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माँ सरस्वती..
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श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग
श्री सम्यग्ज्ञानोपासना विभाग
आचार और अतिचार
`आचारो खलु प्रथमो धर्मः' कहकर विश्वपूज्य अनंतोपकारी करुणासागर प्रभु महावीरने धर्मका वास्तविक स्वरुप प्रगट किया है । जिस धर्म में आचार की महत्ता है और उन आचारों की चुस्तता मुताबिक ही जीवन जीने की पद्धति है, वही धर्म वास्तविक सद्धर्म है । जिनशासन में आचार शुद्धि एवं विचारशुद्धि पर विशेष भार दिया गया है। इन सदाचार एवं सद्विचारों की नीव पर तो, जिनशासन की भव्यातिभव्य विख्याति की इमारत खडी है । अन्य सभी धर्मों की तुलना में जैन धर्म के सिद्धांत ही सविशेष प्रकाश्यमान है ।
जैन धर्म में आचारों के मूख्य पांच भेद है ।
१) ज्ञानाचार, २) दर्शनाचार, ३) चारित्राचार, ४) तपाचार ५) वीर्याचार इन सभी में प्रथम ज्ञानाचार को जानना अत्यंत जरुरी है, कारण, बिना ज्ञान अन्य चार को समझना और उनका पालन करना भी मुश्किल है ।
ज्ञानाचार के यथोचित पालन से बुद्धि की शुद्धि एवं जिन कर्मों के कारण केवलज्ञान का प्रगटी करण रुक जाता है, ऐसे मोहनीय-ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय अंतराय रुप चार घाती कर्मों का भी विनाश होता है । अर्थात् हमारा ज्ञान सम्यग् एवं विशुद्ध बनता है ।
तो चलिये ! ज्ञानाचार के आठ आचारों को जानकर उसकी पालना करे |
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श्लोक : काले, विणये, बहुमाणे, उवहाणे तह अनिन्हवणे | वंजन, अत्थ, तदुभए, अठ्ठविहो नाण मायारो ||
१) काल आचार : निश्चित बताये हुए समय में ही विद्या अभ्यास करना । २) विनय आचार : विद्या-अभ्यास करते गुरुजनों का उचित विनय-विवेक