली हे साध्वी ! स्वर्ग एवं पृथ्वी पर जन्म एवं मरण से पूर्णतः मुक्त करने वाले मोक्ष मार्ग का , भगवान श्री ऋषभदेव से भी पहले आपने उपासना करके पृथ्वीपर विस्तार किया था । बादमें हुए केवलज्ञानी भगवंतो द्वारा, कृपा करके बतलाया हआ शिवपद का कल्याणकारी भाग भी वही है | मेरे मतया विचार से इसके सिवाय दूसरा कोई भी मोक्ष मार्ग नहीं है। दीव्यद्दया निलय मुन्मिष दक्षि पद्मं । पुष्यं प्रपूर्ण हृदयं वरदे ! वरेण्यं ॥ त्वद् भूधनं सघन रश्मि महाप्रभावं । ज्ञान स्वरूप ममलं, प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥ . हे वरदात्री माता शारदा ! आप खिले हुए कमल पुष्पों के समान नेत्रों वाली अथवा कमल नयना हो, अनेक सद्ग्रंथो से परिपूर्ण हृदयवाली हो, क्रीड़ा करती हुई कृपा के निवास स्थान रूपी अर्थात् अतिशय दयालु हो । अतः श्रेष्ठ किरणों से युक्त महाप्रभावशाली आपके वदन को ज्ञानी पंडित जन निर्मल ज्ञानी स्वरूप कहते हैं । कैवल्य मात्म तपसा ऽखिल विश्वदर्शि । चक्रे ययाऽऽदि पुरूषः प्रणयां प्रमायाम् ।। जानामि विश्व जननीति च देवते ! सा । व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमो ऽसि ॥२५॥ हे जगतमाता ! आपने सभी पुरुषों मे उत्तम अर्थात् पुरुषोत्तम, आदिपुरुष श्री ऋषभदेव को अपना स्नेही बनाया, जिन्होने स्वयं तपश्चर्या करके लोकालोक प्रकाशक अर्थात् समस्त ब्रह्मांड को करतल के समान देखनेवाले महामहिमा युक्त कैवल्यज्ञान को प्रमाण स्वरूप सिद्ध किया था । अतः हे देवि ! जिन्हे मैं जगत की माता अर्थात् जगदम्बा के रूप में जानता हूँ, वे स्पष्ट रूप से केवल आप ही हैं। सिद्धान्त एधि फलदो बहुराज्य लाभो । न्यस्तो यया जगति विश्व जनीन पन्थाः ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग विच्छित्तये भवतते रिव देवि ! मन्था । स्तुभ्यं नमो जिन भवोदधि शोषणाय ||२६|| हे देवी ! जगत में सर्व लोक हितकारी मार्ग रूपी सिद्धान्त, जिनकी उत्पति तीर्थंकर द्वारा हुई है तथा जो दही को बिलोकर अतिशय धृतकी प्राप्ति कराने वाले मन्थनदंड के समान है, जिसका प्रतिफल उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, ऐसा सिद्धान्त, भवों की श्रेणी के विनाश के लिये आप द्वारा ही स्थापित किया गया है, अतः आपको नमस्कार हो । मध्यान्ह काल विहृतौ सवितुः प्रभायां । सैवेन्दिरे ! गुणवती त्वमतो भवत्याम् ।। दोषांश इष्ट चरणै रपरै रभिज्ञैः । स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद पीक्षितोसि ॥२७॥ हे माता इन्दिरा ! आप ही सर्व सद्गुणोंओं से परिपूर्ण हो । आपकी कृपा प्राप्त उत्तम चारित्रधारी मुनिवर एवं अन्य सद्गुणी चतुर जनोंमें कभी स्वप्न में भी किसी अवगुण का अंशमात्र भी देखने में नहीं आया है । जैसेकि, मध्यान्ह काल में चमकते हुए सूर्य की तेज किरणों में रात्रिका अंधकार कहीं भी दिखाई नहीं देता । हारान्तरस्थ मयि ! कौस्तुभ मत्र गात्र । शोभां सहस्र गुणयत्यु दयास्त गिर्योः ॥ वन्द्या ऽस्यत स्तव सती मुपचारि रत्नं । बिम्बं रवे रिव पयोधर पार्थ वर्ति ॥२८॥ हे माता ! आपके कंठ में धारण किये हुए रत्नहार के मध्य लटकम में पिरोया हुआ , उदयाचल एवं अस्ताचल के समीप जाने वाले सूर्य मंडल के समान गोल कौस्तुभ मणि आपके देह की शाश्वती शोभा में सहस्रगुणी वृद्धि करता है । अतः आप ही वंदन करने के योग्य हो । अज्ञान मात्र तिमिरं तव वाग्विलासा । विद्या विनोदि विदुषां महतां मुखाग्रे | निघ्नन्ति तिग्म किरणा निहिता निरीहे । तुङ्गोदयाद्रि शिर सीव सहस्र रश्मेः ||२९|| Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ माँ सरस्वती . श्री सरस्वती साधना विभाग सभी प्रकार की इच्छाओं से मुक्त, हे निःस्पृहा ! अथवा वरदात्री होने के कारण ज्ञानीजनों द्वारा आपसे मनोकामना प्राप्ति की आशा की जानेवाली हे माँ सरस्वती ! जिस प्रकार उदयगिरि के शिखर से आने वाले सहस्त्र रश्मियों से शोभित सूर्य की प्रखर किरणें, विश्वव्यापी अंधकार का नाश करती है, वैसे ही आपका वाणी विलास सभी विद्याओं के विनोदी, बड़े बड़े पंडितजनों की जिह्वान पर रहे हुए संशय एवं अज्ञान रूप अंधकार का नाश करता है । पृथ्वी तलं द्वयम पायि पवित्रयित्वा । शुभ्रं यशो धवलयत्य धुनोललोकम् ।। प्राग् लङघयत् सुमुखि ! ते यदिदं महिम्ना । मच्चै स्तटं सुरगिरे रिव शात कौम्भम् ।।३०।। हे सुन्दर देहधारी माँ सरस्वती ! जन्म-मृत्युरूपी संकटों से व्याप्त नागलोक एवं पृथ्वीलोक रूपी दो धरातलों को पवित्र करने वाली आपकी वांछितदायक कीर्ति, तीर्थंकर के जन्मोत्सव के स्नात्र कलश के समान उज्ज्वल है। मानो जो अभी अभी अपनी महिमाओं के अतिशयों से, सुरगिरि मेरू पर्वतके स्वर्णमय कलशों को पार करती हुई स्वर्गलोक को भी निर्मल बना रही हो । रोमोर्मिभि (वन मातरिव त्रिवेणी । संगं पवित्रयति लोक मदोऽङगवर्ति । विभ्राजते भगवति ! त्रिवली पथं ते । प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वर त्वम् ||३१|| हे जगतमाता ! हे परमेश्वरी ! हे माता ! आपकी सुन्दर देह के उदर पर रही हुई तीन रेखाओं से बना हुआ त्रिवली मार्ग, आपके त्रिभुवन के परमेश्वर पने को कथन करता हुआ, गंगा, यमुना एवं सरस्वती रूपी त्रिवेणी संगम प्रयागराज के समान, आपके रोमरूपी कल्लोलों के द्वारा जगत को पवित्र करता हुआ विशेष शोभाको प्राप्त कर रहा है। भाष्योक्ति युक्ति गहनानि च निर्मिमीषे । यत्र त्वमेव सति ! शास्त्र सरोवराणि || जानीमहे खलु सुवर्ण मयानि वाक्य । पद्मानि तत्र विबुधाः परि कल्पयन्ति ॥३२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग हे सती ! जहाँ आप किसी भी विषय या प्रस्ताव पर भाष्य की उक्ति एवं युक्तियों द्वारा गहन शास्त्ररूपी सरोवरों की रचना करती हो, वहां उन विषय या प्रस्ताव अथवा उन रचनाओं पर विद्वान पंडितजन, विविधरंगी सुन्दर वाक्यरूपी, स्वर्णरूपी कमलपुष्पों की रचना करते हैं । १०५ वाग् वैभवं विजयते न यथे तरस्या । "ब्राह्मि !'' प्रकाम रचना रूचिरं तथा ते ॥ ताडङ्कयो स्तव गभस्ति रतीन्दु भान्वो । स्तादृक् कुतो ग्रह गणस्य विकाशिनोऽपि ॥३३॥ हे ब्राह्मी ! रचना के साथ अत्यंत मनोहर होने से आपका वाणी वैभव जितना विजयी है, उतना अन्य किसी का भी नहीं है, यह पूर्णतः सत्य है । साथ ही, आपके कर्ण कुंडलों की कांति ने सूर्य एवं चंद्रमा की प्रभा का मानो अतिक्रमण ही कर लिया है अथवा वह उनसे भी अधिक तेजस्वी है । अतः आपके कुंडलों की कांति के बराबर तेज वाली कांति, उदय हुए अन्य ग्रहों के समुदाय की भी कैसे हो सकती है ? कल्याणि ! सोपनिषदः प्रसभं प्रगृह्य । वेदानतीन्द्र जदरो जलधौ जुगोप || भीष्मं विधेर सुर मुग्ररूषाऽपि यस्तं । दुष्टवा भयं भवतिनो भवदाश्रितानाम् ||३४| हे कल्याणी ! शंख नामके दैत्य ने देवराज इन्द्र के भय की भी अवगणना करके अतिक्रोधित हो ब्रह्माजी के रहस्यात्मक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अर्थवेद एवं सामवेद को बलपूर्वक प्राप्त करके इन चारों वेदों को समुद्र में छुपा दिया था । ऐसे भयंकर दानव का सामना हो जाने पर भी आपका आश्रय ग्रहण करने वाले आपके सेवक को उस राक्षस से लेशमात्र भी डर नहीं लगता है । गर्जद् घनाघन समान तनू गजेन्द्र | विष्कम्भ कुम्भ परिरम्भ जयाधिरूढः || द्वेष्योऽपि भूप्रसर दश्च पदाति सैन्यो । नाक्रामति क्रम युगाचल संश्रितं ते ||३५| Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ माँ सरस्वती ..... श्री सरस्वती साधना विभाग हे भद्रे ! गर्जना करते हुए काले बादलों के समान श्याम वर्णी, विशाल देहधारी, गजेन्द्र के विस्तीर्ण गंडस्थल को आलिंगन करने के समान उसपर आरूढ़ होकर पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने हेतु जिनकी अश्व एवं पायदलों की सेनायें कमर कसकर तैयार हो रही हों, ऐसा शत्र भी, हे माता ! आपके चरण युगल रूपी पर्वतों का आश्रय लिये हुए, आपके सेवकों को किसी भी प्रकार की पीडा नहीं पहुँचा सकता । मांसासू-गस्थि रस शुक्र सलज्ज मज्जा । स्नायूदिते वपुषि पित्त मरूत् कफाद्यैः ।। रोगानलं चपलि तावयवं विकारै । स्त्वन्नाम कीर्तन जलं शमयत्य शेषम् ।।३६॥ हे माता शारदा ! मांस, रक्त, अस्थि, रस, वीर्य, (लज्जाशील) मज्जा (चरबी) एवं स्नायु उन सात धातुओं से बने शरीर में उत्पन्न हुए पित, वायु और कफ के विकारों से शरीर के नाड़ी एवं श्वास तंत्र के अवयवों में व्याप्त व्याधि रूपी समस्त अग्नि को, आपका नाम कीर्तन रूपी जल शांत कर देता है । मिथ्या प्रवाद निरतं व्यधिकृत्य सूय । मेकान्त पक्ष कृत कक्ष विलक्षितास्यम् । चेतो ऽस्तभीःस परि मर्दयते द्विश्रितॆ । त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥३७।। हे भद्रे ! जिस पुरुष के हृदय में आपके नामरूपी 'नागदमनी' (सर्प को वश में करने वाली जड़ी) हो, वह निर्भय चित्त वाला होकर, असत्य प्रलाप (झुठ बोलने) के विषय में अत्यंत आसक्त, विशेष इर्ष्यालु और एकांतपक्ष को अंगीकार करनेवाले तथा विलक्षण शरीर धारी दुर्जनरूपी सर्प को चूर्ण (नाश) कर देता है अथवा वश में कर लेता है | प्राचीन कर्म जनिता वरणं जगत्सु । मौढ्यं मदाढ्य दृढ मुद्रित सान्द्र तन्द्रम् ।। दीपांशु पिष्टमयि ! सद्मसु देवि ! पुंसाम् । त्वत् कीर्तनात् तम इवाशु भिदा मुपैति ।।३८|| Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग हे कल्याणी ! हे देवी ! जिन मनुष्य के अपने पिछले पूर्वकृत कर्मोंसे वर्तमान में उत्पन्न ज्ञानावरणादि कर्मो के आवरण से आच्छादित होने के साथ ही, उनके बढे हुए अभिमान के कारण, जिनके लिये मानो आलस्य धन का ही मूर्खता के रूप में मजबूत मुद्रण हुआ हो, दुनिया में ऐसे मनुष्य की मूर्खता का भी आपके नाम कीर्तन से, घरों में दीपक की रोशनी से दूर हुए अंधकार के समान नाश हो जाता है | १०७ साहित्य शाब्दिक रसामृत पूरितायां । सत्तर्क कर्कश महोर्मि मनोरमायाम् ।। पारं निरंतर मशेष कलन्दिकायां । त्वत् पाद पङ्कज वना श्रयिणो लभन्ते ||३९॥ हे देवी सरस्वती ! आपके चरण कमल रूपी वन का निरंतर आश्रय लेने वाले, काव्यादिक साहित्य एवं व्याकरण के रसामृत से परिपूर्ण तथा विद्वान पंडितों के तर्क रूपी कठोर एवं आनंद की कल्लोलों द्वारा मनोहर समस्त विद्याओं में पारंगत हो जाता है । संस्थै रूपर्यपरि लोक मिलौकसो ज्ञा । व्योम्नो गुरुज्ञ कविभिः सह सख्य मुच्चैः ॥ अन्योऽन्य मान्य मितिते यदवैमि मात । स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ||४०|| हे माता सरस्वती ! इस मृत्युलोक वासी पंडित जन आपका स्मरण करने से, सभी प्रकार से त्रास रहित होकर, नक्षत्रों से युक्त आकाश में उपर रहे हुए बृहस्पति, बुध एवं शुक्र आदि ग्रहों मे रहे हुए देवरूपी मनुष्यों से भी परस्पर अतिमान्य मित्रता को प्राप्त करते हैं। (अर्थात यहां के मानव की वहां के देवों के साथ एवं वहां के देवों की यहां के मानवों के साथ मित्रता हो जाती है ।) देवा इयन्त्यजनि मम्ब ! तव प्रसादात् । प्राप्नो त्यो प्रकृति मात्मनि मानवीयाम् || व्यक्तं त्वचिन्त्य महिमा प्रतिभाति तिर्यङ् । • मर्त्या भवन्ति मकर ध्वज तुल्य रूपाः ॥४१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग हे माता ! सर्वत्र ही आपकी अचिन्त्य महिमा स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो रही है । अर्थात् आपकी महिमा अपार है । क्योंकि, हे देवी ! आपकी कृपा से तिर्यंच भी तिर्यंच भव को त्यागकर मनुष्य भव को प्राप्त कर लेते हैं तथा मनुष्य कामदेव मदन के समान सुन्दर स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं एवं देव तथा दानव भी योनि रहित जन्म को प्राप्त करते हैं। ये चानवद्य पदवी प्रतिपद्य पद्मे ! । त्वच्छिक्षिता वपुषि वासरतिं लभन्ते ।। नोऽनुग्रहात् तव शिवा स्पद माप्य ते यत् । सद्यः स्वयं विगत बन्ध भया भवन्ति ॥४२॥ हे पद्मे ! आपकी कृपा रूप ज्ञान प्राप्त करके अर्थात् आपके वरदान से विभूषित होकर जो मनुष्य, स्याद्वाद रूपी दोष रहित मार्ग को प्राप्त कर लेते हैं, फिर, उन्हें माता के शरीर में निवास करके जन्म लेने में जरा भी रूचि नहीं रहती । अर्थात वे गर्भावतार से पूर्णतः विमुख हो जाते हैं । अथवा वे आपकी कृपा से मोक्षपद को प्राप्त करके अपने स्वयं के पुरूषार्थ से तत्काल अष्ट कर्म के बन्धन के भय से मुक्त हो जाते है । इन्दोः कलेव विमलाऽपि कलङ्क मुक्ता । गङ्गेव पावनकरी न जलाशयाऽपि ॥ स्यात् तस्य भारति ! सहस्रमुखी मनीषा | यस्तावकंस्तव मिमं मतिमान धीते ।।४३।। हे भारती ! जो बुद्धिशाली आपके इस स्तोत्र का पठन करते हैं, उनकी बुद्धि चंद्रमा की सहस्रमुखी कला के समान निर्मल और कलंक रहित होने के साथ ही गंगा के जल के समान दूसरों को पवित्र करने वाली होती हैं एवं मूरों के लिये तो निश्चितरूप से अभिप्राय रहित ही होती है । यो ऽहअये ऽकृतजयो ऽगुरूखे ऽमकर्ण । पाद प्रसाद मुदि तो गुरू धर्मसिंहः ।। वाग्देवी ! भूम्नि भवतीभि रभिज्ञ सके । तं मानतुङग मवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४४॥ .. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ माँ सरस्वती श्री सरस्वती साधना विभाग हे वाग्देवी ! अनाचारी होते हुए भी अपने को गुरू कहलाने वाले कुगुरूओं को उनकी अपनी ही बातों में बांधकर निस्तर करने वाले, एकान्तवादियों के अहंकार को जीतने वाले, रोग दुःख और ऋणरूपी बन्धनों से मुक्त होकर हर्षित हुए, बहुविध साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं के चतुर्विध संघ के लिए अपने गौरव से वृद्धि को प्राप्त एवं दशविध धर्म के लिए आपकी कृपा से जो साधक सिंह के समान विजय प्राप्त कर लेता है, ऐसे आपकी कृपा से प्राप्त सत्कार से उन्नत हुए साधक के पास, स्वतंत्र रही 'लक्ष्मी' स्वयं आती है। समाप्त ॐ नमो अरिहंताणं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा। प्रस्तुत पुस्तक में ज्ञानाचार संबंधी जो भी लेख-काव्य-साधना विभाग को संग्रहीत किया गया है, उससे, पाठक-वर्ग सम्यग ज्ञान दशा को उजागर कर स्व-पर हित द्वारा समस्त विश्व का कल्याण करे इसी भावना के साथ जिनाज्ञा-शास्त्राज्ञा से विपरीत लिखा हो तो अतकरण से मिच्छामि दुक्कडं... Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माँ सरस्वती ११० श्री सरस्वती साधना विभाग बुद्धि एवं स्मृतिवर्धक आयुर्वेदिक औषधी प्रयोग १) स्मृति बढाने हेतु यहाँ जो प्रयोग दिये है, वे अत्यंत सरल, सस्ते और स्वयं करने जैसे है। फिर भी जरुरत पर अनुभवी चिकित्सक से संपर्क करें। २) औषधी समय पर लेवे तथा साथ-साथ में परेजी (पत्थ्य) का भी उतना ही ख्याल रखें। ३) महाविगई होने से शहद (Honey/मध) वापरना अपने शास्त्र-द्रष्टि से संपूर्ण निषिद्ध है । अतः दवाइयों के साथ उसका प्रयोग त्याज्य है । शहद की जगह शक्कर की चासणी का उपयोग करें । औषधि १) ब्राह्मी चूर्ण : ब्राह्मी का पान - १ भाग + लीडीपीपर - १ भाग + आवला १ भाग + शक्कर - ४ भाग, इन चीजों को मिलाकर चूर्ण बनाइए. उसमें से प्रतिदिन सुबह पाव तोला चूर्ण तीन महिने तक लेके उपर से देशी गाय का दूध लेनेसे स्मृति-शक्ति तीव्र बनती है। २) ब्रह्मी गुटिकी : ब्राह्मी चूर्ण और शिलाजित सम प्रमाण लेके शक्कर की चासनी में मिलाकर छोटी-छोटी गोली बनाइए | उसे छांव मे सुखाकर प्रतिदिन सुबह और शाम एक-एक गोली वापरने से बुद्धि तेज बनती है। ३) त्रिफला चूर्ण : त्रिफला (याने हरडा, बहेडा और आमला का) चूर्ण पक्के नमक के साथ एक वर्ष तक नित्य लेने से बुद्धि एवं स्मृति में बहुत सुधार होता है। ४) ज्येष्ठिमध चूर्ण : ज्येष्ठिमध चूर्ण वंशलोचन के साथ लेने से स्मृति तेजस्वी बनती है। इसके अलावा-शंखावली चूर्ण, शतावरी चूर्ण, चंद्र प्रभावटी, सारस्वत चूर्ण, वचाचूर्ण, धात्री चूर्ण आदि का प्रयोग भी कर सकते है । ज्योतिष्मति तेल-मालकांगणी को संस्कृत में ज्योतिष्मति कहते है । इस तेल के १० बुंद पतासे पर डालना । फिर, पतासा खाकर गाय का दुध पीना । पानी अल्प वापरना । इस ज्योतिष्मति तेल का जो उपयोग करता है, वह प्रज्ञामूर्ति-कवीन्द्र बनता है । (इस तेल का पाव तोला से अधिक उपयोग न करें।) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर की प्रार्थना । विश्ववंद्या ! सद्य वरदा ! भक्त वत्सला ! हे माते ! सरस्वती भगवती ! आज तुझे देखकर अंतर की उर्मियों से आनंद सागर छलक रहा है। जैसे चन्द्र के दर्शन से चकोर पक्षी नाच उठता है, मेघ की गर्जना से मयुर झुम उठता है, वैसे ही आज तेरे दर्शन-पूजन और भक्ति द्वारा हर्ष के अतिरेक से मेरा मन नाच रहा है, मेरे वचन उल्लसित हो उठे है...मेरे नयन पवित्र बन चुके है । आज मैं अपने आपको विश्व का एक धन्यतम अवतारी आत्मा समझ रहा हूँ| सच कह तो 'माँ' शब्द उच्चारते ही मेरा मुख भर जाता है । दिल में परम-तृप्ति होती है, इच्छाए परितोष प्राप्त करती है | बहुत कुछ माँगने का मन होता है...किन्तु माँ ! तेरी अस्मिता ही इतनी भव्य और दिव्य है कि, मेरी समस्त इच्छा, आकांक्षा और कामनाओं का अस्तित्त्व ही विलीन हो जाता है । फिर भी, इस भक्त को अगर कुछ देना ही चाहती हो, तो हे माते ! हमारे मोह-माया और अज्ञान-तमस्-कुमतिका सर्वथा नाश करना...मन के सभी विकल्प-विमोह और विकृतिओं को हमेशा दूर करना । पाप-ताप और संताप को शमाकर शांति-समता और समाधी देना । हमारे जीवन की दीनता-दारिद्र एवं दुर्मति को सदा के लिए दूर करना। सम्यग्ज्ञान-विद्या-बुद्धि एवं निर्मल प्रज्ञा के साथ-साथ विनय-विवेक के प्रकर्ष को देना । अखिल ब्रह्मांड के सौभाग्य एवं कल्याण अर्थे मेरे हृदय-कुंभ में निःसीम करुणा-मैत्री और वात्सल्य का अमृत भरना । इस संसार के आर्त और पीडित प्राणीओं पर सतत प्रेम की . पावन गंगा बहाना । और हाँ....! अनंत शक्ति-समृद्धि एवं सिद्धि का द्वारोद्घाटन । करके जाज्वल्यमान आत्म ज्योतिरूप केवलज्ञान की साद्यंत प्रणेता बनकर हमारे मेरे इस मनुज भव को सफल एवं सार्थक बनाना anistar Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO CV Serving Jin Shasan 136209 gyanmandira kobatirth.org RAJUL 022-25149863 022-2511 0056