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7.
ववहारेणुवदिस्सदिणाणिस्स चरित्त दंसणंणाणं। ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥
व्यवहार से कहा जाता है
ज्ञानी के चारित्र दर्शन
ज्ञान
ववहारेणुवदिस्सदि [(ववहारेण)+ (उवदिस्सदि)]
ववहारेण (ववहार) 3/1 उवदिस्सदि (उवदिस्स)
व कर्म 3/1 अनि णाणिस्स
(णाणि) 6/1 वि *चरित्त
(चरित्त) 1/1 दसणं
(दसण) 1/1 णाणं
(णाण) 1/1 अव्यय
अव्यय णाणं .
(णाण) 1/1
अव्यय चरित्तं
(चरित्त) 1/1 ण
अव्यय
(दंसण) 1/1 जाणगो
(जाणग) 1/1 वि सुद्धो
(सुद्ध) 1/1 वि
ज्ञान
चारित्र
दसणं
दर्शन ज्ञायक
अन्वय- ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स दंसणं णाणं चरित्त ण दंसणं ण णाणं ण वि चरित्तं सुद्धो जाणगो।
अर्थ-व्यवहार (बाह्यदृष्टि/लोकदृष्टि/परदृष्टि) से कहा जाता है (कि) ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान और चारित्र (है)। (निश्चयदृष्टि/अन्तरदृष्टि/आत्मदृष्टि/ स्वदृष्टि से) (आत्मा को एकत्वरूप से अनुभव करनेवाले के) न दर्शन (है), न ज्ञान (है) और न ही चारित्र (है) (किन्तु)(वह) (तो) (एकमात्र) शुद्ध ज्ञायक (ही) (है)।
*प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)
समयसार (खण्ड-1)
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