Book Title: Samaysara Part 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित समयसार (खण्ड-1) (जीव-अजीव अधिकार) (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन णाणुज्गोवो जरोवो जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी MUDDPPR प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द-रचित समयसार (खण्ड-1) (जीव-अजीव अधिकार) (मूलपाठ-डॉ. ए. एन. उपाध्ये) (व्याकरणिक विश्लेषण, अन्वय, व्याकरणात्मक अनुवाद) संपादन डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी अनुवादक श्रीमती शकुन्तला जैन सहायक निदेशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी CR णाणुज्जीवो जीवी जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी - 322 220 ( राजस्थान ) दूरभाष - 07469-224323 प्राप्ति-स्थान 1. साहित्य विक्रय केन्द्र, श्री महावीरजी 2. साहित्य विक्रय केन्द्र दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004 दूरभाष- 0141-2385247 प्रथम संस्करण : सितम्बर, 2015 सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य - 550 रुपये ISBN 978-81-926468-7-9 पृष्ठ संयोजन फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स जौहरी बाजार, जयपुर - 302 003 दूरभाष- 0141-2562288 मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्रा. लि. एम.आई. रोड, जयपुर - 302 001 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका क्र.सं. विषय पृष्ठ संख्या प्रकाशकीय 10 49 80 ग्रंथ एवं ग्रंथकारः सम्पादक की कलम से संकेत-सूची जीव अधिकार जीव-अजीव अधिकार मूल पाठ परिशिष्ट-1 . (i) संज्ञा-कोश (ii) क्रिया-कोश (iii) कृदन्त-कोश (iv) विशेषण-कोश (v) सर्वनाम-कोश (vi) अव्यय-कोश परिशिष्ट-2 89 97 100 104 109 111 छंद 116 परिशिष्ट-3 सहायक पुस्तकें एवं कोश 119 Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आचार्य कुन्दकुन्द-रचित 'समयसार ( खण्ड - 1 ) जीव - अजीव अधिकार' व्याकरणात्मक हिन्दी अनुवाद सहित पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। - आचार्य कुन्दकुन्द का समय प्रथम शताब्दी ई. माना जाता है। वे दक्षिण कोण्डकुन्द नगर के निवासी थे और उनका नाम कोण्डकुन्द था जो वर्तमान में कुन्दकुन्द के नाम से जाना जाता है। जैन साहित्य के इतिहास में आचार्य श्री का नाम आज भी मंगलमय माना जाता है। इनकी समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, अष्टपाहुड, दशभक्ति, बारस अणुवेक्खा कृतियाँ प्राप्त होती हैं। आचार्य कुन्दकुन्द-रचित उपर्युक्त कृतियों में से 'समयसार' जैनधर्मदर्शन को प्रस्तुत करनेवाली शौरसेनी भाषा में रचित एक रचना है। इस ग्रन्थ में कुल 415 गाथाएँ हैं जिनमें से खण्ड-1 में जीव - अजीव अधिकार से 1 से 68 तक की गाथाएँ ली गई हैं। इस खण्ड में आचार्य कुन्दकुन्द ने एकत्व / स्वसमय की अवधारणा, परसमय की अवधारणा, ज्ञानी- अज्ञानी के भेद को दार्शनिक-आध्यात्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने इस अधिकार में साधारण/लौकिक मनुष्य और असाधारण/अलौकिक मनुष्य को समझाने के लिए निश्चय - व्यवहार की एक अपूर्व पद्धति प्रस्तुत की है। इसके साथ ही यह भी बताया गया है कि एकत्व ( आत्मानुभूति) की प्राप्ति के लिए अनात्मदृष्टि को छोड़कर आत्मस्थितदृष्टि को अपनाना आवश्यक है। 'समयसार' का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सहज, सुबोध एवं नवीन शैली में किया गया है जो पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी होगा। इसमें गाथाओं के शब्दों (v) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अर्थ व अन्वय दिया गया है। इसके पश्चात संज्ञा-कोश, क्रिया-कोश, कृदन्तकोश, विशेषण-कोश, सर्वनाम-कोश, अव्यय-कोश दिया गया है। पाठक 'समयसार' के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत भाषा व जैनधर्म-दर्शन का समुचित ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, ऐसी आशा है। प्रस्तुत कृति का खण्ड-1 प्रकाशित किया जा रहा है। जैन दार्शनिक साहित्य को आसानी से समझने और प्राकृत-अपभ्रंश की पाण्डुलिपियों के सम्पादन में समयसार का विषय सहायक होगा। श्रीमती शकुन्तला जैन, एम.फिल. ने बड़े परिश्रम से प्राकृत-अपभ्रंश भाषा सीखने-समझने के इच्छुक अध्ययनार्थियों के लिए 'समयसार (खण्ड-1)' का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। अतः वे हमारी बधाई की पात्र हैं। पुस्तक-प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वानों विशेषतया श्रीमती शकुन्तला जैन के आभारी हैं जिन्होंने समयसार (खण्ड-1)'का हिन्दीअनुवाद करके जैनदर्शन व शौरसेनी प्राकृत के पठन-पाठन को सुगम बनाने का प्रयास किया है। पृष्ठ संयोजन के लिए फ्रेण्ड्स कम्प्यूटर्स एवं मुद्रण के लिए जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादार्ह है। अध्यक्ष न्यायाधिपति नरेन्द्र मोहन कासलीवाल महेन्द्र कुमार पाटनी मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जैनविद्या संस्थान समिति जयपुर वीर निर्वाण संवत्-2541 18.09.2015 (vi) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित समयसार भारतीय अध्यात्म का प्रतिनिधित्व करनेवाली एक अमर कृति है। साधनामय जीवन की परिपूर्णता का दिग्दर्शन करानेवाला यह एक अपूर्व आगम ग्रन्थ है। परम साधना के मार्ग की एक सन्तुलित दृष्टि प्रदान करने के लिए समाज समयसार का सदैव ऋणी रहेगा। बाह्य और अन्तर का एक अप्रतिम/अनुपम संयोग यहाँ उपस्थित है। समाज और समाजातीत का विरोध-रहित अद्भुत समन्वय पाठक को यहाँ मिलेगा। एवार/स्व-समय की अवधारणाः सा समयसार जीवन में आध्यात्मिक परिपूर्णता के आदर्श से प्रारम्भ होता है। यह परिपूर्णता ही ‘एकत्व' है। यह ही 'स्व-समय' है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व में आत्मा का स्थित होना ही स्व-समय में ठहरना है (2)। ___ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि एकत्व की अनुभूति आत्मगुणों की संश्लिष्ट अनुभूति होती है। वह भिन्न-भिन्न गुणों की बिखरी हुई अनुभूति नहीं रहती है। ऐसी स्थिति में अभेद रत्नत्रय को प्राप्त की हुई एकत्वस्वरूप आत्मा स्व और पर की केवल ज्ञायक' ही होती है (6)। दूसरे शब्दों में एकत्वस्वरूप आत्मा पर से भिन्न/विभक्त है। इसलिए पर से भिन्न अभेदरत्नत्रयस्वरूप आत्मा को एकत्व विभक्त कहा गया है। यही आत्मानुभव की चरम स्थिति है। यही अरहंत और सिद्ध अवस्थाएँ हैं। __ आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि यद्यपि दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व की दृढ़ता को प्राप्त हुआ आत्मा प्रशंसनीय होता है, किन्तु बाह्य उलझनों समयसार (खण्ड-1) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से छूटकर अंतरंग में प्रकाशमान आत्मा के एकत्व की प्राप्ति सुलभ नहीं है। इसके कारण के रूप में उनका कहना है कि अनादिकाल से व्यक्ति ने इन्द्रिय-विषयों की अधीनता को स्वीकार कर रखा है। इन्द्रिय-विषय ही उसे आकर्षित करते रहते हैं। इन्द्रिय-पुष्टि-तुष्टि का जीवन ही उसे स्वाभाविक लगता है। बाह्य विषयों में जकड़ा हुआ ही वह अपनी जीवन यात्रा चलाता है, उसे विषयों की वार्ता ही रुचिकर लगती है। ___ फलस्वरूप आचार्य कहते हैं कि- जैसे अनार्य व्यक्ति अनार्य भाषा के बिना कुछ भी पढ़ने/समझने के लिए समर्थ नहीं है, वैसे ही व्यवहार (बाह्यदृष्टि/ लोकदृष्टि) के बिना परमार्थ/एकत्वरूप शुद्ध आत्मा का उपदेश देना संभव नहीं है (8)। इसलिए उन्होंने निश्चय और व्यवहार को उपदेश का माध्यम बनाया। निश्चय का अर्थ हैः अन्तरदृष्टि, आत्मदृष्टि या स्वदृष्टि और व्यवहार का अर्थ है: बाह्यदृष्टि, लोकदृष्टि या परदृष्टि। उपर्युक्त कथन इस बात "पुष्ट होता है जब आचार्य कहते हैं कि व्यवहारनय अभूदत्थ है अर्थात् अन, नी में स्थित-दृष्टि है और निश्चयनय भूदत्थ है अर्थात् आत्मा में स्थित दृष्टि है (11)। जो अनात्मदृष्टि है वह बाह्यदृष्टि है, परदृष्टि है तथा आत्मा से परे लोकदृष्टि है। जो आत्मा में स्थित दृष्टि है- वह अन्तरदृष्टि है, स्वदृष्टि है तथा आत्मदृष्टि है। अतः आचार्य कहते हैं कि एकत्वस्वरूप शुद्ध आत्मा का निरूपण शुद्धनय/शुद्ध आत्मदृष्टि है। वह शुद्धनय/शुभ-अशुभ से परे एकत्वस्वरूप शुद्ध आत्मभाव की प्राप्ति में रुचि रखनेवाले के द्वारा ही समझा जाने योग्य है और जो अ-परम/शुभ-अशुभ आत्म भाव में दृढ़मना है वे ही व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) के द्वारा उपदेश दिए गए हैं, क्योंकि वे उसी को समझने के योग्य हैं (12)। जो नय आत्मा को कर्मबंधन से रहित, पर से अस्पर्शित, अन्य विभाव पर्यायों से रहित, स्थायी, अंतरंग भेद-रहित और अन्य से असंयुक्त देखता है, वह शुद्धनय है (14)। समयसार (खण्ड-1) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय-व्यवहार समझाने की अपूर्व पद्धतिः ___ आचार्यकुन्दकुन्दनेसाधारण/लौकिकमनुष्य और असाधारण/अलौकिक मनुष्य को समझाने के लिए यह पद्धति विकसित की है। इसके कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं1. व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) से कहा जाता है कि ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। निश्चयदृष्टि (अन्तरदृष्टि/आत्मदृष्टि/स्वदृष्टि) से कहा जा सकता है कि आत्मा को एकत्वरूप से अनुभव करनेवाले के न दर्शन है , न ज्ञान है और न ही चारित्र है किन्तु वह तो एकमात्र शुद्ध ज्ञायक ही है (7)। 2. जो भाव श्रुतज्ञान (स्वसंवेदन/स्वानुभव) से शुद्धआत्मा को अनुभव करता है उसको महर्षि निश्चय श्रुतकेवली कहते हैं। जो समस्त द्रव्य श्रुतज्ञान से पदार्थों को जानता है उसको जिन व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं (9-10)। 3. साधु के द्वारा दर्शन-ज्ञान-चारित्र सदैव आराधन किये जाने चाहिए। यह व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि) से कहा गया है और उन तीनों को/उनके एकत्व को निश्चयनय (अन्तरदृष्टि) से आत्मा ही जानो (16)। 4. व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि) कहता/कहती है कि जीव और देह एक समान ही है, परन्तु निश्चयनय (अन्तरदृष्टि) के अनुसार तो जीव और देह कभी एक समान नहीं होते हैं (27)। 5. जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके मुनि ऐसा मानता है किउसके द्वारा केवली भगवान स्तुति व वंदना किए गए है। वह (केवली के पुद्गलमय देह की) स्तुति निश्चयदृष्टि (आत्मदृष्टि) से उपयुक्त नहीं होती है, क्योंकि केवली के शरीर के पुद्गलमयी गुण (केवली के आत्मा के गुण) नहीं होते हैं। जो केवली के आत्म-गुणों की स्तुति करता है, वह वास्तव में केवली की स्तुति करता है (28-29)। ठीक ही है, जैसे नगर का वर्णन कर देने से राजा का समयसार (खण्ड-1) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन नहीं होता है, वैसे ही देह की विशेषताओं की स्तुति कर लेने से शुद्ध आत्मारूपी राजा की स्तुति नहीं हो पाती है (30)। अतः समयसार का शिक्षण है कि जैसे कोई भी धन का इच्छुक मनुष्य राजा को जानकर उस पर विश्वास करता है और तब उसकी बड़ी सावधानीपूर्वक सेवा करता है, वैसे ही परम शान्ति के इच्छुक मनुष्य के द्वारा आत्मारूपी राजा समझा जाना चाहिये तथा श्रद्धा किया जाना चाहिये और फिर निस्संदेह वह ही अनुसरण किया जाना चाहिये (17, 18)। 6. राजा के साथ सेना के समूह को निकलते देखकर सारी सेना को राजा कहना व्यवहार (बाह्यदृष्टि) है, वहाँ तो वास्तव में एक ही राजा है अन्य तो उसकी सेना का समूह है। ठीक इसी प्रकार जीव से भिन्न (राग आदि) अध्यवसान आदि परिणामों को 'जीव' कहना व्यवहारनय है, क्योंकि वे जीव के साथ है, किन्तु उन रागादि परिणामों में निश्चयनय से 'जीव' तो एक ही है (47-48)। 7. जीव में कोई वर्ण नहीं है उसमें कोई गंध भी नहीं है, उसमें कोई रस भी नहीं है, उसमें कोई स्पर्श भी नहीं है, उसमें कोई शब्द भी नहीं है (50)। जीव में राग नहीं है, उसमें द्वेष भी नहीं है, न ही उसमें मोह आदि (है) (51)। ये वर्ण आदि भाव व्यवहारनय से जीव के होते हैं, किन्तु निश्चयनय के मत में उनमें से कोई भी जीव के नहीं है (56)। यह समझा जाना चाहिए कि इन वर्णादि के साथ जीव का सम्बन्ध दूध और जल के समान अस्थिर है। वे वर्णादि उस जीव में स्थिररूप से बिल्कुल ही नहीं रहते हैं, क्योंकि जीव तो ज्ञान-गुण से ओतप्रोत होता है (57)। मार्ग में व्यक्ति को लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग कहते हैं कि यह मार्ग लूटा जाता है, किन्तु वास्तव में कोई मार्ग लूटा नहीं जाता है, लूटा तो व्यक्ति जाता है (58)। उसी प्रकार संसार में व्यवहारनय के आश्रित लोग कहते हैं कि वर्णादि जीव के हैं (60), किन्तु वास्तव में वे देह के गुण हैं, जीव (4) समयसार (खण्ड-1) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नहीं। मुक्त जीवों में किसी भी प्रकार के वर्णादि नहीं होते हैं (61)। यदि इन गुणों को निश्चय से जीव का माना जाएगा तो जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं रहेगा (62)। निश्चयनय से आत्मा में पुद्गल के कोई भी गुण नहीं हैं। अतः आत्मा रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, स्पर्श से भी अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्दरहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला तथा न कहे हुए आकारवाला जानो, क्योंकि विभिन्न जीवों द्वारा विभिन्न शरीराकार ग्रहण किया हुआ होने के कारण कोई एक आकार नियत नहीं किया जा सकता है (49)। पर-समय की अवधारणाः ____ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व में स्थित आत्मा स्व-समय है, किन्तु जो जीव बाह्य उलझनों में लिप्त होकर राग-द्वेष भावों में एकरूप होकर पुद्गल कर्म-समूह में स्थित होता है वह पर-समय में अर्थात् पर में ठहरनेवाला आत्मा है (2)। दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व की दृढ़ता को प्राप्त हुआ आत्मा सर्वत्र प्रशंसनीय होता है, किन्तु एकत्व में पर के साथ बंधन की कथा विसंवादिनि अर्थात् द्वन्द्व-जनक/अहं-जनक/दुख-जनक होती है (3)। ज्ञानी-अज्ञानी का भेद (साधना-दृष्टि): जो जीव अज्ञान से मूर्च्छित बुद्धिवाला है, वह बद्ध-देह और अबद्धदेह से भिन्न पुद्गलात्मक वस्तु समूह में ममत्व दर्शाता है (23)। किन्तु ज्ञानी सभी भावों को पर समझकर त्याग देता है (35) और मानता है कि मैं (जीवात्मा) केवलमात्र उपयोग लक्षणवाला ही हूँ, मेरे किसी भी प्रकार का मोह (परभाव) नहीं है (36) मैं निश्चय ही शुद्ध हूँ, अनुपम हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, सदा अमूर्तिक (अतीन्द्रिय) हूँ, कुछ भी दूसरी वस्तु परमाणु मात्र भी मेरी नहीं है (38)। यदि वह जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्यरूप हो जाय या इसके विपरीत पुद्गल समयसार (खण्ड-1) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य जीवत्व को प्राप्त हो जाय तो (मैं) यह कहने के लिए समर्थ माना जा सकता है कि यह पुद्गल द्रव्य मेरा है, (25) किन्तु इस प्रकार का तादात्म्य सिद्धान्त विरुद्ध है। जीव व पुद्गल एक दृष्टि से भिन्न हैं। यहाँ जानना चाहिये कि जो ज्ञानी पुद्गलात्मक इन्द्रियों को जीतकर ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, वह जितेन्द्रिय कहलाता है (31)। जो ज्ञानी पुद्गलात्मक मोहनीय कर्म को दबा कर अथवा नष्ट करके मोह को जीतकर ज्ञान स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, वह ममता-रहित हुआ कहा जाता है (3233)। एकत्वरूप आध्यात्मिक आदर्श की प्राप्तिः एकत्व (आत्मानुभूति) की प्राप्ति के लिए अनात्मदृष्टि को छोड़कर आत्मस्थित-दृष्टि को अपनाना आवश्यक है। इसलिए आचार्य कहते हैं कि आत्मस्थित-दृष्टि के आश्रित जीव सम्यग्दृष्टि होता है (11) और वह इस दृष्टि को अपनाते हुए मोक्ष तक की यात्रा में सफल हो जाता है। अतः आत्मस्थित दृष्टि से जाने गए जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव-बंध, संवरनिर्जरा और मोक्ष- ये सब ‘एकत्व' की अन्तिम मंजिल तक जीव को पहुँचा देते हैं। इसलिए वे सामूहिक रूप से सम्यक्त्व ही हैं (13)। दूसरे शब्दों में, आत्मस्थित दृष्टि से (निश्चयनय से) जाने गए नवपदार्थ सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न हो जाते हैं। डॉ. कमलचन्द सोगाणी पूर्व प्रोफेसर दर्शनशास्त्र, दर्शनशास्त्र विभाग सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर एवं निदेशक जैनविद्या संस्थान-अपभ्रंश साहित्य अकादमी समयसार (खण्ड-1) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार को अच्छी तरह समझने के लिए गाथा के प्रत्येक शब्द जैसेसंज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण, कृदन्त आदि के लिए व्याकरणिक विश्लेषण में प्रयुक्त संकेतों का ज्ञान होने से प्रत्येक शब्द का अर्थ समझा जा सकेगा। संकेत-सूची अ - अव्यय (इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) अक - अकर्मक क्रिया अनि - अनियमित कर्म - कर्मवाच्य नपुं. - नपुंसकलिंग पु. - पुल्लिंग भवि - भविष्यत्काल भूकृ - भूतकालिक कृदन्त व - वर्तमानकाल वकृ - वर्तमान कृदन्त वि - विशेषण विधि - विधि विधिकृ - विधि कृदन्त संकृ - संबंधक कृदन्त सक - सकर्मक क्रिया सवि - सर्वनाम विशेषण स्त्री. - स्त्रीलिंग हेकृ - हेत्वर्थक कृदन्त . समयसार (खण्ड-1) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ()- इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। •[()+()+()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में गाथा के शब्द ही रख दिये गये हैं। ·[()-()-()..... ] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है। •{[ ()+()+().....]वि} जहाँ समस्त पद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्ठक का प्रयोग किया गया है। • जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1 / 1, 2 / 1 आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। · जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि प्राकृत के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है। क्रिया - रूप निम्नप्रकार लिखा गया है 1/1 अक या सक 1/2 अक या सक 2/1 अक या सक 2 / 2 अक या सक 3/1 अक या सक 3 / 2 अक या सक (8) - - - - - उत्तम पुरुष / एकवचन उत्तम पुरुष / बहुवचन मध्यम पुरुष / एकवचन मध्यम पुरुष / बहुवचन अन्य पुरुष / एकवचन अन्य पुरुष / बहुवचन समयसार (खण्ड-1) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्तियाँ निम्नप्रकार लिखी गई है 1/1 - प्रथमा/एकवचन 1/2 - प्रथमा/बहुवचन 2/1 - द्वितीया/एकवचन 2/2 - द्वितीया/बहुवचन 3/1 - तृतीया/एकवचन 3/2 - तृतीया/बहुवचन 4/1 - चतुर्थी/एकवचन 4/2 - चतुर्थी/बहुवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 5/2 - पंचमी/बहुवचन 6/1 - षष्ठी/एकवचन 6/2 - षष्ठी/बहुवचन 7/1 - सप्तमी/एकवचन 7/2 - सप्तमी/बहुवचन 8/1 - संबोधन/एकवचन 8/2 - संबोधन/बहुवचन समयसार (खण्ड-1) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अधिकार (गाथा 1 से गाथा 38 तक) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिदं ।। वंदित्तु सव्वसिद्धे ध्रुवमचलमणोवमं गर्दि पत्ते वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं 1. (वंद) संकृ वंदन करके [(सव्व) सवि - (सिद्ध) 2/2] सब सिद्धों को [(धुवं)+(अचलं)+(अणोवमं)] धुवं (धुव) 2 / 1 वि अचलं (अचल) 2/1 वि अणोवमं (अणोवम) 2 / 1 वि शाश्वत स्वरूप / स्वभाव में दृढ़ अतुलनीय गति को नोट: समयसार (खण्ड-1) ( गदि ) 2 / 1 (पत्त) भूक 2 / 2 अनि (वोच्छ ) भवि 1 / 1 सक [ ( समयपाहुडं) + (इणमो)] समयपाहुडं (समयपाहुड) 2 / 1 समयपाहुड को इणमो (इम) 2/1 सवि [(सुदकेवलि→सुदकेवली ) - श्रुतकेवलियों द्वारा इस 1. (भण) भूक 2/1] : प्रतिपादित अन्वय- धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते सव्वसिद्धे वंदित्तु सुदकेवलीभणिदं समयपाहुडमिणमो वोच्छामि । अर्थ - (आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि) (मैं) शाश्वत, स्वरूप/स्वभाव में दृढ़ और अतुलनीय (सिद्ध) गति को प्राप्त हुए सब सिद्धों को वंदन करके श्रुतकेवलियों द्वारा प्रतिपादित इस समयपाहुड को कहूँगा। प्राप्त हुए कहूँगा प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 16 (ii) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'सुदकेवलि' का 'सुदकेवली' हुआ है। कोष्ठकों का प्रयोग संपादक द्वारा किया गया है। (11) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण । पोग्गलकम्मपदेसट्टिदं च तं जाण परसमयं ।। p (स-समय) 2/1 (जाण) विधि 2 / 1 सक पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं [(पोग्गल ) - (कम्म) - (पदेस) (हिद) भूक 2 / 1 अनि ] अव्यय (त) 2 / 1 सवि (जाण) विधि 2 / 1 सक [ ( पर) वि - (समय) 2 / 1] तं (जीव) 1 / 1 जीव [(चरित्त) - (दंसण) - (णाण ) - दर्शन - ज्ञान - चारित्र (हिद) भूक 1 / 1 अनि ] में स्थित (त) 2 / 1 सवि उसको अव्यय जाण परसमयं स्वसमय जानो - पुद्गल कर्म - समूह में स्थित किन्तु उसको जानो परसमय अन्वय- जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो हि तं ससमयं जाण च पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं तं परसमयं जाण । अर्थ - (जो ) जीव (बाह्य उलझनों से छूटकर ) ( अपने अंतरंग स्वरूप) दर्शन - ज्ञान-चारित्र (के एकत्व) में ही स्थित (होता है) उसको (तुम) स्वसमय अर्थात् स्व में ठहरनेवाला आत्मा जानो, किन्तु (बाह्य उलझनों में लिप्त ) ( रागद्वेष भावों में एकरूप हुए) पुद्गल कर्म-समूह में स्थित उस (जीव) को तुम परसमय अर्थात् पर में ठहरनेवाला आत्मा जानो । (12) -1) समयसार (खण्ड Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि। एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए बंधकहा एयत्ते [(एयत्त)-(णिच्छय)(गद) भूक 1/1 अनि] (समअ) 1/1 अव्यय (सुन्दर) 1/1 वि (लोअ) 7/1 [(बंध)-(कहा) 1/1] (एयत्त) 7/1 एकत्व का उद्देश्य प्राप्त कर लिया गया आत्मा सर्वत्र प्रशंसनीय लोक में बंधन की कथा एकत्व में इसलिए विसंवादिनि होती है तेण अव्यय विसंवादिणी होदि (विसंवादिणि) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक अन्वय- एयत्तणिच्छयगदो समओ लोए सव्वत्थ सुन्दरो तेण एयत्ते बंधकहा विसंवादिणी होदि। अर्थ- (जिसके द्वारा दर्शन-ज्ञान-चारित्र के) एकत्व का उद्देश्य प्राप्त कर लिया गया (है) (वह) आत्मा लोक में सर्वत्र प्रशंसनीय (होता है) (यह) (स्वसमय) (है)। इसलिए एकत्व (की स्थिति) में (न ठहरकर) (जीव की पररूप बुद्गल के साथ) बंधन की कथा विसंवादिनि (द्वन्द्व-जनक/अहं-जनक/दुखजनक) होती है (यह) (परसमय) (है)। अथवा ____ अर्थ- (दर्शन-ज्ञान-चारित्र के) एकत्व की दृढ़ता को प्राप्त हुआ आत्मा पर्वत्र प्रशंसनीय (होता )। इसलिए (पूर्व कथित) एकत्व में (पर के साथ) बंधन की कथा विसंवादिनि (द्वन्द्व-जनक/अहं-जनक/दुख-जनक) होती है। गोटः संपादक द्वारा अनूदित . समयसार (खण्ड-1) (13) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स। सव्वस्स ही सुदपरिचिदाणुभूदा [(सुदपरिचिदा)+(अणुभूदा)] सुदा' (सुद) भूकृ 1/1 अनि सुनी हुई परिचिदा (परिचिद) जानी हुई भूकृ 1/1 अनि अणुभूदा(अणुभूद)भूकृ 1/1अनि अनुभव की हुई (सव्व) 6/1-3/1 सवि सबके द्वारा अव्यय कामभोगबंधकहा [(काम)-(भोग)-(बंध) (कहा) 1/1] . निरूपण की कथा एयत्तस्सुवलंभो [(एयत्तस्स)+ (उवलंभो)] एयत्तस्स (एयत्त) 6/1 एकत्व की उवलंभो (उवलंभ) 1/1 प्राप्ति णवरि केवल अव्यय नहीं सुलहो (सुलह) 1/1 वि सुलभ विहत्तस्स (विहत्त) भूक 6/1 अनि भिन्न की गई के अव्यय ण अन्वय- सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा सुदपरिचिदाणुभूदा णवरि विहत्तस्स एयत्तस्सुवलंभो सुलहो ण। ___ अर्थ- सबके (मनुष्यों के) द्वारा ही काम-भोग (इन्द्रिय-विषय) के निरूपण की कथा सुनी हुई (है), जानी हुई (है) तथा अनुभव की हुई (है), केवल (पुद्गल से) भिन्न की गई (अंतरंग में प्रकाशमान) (आत्मा) के एकत्व (दर्शनज्ञान-चारित्र में स्थित आत्मा) की प्राप्ति सुलभ नहीं (है)। समास में अधिकतर प्रथम शब्द का अंतिम स्वर ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है। (प्राकृतव्याकरणः पृष्ठ 21) 2. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत-व्याकरणः 3-134) (14) समयसार (खण्ड-1) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाए 5. तं एयत्तविहत्तं दाए हं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाण चुक्केज्ज छल ण घेत्तव्व। (त) 2/1 सवि उस एयत्तविहत्तं [(एयत्त)-(विहत्त) भिन्न किये गये भूकृ 2/1 अनि] एकत्व को (दाअ) व 1/1 सक प्रस्तुत करता हूँ 'अ' विकरण (अम्ह) 1/1 स अप्पणो (अप्प) 6/1 आत्मा के सविहवेण (स-विहव) 3/1 निज-वैभव से/ निज की स्वशक्ति से जदि अव्यय यदि दाएज्ज (दाअ) व/भवि 1/1 सक 'अ' विकरण पमाणं (पमाण) 2/1 प्रमाण चुक्केज्जा (चुक्क) विधि 1/1 अक चूक जाऊँ छल (छल) 1/1 दोषपूर्ण दलील अव्यय नहीं घेत्तव्वं (घेत्तव्व) विधिकृ 1/1 अनि ग्रहण की जानी चाहिये अन्वय- एयत्तविहत्तं तं हं अप्पणो सविहवेण दाए पमाणं दाएज्ज जदि चुक्केज्ज छलं ण घेतव्वं। अर्थ- (पर द्रव्यों से) भिन्न किये गये उस (रत्नत्रय स्वरूप आत्मा के) (अंतरंग) एकत्व (अभेदता) को मैं आत्मा के निज-वैभव से प्रस्तुत करता हूँ। (मैं स्वीकार करने के लिए) प्रमाण दूँगा, यदि (मैं) चूक जाऊँ (तो) (मेरी) दोषपूर्ण दलील ग्रहण नहीं की जानी चाहिये। अथवा अर्थ- (पर द्रव्यों से) भिन्न उस (रत्नत्रय स्वरूप आत्मा के) (अंतरंग) एकत्व (अभेदता) को मैं निज की स्व-शक्ति से प्रस्तुत करता हूँ। (मैं स्वीकार करने के लिए) प्रमाण दूंगा। यदि मैं चूक जाऊँ तो (मेरी) दोषपूर्ण दलील ग्रहण नहीं की जानी चाहिये। 1. हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-177 विस्तार के लिए देखेंः प्रौढ प्राकृत-अपभ्रंश-रचना सौरभ (भाग-2), पृष्ठ 32 नोटः संपादक द्वारा अनूदित . समयसार (खण्ड-1) (15) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जागो भावो एवं भति सुद्ध णादो जो सो ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो । एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥ अव्यय अव्यय (हो) व 3 / 1 अक ( अप्पमत्त ) 1 / 1 वि (16) अव्यय ( पमत्त ) 1 / 1 वि ( जाणग) 1 / 1 वि अव्यय (ज) सवि 1/1 (भाव) 1 / 1 अव्यय (भण) व 3 / 2 सक (सुद्ध) 2 / 1 वि (णा) भूक (ज) सवि 1 / 1 (त) सवि 1 / 1 ही होता है अप्रमत्त न प्रमत्त ज्ञायक और जो भाव इस प्रकार कहते हैं शुद्ध जाना गया जो वह चूँकि अव्यय (त) सवि 1 / 1 चेव अव्यय अन्वय- जो जाणओ भावा सो ण वि अप्पमत्तो होदि द ण पमत्तो दु एवं सुद्धं भांति दु जो णादो सो चेव । अर्थ - जो ज्ञायक भाव ( है ) वह न ही अप्रमत्त होता है और न प्रमत्त (होता है)। इस प्रकार ( जिनेन्द्र देव ) (इसको) शुद्ध कहते हैं। चूँकि जो (आत्मा) ( पर को जानने की अवस्था में) (ज्ञायकरूप से) जाना गया ( है ) वह (स्व को जानने की अवस्था में भी ज्ञायक) ही ( है ) अर्थात् स्व को जाननेवाला है। अथवा the tic वह अर्थ- जो (आत्मा) न प्रमत्त और न ही अप्रमत्त ( ये दोनों कर्म - जनित अवस्थाएँ हैं) (वह) (तो) (कर्मों से परे स्वभाव से) ज्ञायक (ही) जाना गया है। इस प्रकार (जो) (ज्ञायक) भाव (है) उसको (जिनदेव ) शुद्ध कहते हैं। चूँकि जो (आत्मा) (स्वभाव से) (ज्ञायक) (है) वह (सब अवस्थाओं में) (ज्ञायक) ही रहता है। नोट: संपादक द्वारा अनूदित समयसार (खण्ड- 1) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. ववहारेणुवदिस्सदिणाणिस्स चरित्त दंसणंणाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥ व्यवहार से कहा जाता है ज्ञानी के चारित्र दर्शन ज्ञान ववहारेणुवदिस्सदि [(ववहारेण)+ (उवदिस्सदि)] ववहारेण (ववहार) 3/1 उवदिस्सदि (उवदिस्स) व कर्म 3/1 अनि णाणिस्स (णाणि) 6/1 वि *चरित्त (चरित्त) 1/1 दसणं (दसण) 1/1 णाणं (णाण) 1/1 अव्यय अव्यय णाणं . (णाण) 1/1 अव्यय चरित्तं (चरित्त) 1/1 ण अव्यय (दंसण) 1/1 जाणगो (जाणग) 1/1 वि सुद्धो (सुद्ध) 1/1 वि ज्ञान चारित्र दसणं दर्शन ज्ञायक अन्वय- ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स दंसणं णाणं चरित्त ण दंसणं ण णाणं ण वि चरित्तं सुद्धो जाणगो। अर्थ-व्यवहार (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) से कहा जाता है (कि) ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र (है)। (निश्चयदृष्टि/अन्तरदृष्टि/आत्मदृष्टि/ स्वदृष्टि से) (आत्मा को एकत्वरूप से अनुभव करनेवाले के) न दर्शन (है), न ज्ञान (है) और न ही चारित्र (है) (किन्तु)(वह) (तो) (एकमात्र) शुद्ध ज्ञायक (ही) (है)। *प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) समयसार (खण्ड-1) (17) Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. जह ण वि सक्कमणज्जो Ф जह ण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ अणज्जभासं ' विणा दु गाहें तह ववहारेण' विणा 1. जैसे नहीं कुछ भी समर्थ अव्यय अव्यय अव्यय [(सक्कं) + (अणज्जो)] सक्कं (सक्क) विधिक 1 / 1 अनि अणज्जो (अणज्ज) 1 / 1 वि अनार्य [ ( अणज्ज) वि - ( भासा ) 2 / 1] अनार्य भाषा अव्यय बिना अव्यय (गाह) हेकृ अव्यय (ववहार) 3 / 1 अव्यय (18) पादपूरक पढ़ने/समझने के लिए वैसे ही परमत्थुवदेसणमसक्कं [(परमत्थ)+(उवदेसणं)+ (असक्कं )] [(परमत्थ) - (उवदेसण) 1 / 1] परमार्थ का उपदेश देना असक्कं (असक्क) विधि 1/1 अि संभव नहीं व्यवहार के बिना अन्वय- जह अणज्जो अणज्जभासं विणा दु वि गाहेदुं सक्कं ण तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं । अर्थ- जैसे अनार्य (व्यक्ति) अनार्य भाषा के बिना कुछ भी पढ़ने/ समझने के लिए समर्थ नहीं ( है ), वैसे ही व्यवहार ( बाह्यदृष्टि / लोकदृष्टि) के बिना परमार्थ (एकत्वरूप शुद्ध आत्मा) का उपदेश देना संभव नहीं ( है ) । 'बिना ' के योग में द्वितीया, तृतीया तथा पंचमी विभक्ति का प्रयोग होता है। समयसार (खण्ड-1) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9. 10. 5ি are जो हि सुदेणहिगच्छदि जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भांति लोयप्पदीवयरा ।। जो दणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।। जो अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं तं भति लोयप्पदीवरा (ज) 1 / 1 सवि अव्यय जो सुदणाणं सव्वं समयसार (खण्ड-1 ) [(सुदेण) + (अहिगच्छदि ) ] सुदेण (सुद ) 3 / 1 अहिगच्छदि (अहिगच्छ) (त) 2 / 1 सवि सुदकेवलिमिसिणो [(सुदकेवलिं) + (इसिणो)] सुदकेवलिं (सुदकेवलि) 2 / 1 इसिणो (इसि) 1/2 व 3/1 सक [(अप्पाणं) + (इणं)] अप्पाणं ( अप्पाण) 2/1 इणं (इम) 2/1 सवि अव्यय (केवल) 2 / 1 वि (सुद्ध) 2/1 वि श्रुतज्ञान से अनुभव करता है [ ( सुद) - ( णाण) 2 / 1] (सव्व) 2/1 सवि आत्मा को इस पादपूरक एकमात्र शुद्ध उसको श्रुतकेवली महर्षि (भण) व 3/2 सक कहते हैं [(लोय) - (प्पदीवयर) 1/2 वि] लोक के प्रकाशक (ज) 1/1 सवि जो श्रुतज्ञान समस्त को (19) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा (जाण) व 3/1 सक जानता है (सुदकेवलि) 2/1 श्रुतकेवली [(तं)+(आहु)] तं (त) 2/1 सवि उसको आहु (आहु) भू 3/2 सक अनि कहा है (जिण) 1/2 अरहंतों ने (णाण) 1/1 ज्ञान (अप्प) 1/1 आत्मा (सव्व) 1/1 सवि समस्त अव्यय क्योंकि (सुदकेवलि) 1/1 श्रुतकेवली अव्यय इसलिए अन्वय- जो सुदेण केवलं अप्पाणमिणं सुद्धं अहिगच्छदि तु तं लोयप्पदीवयरा सुदकेवलिमिसिणो भणंति जो सव्वं सुदणाणं जाणदि तमाहु जिणा सुदकेवलिं जम्हा सव्वं णाणं अप्पा हि तम्हा सुदकेवली। अर्थ- जो (जीव) (भाव) (स्वसंवेदन/स्वानुभव) श्रुतज्ञान से एकमात्र (पूर्व कथित) इस शुद्धआत्मा का ही अनुभव करता है उसको लोक के प्रकाशक महर्षि (श्रमण) श्रुतकेवली कहते हैं। (यह निश्चयनय से किया गया कथन है)। जो (जीव) समस्त श्रुतज्ञान को जानता है उसको (भी) अरहंतों ने श्रुतकेवली कहा है, क्योंकि (उसके लिए) समस्त (श्रुत) ज्ञान (अंतिम रूप से परिणत) आत्मा (ही) (है)। इसलिए (वह) (भी) श्रुतकेवली (है)। (यह व्यवहारनय से किया गया कथन है)। पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 755 1. (20) समयसार (खण्ड-1) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूदत्थो 11. ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो॥ ववहारोऽभूदत्थो [(ववहारो)+(अभूदत्थो)] ववहारो (ववहार) 1/1 व्यवहारनय अभूदत्थो (अभूदत्थ)' 1/1 वि अनात्मा में स्थित (भूदत्थ)' 1/1 वि आत्मा में स्थित देसिदो (देस) भूकृ 1/1 कहा गया है अव्यय तथा सुद्धणओ [(सुद्ध) वि-(णअ) 1/1] | शुद्धनय/निश्चयनय भूदत्थमस्सिदो [(भूदत्थं) + (अस्सिदो)] भूदत्थं (भूदत्थ) आत्मा में स्थित दृष्टि 2/1-7/1 वि अस्सिदो (अस्सिद) आश्रित भूकृ 1/1 अनि खलु अव्यय सम्मादिट्ठी (सम्मादिट्ठि) 1/1 वि सम्यग्दृष्टि हवदि (हव) व 3/1 अक होता है जीवो (जीव) 1/1 जीव पर अन्वय- ववहारोऽभूदत्थो दु सुद्धणओ भूदत्थो देसिदो भूदत्थमस्सिदो खलु जीवो सम्मादिट्ठी हवदि।। अर्थ- व्यवहारनय अनात्मा में स्थित (भाव) (होता है) तथा शुद्धनय/ निश्चयनय आत्मा में स्थित (भाव) कहा गया (है)। आत्मा में स्थित दृष्टि पर आश्रित जीव (व्यक्ति) ही सम्यग्दृष्टि होता है। . 1. 'अभूदत्थ' और 'भूदत्थ' का अर्थ नियमसार के शब्द ‘मज्झत्थ' (अंतरंग में स्थित) के आधार से किया गया है। (नियमसारः गाथा 82) इसलिए व्यवहारनय बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि कहा जा सकता है और निश्चयनय अंतरंगदृष्टि/आत्मदृष्टि/स्वदृष्टि कहा जा सकता है। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) संपादक द्वारा अनूदित नोटः समयसार (खण्ड-1) (21) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे || सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं ववहारदेसिदा 135915 1919 ल पुण दु अपर दा भावे (सुद्ध) 1 / 1 वि [(सुद्ध) + (आदेसो)] [(सुद्ध) वि- (आदेस) 1 / 1] शुद्ध का निरूपण (ण) विधि 1/1 समझा जाने योग्य [ ( परम) वि- (भाव) - ( दरिसि) 3 / 2 वि] शुद्ध आत्मभाव (की प्राप्ति) में रुचि रखनेवाले के द्वारा [(ववहार) - (देस) भूक 1/2] व्यवहारनय के द्वारा उपदेश दिए गए अव्यय (ज) 1/2 सवि अव्यय शुद्धनय (अ-परम) 7/1 वि (ट्ठिद) भूकृ 1/2 अनि (भाव) 7/1 और जो ही अ- परम में दृढ़मना (आत्म) भाव में अन्वय सुद्धादेसो सुद्धो परमभावदरिसीहिं णादव्वो पुण जे अपरमे भावे ट्ठिदा दु ववहारदेसिदा । अर्थ - (एकत्व स्वरूप) शुद्ध (आत्मा) का निरूपण शुद्धनय (शुद्ध आत्मदृष्टि है)। (वह) (शुद्धनय / शुभ-अशुभ से परे) शुद्ध आत्मभाव (की प्राप्ति) में रुचि रखनेवाले के द्वारा (ही) समझा जाने योग्य (है) और जो अ- परम ( शुभअशुभ) (आत्म) भाव में दृढ़मना (है) (वे) ही व्यवहारनय (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/ परदृष्टि) के द्वारा उपदेश दिए गए ( हैं ) ( क्योंकि वे उसी को समझने के योग्य हैं)। (22) समयसार (खण्ड-1) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपाव च भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ बंधो मोक्खो य सम्मत्तं [(पुण्ण) - (पाव) 1 / 1] अव्यय आसवसंवरणिज्जर [ ( आसव) - ( संवर) - 1. [(भूदत्थेण) + (अभिगदा)] भूदत्थेण (भूदत्थ) 3 / 1 वि अभिगदा (अभिगद) भूक 1/2 अनि [(जीव) + (अजीवा)] [ (जीव ) - ( अजीव) 1/2 ] अव्यय आत्मा में लगी हुई दृष्टि द्वारा जाने गए समयसार (खण्ड-1) जीव, अजीव और पुण्य, और पाप आस्रव, संवर, ( णिज्जरा - णिज्जर) - 1 / 1] निर्जरा (बंध) 1 / 1 बंध (मोक्ख) 1 / 1 मोक्ष अव्यय और ( सम्मत्त ) 1 / 1 सम्यग्दर्शन अन्वय णिज्जर बंधो य मोक्खो सम्मत्तं । अर्थ - आत्मा में लगी हुई दृष्टि द्वारा जाने गए - जीव और अजीव, पुण्य और पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष सम्यग्दर्शन ( कहे गए हैं) (क्योंकि इस प्रकार ही आत्मानुभव की ओर गति संभव है ) । भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च आसवसंवर यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'णिज्जरा' के स्थान पर 'णिज्जर' किया गया है। (23) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि॥ जो देखता है पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे आत्मा को कर्मबंधन से रहित, अस्पर्शित अन्य से रहित अणण्णय (ज) 1/1 सवि (पस्स) व 3/1 सक (अप्पाण) 2/1 [(अबद्ध)+(अपुट्ठ)] [(अबद्ध) भूकृ अनि(अपुट्ठ) भूकृ 2/1 अनि] (अणण्णय) 2/1 वि 'य' स्वार्थिक (णियद) 2/1 वि [(अविसेसं)+(असंजुत्त)] अविसेसं (अविसेस) 2/1 वि असंजुत्तं (असंजुत्त) भूकृ 2/1 अनि (त) 2/1 सवि (सुद्धणय) 2/1 (वियाण) विधि 2/1 सक स्थायी णियदं अविसेसमसंजुत्तं अंतरंग भेद-रहित अन्य से असंयुक्त उसको सुद्धणयं शुद्धनय वियाणीहि जानो अन्वय- जो अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं अविसेसमसंजुत्तं पस्सदि तं सुद्धणयं वियाणीहि। अर्थ- जो (नय) आत्मा को कर्मबंधन से रहित, (पर से) अस्पर्शित, अन्य (विभाव पर्यायों) से रहित, स्थायी, अंतरंग भेद-रहित और अन्य (रागादि) से असंयुक्त देखता है उसको (तुम) शुद्धनय जानो। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृष्ठ 691 (24) समयसार (खण्ड-1) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमझं पस्सदि जिणसासणं सव्व।। पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं (ज) 1/1 सवि (पस्स) व 3/1 सक जानता है (अप्पाण) 2/1 आत्मा को [(अबद्ध)+(अपुढे)] [(अबद्ध) भूकृ अनि- कर्मबंधन से रहित, (अपुट्ठ) भूकृ 2/1 अनि] अस्पर्शित [(अणण्णं)+(अविसेस)] अणण्णं (अणण्ण) 2/1 वि अन्य से रहित अविसेसं (अविसेस) 2/1 वि अंतरंग भेद-रहित [(अपदेस)-(सुत्त)- उपदेश और साररूप (मज्झ) 2/1 वि] में अन्तर्वर्ती (पस्स) व 3/1 सक जानता है [(जिण)-(सासण) 2/1] जिनशासन को (सव्व) 2/1 सवि अपदेससुत्तमझं पस्सदि जिणसासणं सव्वं सम्पूर्ण अन्वय- जो अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं पस्सदि अपदेससुत्तमज्झं सव्वं जिणसासणं पस्सदि। अर्थ- जो (नय) आत्मा को कर्मबंधन से रहित, (पर से) अस्पर्शित अन्य (विभाव पर्यायों) से रहित, अंतरंग भेद-रहित जानता है (वह) उपदेश (से प्राप्त द्रव्यश्रुत) और साररूप में (अनुभूत भावश्रुत के कारण) अन्तवर्ती सम्पूर्ण जिनशासन को जानता है। 1. 2. नोटः अपदेससंतमज्झं के स्थान पर अपदेससुत्तमझं पाठ लिया गया है। अपदेस = उपदेश (आप्टेः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश) संपादक द्वारा अनूदित समयसार (खण्ड-1) (25) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. दंसणणाणचरित्ताणि - [ (दंसण) - (णाण) - (aka) 1/2] (सेव) विधि 1 / 2 सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं ताण दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्वं । ताणि पुण जाण तिणि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥ पुण जाण तिणि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो' 1. (26) (साहू) 3 / 1 अव्यय (त) 2/2 सवि अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक (ति वि) 2 / 2 वि ( अप्पाण) 2 / 1 अव्यय (णिच्छय) 5/1 दर्शन - ज्ञान चारित्र आराधन किए जाने चाहिये साधु के द्वारा सदैव अन्वय- साहुणा दंसणणाणचरित्ताणि णिच्चं सेविदव्वाणि पुण ताण तिणि वि णिच्छयदो अप्पाणं चेव जाण । अर्थ- साधु के द्वारा दर्शन - ज्ञान - चारित्र सदैव आराधन किये जाने चाहिये (यह व्यवहारनय ( बाह्यदृष्टि) से कहा गया है) और (तुम) उन तीनों को ( उनके एकत्व को ) निश्चयनय ( अन्तरदृष्टि) से आत्मा ही जानो । उन और जानो तीनों को आत्मा ही निश्चयनय से छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'णिच्छयादो' का 'णिच्छयदो' किया गया है। समयसार (खण्ड-1) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण॥ 18. एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण॥ जह अव्यय णाम पादपूरक को कोई पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि अव्यय (क) 1/1 सवि अव्यय (पुरिस) 1/1 (रायाणं) 2/1 अनि (जाण) संकृ (सद्दह) व 3/1 सक अव्यय (त) 2/1 सवि (अणुचर) व 3/1 सक अव्यय (अत्थत्थीअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक प्रत्यय (पयत्तेण) 3/1 तृतीयार्थक अव्यय मनुष्य राजा को जानकर विश्वास करता है तब उसकी सेवा करता है और धन का इच्छुक अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण सावधानीपूर्वक अव्यय वैसे अव्यय समयसार (खण्ड-1) (27) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराया णादव्वो तह य सद्ददव्वो अणुचरिदव्वो य पुण सो चेव दु मोक्खकामेण [ (जीव ) - (राय) 1 / 1 ] (णा) विधि 1/1 अव्यय (सद्दह) विधिकृ 1/1 (28) (अणुचर) विधि 1/1 अव्यय अव्यय (त) 1 / 1 सवि अव्यय आत्मारूपी राजा समझा जाना चाहिये तथा श्रद्धा किया जाना चाहिये अनुभव किया जाना चाहिये और फिर वह अव्यय निस्सन्देह [ ( मोक्ख) - (काम) 3 / 1 वि] मोक्ष के इच्छुक (मनुष्य) के द्वारा अन्वय- जह णाम को वि अत्थत्थीओ पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि पुणो तो तं पयत्तेण अणुचरदि एवं हि मोक्खकामेण जीवराया सद्दहेदव्वो तह य णादव्वो य पुणो दु सो चेव अणुचरिदव्वो । अर्थ- जैसे कोई भी धन का इच्छुक मनुष्य राजा को जानकर (उस पर ) विश्वास करता है और तब उसकी सावधानीपूर्वक सेवा करता है वैसे ही मोक्ष के इच्छुक (मनुष्य) के द्वारा आत्मारूपी राजा श्रद्धा किया जाना चाहिये तथा समझा जाना चाहिये और फिर निस्सन्देह वह ही अनुभव किया जाना चाहिये। समयसार (खण्ड-1) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव॥ कम्मे णोकम्मम्हि कर्म में नो कर्म में और अहमिदि शब्दस्वरूपद्योतक अहकं च *कम्म णोकम्म (कम्म) 7/1 (णोकम्म) 7/1 अव्यय [(अहं) + (इदि)] अहं (अम्ह) 1/1 स इदि (अ) = (अम्ह) 1/1 स अव्यय (कम्म) 1/1 (णोकम्म) 1/1 अव्यय (एता) 1/1 सवि अव्यय (बुद्धि) 1/1 (अप्पडिबुद्ध) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक अव्यय एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव तथा कर्म नो कर्म जब तक ऐसी निस्सन्देह बुद्धि अज्ञानी होता है तब तक अन्वय- अहमिदि कम्मे य णोकम्मम्हि च अहकं कम्म णोकम्मं जा एसा बुद्धी ताव खलु अप्पडिबुद्धो हवदि। अर्थ- मैं कर्म (द्रव्यकर्म व भावकर्म) में (हूँ) और नो कर्म (शरीरादि बाह्य वस्तु) में (हूँ) तथा (तादात्म्य रूप से) मैं कर्म (और) नो कर्म (ही) (हूँ) जब तक ऐसी बुद्धि (रहती है) तब तक (वह) (व्यक्ति) निस्सन्देह अज्ञानी (मूर्च्छित) होता है। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) समयसार (खण्ड-1) (29) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. अहमेद महं अहमेदस्स म्हि अत्थि एदं अण्ण जं परदव्वं अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अत्थि मम एदं । अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा ।। वा [(अहं)+(एदं)] अहं (अम्ह) 1/1 स एदं (एद) 1/1 सवि [(एदं)+(अहं)] एदं (एद) 1/1 सवि अहं (अम्ह) 1/1 स [(अहं) + (एदस्स)] अहं (अम्ह) 1/1 स एदस्स (एद) 6 / 1 सवि (अस) व 1/1 अक (अस) व 3 / 1 अक ( अम्ह) 6 / 1 स (द) 1/1 सव ( अण्ण) 1 / 1 वि (ज) 1 / 1 सवि [(पर) वि- (दव्व) 1 / 1 ] सच्चित्ताचित्तमिस्सं [ ( सच्चित्त) + (अचित्तमिस्सं)] मैं यह यह मैं मैं इसका मेरा यह अन्य जो पर द्रव्य [(सच्चित्त) वि- (अचित्त) वि - चेतन, अचेतन, ( मिस्स ) 1 / 1 वि] मिश्र अव्यय और अन्वय- जं अण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा परदव्वं अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि एदं मम अत्थि । अर्थ - जो (स्वयं से ) अन्य (कोई ) चेतन ( कुटुम्बी जन), अचेतन (धन-धान्यादि) और मिश्र (संबंधित ग्राम, नगर आदि) पर द्रव्य ( है ), ( उसके विषय में यदि कोई व्यक्ति सोचे कि ) ( तादात्मयरूप से) मैं यह (पर द्रव्य) (हूँ) (या) यह (पर द्रव्य) मैं (हूँ) मैं इसका हूँ (या) यह मेरा है.. (30) समयसार (खण्ड-1) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21. आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि। होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि॥ आसि मम पुव्वमेदं पहले यह इसका एदस्स अहं आसि पुव्वं (अस) भू 3/1 अक (अम्ह) 6/1 स [(पुव्वं)+ (एदं)] पुव्वं (अ) = पहले एदं (एद) 1/1 सवि (एद) 6/1 सवि (अम्ह) 1/1 स अव्यय (अस) भू 1/1 अक अव्यय अव्यय (हो) भवि 3/1 अक अव्यय [(मम)+ (एद)] मम (अम्ह) 6/1 स एदं (एद) 1/1 सवि (एद) 6/1 सवि (अम्ह) 1/1 स अव्यय (हो) भवि 1/1 अक पहले होहिदि पादपूरक होगा फिर ममेदं यह एदस्स इसका अहं होस्सामि होऊँगा अन्वय- पुव्वमेदं मम आसि पुव्वं हि अहं पि एदस्स आसि पुणो ममेदं होहिदि अहं पि एदस्स होस्सामि। अर्थ- पहले यह मेरा था (या) पहले मैं भी इसका था। फिर यह मेरा होगा (तथा) मैं भी इसका होऊँगा। समयसार (खण्ड-1) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. एयं तु असन्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो। इस असन्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो भूदत्थं (एत-एय) 2/1 सवि अव्यय (अ-सब्भूद) 2/1 वि [(आद)-(वियप्प)2/1] (कर) व 3/1 सक (सं-मूढ) 1/1 वि (भूदत्थ) 2/1 वि पादपूरक अविद्यमान विचार को मन में लाता है अज्ञानी आत्मा में स्थित दृष्टि को जाणतो जानता हुआ ण (जाण) वकृ 1/1 अव्यय (कर) व 3/1 सक करेदि स्वीकार करता है/ मानता है 109 और अव्यय (त) 2/1 सवि (अ-सं-मूढ) 1/1 वि उसको ज्ञानी असंमूढो अन्वय- एयं तु असन्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो दु भूदत्थं जाणतो तं ण करेदि असंमूढो। अर्थ- (जो) (पूर्णतया) इस अविद्यमान (उक्त तादात्म्य के) विचार को मन में लाता है, (वह) अज्ञानी (है) और (जो) आत्मा में स्थित दृष्टि को अर्थात् स्व और पर के भेद को जानता हुआ उस (उक्त तादात्म्य) को न स्वीकार करता है/न मानता है (वह) ज्ञानी है। (32) समयसार (खण्ड-1) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23. अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं। बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो॥ मेरा अण्णाणमोहिदमदी [(अण्णाण) वि-(मोहिद)भूकृ- अज्ञान से मूर्च्छित (मदि) 1/1 वि] हुई बुद्धिवाला मज्झमिणं [(मज्झं)+ (इणं)] मज्झं (अम्ह) 6/1 स इणं (इम) 2/1 सवि इस भणदि (भण) व 3/1 सक कहता है पोग्गलं (पोग्गल) 2/1 पुद्गल दव्वं (दव्व) 2/1 द्रव्य को बद्धमबद्धं [(बद्धं)+(अबद्धं)] बद्धं (बद्ध) भूक 2/1 अनि बद्ध अबद्धं (अ-बद्ध) भूकृ 2/1 अनि अव्यय पादपूरक तथा जीवो (जीव) 1/1 जीव बहुभावसंजुत्तो [(बहु) वि-(भाव)- अनेक प्रकार के भावों (संजुत्त) भूक 1/1 अनि] से युक्त अबद्ध तहा अव्यय अन्वय- अण्णाणमोहिदमदी बहुभावसंजुत्तो जीवो बद्धं तहा अबद्धं च पोग्गलं दव्वं मज्झमिणं भणदि। ___ अर्थ-(जो) (जीव) अज्ञान से मूर्छित हुई बुद्धिवाला (है) तथा अनेक प्रकार के (राग, द्वेष, मोह आदि) भावों से युक्त (है) (वह) जीव (ही) इस बद्ध (अपने से जुड़ी हुई) (देह) को तथा अबद्ध (देह से भिन्न) पुद्गल द्रव्य को मेरा कहता समयसार (खण्ड-1) (33) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिचं 24. सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं॥ सव्वण्हुणाणदिट्ठो [(सव्वण्हु)-(णाण)- सर्वज्ञ के ज्ञान में (दिठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि] देखा गया जीवो (जीव) 1/1 जीव उवओगलक्खणो [(उवओग)-(लक्खण) उपयोगलक्षणवाला 1/1 वि] अव्यय सदा कह अव्यय क्यों/कैसे (त) 1/1 सवि वह पोग्गलदव्वीभूदो [(पोग्गल)+(दव्व)+(ई)+(भूदो)] [(पोग्गल)-(दव्व)-(भूद) पुद्गल द्रव्यरूप हुआ भूक 1/1 अनि] ई (अ)= पादपूरक पादपूरक चूँकि भणसि (भण) व 2/1 सक कहता है मज्झमिणं [(मज्झं)+(इणं)] मज्झं (अम्ह) 6/1 स मेरा इणं (इम) 2/1 सवि इसको अव्यय अन्वय- जं मज्झमिणं भणसि सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो णिच्चं उवओगलक्खणो सो पोग्गलदव्वीभूदो कह। ____ अर्थ- चूँकि (तू) इसको (पुद्गल द्रव्य को) मेरा कहता है, (किन्तु) सर्वज्ञ के ज्ञान में देखा गया (है) (कि) जीव सदा उपयोगलक्षणवाला (होता है)। (तो प्रश्न है) वह (जीव) पुद्गल द्रव्यरूप क्यों/कैसे हुआ? . (34) समयसार (खण्ड-1) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वह 25. जदि सोपोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदंइदरं। तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं। जदि अव्यय यदि सो . (त) 1/1 सवि पोग्गलदव्वीभूदो [(पोग्गल)+(दव्व)+(ई)+(भूदो)] [(पोग्गल)-(दव्व)-(भूद) पुद्गल द्रव्यरूप भूकृ 1/1 अनि] . में घटित ई (अ)= पादपूरक पादपूरक जीवत्तमागदं [(जीवत्तं)+(आगद)] जीवत्तं (जीवत्त) 2/17/1 जीवत्व में घटित आगदं (आगद) भूकृ 1/1 अनि (इदर) 2/1-7/1 वि इसके विपरीत अव्यय सक्को (सक्क) 1/1 वि (वत्तु) हेकृ अनि कहने के लिए अव्यय मज्झमिणं [(मज्झं)+(इणं)] मज्झं (अम्ह) 6/1 स इणं (इम) 1/1 सवि (पोग्गल) 1/1 पुद्गल दव्वं (दव्व) 1/1 द्रव्य अन्वय- जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो इदरं जीवत्तमागदं तो वत्तुं सक्को जे पोग्गलं दव्वं मज्झमिणं। - अर्थ- यदि वह (जीव द्रव्य) पुद्गल द्रव्यरूप में घटित (हो) (या) इसके विपरीत (पुद्गल द्रव्य) जीवत्व में घटित (हो) तो (ही)( तुम) (यह) कहने के लिए समर्थ (हो) कि (यह) पुद्गल द्रव्य मेरा (है)। समर्थ वतुं कि पोग्गलं 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) समयसार (खण्ड-1) (35) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव। सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो। जदि जीव नहीं है शरीर . तीर्थंकरों और आचार्यों की स्तुति सव्वा अव्यय जीवो (जीव) 1/1 अव्यय सरीरं (सरीर) 1/1 तित्थयरायरियसंथुदी [(तित्थयर)-(आयरिय) (संथुदि) 1/1] अव्यय (सव्वा) 1/1 सवि अव्यय (हव) व 3/1 अक मिच्छा अव्यय तेण अव्यय अव्यय आदा (आद) 1/1 हवदि (हव) व 3/1 अक (देह) 1/1 हवदि मिथ्या इसलिए दु आत्मा है देहो अन्वय-जदि जीवो ण सरीरं दु तित्थयरायरियसंथुदी सव्वा वि मिच्छा हवदि तेण देहो चेव आदा हवदि। . अर्थ- यदि (तुम कहते हो कि) जीव शरीर नहीं है तो तीर्थंकरों और आचार्यों की (शरीर रूप से की गई) स्तुति सब ही मिथ्या है (मिथ्या हो जावेगी)। इसलिए (मान लेना चाहिए कि) देह ही आत्मा है। (इस प्रकार मानने से तीर्थंकरों और आचार्यों की देहरूप में की गई स्तुति मिथ्या होने से बच जायेगी)। (36) समयसार (खण्ड-1) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27. ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को। _ण दुणिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो॥ ववहारणओ भासदि जीवो व्यवहारनय कहता है जीव Ref he ho हवदि (ववहारणअ) 1/1 (भास) व 3/1 सक (जीव) 1/1 (देह) 1/1 अव्यय (हव) व 3/1 अक अव्यय (एक्क) 1/1 वि अव्यय अव्यय (णिच्छय) 6/1 (जीव) 1/1 (देह) 1/1 अव्यय एक्को दु परन्तु णिच्छयस्स जीवो निश्चयनय के जीव अव्यय कदा वि एक्कट्ठो [(एक्क)+(अट्ठो)] [(एक्क) वि-(अट्ठ) 1/1] एक पदार्थ . अन्वय- ववहारणओ भासदि जीवो य देहो एक्को खलु हवदि दु णिच्छयस्स जीवो य देहो कदा वि एक्कट्ठो ण। अर्थ- व्यवहारनय (इस बात को) कहता है (कि) जीव और देह एक (समान) ही हैं, परन्तु निश्चयनय के (अनुसार) (तो) जीव और देह कभी एक (समान) पदार्थ नहीं (होते हैं)। समयसार (खण्ड-1) (37) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28. इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संधुदो वंदिदो मए केवली भयवं। इणमण्णं भिन्न जीव से जीवादो देह पोग्गलमयं थुणित्तु पुद्गलमय स्तुति करके मुणी [(इणं)+(अण्णं)] इणं (इम) 2/1 सवि अण्णं (अण्ण) 2/1 वि (जीव) 5/1 (देह) 2/1 (पोग्लमय) 2/1 वि (थुण) संकृ (मुणि) 1/1 (मण्ण) व 3/1 सक अव्यय (संथुद) भूकृ 1/1 अनि (वंद) भूकृ 1/1 (अम्ह) 3/1 स (केवलि) 1/1 वि (भयव) 1/1 मुनि मण्णदि संधुदो मानता है ऐसा स्तुति किए गए वंदना किए गए मेरे द्वारा केवली वंदिदो मए केवली भयवं भगवान अन्वय- जीवादो इणमण्णं पोग्गलमयं देहं थुणित्तु मुणी हु मण्णदि मए केवली भयवं संयुदो वंदिदो। अर्थ- जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके मुनि ऐसा मानता है (कि) मेरे द्वारा केवली भगवान स्तुति किए गए (व) वंदना किए गए (हैं)। (38) समयसार (खण्ड-1) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29. तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणो' थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि। वह णिच्छये . जुज्जदि सरीरगुणा (त) 1/1 सवि (णिच्छय) 7/1+5/1 निश्चयदृष्टि से अव्यय नहीं (जुज्जदि) व कर्म 3/1 अनि उपयुक्त माना जाता है अव्यय नहीं [(सरीर)-(गुण) 1/2] शरीर के गुण अव्यय क्योंकि (हो) व 3/2 अक (केवलि) 6/1 केवली के [(केवलि)-(गुण) 2/2] केवली के गुणों की होति होते हैं केवलिणो केवलिगुणो (केवलिगुणे) थुणदि स्तुति करता है वह (थुण) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि (तच्च) 2/1-7/1 (केवलि) 2/1 (थुण) व 3/1 सक तचं केवलिं यथार्थ में केवली स्तुति करता है थुणदि अन्वय-तं णिच्छये ण जुज्जदि हि केवलिणो सरीरगुणा ण होंति जो केवलिगुणो थुणदि सो तच्चं केवलिं थुणदि। अर्थ- वह (केवली के पुद्गलमय देह का) (स्तवन) निश्चयदृष्टि (आत्मदृष्टि) से उपयुक्त नहीं माना जाता है, क्योंकि केवली के शरीर के गुण (केवली के अपने आत्मा के गुण) नहीं होते हैं। जो केवली के (आत्म) गुणों की स्तुति करता है, वह यथार्थ में केवली की स्तुति करता है। 1. यहाँ केवलिगुणो' के स्थान पर केवलिगुणे' होना चाहिये। 2. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम -प्राकृत-व्याकरणः 3-136) जुज्जदि (कर्मवाच्य अनि) का प्रयोग सप्तमी या षष्ठी के साथ ‘उपयुक्त माना जाना' अर्थ में होता है। (आप्टेः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश) नोटः संपादक द्वारा अनूदित समयसार (खण्ड-1) (39) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30. णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति॥ णयरम्मि वण्णिदे जह रण्णो वण्णणा कदा होदि (णयर) 7/1 नगर का (वण्णिद) भूक 7/1 अनि वर्णन करने पर अव्यय जैसे अव्यय नहीं अव्यय (राय) 6/1 राजा का (वण्णण) 1/2 वर्णन (कद) भूकृ 1/2 अनि किया हुआ (हो) व 3/1 अक होता है [(देह)-(गुण) 7/1] देह के गुणों की (थुव्वंते) वकृ कर्म 7/1 अनि स्तुति करने पर अव्यय [(केवलि)-(गुण) 1/2] केवली के गुण (थुद) भूकृ 1/2 अनि स्तुति किये हुए (हो) व 3/2 अक होते हैं देहगणे थुव्वंते। नहीं केवलिगुणा थुदा होति अन्वय- जह णयरम्मि वण्णिदे वि रण्णो वण्णणा कदा ण होदि देहगुणे थुव्वंते केवलिगुणा थुदा ण होति । अर्थ- जैसे (किसी के द्वारा) नगर का वर्णन करने पर भी राजा का वर्णन किया हुआ नहीं होता है, (वैसे ही) देह के गुणों की स्तुति करने पर (भी) केवली के गुण स्तुति किये हुए नहीं होते हैं। जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है तो हो चुके कार्य में सप्तमी का प्रयोग होता है। हो चुके कार्य के वाक्य में सकर्मक क्रिया का प्रयोग होने पर वाक्य कर्मवाच्य में होगा। अतः कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया और कर्म और कृदन्त में सप्तमी होती है। यहाँ कर्ता (केण) लुप्त है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 49-50) (40) समयसार (खण्ड-1) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू॥ जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं जीतकर आद (ज) 1/1 सवि (इन्दिय) 2/2 इन्द्रियों को (जिण) संकृ [(णाणसहाव)+(अधियं)] [(णाण)-(सहाव)- ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण (अधिय) 2/1 वि] (मुण) व 3/1 सक अनुभव करता है (आद) 2/1 आत्मा का (त) 2/1 सवि उसको अव्यय [(जिद) + (इंदियं)] [(जिद) भूकृ अनि- जीती हुई (इंदिय) 2/1 वि इन्द्रियोंवाला (त) 1/2 सवि (भण) व 3/2 सक कहते हैं (ज) 1/2 सवि (णिच्छिद) भूकृ 1/2 अनि निर्धारण किये हुए (साहु) 1/2 साधु खलु जिदिदियं भणंति F जो णिच्छिदा साहू - अन्वय- जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं आदं मुणदि तं खलु ते जे णिच्छिदा साहू जिदिदियं भणंति। अर्थ- जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, उसको ही, वे जो (आत्मा का) निर्धारण किये हुए अर्थात् आत्मा का अनुभव किये हुए साधु (हैं), जीती हुई इन्द्रियोंवाला कहते हैं। समयसार (खण्ड-1) (41) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति॥ मोह को पादपूरक जीतकर । जिणित्ता णाणसहावाधियं ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण मुणदि (ज) 1/1 सवि (मोह) 2/1 अव्यय (जिण) संकृ [(णाणसहाव)+(अधियं)] [(णाण)-(सहाव)(अधिय) 2/1 वि] (मुण) व 3/1 सक (आद) 2/1 (त) 2/1 सवि [(जिद) भूक अनि(मोह) 2/1 वि] (साहु) 2/1 [(परमअट्ठ)(वियाणय) 1/2 वि (बेंति) व 3/2 सक अनि अनुभव करता है आत्मा आदं उसको जिदमोहं जीते हुए मोहवाला साहुं परमट्ठवियाणया साधु को परमार्थ को जाननेवाले बेंति कहते हैं अन्वय- जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं आदं मुणदि तं साहुं परमट्ठवियाणया जिदमोहं बेंति। - अर्थ- जो (साधु) मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से परिपूर्ण आत्मा का अनुभव करता है, उस साधु को, परमार्थ के जाननेवाले (शुद्धात्मा का अनुभव करनेवाले) (आचार्य), जीते हुए मोहवाला (पुद्गलात्मकमोहनीय कर्म को दबानेवाला) कहते हैं। (42) समयसार (खण्ड-1) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. जिदमोहस्स दु जड़या खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहिं || मोह दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स तइया ncs हु खीणमोहो भणदि सो णिच्छयविदूहिं [(जिद) भूक अनि (मोह) 6/1 वि] अव्यय अव्यय ( खीण) 1 / 1 वि (मोह) 1/1 (हव) भवि 3/1 अक ( साहु) 6/1 अव्यय जीते हुए मोहवाला पादपूरक जब क्षीण मोह होगा साधु का तब निश्चय ही नष्ट किये हुए मोहवाला अव्यय [ ( खीण) वि - (मोह) 1/1] ( भण्णदि) व कर्म 3 / 1 अनि कहा जाता है (त) 1/1 संवि वह ( णिच्छयविदु) 3/2 वि आत्मस्थ ज्ञानियों द्वारा अन्वय- जइया जिदमोहस्स दु साहुस्स मोहो खीणो हविज्ज तइया णिच्छयविदूहिं सो हु खीणमोहो भण्णदि । अर्थ- जब जीते हुए मोहवाले साधु का मोह क्षीण होगा तब आत्मस्थ ज्ञानियों द्वारा वह (साधु) निश्चय ही नष्ट किये हुए मोहवाला (पुद्गलात्मक मोहनीय कर्म को नष्ट करनेवाला) कहा जाता है। समयसार (खण्ड-1) (43) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34. सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई' परेत्ति सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेदव्वं ॥ | णादूणं तम्हा पच्चक्खाणं णणं णियमा मुणेदव्वं 1. (44) (सव्व) 2 / 2 सवि (भाव) 2/2 अव्यय ( पच्चक्खा) व 3 / 1 सक [ ( परे) + (इति)] परे (पर) 2/2 वि इति (अ) (णा) संकृ अव्यय = ( पच्चक्खाण) 1/1 ( णाण) 1 / 1 (नियम) 5 / 1 (मुण) विधि 1/1 समस्त भावों को चूँकि त्याग देता है पर शब्दस्वरूपद्योतक जानकर इसलिए प्रत्याख्यान अन्वय- जम्हा सव्वे परे त्ति भावे णादूणं पच्चक्खाई तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं । अर्थ - चूँकि (जो ) समस्त पर भावों को जानकर त्याग देता है, इसलिए (उसका) प्रत्याख्यान (स्वसंवेदन) ज्ञान (ही) (है) (यह) नियम से समझा जाना चाहिये। ज्ञान नियम से समझा जाना चाहिये यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'पच्चक्खाई' के स्थान पर 'पच्चक्खाई' किया गया है। समयसार (खण्ड- 1 -1) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि तह सव्वे परभावे जहणाम को विपुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण णाऊण विमुञ्चदे णाणी || णाऊण विमुञ्चदे णाणी अव्यय अव्यय (क) 1/1 सवि अव्यय (पुरिस) 1 / 1 [(परदव्वं) + (इणं) + (इति)] परदव्वं [ ( पर) वि- (दव्व) 1 / 1 ] पर वस्तु इणं (इम) 1/1 सवि यह इस प्रकार इति (अ) (जाण) संकृ जानकर (चय) व 3/1 सक छोड़ देता है अव्यय वैसे ही सभी परभावों को समझकर त्याग देता है ज्ञानी = इस प्रकार (सव्व) 2/2 सवि [ ( पर) वि - (भाव) 2 / 2] (णा) संक्र जैसे पादपूरक कोई भी मनुष्य (विमुञ्च) व 3/1 सक ( णाणि) 1 / 1 वि अन्वय- जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि तह णाणी सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे । अर्थ - जैसे कोई भी मनुष्य, यह पर वस्तु ( है ) इस प्रकार जानकर ( उसको) छोड़ देता है, वैसे ही ज्ञानी (मनुष्य) सभी पर भावों को समझकर (उनको ) त्याग देता है। समयसार (खण्ड-1 1) (45) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति॥ णत्थि नहीं है मम को मोह मोहो बुज्झदि *उवओग एव अहमेक्को समझता है उपयोग अव्यय (अम्ह) 6/1 स (क) 1/1 सवि अव्यय (मोह) 1/1 (बुज्झ) व 3/1 सक (उवओग) 1/1 अव्यय [(अहं)+(एक्को )] अहं (अम्ह) 1/1 स एक्को (एक्क) 1/1 वि (त) 2/1 सवि [(मोह)-(णिम्ममत्त) 2/1] (समय) 6/1 (वियाणय) 1/2 वि (बेंति) व 3/2 सक अनि ही मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया केवलमात्र उसको मोह से निर्ममत्व आत्मा का अनुभव करनेवाले कहते हैं बेंति अन्वय- अहमेक्को उवओग एव मम मोहो णत्थि को वि बुज्झदि तं समयस्स वियाणया मोहणिम्ममत्तं बेंति। अर्थ- (चूँकि) मैं (जीवात्मा) केवलमात्र उपयोग (लक्षणवाला) ही (हूँ), (इसलिए) मेरे (किसी भी प्रकार का) मोह (परभाव) नहीं है। (जो) कोई भी (इस बात को) समझता है उसको आत्मा का अनुभव करनेवाले (आचार्य) (सम्पूर्ण) मोह से निर्ममत्व (हुआ) कहते हैं। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) समयसार (खण्ड-1) (46) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. णत्थि मम धम्म-आदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति॥ णत्थि नहीं है मम अव्यय (अम्ह) 6/1 स [(धम्म)-(आदि) 1/2] धम्म-आदी धर्म द्रव्य (तथा) इसी प्रकार और भी समझता है उपयोग (लक्षणवाला) बुज्झदि *उवओग अहमेक्को (बुज्झ) व 3/1 सक (उवओग) 1/1 वि अव्यय [(अहं)+(एक्को )] अहं (अम्ह) 1/1 स एक्को (एक्क) 1/1 वि (त) 2/1 सवि [(धम्म)-(णिम्ममत्त) 2/1] (समय) 6/1 (वियाणय) 1/2 वि (बेंति) व 3/2 सक अनि केवलमात्र उसको धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया धर्म से निर्ममत्व आत्मा का अनुभव करनेवाले कहते हैं बेति अन्वय- अहमेक्को उवओग एव धम्म आदी मम णत्थि बुज्झदि तं समयस्स वियाणया धम्मणिम्ममत्तं बेंति। अर्थ- (चूँकि) मैं (जीवात्मा) केवलमात्र उपयोग (लक्षणवाला) ही (हूँ), (इसलिए) धर्म द्रव्य (तथा) इसी प्रकार और भी (द्रव्य) मेरे नहीं है। (जो) (कोई) (इस बात को) समझता है उसको आत्मा का अनुभव करनेवाले (आचार्य) धर्म (आदि) (द्रव्यों) से निर्ममत्व (हुआ) कहते हैं। 1. यहाँ 'धम्म आदी' के स्थान पर 'धम्म-आदी' होना चाहिये। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) समयसार (खण्ड-1) (47) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि॥ अहमेक्को खलु सुद्धो दसणणाणमइओ सदारूवी [(अहं)+ (एक्को )] अहं (अम्ह) 1/1 स एक्को (एक्क) 1/1 वि अनुपम अव्यय निश्चय ही. (सुद्ध) 1/1 वि [(दसण)-(णाणमइअ)1/1वि] दर्शन-ज्ञानमय [(सदा)+(अरूवी)] सदा (अ) = सदा अरूवी (अरूवि) 1/1 वि अरूपी नहीं अव्यय इसलिए अव्यय (अम्ह) 6/1 स अव्यय कुछ अव्यय अस्थि मज्झ मेरी किंचि अव्यय अण्णं परमाणुमेत्तं (अण्ण) 1/1 सवि [(परमाणु)-(मेत्त) 1/1] अव्यय दूसरी परमाणु-मात्र अन्वय- अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी वि अस्थि किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि मज्झ ण। अर्थ- मैं निश्चय ही शुद्ध (हूँ), (इसलिए) अनुपम (हूँ), दर्शन-ज्ञानमय (हूँ), सदा अरूपी (अमूर्तिक/अतीन्द्रिय) (हूँ), इसलिए कुछ भी दूसरी (वस्तु) परमाणु-मात्र भी मेरी नहीं (है)। (48) समयसार (खण्ड-1) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव - अजीव अधिकार ( गाथा 39 से गाथा 68 तक) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. अप्पाणमयाणंता अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई । जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति । मूढा दु परप्पवादिणो केई जीवं अज्झवसाणं' कम्मं च तहा परूवेंति 1. [(अप्पाणं) + (अयाणंता ) ] अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 आत्मा को अयाणंता (अ-याण) वकृ 1/2 न जानते हुए ( मूढ) 1/2 वि अज्ञानी अव्यय तो [(पर) + (अप्पवादिणो) ] [ ( पर) वि (अप्प ) - (वादि) 1/2 fa] अव्यय (ofta) 2/1 (50) (अज्झवसाण) 2 / 1 (कम्म) 2 / 1 अव्यय अव्यय (परूव) व 3 / 2 सक पर (द्रव्य) को आत्मा बतानेवाला कई जीव अध्यवसान को कर्म को अन्वय- अप्पाणमयाणंता परप्पवादिणो केई मूढा दु अज्झवसाणं च तहा कम्मं जीवं परूवेंति । पादपूरक और प्रतिपादित करते हैं अर्थ- आत्मा को न जानते हुए पर ( द्रव्य) को आत्मा बतानेवाले कई अज्ञानी तो (रागादि) अध्यवसान ( परिणाम - समूह) को और (जन्म-मरण के आधार) कर्म (शरीर) को जीव प्रतिपादित करते हैं। अज्झवसाण = परिणाम (देखें: समयसार, गाथा 271 ) समयसार (खण्ड-1 ) Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगंजीवं। मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति॥ अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं अन्य अध्यवसानों में तीव्र और मंद (प्रभावोत्पादक) शक्ति को जीवं मण्णंति तहा (अवर) 1/2 वि (अज्झवसाण) 7/2 [(तिव्वमंद)+(अणुभागगं)] [(तिव्व) वि-(मंद) वि- (अणुभागग) 2/1 वि] 'ग' स्वार्थिक (जीव) 2/1 (मण्ण) व 3/2 सक अव्यय (अवर) 1/2 वि (णोकम्म) 1/1 अव्यय [(जीवो)+ (इति)] जीवो (जीव) 1/1 इति (अ) = ऐसा जीव मानते हैं तथा अन्य अवरे नोकर्म णोकम्म चावि जीवो त्ति जीव ऐसा . अन्वय- अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति। अर्थ- अन्य (अज्ञानी) (रागादि) अध्यवसानों (परिणामों) में तीव्र और मन्द (प्रभावोत्पादक) शक्ति को जीव मानते हैं तथा अन्य ऐसा (मानते हैं) (कि) नोकर्म (शरीरादि) ही जीव (है)। समयसार (खण्ड-1) (51) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41. कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति। तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो॥ अन्य कम्मस्सुदयं [(कम्मस्स) + (उदयं)]] कम्मस्स (कम्म) 6/1 कर्म के उदयं (उदय) 2/1 उदय को जीवं (जीव) 2/1 जीव अवरे (अवर) 1/2 वि कम्माणुभागमिच्छंति [(कम्म)+(अणुभाग)+ (इच्छंति)] [(कम्म)-(अणुभाग) 2/1] कर्मों की फलदान शक्ति को इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक स्वीकार करते हैं तिव्वत्तणमंदत्तण- [(तिव्वत्तण)-(मंदत्तण)- तीव्रता और मंदता रूप गुणेहि (गुण) 3/2] परिणाम के कारण (ज) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि वह (हव) व 3/1 अक जीवो (जीव) 1/1 हवदि जैव अन्वय- अवरे कम्मस्सुदयं जीवं तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं कम्माणुभागमिच्छंति जो सो जीवो हवदि। अर्थ- अन्य (शुभ-अशुभ भावों से उत्पन्न) (पुण्य-पााप रूप) कर्म के उदय को जीव (मानते हैं)। (अन्य) तीव्रता और मन्दतारूप परिणाम के कारण कर्मों की (साता-असाता रूप) फलदान शक्ति को स्वीकार करते हैं (इसलिए) जो (कर्मो की फलदान शक्ति है), वह जीव है। 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया होती है। (प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 36) (52) समयसार (खण्ड-1) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42. जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ॥ जीवो कम्मं उहयं दोणव खलु केइ जीवमिच्छंति अवरे संजोगेण दु कम्मा जीवमिच्छंति (जीव) 1 / 1 (कम्म) 1 / 1 (उहय) 1 / 1 सवि (alfa) 2/2 fa अव्यय जीव कर्म समयसार (खण्ड 1) दोनों को ही Fic T कई अव्यय [(जीवं) + (इच्छंति)] जीवं (जीव ) 2 / 1 जीव इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक स्वीकार करते हैं (अवर) 1/2 वि (संजोग ) 3/1 अव्यय (कम्म) 6/2 [(जीवं) + (इच्छंति)] जीव को जीवं (जीव ) 2 / 1 इच्छंति (इच्छ) व 3/2 सक स्वीकार करते हैं अन्य संयोग से ही कर्मों के अन्वय- जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति अवरे कम्माणं संजोगेण द जीवमिच्छति । अर्थ- जीव और कर्म दो (हैं) (उन मिले हुए) दोनों को कई (अज्ञानी) 'जीव' स्वीकार करते हैं। अन्य (अज्ञानी) जीव को कर्मों के संयोग से ही (उत्पन्न) स्वीकार करते हैं। (53) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा। ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिहिट्ठा॥ एवंविहा ऐसे बहुविहा अनेक प्रकार के परमप्पाणं पर को (एवंविह) 1/2 वि (बहुविह) 1/2 वि [(परं)+ (अप्पाणं)] परं (पर) 2/1 वि अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 (वद) व 3/2 सक (दुम्मेह) 1/2 वि (त) 1/2 सवि वदंति दुम्मेहा आत्मा कहते हैं अज्ञानी al a अव्यय परमळुवादी णिच्छयवादीहिं णिट्ठिा [(परमट्ठ)-(वादि) 1/2 वि] (णिच्छयवादि) 3/2 वि (णिद्दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि नहीं परमार्थवादी निश्चयवादियों द्वारा कहे गए अन्वय- एवंविहा बहुविहा दुम्मेहा परमप्पाणं वदंति णिच्छयवादीहिं ते परमट्ठवादी ण णिहिट्ठा। अर्थ- ऐसे अनेक प्रकार के अज्ञानी (व्यक्ति) पर को आत्मा कहते हैं। (किन्तु) निश्चयवादियों (आत्मदृष्टिवालों के) द्वारा वे परमार्थवादी (अध्यात्मवादी) नहीं कहे गए हैं)। (54) समयसार (खण्ड-1) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति॥ सभी (एद) 1/2 सवि सव्वे (सव्व) 1/2 सवि भावा (भाव) 1/2 भाव पोग्गलदव्वपरिणाम- [(पोग्गल)-(दव्व)- पुद्गलद्रव्य के णिप्पण्णा (परिणाम)-(णिप्पण्ण) परिणमन से उत्पन्न भूकृ 1/2 अनि] केवलिजिणेहिं (केवलिजिण) 3/2 अरहंत द्वारा भणिया (भण) भूकृ 1/2 कहे गए अव्यय (त) 1/2 सवि जीवो त्ति [(जीवो) (इति)] जीवो (जीव) 1/1 जीव इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार वुच्चंति (वुच्चंति) व कर्म 3/2 अनि कहे जाते हैं में कह 10 . अन्वय-केवलिजिणेहिं एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा भणिया ते जीवो त्ति कह वुच्चंति। अर्थ- (जब) अरहंत द्वारा (पूर्व कथित) ये सभी (रागादि) भाव (कर्म)-पुद्गलद्रव्य के परिणमन से उत्पन्न कहे गए (हैं) (तो) वे (सभी भाव) जीव (हैं) इस प्रकार कैसे कहे जाते हैं/कहे जा सकते हैं? समयसार (खण्ड-1) (55) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45. अट्ठविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति। जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स। अट्ठविहं पि कम्म सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति [(अट्ठविहं)+ (अपि)] अट्ठविहं (अट्ठविह) 2/1 वि । आठ प्रकार के अपि' (अ) = पादपूरक अव्यय पादपूरक (कम्म) 2/1 कर्म को (सव्व) 2/1 सवि समस्त (पोग्गलमय) 2/1 वि पुद्गलमय (जिण) 1/2 जिन (बेंति) व 3/2 सक अनि कहते हैं (ज) 6/1 सवि (फल) 1/1 फल (त) 2/1 सवि (वुच्चदि) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है [(दुक्खं)+ (इति)] दुक्खं (दुक्ख) 1/1 इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (विपच्चमाण) वकृ 6/1 उदय में आता हुआ जिसका फलं उस वुच्चदि दुक्खं ति 1/I दुख विपच्चमाणस्स अन्वय- विपच्चमाणस्स जस्स फलं दुक्खं ति वुच्चदितं अट्ठविहं सव्वं कम्मं पि य जिणा पोग्गलमयं बेंति। अर्थ- उदय में आता हुआ (जो भी कर्म है) जिसका फल (आकुलता रूप) दुख कहा जाता है, उस आठ प्रकार के समस्त कर्म को जिन पुद्गलमय कहते 1. नोटः आप्टेः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश संपादक द्वारा अनूदित (56) समयसार (खण्ड-1) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहि। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥ ववहारस्स (ववहार) 6/1 व्यवहारनय का दरीसणमुवएसो [(दरीसणं)+(उवएसो)] दरीसणं (दरीसण) 1/1 कथन उवएसो (उवएस) 1/1 उपदेश वण्णिदो (वण्ण) भूकृ 1/1 प्रतिपादित जिणवरेहि (जिणवर) 3/2 जिनेन्द्रदेव द्वारा (जीव) 1/2 जीव (एद) 1/2 सवि (सव्व) 1/2 सवि अज्झवसाणादओ [(अज्झवसाण)+(आदओ)] [(अज्झवसाण)-(आदि) 1/2] अध्यवसान वगैरह भावा (भाव) 1/2 जीवा सब्वे भाव अन्वय- जिणवरेहिं उवएसो वण्णिदो एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा जीवा ववहारस्स दरीसणं। अर्थ- जिनेन्द्रदेव द्वारा (जो) उपदेश प्रतिपादित (है) (उसके अनुसार) अध्यवसान वगैरह (राग वगैरह) ये सभी भाव जीव (हैं)- (यह) व्यवहारनय का कथन है। समयसार (खण्ड-1) (57) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. राया हु णिग्गदो ि य राया हु णिग्गदो ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो । ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥ एसो बलसमुदयस्स आदेसो ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया (राय) 1 / 1 अव्यय [(णिग्गदो ) + (इति)] णिग्गदो ( णिग्गद) भूकृ 1 / 1 अनि इति (अ) = अव्यय ( एत) 1 / 1 सवि [(बल) - ( समुदय) 4 / 1 ] (आदेस) 1/1 (ववहार) 3 / 1 अव्यय (उच्चदि) व कर्म 3 / 1 अनि [(तत्थ) + (एक्को)] तत्थ (अ) = वहाँ एक्को (एक्क) 1 / 1 वि (णिग्गद) भूकृ 1/1 अनि (राय) 1 / 1 राजा ही निकला शब्दस्वरूपद्योतक पादपूरक यह सेना के समूह लिए कहना व्यवहार से कि कहा जाता है के वहाँ एक निकला हुआ राजा अन्वय- बलसमुदयस्स एसो आदेसो दु राया णिग्गदो त्ति य ववहारेण उच्चदि तत्थ णिग्गदो राया एक्को हु । अर्थ- (बाहर निकले हुए) सेना के समूह के लिए यह कहना कि राजा (बाहर) निकला है - व्यवहार ( बाह्यदृष्टि) से कहा जाता है, (किन्तु) वहाँ (तो) (वास्तव में) निकला हुआ राजा एक ही (होता है)। नोट: संपादक द्वारा अनूदित (58) समयसार (खण्ड-1 ) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं। जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो॥ एमेव ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं जीवो त्ति अव्यय इसी प्रकार अव्यय पादपूरक (ववहार) 1/1 व्यवहार [(अज्झवसाण)+(आदि)] [(अज्झवसाण)-(आदि)'1/2] अध्यवसान वगैरह [(अण्ण) वि-(भाव) 4/2] अन्य (पुद्गल से उत्पन्न) भावों के लिए [(जीवो) + (इति)] जीवो (जीव) 1/1 जीव इति (अ) = शब्दस्वरूपद्योतक (कद) भूकृ 1/1 अनि माना गया (सुत्त) 7/1 आगम में [(तत्थ)+एक्को)] तत्थ (अ) = वहाँ वहाँ एक्को (एक्क) 1/1 वि एक (णिच्छिद) भूकृ 1/1 अनि निश्चित किया हुआ (जीव) 1/1 जीव कदो तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो अन्वय-एमेव य अज्झवसाणादि अण्णभावाणं जीवो त्ति सुत्ते ववहारो कदो तत्थ णिच्छिदो जीवो एक्को। अर्थ- इसी प्रकार अध्वसान वगैरह अन्य (पुद्गल से उत्पन्न) भावों के लिए (कहा गया) 'जीव' आगम में व्यवहार माना गया (है) अर्थात् व्यवहार नय से कहा गया है (किन्तु) वहाँ (रागादि भावों में) निश्चित किया हुआ जीव (तो) एक (ही) (है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘आदी' के स्थान पर 'आदि' किया गया है। नोटः संपादक द्वारा अनूदित समयसार (खण्ड-1) (59) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसह। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं।। अव्वत्तं अप्रकट अरसमरूवमगंधं [(अरस)+(अरूवं)+(अगंध)] अरसं (अरस) 2/1 वि रसरहित अरूवं (अरूव) 2/1 वि रूपरहित अगंधं (अगंध) 2/1 वि गंधरहित (अव्वत्त) 2/1 वि चेदणागुणमसदं [(चेदणागुणं)+(असई)] चेदणागुणं (चेदणागुण) 2/1 वि चेतना गुणवाला असई (असद्द) 2/1 वि शब्दरहित जाण (जाण) विधि 2/1 सक जानो अलिंगग्गहणं (अलिंगग्गहण) 2/1 वि तर्क से ग्रहण न होनेवाला जीवमणिद्दिठ्ठसंठाणं [(जीवं)+(अणिद्दिठ्ठसंठाणं)] जीवं (जीव) 2/1 जीव को [(अणिट्ठि) भूकृ अनि- न कहे हुए (संठाण) 2/1 वि] आकारवाला अन्वय- जीवं अरसं अरूवं अगंधं अव्वत्तं चेदणागुणं असई अलिंगग्गहणं अणिद्दिट्ठसंठाणं जाण। अर्थ- (तुम) जीव को रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, (स्पर्श से भी) अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्दरहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला (तथा) न कहे हुए आकारवाला जानो। (विभिन्न जीवों द्वारा विभिन्न शरीराकार ग्रहण किया हुआ होने के कारण कोई एक आकार नियत नहीं किया जा सकता है)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (60) समयसार (खण्ड-1) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं॥ जीव के जीवस्स णत्थि वण्णो FFIF 24 1 2 3 4 E F (जीव) 6/1 अव्यय (वण्ण) 1/1 अव्यय अव्यय (गंध) 1/1 अव्यय अव्यय (रस) 1/1 अव्यय अव्यय अव्यय (फास) 1/1 अव्यय अव्यय (रूव) 1/1 अव्यय (सरीर) 1/1 अव्यय अव्यय (संठाण) 1/1 अव्यय (संहणण) 1/1 . ही शब्द न शरीर ण संठाणं आकार नहीं अस्थि-रचना संहणणं ___ अन्वय-जीवस्स वण्णो णत्थि ण वि गंधो ण वि रसो य ण वि फासो ण वि. रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं संहणणं ण। अर्थ- जीव के वर्ण नहीं (है), न ही गंध (है), न ही रस (है) और न ही स्पर्श (है), न ही शब्द (है) न (उसका) (कोई) शरीर (है), न ही (उसका) (कोई) आकार है (और) (उसके) (किसी प्रकार की) अस्थि-रचना (भी) नहीं 1. रूप-रूव = शब्द (आप्टेः संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश) समयसार (खण्ड-1) (61) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि।। जीव के जीवस्स णत्थि नहीं है (जीव) 6/1 अव्यय (राग) 1/1 अव्यय रागो * * * * * * अव्यय दोसो णेव विज्जदे मोहो (दोस) 1/1 अव्यय (विज्ज) व 3/1 अक (मोह) 1/1 अव्यय (पच्चय) 1/2 मोह पच्चया नहीं आस्रव व बंध का कारण कम्म णोकम्म चावि अव्यय (कम्म) 1/1 (णोकम्म) 1/1 अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय कर्म नोकर्म और भी उसके नहीं है णत्थि अन्वय- जीवस्स रागो णत्थि दोसो वि ण णेव मोहो विज्जदे पच्चया णो ण कम्मं चावि से णोकम्मं णत्थि। अर्थ- जीव के राग नहीं है, द्वेष भी नहीं (है), न ही (उसके) मोह है, आस्रव व बंध का कारण (भी) नहीं (है), न कर्म (है) और उसके नोकर्म (शरीरादि) भी नहीं है। 1. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- यह पाँच आस्रव व बंध के हेतु या प्रत्यय कहलाते हैं। (जैन दर्शन पारिभाषिक शब्दकोश) (62) समयसार (खण्ड-1) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा णेव फड्ढया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा व य अणुभागठाणाणि॥ जीवस्स (जीव) 6/1 अव्यय णत्थि वग्गो (वग्गो) 1/1 अव्यय जीव के नहीं है वर्ग नहीं वर्गणा नहीं स्पर्धक वग्गणा (वग्गणा) 1/1 णेव अव्यय फड्या (फड्ढय) 1/2 'य' स्वार्थिक # अव्यय कोई 5 अव्यय अज्झप्पट्ठाणा [(अज्झप्प)-(ट्ठाण) 1/2] अध्यात्मस्थान णेव अव्यय नहीं और अणुभागठाणाणि अव्यय [(अणुभाग)-(ट्टाण) 1/2] अनुभागस्थान अन्वय- जीवस्स वग्गो णत्थि ण वग्गणा केई फड्ढया णेव णो अज्झप्पट्ठाणा य अणुभागठाणाणि णेव। अर्थ- जीव के वर्ग नहीं है, न वर्गणा है, कोई स्पर्धक (भी) नहीं (है), न अध्यात्मस्थान (है) और अनुभागस्थान (भी) नहीं (है)। समयसार (खण्ड-1) (63) Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53. जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई। जीवस्स (जीव) 6/1 जीव के अव्यय णत्थि केई जोयट्ठाणा अव्यय [(जोय)-(ट्ठाण) 1/2] अव्यय [(बंध)-(ठाण) 1/2] अव्यय नहीं है कोई योगस्थान नहीं बंधस्थान बंधठाणा अव्यय न ही अव्यय और उदयट्ठाणा [(उदय)-(ट्ठाण) 1/2] अव्यय [(मग्गण)-(ट्ठाणय) 1/2] 'य' स्वार्थिक उदयस्थान नहीं मार्गणास्थान मग्गणट्ठाणया केई अव्यय कोई अन्वय- जीवस्स केई जोयट्ठाणा णत्थि बंधठाणा वा ण य णेव उदयट्ठाणा केई मग्गणट्ठाणया ण। अर्थ- जीव के कोई योगस्थान नहीं है, बंधस्थान भी नहीं (है) और न ही उदयस्थान (है), कोई मार्गणास्थान (भी) नहीं (है)। (64) समयसार (खण्ड-1) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा॥ अव्यय नहीं ठिदिबंधट्ठाणा स्थितिबंधस्थान [(ठिदि)-(बंध)(ट्ठाण) 1/2]] (जीव) 6/1 जीवस्स जीव के अव्यय संकिलेसठाणा [(संकिलेस)-(ठाण) 1/2] संक्लेशस्थान वा अव्यय णेव विसोहिट्ठाणा अव्यय नहीं [(विसोहि)-(ट्ठाण) 1/2] विशुद्धिस्थान अव्यय [(संजम)-(लद्धि)- संयमलब्धिस्थान (ठाण) 1/2] नहीं संजमलद्धिठाणा वा अव्यय अन्वय- जीवस्स ठिदिबंधट्ठाणा णो ण संकिलेसठाणा विसोहिट्ठाणा वा णेव संजमलद्धिठाणा वा णो। अर्थ- जीव के स्थितिबंधस्थान नहीं (है), न संक्लेशस्थान (है), विशुद्धिस्थान भी नहीं (है) (तथा) संयमलब्धिस्थान भी नहीं (है)। समयसार (खण्ड-1) (65) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. व य जीवाण ण वय जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा ॥ गुणाणा य अत्थि जीवस जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा अव्यय अव्यय ( जीवट्ठाण ) 1/2 अव्यय ( गुणट्ठाण ) 1/2 अव्यय अव्यय (जीव ) 6 / 1 अव्यय अव्यय (द) 1/2 सवि (सव्व) 1/2 सवि [ ( पोग्गल ) - ( दव्व) 6/1] (परिणाम) 1/2 सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा । नही और जीवस्थान नहीं है, क्योंकि ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणमन ( है ) । (66) गुणस्थान और जीव के क्योंकि अन्वय- य णेव जीवट्ठाणा य जीवस्स गुणट्ठाणा ण अत्थि जेण दु एदे पादपूरक ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणमन अर्थ- और न ही जीवस्थान ( है ) और जीव के गुणस्थान ( भी ) नहीं समयसार (खण्ड-1) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स। जीवस्स ववहारेण (ववहार) 3/1 व्यवहारनय से तृतीयार्थक अव्यय अव्यय (एद) 1/2 सवि (जीव) 6/1 जीव के हवंति (हव) व 3/2 अक होते हैं वण्णमादीया [(वण्णं)+(आदीया)] वण्णं (वण्ण) 1/1 आदीया (आदिय) 5/1 वगैरह से 'य' स्वार्थिक गुणठाणंता [(गुणठाण)+(अंता)] [(गुण)-(ठाण) गुणस्थान की सीमा (अंत) 1/2 वि] तक (भाव) 1/2 भाव अव्यय अव्यय अव्यय णिच्छयणयस्स (णिच्छयणय) 6/1+3/1 निश्चयनय से तृतीयार्थक अव्यय अन्वय- एदे वण्णमादीया गुणठाणंता भावा ववहारेण दु जीवस्स हवंति दु णिच्छयणयस्स केई ण। अर्थ- ये वर्ण वगैरह से गुणस्थान की सीमा तक भाव व्यवहारनय से तो जीव के होते हैं, किन्तु निश्चयनय से कोई (भी) (वर्णादि भाव) (जीव के) नहीं (होते हैं)। भावा नहीं किन्तु कोई 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) समयसार (खण्ड-1) (67) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57. एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो। ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा॥ एदेहि (एद) 3/2 सवि अव्यय (सम्बन्ध) 1/1 अव्यय सम्बन्धो जहेव इनसे पादपूरक सम्बन्ध समानता व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त दूध और जल समझा जाना चाहिए नहीं कर बिल्कुल खीरोदयं [(खीर)+(उदय)] [(खीर)-(उदय) 1/1] मुणेदव्वो (मुण) विधिकृ 1/1 . अव्यय अव्यय (हो) व 3/2 अक तस्स (त) 6/1 सवि ताणि (त) 1/2 सवि अव्यय उवओगगुणाधिगो [(उवओगगुण)+(अधिगो)] [(उवओग)-(गुण) (अधिग) 1/1 वि] जम्हा होते हैं उसके ज्ञान-गुण से पूर्ण अव्यय क्योंकि अन्वय- एदेहिं य सम्बन्धो खीरोदयं जहेव मुणेदव्वो ताणि तस्स य ण होंति जम्हा दु उवओगगुणाधिगो। अर्थ- इनसे (वर्णादि से) (जीव का) सम्बन्ध दूध और जल के समान (अस्थिर) समझा जाना चाहिए। वे (वर्णादि) उसके (जीव के) बिल्कुल (ही) नहीं होते हैं, क्योंकि (जीव) तो ज्ञान-गुण से पूर्ण (ओत-प्रोत) (होता है)। नोटः संपादक द्वारा अनूदित (68) समयसार (खण्ड-1) Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58. पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई॥ मार्ग में पंथे मुस्संतं पस्सिदूण देखकर लोगा लोग भणंति ववहारी मुस्सदि (पंथ) 7/1 (मुस्संत) वकृ कर्म 2/1 अनि लूटा जाता हुआ (पस्स) संकृ (लोग) 1/2 (भण) व 3/2 सक कहते हैं (ववहारि) 1/2 वि (मुस्सदि) व कर्म 3/1 अनि लूटा जाता है (एत) 1/1 सवि (पंथ) 1/1 सामान्य अव्यय किन्तु अव्यय (पंथ) 1/1 (मुस्सदे) व कर्म 3/1 अनि लूटा जाता है कोई अव्यय अन्वय- पंथे मुस्संतं पस्सिदूण ववहारी लोगा भणंति एसो पंथो मुस्सदि य कोई पंथो ण मुस्सदे। __ अर्थ- मार्ग में (व्यक्ति को) लूटा जाता हुआ देखकर सामान्य लोग (यह) कहते हैं यह मार्ग लूटा जाता है, किन्तु (वास्तव में) कोई मार्ग लूटा नहीं जाता है (लूटा तो व्यक्ति जाता है)। 1. यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु कोई' के स्थान पर कोई' किया गया है। समयसार (खण्ड-1) (69) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59. तह जीवे कम्माणं' कम्मा' च पस्सिदुं वणं जीवस्स एस वण्णो जिणेहि उत्तो 1. तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ हरदो 2. (70) अव्यय (जीव) 7/1 (कम्म) 6/23/2 (कम्म) 6/23/2 अव्यय (पस्स) संक्र (वण्ण) 2 / 1 (जीव ) 6/1 (ए) 1 / 1 सवि ( वण्ण) 1 / 1 (जिण) 3/2 (ववहार) 5 / 1 पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (उत्त) भूकृ 1 / 1 अनि उसी प्रकार जीव में कर्मों से कर्मों से और देखकर बाह्य दिखाव-बनाव को जीव का अन्वय-तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च वण्णं पस्सिदुं जिणेहि उत्तो एस वण्णो ववहारदो जीवस्स । अर्थ - उसी प्रकार जीव में कर्मों से और नोकर्मों से ( उत्पन्न) बाह्य दिखाव- बनाव को देखकर, जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया ( है ) ( कि) यह बाह्य दिखाव - बनाव व्यवहार से जीव का ( ही ) ( है ) । यह बाह्य दिखाव-बनाव जिनेन्द्रदेव के द्वारा व्यवहार से कहा गया कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3 - 134 ) वण्ण = बाह्य दिखाव - बनाव Sanskrit-English Dictionary. (outward appearance), Monier Williams, समयसार (खण्ड-1) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60. गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे या सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति॥ गंधरसफासरूवा गंध, रस, स्पर्श और का देहो संठाणमाइया आकार आदि [(गंध)-(रस)-(फास)(रूव) 1/2] (देह) 1/1 [(संठाणं)+(आइया)] संठाणं (संठाण) 1/1 आइया (आइय) 1/2 'य' स्वार्थिक (ज) 1/2 सवि अव्यय (सव्व) 1/2 सवि (ववहार) 6/1-5/1 अव्यय (णिच्छयदण्हु) 1/2 वि (ववदिस) व 3/2 सक 4 तथा सब ववहारस्स व्यवहार से पादपूरक निश्चय के जानकार कहते हैं णिच्छयदण्हू ववदिसंति अन्वय- जे गंधरसफासरूवा देहो य संठाणमाइया सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति। . अर्थ- जो गंध, रस, स्पर्श और रूप (हैं) (जो) देह (है) तथा (जो) आकार आदि (हैं), (वे) सब व्यवहार से (जीव के) (जितेन्द्रियों द्वारा) (कथित हैं)। (ऐसा) निश्चय के जानकार कहते हैं। 1. कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) समयसार (खण्ड-1) (71) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णस्थि हु वण्णादओ केई॥ तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण उसमें अवस्था जीवों के संसार में स्थित होते हैं होंति वण्णादी वर्ण वगैरह (त) 7/1 सवि (भव) 7/1 (जीव) 6/2 (संसारत्थ) 6/2 वि (हो) व 3/2 अक [(वण्ण)+(आदी)] [(वण्ण)-(आदि) 1/2] [(संसार)-(पमुक्क) 6/2+7/2] अव्यय अव्यय [(वण्ण)+(आदओ)] [(वण्ण)-(आदि) 1/2] अव्यय संसारपमुक्काणं संसार से मुक्त में णत्थि नहीं है परन्तु वण्णादओ वर्ण वगैरह कोई केई अन्वय-तत्थ भवे संसारत्थाण जीवाणं वण्णादी होंति हु संसारपमुक्काणं केई वण्णादओ णत्थिा अर्थ- उस (व्यवहार) अवस्था में संसार में स्थित जीवों के वर्ण वगैरह होते हैं, परन्तु संसार से मुक्त (जीवों) में कोई वर्ण वगैरह नहीं है। 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'केई' के स्थान पर 'केई' किया गया है। 2. (72) समयसार (खण्ड-1) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णस्थि विसेसो दु दे कोई॥ जीवो जीव मण्णसे जदि हि जीवस्साजीवस्स (जीव) 1/1 अव्यय अव्यय निस्सन्देह (एद) 1/2 सवि (सव्व) 1/2 सवि सब [(भावा)+ (इति)] भावा (भाव) 1/2 अवस्थाएँ इति (अ) = इस प्रकार (मण्ण) व 2/1 सक मानता है अव्यय यदि अव्यय निश्चय ही [(जीवस्स)+ (अजीवस्स)] जीवस्स (जीव) 6/1-7/1 जीव में अजीवस्स (अजीव)6/1-7/1 अजीव में अव्यय अव्यय नहीं है (विसेस) 1/1 अव्यय अव्यय पादपूरक अव्यय कोई णत्थि विसेसो भेद orto कोई अन्वय- जदि मण्णसे एदे सव्वे भाव त्ति चेव जीवो हि दु दे हि जीवस्साजीवस्स कोई विसेसो य णत्थि। अर्थ- यदि (त) इस प्रकार मानता है (कि) (जीव की) ये सब अवस्थाएँ निस्सन्देह जीव ही (हैं) तो (तेरे लिए) निश्चय ही जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं है/रहेगा। 1. 2. प्राकृत-व्याकरणः पृष्ठ 7 (iii) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-134) यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु कोई' के स्थान पर कोई' किया गया है। 3. समयसार (खण्ड-1) (13) Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. अह संसारत्थाणं जीवाणं तुझ होंति वादी अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ।। तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा 1. अव्यय (संसारत्थ) 6 / 2 वि (जीव ) 6/2 (74) (तुम्ह) 6/17/1 स (हो) व 3/2 अक [(वण्ण) + (आदि)] [(वण्ण) - (आदि) 1 / 2] (त) 5 / 1 सवि (संसारत्थ) 1/2 वि (जीव ) 1/2 [(रूवित्तं) + (आवण्णा)] रूवित्तं (रूवित्त) 2/1 आवण्णा (आवण) भूक 1/2 अनि यदि संसार में स्थित जीवों के तुम्हारे मत में होते हैं वर्ण वगैरह उस कारण से संसार में स्थित जीव अन्वय- अह तुज्झ संसारत्थाणं जीवाणं वण्णादी होंति तम्हा संसारत्था जीवा रुवित्तमावण्णा । रूपीपने को प्राप्त हुए अर्थ - यदि तुम्हारे मत में संसार में स्थित जीवों के वर्ण वगैरह होते हैं (तो) उस कारण से संसार में स्थित जीव रूपीपने को प्राप्त हुए ( हो जायेंगे)। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। ( हेम - प्राकृत - व्याकरणः 3-134 ) समयसार (खण्ड-1) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी। णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो॥ एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण अव्यय इस प्रकार [(पोग्गल)-(दव्व) 1/1] पुद्गलद्रव्य (जीव) 1/1 जीव [(तह) अ-(लक्खण) 3/1] उसी (रूपीपन के) लक्षण से (मूढमदि) 8/1 हे मूढबुद्धि! [(णिव्वाणं)+(उवगदो)] णिव्वाणं (णिव्वाण) 2/1 निर्वाण को उवगदो' (उवगद) प्राप्त किया भूकृ 1/1 अनि मूढमदी णिव्वाणमुवगदो अव्यय ही 4P क और जीवत्तं पोग्गलो अव्यय (जीवत्त) 2/1 (पोग्गल) 1/1 (पत्त) भूकृ.1/1 अनि जीवत्व को पुद्गल प्राप्त हुआ पत्तो अन्वय- एवं मूढमदी तहलक्खणेण पोग्गलदव्वं जीवो य णिव्वाणमुवगदो पोग्गलो वि जीवत्तं पत्तो। - अर्थ- इस प्रकार हे मूढबुद्धि! (पूर्व कथित) उसी (रूपीपन के) लक्षण से पुद्गलद्रव्य जीव (हुआ) और (उसने) निर्वाण को प्राप्त किया। (अतः) (इसका अर्थ होगा) (कि) पुद्गल ही जीवत्व को प्राप्त हुआ (है)। 1. यहाँ भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग कर्तृवाच्य' में किया गया है। समयसार (खण्ड-1) (75) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65. एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा। - बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्सा एक्कं एक दोणि तिण्णि तीन चत्तारि (एक्क) 1/1 वि अव्यय और (दो) 1/2 वि (ति) 1/2 वि अव्यय पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति (चउ) 1/2 वि चार अव्यय (पंच) 1/2 वि पाँच (इन्दिय) 1/2 इन्द्रिय (जीव) 1/2 जीव [(बादरपज्जत्त)+ (इदरा)] [(बादर) वि-(पज्जत्त) वि- बादर, पर्याप्त और (इदर) 1/2 वि] इनसे इतर (पयडि) 1/2 (णामकम्म) 6/1 नामकर्म की इन्दिया जीवा बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ प्रकृतियाँ णामकम्मस्स अन्वय- एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया बादरपज्जत्तिदरा जीवा णामकम्मस्स पयडीओ। अर्थ- एक, दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रिय, बादर, पर्याप्त और इनसे इतर (सूक्ष्म और अपर्याप्त) जीव- (ये) नामकर्म की प्रकृतियाँ (हैं)। (76) समयसार (खण्ड-1) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66. एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं। पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो। एदाहि णिव्वत्ता जीवट्ठाणा करणभूदाहिं _ (एदा) 3/2 सवि इन अव्यय पादपूरक (णिव्वत्त) भूकृ 1/2 अनि रचे गये (जीवट्ठाण) 1/2 जीवों के भेद/प्रकार अव्यय कि [(करण)-(भूदा) साधन बनी हुई भूकृ 3/2 अनि (पयडि) 3/2 प्रकृतियों द्वारा [(पोग्गलमअ- पुद्गलमयी (पोग्गलमइ) 3/2] (ता) 3/2 सवि उनके कारण कैसे (भण्णदे) व कर्म 3/1 अनि कहा जा सकता है (जीव) 1/1 जीव पयडीहिं पोग्गलमइहिं अव्यय भण्णदे जीवो . अन्वय- करणभूदाहिं एदाहि पोग्गलमइहिं पयडीहिं य जीवट्ठाणा णिव्वत्ता ताहिं कहं भण्णदे उ जीवो। अर्थ- साधन बनी हुई इन पुद्गलमयी (नाम) प्रकृतियों द्वारा जीवों के भेद/प्रकार रचे गये (हैं)। (इसलिए) उनके कारण (यह) कैसे कहा जा सकता है कि (उनमें से प्रत्येक आत्मा अलग-अलग) जीव (है)? समयसार (खण्ड-1) (77) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67. पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहुमा बादरा य जे चेव। देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता॥ पज्जत्तापज्जत्ता सुहमा बादरा [(पज्जत्त)+ (अपज्जत्ता)] *पज्जत्त' (पज्जत्त) 1/2 वि पर्याप्त अपज्जत्ता (अपज्जत्त)1/2 वि अपर्याप्त (ज) 1/2 सवि (सुहुम) 1/2 वि सूक्ष्म (बादर) 1/2 वि बादर अव्यय तथा (ज) 1/2 सवि अव्यय निश्चय ही (देह) 6/1 देह के [(जीव)-(सण्णा ) 1/2] जीवों के नाम (सुत्त) 7/1 आगम में (ववहार) 5/1 व्यवहारनय से पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय (उत्त) भूकृ 1/2 अनि चेव देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता कहे गये अन्वय- जे सुत्ते पज्जत्तापज्जत्ता य जे सुहमा बादरा ववहारदो जीवसण्णा उत्ता चेव देहस्स। अर्थ- जो आगम में पर्याप्त-अपर्याप्त तथा जो सूक्ष्म-बादर व्यवहारनय से जीवों के नाम कहे गये (हैं) (वे) निश्चय ही देह के (नाम) (हैं)। __जो जीव पर्याप्त नामकर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण कर लेते हैं वे पर्याप्त कहलाते हैं। जो जीव अपर्याप्त नामकर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं कर पाते वे अपर्याप्त कहलाते हैं। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओंका व्याकरण, पृष्ठ 517) (78) समयसार (खण्ड-1) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. मोहणकम्मस्सुदया दु वणिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता॥ मोहणकम्मस्सुदया वण्णिया वर्णित गुणट्ठाणा गुणस्थान [(मोहणकम्मस्स)+(उदया)] मोहणकम्मस्स [(मोहण) वि- मोहनीय कर्म के (कम्म) 6/1] उदया (उदय)15/1 उदय के कारण अव्यय पादपूरक (वण्ण) भूकृ 1/2 (ज) 1/2 सवि (इम) 1/2 सवि (गुणट्ठाण) 1/2 (त) 1/2 सवि अव्यय (हव) व 3/2 अक (जीव) 1/2 (ज) 1/2 सवि [(णिच्चं)+(अचेदणा)] णिच्वं (अ) = सदैव सदैव अचेदणा (अचेदण) 1/2 वि चेतनारहित (उत्त) भूकृ 1/2 अनि कहे गए कह हवंति जीवा णिच्चमचेदणा उत्ता अन्वय- जे इमे गुणट्ठाणा दु मोहणकम्मस्सुदया वण्णिया जे णिच्चमचेदणा उत्ता ते जीवा कह हवंति। अर्थ- जो ये गुणस्थान (हैं) (वे) मोहनीयकर्म के उदय के कारण वर्णित (हैं)। जो सदैव चेतनारहित कहे गए (हैं), वे जीव कैसे होंगे? 1. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया या पंचमी होती है। (प्राकृत-व्याकरण, पृष्ठ 42) प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमानकाल का प्रयोग प्रायः भविष्यत्काल के अर्थ में होता 2. समयसार (खण्ड-1) (79) Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाठ 1. वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदिं पत्ते। वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणिद।। जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण। पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमय। 3. एयत्तणिच्छयगदो समओ सव्वत्थ सुन्दरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होदि। 4. सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स। 5. तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं॥ 6. ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव॥ 7. ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥ (80) समयसार (खण्ड-1) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. जहण वि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदुं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं॥ 9. जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा॥ 10. जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा॥ 11. ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो॥ 12. सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे टिदा भावे॥ 13. भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।। 14. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं। - अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि। 15. जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। अपदेससुत्तमझ पस्सदि जिणसासणं सव्वं। समयसार (खण्ड-1) (81) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो। 17. जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण॥ 18. एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण। 19. कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्म। जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव॥ 20. अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अत्थि मम एदं। अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा॥ . 21. आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहं पि आसि पुव्वं हि। होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहं पि होस्सामि।। 22. एयं तु असन्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो। भूदत्थं जाणंतो ण करेदि दु तं असंमूढो। 23. अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पोग्गलं दव्वं। बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो। (82) समयसार (खण्ड-1) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. सव्वण्हुणाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्च । कह सो पोग्गलदव्वीभूदो जं भणसि मज्झमिणं ।। 25. जदि सो पोग्गलदव्वीभूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सक्को वत्तुं जे मज्झमिणं पोग्गलं दव्वं ।। 26. जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंशुदी चेव । सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो || 27. ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥ 28. इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मण्णदि हु संथुदो बंदिदो मए केवली मुणी । भयवं ॥ 29. तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणो' थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि । । 30. णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति ॥ 31. जो इन्दिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं । तं खलु जिदिंदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू ।। समयसार (खण्ड-1 1) (83) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आद। तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया बेंति॥ 33. जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि।। 34. सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादूणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेदव्वं॥ 35. जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुञ्चदे णाणी॥ 36. णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति॥ 37. णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमेक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया बेंति॥ 38. अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमेत्तं पि॥ 39. अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई। जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति॥ (84) समयसार (खण्ड-1) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40. अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं। मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो ति॥ 41. कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति। तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो॥ 42. जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छति। ___ अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छति॥ 43. एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा। ते ण परमट्ठवादी णिच्छयवादीहिं णिद्दिट्ठा॥ 44. एदे सव्वे भावा पोग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा। केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति॥ 45. अट्टविहं पि य कम्मं सव्वं पोग्गलमयं जिणा बेंति। जस्स फलं तं वुच्चदि दुक्खं ति विपच्चमाणस्स॥ 46. ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहि। जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा॥ 47. राया हु णिग्गदो त्ति य एसो बलसमुदयस्स आदेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया। समयसार (खण्ड-1) (85) Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48. एमेव य ववहारो अज्झवसाणादि अण्णभावाणं। जीवो त्ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो॥ 49. अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं जाण अलिंगग्गहणं चेदणागुणमस। जीवमणिहिट्ठसंठाणं।। 50. जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो। ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं॥ 51. जीवस्स णत्थि रागो ण वि दोसो णेव विज्जदे मोहो। णो पच्चया ण कम्मं णोकम्मं चावि से णत्थि॥ 52. जीवस्स णत्थि वग्गो ण वग्गणा व फड्डया केई। णो अज्झप्पट्ठाणा णेव य अणुभागठाणाणि।। 53. जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा। णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई। 54. णो ठिदिबंधट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा। णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा॥ 55. णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स। जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा॥ (86) समयसार (खण्ड-1) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56. ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। __ गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स। 57. एदेहिं य सम्बन्धो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो। ण य होंति तस्स ताणि दु उवओगगुणाधिगो जम्हा।। 58. पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।। 59. तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सि, वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो। 60. गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे या सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति॥ 61. तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णथि हु वण्णादओ केई।। 62. जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।। 63. अह संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी। ___ तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा॥ समयसार (खण्ड-1) (87) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64. एवं पोग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी। णिव्वाणमुवगदो वि य जीवत्तं पोग्गलो पत्तो॥ 65. एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इन्दिया जीवा। बादरपज्जत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स॥ 66. एदाहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणा उ करणभूदाहिं। पयडीहिं पोग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो॥ 67. पज्जत्तापज्जत्ता जे सुहमा बादरा य जे चेव। देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता। 68. मोहणकम्मस्सुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता॥. (88) समयसार (खण्ड-1) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-1 संज्ञा-कोश सज्ञा शब्द अजीव अज्झप्प अज्झवसाण पदार्थ अट्ठ अणुभाग अपदेस अप्प अर्थ लिंग गा.सं. अजीव अकारान्त पु. 13, 62 अध्यात्म अकारान्त नपुं. 52 अध्यवसान अकारान्त नपुं. 39, 40, 46, 48 अकारान्त पु., नपुं. 27 फलदान शक्ति अकारान्त पु. 41 अनुभाग 52 उपदेश अकारान्त पु. 15 आत्मा अकारान्त पु. 5, 10, 39 आत्मा अकारान्त पु. 9, 14, 15, 16, 39, 43 आदि इकारान्त पु. मन अकारान्त पु. आत्मा 26, 31, 32 वगैरह इकारान्त पु. 46, 48,56,61, 63 इसी प्रकार और भी निरूपण अकारान्त पु. कहना आचार्य अकारान्त पु. आस्रव अकारान्त पु. 11 illiti il1 11 अप्पाण आइ आद 22 आदि आदेस आयरिय आसव समयसार (खण्ड-1) (89) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंदिय इन्द्रिय इसि महर्षि उदय अकारान्त पु., नपुं. 31, 65 इकारान्त पु. 9 अकारान्त पु. 41, 53, 68 अकारान्त पु., नपुं. 57 अकारान्त पु. 46 अकारान्त पु. 24, 36, 37 . उदय जल उपदेश उपयोग ज्ञान उपदेश देना उवएस उवओग 57 अक उवदेसण उवलंभ एयत्त प्राप्ति एकत्व कर्म कम्म अकारान्त नपुं. 8 अकारान्त पु. 4 अकारान्त नपुं. 3, 4, 5 अकारान्त पु., नपुं. 2, 19, 39, 41, 42, 45, 51, 59, 68 अकारान्त नपुं. 66 आकारान्त स्त्री. 3, 4 अकारान्त पु. 4 करण साधन कहा कथा काम काम 1 इच्छा केवली केवलि केवलिजिण अरिहंत खीर इकारान्त पु. 29, 30 अकारान्त पु. अकारान्त नपु. 57 अकारान्त पु. 50, 60 इकारान्त स्त्री. 1 अकारान्त पु., नपुं. 29, 30, 57 E परिणाम (90) समयसार (खण्ड-1) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न गुणट्ठाण चरित्त चेदणागुण छल जिण जिणवर जीव जीव गुणस्थान अकारान्त नपुं. 55, 56, 68 चारित्र अकारान्त नपुं. 2, 7, 16 चेतना गुण अकारान्त पु., नपुं. 49 दोषपूर्ण दलील अकारान्त नपुं. 5 अरहंत अकारान्त पु. 10 जिन अकारान्त पु. 15, 45 जिनेन्द्रदेव 59 जिनेन्द्रदेव अकारान्त पु. . 6 अकारान्त पु., नपुं. 2, 11, 13, 23, 24, 26, 27, 28, 39, 40, 41, 42, 44, 46, 48, 49, 50, 51, 52, 53, 54, 55, 56, 59, 61, 62, 63, 64,65, 66, 67, 68 आत्मा जीवों के भेद/ अकारान्त पु., नपुं. 66 प्रकार अकारान्त नपुं. 25, 64 अकारान्त पु. 53 स्थान अकारान्त पु., नपुं. 52, 53, 54, 55 स्थान अकारान्त पु., नपुं. 52, 53, 54, 56 स्थिति इकारान्त स्त्री. 54 अकारान्त पु. 11 जीवट्ठाण जीवत्व जीवत्त जोय योग ठाण ण नय समयसार (खण्ड-1) (91) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णयर णाण णामकम्म णिच्छय नामकर्म उद्देश्य निश्चयनय निश्चयदृष्टि णिच्छयणय निश्चयन णिज्जरा निर्जरा णिम्ममत्त निर्ममत्व णियम नियम णिव्वाण निर्वाण णोकम्म नो कर्म तच्च यथार्थ तित्थयर तीर्थंकर तिव्वत्तण तीव्रता दंसण दर्शन दसण कथन दव्व द्रव्य वस्तु दुख देह दुक्ख देह दोस ཝཱ नगर ज्ञान (92) अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त पु. 30 2, 7, 10, 16, 24, 31, 32, 34 65 3 16, 27 253 29 56 आकारान्त स्त्री. अकारान्त नपुं. अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 64 अकारान्त पु., नपुं. 19, 40, 51, 59 अकारान्त नपुं. 29 अकारान्त पु., नपुं. 26 अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त पु., नपुं. 2, 7, 16, 38 अकारान्त पु., नपुं. 46 अकारान्त पु., नपुं. 20,23,25,44,55,64 13 36, 37 34 35, 24 अकारान्त पु., नपुं. 45 अकारान्त पु., नपुं. 26,27,28,30,60,67 अकारान्त पु. 51 समयसार (खण्ड-1 -1) Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धम्म मार्ग पच्चक्खाण पच्चय पदेस पमाण पयडि परमट्ट परमत्थ परमाणु परमाणु परिणाम धर्म अकारान्त पु., नपुं. 37 अकारान्त पु. प्रत्याख्यान अकारान्त नपुं. 34 आस्रव व बंध अकारान्त पु. 51 का कारण समूह __ अकारान्त पु. 2 प्रमाण अकारान्त नपुं. 5 प्रकृति इकारान्त स्त्री. 65, 66 परमार्थ अकारान्त पु. 32, 43 परमार्थ अकारान्त पु., नपुं. 8 उकारान्त पु. 38 परिणमन अकारान्त पु. 44,55 अकारान्त पु., नपुं. 13 पुण्य अकारान्त पु., नपुं. 13 अकारान्त पु., नपुं. 17, 35 अकारान्त पु., नपुं. 2, 23, 24, 25, 28, 44, 55, 64, 66 स्पर्धक अकारान्त पु., नपुं. 52 फल अकारान्त पु., नपुं. 45 स्पर्श अकारान्त पु., नपुं. 50, 60 बंधन अकारान्त पु. 3 निरूपण बंध 13, 53, 54 पाव पाप पुण्ण पुरिस पोग्गल मनुष्य पुद्गल समयसार (खण्ड-1) (93) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल सेना बुद्धि बुद्धि भयव भगवान अकारान्त नपुं. 47 इकारान्त स्त्री. 19 अकारान्त पु. 28 अकारान्त पु. अकारान्त पु. 6, 12, 23, 34, 35, 44, 46, 48,56 भव अवस्था भाव भाव आत्मभाव अवस्था भाषा भासा भोग मंदत्तण भोग मंदता मार्गणा मदि बुद्धि मुणि मुनि मेत मोक्ख मोक्ष आकारान्त स्त्री. 8 अकारान्त पु., नपुं. 4 अकारान्त नपुं. 41 अकारान्त नपुं. 53 इकारान्त स्त्री. इकारान्त पु. 28 अकारान्त नपुं. 38 अकारान्त पु. 13, 18 अकारान्त पु. 32, 33, 36, 51 अकारान्त पु., नपुं. 50, 60 अकारान्त पु. 51 अकारान्त पु. 18, 30, 47 अकारान्त पु., नपुं. 50 60 अकारान्त नपुं. 63 अकारान्त पु., नपुं. 24, 64 मोह राजा शब्द रूप रूवित्त रूपत्व लक्खण लक्षण (94) समयसार (खण्ड-1) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद्धि लोअ/लोय लोग वग्ग वग्गणा वण्ण वण्णण ववहार ववहारणय वियप्प विसेस विसोहि संकिलेस संजम संजोग संठाण लब्धि इकारान्त स्त्री. 54 लोक अकारान्त पु. 3,9 लोग अकारान्त पु. 58 वर्ग अकारान्त पु. 52 वर्गणा आकारान्त स्त्री. 52 वर्ण अकारान्त पु. 50, 56, 63 बाह्य दिखाव-बनाव 59 वर्णन अकारान्त नपुं. 30 व्यवहार अकारान्त पु. 7, 8, 11, 12, 47, 48, 59, 60 व्यवहारनय 46,56, 67 व्यवहारनय अकारान्त पु. 27 विचार अकारान्त पु. भेद अकारान्त पु., नपुं. 62 विशुद्धि इकारान्त स्त्री. 54 संक्लेश अकारान्त पु. 54 संयम अकारान्त पु. संयोग अकारान्त पु. अकारान्त नपुं. 50, 60 स्तुति इकारान्त स्त्री. संवर अकारान्त पु. संसार ___ अकारान्त पु. 61 अस्थि-रचना अकारान्त नपुं. 50 आकारान्त स्त्री. आकार संथुदि संवर संसार संहणण सण्णा नाम ____67 समयसार (खण्ड-1) (95) Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय/समअ समय अकारान्त पु. 2 आत्मा 3, 36, 37 समयपाहुड समयपाहुड __अकारान्त नपुं. 1 समुदय समूह अकारान्त पु. 47 सम्बन्ध सम्बन्ध अकारान्त पु. 57 सम्मत्त सम्यग्दर्शन अकारान्त नपुं. 13 सरीर शरीर अकारान्त पु., नपुं. 26, 29, 50 स-विहव निज वैभव/ अकारान्त पु. 5 स्वशक्ति सव्वण्हु सर्वज्ञ अकारान्त पु. 24 स-समय स्वसमय अकारान्त पु. 2 सहाव स्वभाव अकारान्त पु. 31, 32 शासन अकारान्त नपुं. 15 साहु उकारान्त पु. 16, 31, 32, 33 सिद्ध अकारान्त पु. 1 सुत्त साररूप अकारान्त नपुं. 15 आगम 48, 67 श्रुतज्ञान अकारान्त नपुं. 9 सासण साधु सिद्ध 10 1, 9, 10 सुदकेवलि सुद्धणय श्रुतकेवली शुद्धनय इकारान्त पु. अकारान्त पु. अनियमित संज्ञा 14 रायाणं 2/1 राजा 17 (96) समयसार (खण्ड-1) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश अकर्मक अर्थ क्रिया अस गा.. 20, 21 चुक्क 5 चूकना होना विज्ज होना atc 11, 19, 33,56,68 26, 27, 41 3, 6, 21, 29, 30, 57, 61, समयसार (खण्ड-1) (97) Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-कोश सकर्मक क्रिया गा.सं. अणुचर अहिगच्छ इच्छ 41, 42 22 कर अर्थ सेवा करना अनुभव करना स्वीकार करना स्वीकार करना/मानना लाना छोड़ना जानना स्तुति करना देना प्रस्तुत करना चय जाण 2, 10, 16, 49 थुण दाअ पच्चक्खा त्यागना प्रतिपादन करना परूव पस्स देखना जानना बुज्झ समझना 36, 37 6, 9, 23, 24, 31,58 भण कहना भास कहना मण्ण मानना 28, 40, 62 31, 32 मुण अनुभव करना वद कहना 43 (98) समयसार (खण्ड-1) Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aa विमुञ्च वियाण वोच्छ सद्दह आहु भण्णदे 3/1 मुस्सदि 3 / 1 मुस्सदे 3/1 वुच्चदि 3/1 वुच्चंत 3 / 2 कहना त्यागना जानना कहना विश्वास करना कहा कहते हैं कहा जाता है उच्चदि 3/1 उवदिस्सदि 3/1 कहा जाता है जुज्जदि 3 / 1 भादि 3 / 1 अनियमित क्रिया सकर्मक उपयुक्त माना जाता है। कहा जाता है कहा जाता है लूटा जाता है अनियमित कर्मवाच्य 47 7 29 लूटा जाता है समयसार (खण्ड- 1) कहा जाता है कहे जाते हैं 60 35 14 1 17 10 32, 36, 37, 45 238 0 4 $ 33 66 58 58 45 44 (99) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा.सं. 17 कृदन्त-कोश संबंधक कृदन्त अर्थ कृदन्त जानकर जानकर जीतकर समझकर जानकर स्तुति करके कृदन्त शब्द जाणिऊण जाणिदुं जिणित्ता णाऊण णादणं थुणित्तु पस्सिदूण पस्सिदुं 31, 32 देखकर देखकर वंदन करके वंदित्तु गाहे, हेत्वर्थक कृदन्त पढ़ने/ हेक समझने के लिए कहने के लिए हेकृ अनि 25 49 अणिहिट्ठ अणुभूद भूतकालिक कृदन्त न कहा हुआ भूकृ अनि अनभव किया भूकृ अनि हुआ अस्पर्शित भूक अनि कर्मबंधन-रहित भूकृ अनि अबद्ध अपुट्ठ 14, 15 14, 15 अबद्ध 23 (100) समयसार (खण्ड-1) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिगद असंजुत्त अस्सिद आगद आवण्ण जाना गया भूक अनि अन्य से असंयुक्त भूकृ अनि आश्रित घटित हो जाय भूक प्राप्त हुआ भूक अनि कहा गया प्राप्त किया किया हुआ भूकृ अनि माना गया प्राप्त कर लिया भूकृ अनि # # # # # # उत्त 59, 67, 68 उवगद कद गया जीता हुआ स्थित दृढ़मना भूकृ अनि भूकृ अनि 31, 32, 33 2 जाना गया णाद णिग्गद णिच्छिद निकला भूकृ अनि निर्धारण किया भूक हुआ निश्चित किया हुआ कहा गया भूकृ अनि उत्पन्न भूक अनि रचा गया भूकृ अनि स्तुति किया हुआ भूकृ अनि णिहिट्ठ णिप्पण्ण णिव्वत्त 43 44 66 समयसार (खण्ड-1) (101) Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिट्ठ 24 11 देसिद पत्त परिचिद बद्ध भणिद भणिय अनि देखा गया भूकृ अनि कहा गया भूकृ उपदेश दिया गया प्राप्त हुआ जाना हुआ भूक अनि वद्ध भूकृ अनि प्रतिपादित कहा गया हुआ घटित बना हुआ मूर्च्छित भूक वंदना किया गया भूक वर्णन किया गया भूक प्रतिपादित वर्णित भिन्न किया गया । युक्त भूकृ अनि स्तुति किया गया भूक सुना हुआ भूक अनि मोहिद वंदिद वण्णिद वण्णिय विहत्त संजुत्त # सुद अणुचरिदव्व विधि कृदन्त अनुभव किया विधिकृ जाना चाहिये 18 (102) समयसार (खण्ड-1) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असक्कं घेत्तव्व विधिक अनि 8 विधिकृ अनि 5 संभव नहीं ग्रहण किया जाना चाहिये समझा जाने णादव्व विधिकृ योग्य 34,57 समझा जाना चाहिये मुणेदव्व समझा जाना विधिक चाहिये सक्कं समर्थ विधिकृ अनि 8 सद्दहेदव्व श्रद्धा किया विधिक 18 जाना चाहिये सेविदव्वाणि आराधन किया विधिक 16 जाना चाहिये वर्तमान कृदन्त अयाणंत न जानता हुआ वह 39 जाणंत जानता हुआ वक थुव्वंत स्तुति करता वकृ कर्म अनि 30 हुआ मुस्संत वकृ कर्म अनि 58 लूटा जाता हुआ उदय में आता हुआ विपच्चमाण वकृ समयसार (खण्ड-1) (103) Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषण-कोश शब्द अंत अगंध अचल अचित्त अर्थ सीमा गंधरहित स्वरूप/स्वभाव में दृढ़ अचेतन अचेतन आठ प्रकार अनार्य अन्य से रहित अतुलनीय अचेदण अट्ठविह अणज्ज 14, 15 अणण्ण अणोवम अण्ण अन्य 20, 48 भिन्न अत्थत्थी अण्णाण अधिग अधिय अ-परम धन का इच्छुक अज्ञान पूर्ण (ओत-प्रोत) परिपूर्ण अ-परम (शुभ-अशुभ) अपर्याप्त अज्ञानी 31, 32 12 अपज्जत्त अप्पडिबुद्ध अप्पमत्त अप्रमत्त (104) समयसार (खण्ड-1) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभूदत्थ अरस अरूव अरूवि अवर अविसेस अव्वत्त असद्द असब्भूद असंमूढ · इदर अलिंगग्गहण तर्क से ग्रहण न होनेवाला एक्क एवंविह केवल केवलि खीण जाणग रसरहित रूपरहित अरूपी णाणमइअ णाणि अन्य अंतरंग भेद-रहित अप्रकट शब्दरहित अनात्मा में स्थित अविद्यमान ज्ञानी इसके विपरीत इनसे इतर / अन्य केवलमात्र अनुपम ऐसे एकमात्र केवली क्षीण ज्ञायक ज्ञानमय ज्ञानी समयसार (खण्ड-1 -1) 49 49 38 49 40, 41, 42 14, 15 49 2 2 2 2 5 6 8 1 a 49 22 25 65 36,37 38 43 9 33 883 28 11 6,7 38 7,35 (105) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिच्छयवादि निश्चयवादी णिच्छयविदु आत्मस्थ ज्ञानी णिच्छयदण्हु निश्चय के जानकार णियद स्थायी तिणि वि तीनों तिव्व तीव्र दरिसि रुचि रखनेवाला दुम्मेह दोण्णि वि दोनों धुव शाश्वत पज्जत्त पर्याप्त अज्ञानी 65, 67 पमत्त प्रमत्त पमुक्क मुक्त पर 2, 20, 34, 35, 39, 43 12 28,45 परम पोग्गलमय प्पदीवयर बद्ध पुद्गलमय प्रकाशक 3 बद्ध अनेक प्रकार बहु बहुत अनेक प्रकार के बहुविह बादर भूदत्थ बादर 65, 67 आत्मा में स्थित 11 (106) समयसार (खण्ड-1) Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंद མ ཎྜཱ སྶཱ མ मज्झ मिस्स मूढ मोहण ववहारि वादि वियाणय संमूढ संसारत्थ सक्क सच्चित्त सम्मादिट्ठि सुद्ध आत्मा में स्थित दृष्टि आत्मा में लगी हुई दृष्टि 13 मंद 40 15 20 सुन्दर सुलह सुहम अन्तर्वर्ती मिश्र अज्ञानी मोहनीय सामान्य बतानेवाला अनुभव विसंवादिणि विसंवादिनि वादी जाननेवाले करनेवाले अज्ञानी संसार में स्थित समर्थ चेतन सम्यग्दृष्टि शुद्ध शुद्धनय प्रशंसनी सुलभ सूक्ष्म समयसार (खण्ड-1) 11, 22 28 1 2 3 2 2 39 68 58 39 43 32 36, 37 3 22 61, 63 25 20 11 6 6, 7, 9, 11, 12, 38 12 3 4 67 (107) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्क चउ दो पंच (108) एक चार पाँच संख्यावाची विशेषण 27, 47, 48, 65 6 5 5 5 65 65 65 65 समयसार (खण्ड-1) Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम शब्द अर्थ अण्ण अम्ह इम उहय एत एता एदा ज त ता 音 दूसरा पु., नपुं. यह दो यह यह यह यह कौन जो वह वह सर्वनाम - कोश समयसार (खण्ड-1) लिंग पु., नपुं. स्त्री. पु., नपुं. पु., नपुं. स्त्री. पु., नपुं. स्त्री. पु., नपुं. स्त्री. पु., नपुं. पु., नपुं. पु., नपुं. स्त्री. गा.सं. 38 5, 19, 20, 21, 23, 24, 25, 28, 36, 37, 38 1, 9, 23, 24, 25, 28, 68 42 22, 47, 58, 59 19 20, 21, 44, 46, 55, 56, 57,62 66 17, 35, 36 6, 9, 10, 12, 14, 15, 20, 29, 31, 32, 41, 45, 60, 67,68 2, 5, 6, 9, 10, 14, 16, 17, 18, 22, 24, 25, 29, 31, 32, 33,36,37, 41, 43, 44, 45, 51,57, 61,63, 68 66 (109) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्ह सव्व तुम सब समस्त पु., नपुं. स्त्री. 63 पु., नपुं. 1, 4, 34, 60, 62 10, 45 सम्पूर्ण 35, 44, 46, 55 सभी सब सव्वा स्त्री. (110) समयसार (खण्ड-1) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-कोश अव्यय अर्थ अस्थि गा.सं. 38, 55 45 पादपूरक यदि शब्दस्वरूपद्योतक इस प्रकार 34, 45, 47, 48 35, 44, 62 ऐसा पादपूरक शब्दस्वरूपद्योतक पादपूरक 24, 25 इसी प्रकार 48 36, 37 इस प्रकार 6, 64 वैसे कदा वि कह 24, 44, 68 कभी क्यों/कैसे कैसे कुछ भी कहं . 66 किंचि वि केई कई क 52, 53, 56, 61 समयसार (खण्ड-1) (111) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई 58, 62 11, 27, 31, 42 निस्सन्देह निश्चय ही 38 किन्तु और 13, 59, 65 . तथा पादपूरक 23, 39 चावि और भी 6, 16, 18, 26, 62, 67 जइया जदि जम्हा 5, 25, 26, 62 10,57 क्योंकि चूँकि जैसे जहेव 8, 17, 30, 35 57 समानता व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त जब तक क्योंकि 4, 5, 8, 22, 26, 27, 29, समयसार (खण्ड-1) (112) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णत्थि णवरि णाम णिच्चं णेव णो तइया तत्थ तम्हा तह तह य तहा ताव तु न नहीं है केवल पादपूरक सदैव सदा नही नहीं न नहीं तब वहाँ इसलिए वैसे ही उसी प्रकार उसी रूप तथा तथा और तब तक पादपूरक समयसार (खण्ड-1) 30, 38, 43, 50, 51, 52, 53, 55, 56, 57, 58 6, 7, 50, 51, 54 36, 37, 50, 51, 52, 53, 61, 62 4 17,35 16,68 24 51, 52, 53, 55 52, 54 52 51,54 33 47, 48 10, 34 8,35 59 64 18 23,40 39 19 9, 22, 32 (113) Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए 3, 26 E 17 25 TE 6, 22 - किन्तु पादपूरक 8, 33, 55, 68 तथा 12, 42 निस्सन्देह 26, 39, 56, 57, 62 परन्तु कि दे पयत्तेण पादपूरक सावधानीपूर्वक तृतीयार्थक अव्यय B 21, 38 12, 16 17 18, 21 पुव्वं मिच्छा मिथ्या और 26 13, 18, 19, 27, 50, 52, 53, 55, 64, 65 (114) समयसार (खण्ड-1) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45, 47, 48, 57, 60, 66 पादपूरक बिल्कुल किन्तु तथा 60,67 पुनरावृत्ति भाषा की पद्धति 65 53,54 4, 6, 7, 26, 50, 64 कुछ भी 17, 30, 35, 36, 38, 50, 51 इसलिए Vis *** L. Lest 1111. . F विना सदा सव्वत्थ बिना सदा सर्वत्र ०० 2, 9, 18 21, 62 पादपूरक क्योंकि निश्चय से निस्सन्देह हु ऐसा निश्चय ही परन्तु समयसार (खण्ड-1) (115) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 छंद छंद के दो भेद माने गए हैं1. मात्रिक छंद 2. वर्णिक छंद 1. मात्रिक छंद- मात्राओं की संख्या पर आधारित छंदो को ‘मात्रिक छंद' कहते. हैं। इनमें छंद के प्रत्येक चरण की मात्राएँ निर्धारित रहती हैं। किसी वर्ण के उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर दो प्रकार की मात्राएँ मानी गई हैं- हस्व और दीर्घ। ह्रस्व (लघु) वर्ण की एक मात्रा और दीर्घ (गुरु) वर्ण की दो मात्राएँ गिनी जाती लघु (ल) (1) (ह्रस्व) गुरु (ग) (s) (दीर्घ) (1) संयुक्त वर्गों से पूर्व का वर्ण यदि लघु है तो वह दीर्घ/गुरु माना जाता है। जैसे'मुच्छिय' में 'च्छि' से पूर्व का 'मु' वर्ण गुरु माना जायेगा। (2) जो वर्ण दीर्घस्वर से संयुक्त होगा वह दीर्घ/गुरु माना जायेगा। जैसे- रामे। यहाँ शब्द में 'रा'और 'मे' दीर्घ वर्ण है। (3) अनुस्वार-युक्त ह्रस्व वर्ण भी दीर्घ/गुरु माने जाते हैं। जैसे- 'वंदिऊण' में 'व' हस्व वर्ण है किन्तु इस पर अनुस्वार होने से यह गुरु (s) माना जायेगा। (4) चरण के अन्तवाला ह्रस्व वर्ण भी यदि आवश्यक हो तो दीर्घ/गुरु मान लिया जाता है और यदि गुरु मानने की आवश्यकता न हो तो वह ह्रस्व या गुरु जैसा भी हो बना रहेगा। 1. देखें, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ (छंद एवं अलंकार) (116) समयसार (खण्ड-1) Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. वर्णिक छंद- जिस प्रकार मात्रिक छंदों में मात्राओं की गिनती होती है उसी प्रकार वर्णिक छंदों में वर्गों की गणना की जाती है। वर्णों की गणना के लिए गणों का विधान महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक गण तीन मात्राओं का समूह होता है। गण आठ हैं जिन्हें नीचे मात्राओं सहित दर्शाया गया है यगण मगण तगण - ।ऽऽ - 555 ___ - 55। - ।ऽ - । । ___ - ऽ।ऽ रगण जगण भगण नगण - ।।। सगण - ।। समयसार में मुख्यतया गाहा छंद का ही प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ गााहा छंद के लक्षण और उदाहरण दिए जा रहे हैं। लक्षण गाहा छंद के प्रथम और तृतीय पाद में 12 मात्राएँ, द्वितीय पाद में 18 तथा चतुर्थ पाद में 15 मात्राएँ होती हैं। समयसार (खण्ड-1) (117) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण (118) SSIS ISS ।। ऽऽ। । ।ऽ । । । ऽ ऽ जीवस्स णत्थि वण्णो ण वि गंधो ण वि रसो ण वि य फासो । ऽ ऽ ।।ऽऽ । T 1 ऽ।। ऽ I S SS ण वि रूवं ण सरीरं ण वि संठाणं ण संहणणं ।। A । ।।। ऽ । ।ऽ ऽ अरसमरूवमगंधं ऽ । । ऽ ऽ।। ऽ जाण अलिंगग्गहणं ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ ।।। ऽ ऽ अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं । ऽ।। ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।। ऽ ऽ । SISS ऽ ऽ ऽ ऽ । ऽ। ऽ ऽ S जीवस्स णत्थि केई जोयट्ठाणा ण बंधठाणा वा । ऽ । SS S I ऽ । ऽ ऽ । ऽ 55 णेव य उदयट्ठाणा ण मग्गणट्ठाणया केई || ।। ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ S S SS ISIS SS तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं । ऽ ऽ । ऽ। ऽ ऽ । ऽ। ।। ऽ। ऽ SS जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ समयसार (खण्ड-1) Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश समयसार समयसार : हिन्दी टीकाकार - आचार्य श्री 108 ज्ञानसागर जी महाराज सम्पादक-डॉ.दरबारीलाल कोठिया, बीना (म.प्र.) (श्री दिगम्बर जैन समिति एवं सकल दिगम्बर जैन समाज, अजमेर (राज.), तृतीय संस्करण, 1994) : समय-प्रमुखः आचार्य विद्यानन्द मुनिराज सम्पादक-पं.बलभद्र जैन (जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी (राजस्थान) तृतीय संस्करण, 1997) : अनुवादक-श्री रूपचन्द कटारिया (वीर सेवा मन्दिर, नई दिल्ली, 2000) : हिन्दी टीकाडॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल (श्री कल्याणमल राजमल पाटनी सिद्ध चेतना ट्रस्ट, कोलकाता एवं पण्डित टोडरमल सर्वोदय ट्रस्ट, जयपुर, पंचम संस्करण, 2012) : पं. हरगोविन्ददास त्रिविक्रमचन्द्र सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, 1986) 3. समय पाहुड समयसार 5. पाइय-सद्द-महण्णवो समयसार (खण्ड-1) (119) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. . कुन्दकुन्द शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (श्री दिगम्बर जैन साहित्य-संस्कृति संरक्षण समिति, दिल्ली, 1989) 7. प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश : डॉ. उदयचन्द्र जैन (न्यु भारतीय बुक कॉर्पोरेशन, दिल्ली, 2005) 8. संस्कृत-हिन्दी कोश : वामन शिवराम आप्टे (कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1996) जैन दर्शन पारिभाषिक : मुनि श्री क्षमासागर जी शब्दकोश (मैत्री समूह, 2600, नागोरियों का चौक, घी वालों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर द्वितीय संस्करण, 2014) 10. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर, 2006) 11. प्राकृत भाषाओं का : लेखक -डॉ. आर. पिशल व्याकरण हिन्दी अनुवादक - डॉ. हेमचन्द्र जोशी (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1958) 12. प्राकृत रचना सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, तृतीय संस्करण, 2003) 13. प्राकृत अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, द्वितीय संस्करण, 2004) भाग 1-2 (120) समयसार (खण्ड-1) Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग-1 14. प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ, : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, . 1999) 15. प्राकृत-व्याकरण डॉ. कमलचन्द सोगाणी (संधि- समास- कारक-तद्धित- (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, स्त्रीप्रत्यय-अव्यय) 2008) 16. अपभ्रंश अभ्यास सौरभ : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (छंद एवं अलंकार) (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर,2008) 17. प्राकृत- हिन्दी-व्याकरण : लेखिका- श्रीमती शकुन्तला जैन (भाग-1, 2) संपादक- डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर, 2012, 2013) समयसार (खण्ड-1) (121) Page #129 --------------------------------------------------------------------------  Page #130 -------------------------------------------------------------------------- _