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माँ सरस्वती
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अप्राप्य श्री शारदा महाकाव्यम्
छंद - वसन्ततिलका (भक्तामर स्तोत्र)
रचयिता : प्रज्ञाचक्षु पंडितवर्य श्री दिव्यानंदजी (ढंकगिरी)
ज्योती तणा किरणनी करे दिव्य स्वारी, आवो तमे सरस्वती अति ज्ञान धारी । कृपा करी हृदय मंदिरमां पधारो, अज्ञानता मुज तणी सघळी निवारो ||१||
हे शारदा ! सरस्वति ! शुभज्ञान दाता, तारो महान महिमा जन सर्व गाता । हेमाद्रिना धवल मंदिरमां बिराजे, गांधर्व-किन्नरतणा मधु गीत गुंजे ||२||
वीणा मनोहर सोहे कर मां रहेली, ग्रंथ गीत रचना रसथी भरेली । माळा हे स्फटीकनी फळ सर्व आपे, वांछीत पूर्ण करती तुज मंत्र जापे ||३|
तारी कृपा भगवती जन सर्व मागे, श्रद्धा धरी हृदयमां भजता सुरागे । तुं शारदा ! परम ज्ञान प्रकाश आपे, अज्ञान दूर करती सुख-शांती स्थापे ||४|
• श्वेतांबरी ! सुनयना ! नयनो नशीला, ओष्ठो प्रवाल सम सुंदर ने रसीला । शा केश कुंचीत सुकोमल दीर्घ तारा, मां रह्या हिरकना चमके सीतारा ॥५॥
तुं चंद्रनी धवल सुंदर चांदनी शी, वाणी रसिक मनमोहक मोहीनी शी ।
श्री सरस्वती साधना विभाग
व मधुर तुज स्मित छटा ज न्यारी, तु शांत सौम्य सुखदायक हर्षकारी ||६||