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________________ 6. ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जागो भावो एवं भति सुद्ध णादो जो सो ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो । एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥ अव्यय अव्यय (हो) व 3 / 1 अक ( अप्पमत्त ) 1 / 1 वि (16) अव्यय ( पमत्त ) 1 / 1 वि ( जाणग) 1 / 1 वि अव्यय (ज) सवि 1/1 (भाव) 1 / 1 अव्यय (भण) व 3 / 2 सक (सुद्ध) 2 / 1 वि (णा) भूक (ज) सवि 1 / 1 (त) सवि 1 / 1 ही होता है अप्रमत्त न प्रमत्त ज्ञायक और जो भाव इस प्रकार कहते हैं शुद्ध जाना गया जो वह चूँकि अव्यय (त) सवि 1 / 1 चेव अव्यय अन्वय- जो जाणओ भावा सो ण वि अप्पमत्तो होदि द ण पमत्तो दु एवं सुद्धं भांति दु जो णादो सो चेव । अर्थ - जो ज्ञायक भाव ( है ) वह न ही अप्रमत्त होता है और न प्रमत्त (होता है)। इस प्रकार ( जिनेन्द्र देव ) (इसको) शुद्ध कहते हैं। चूँकि जो (आत्मा) ( पर को जानने की अवस्था में) (ज्ञायकरूप से) जाना गया ( है ) वह (स्व को जानने की अवस्था में भी ज्ञायक) ही ( है ) अर्थात् स्व को जाननेवाला है। अथवा the tic वह अर्थ- जो (आत्मा) न प्रमत्त और न ही अप्रमत्त ( ये दोनों कर्म - जनित अवस्थाएँ हैं) (वह) (तो) (कर्मों से परे स्वभाव से) ज्ञायक (ही) जाना गया है। इस प्रकार (जो) (ज्ञायक) भाव (है) उसको (जिनदेव ) शुद्ध कहते हैं। चूँकि जो (आत्मा) (स्वभाव से) (ज्ञायक) (है) वह (सब अवस्थाओं में) (ज्ञायक) ही रहता है। नोट: संपादक द्वारा अनूदित समयसार (खण्ड- 1)
SR No.002302
Book TitleSamaysara Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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