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दाए
5. तं एयत्तविहत्तं दाए हं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाण चुक्केज्ज छल ण घेत्तव्व। (त) 2/1 सवि
उस एयत्तविहत्तं [(एयत्त)-(विहत्त) भिन्न किये गये भूकृ 2/1 अनि]
एकत्व को (दाअ) व 1/1 सक प्रस्तुत करता हूँ 'अ' विकरण
(अम्ह) 1/1 स अप्पणो (अप्प) 6/1
आत्मा के सविहवेण (स-विहव) 3/1
निज-वैभव से/
निज की स्वशक्ति से जदि अव्यय
यदि दाएज्ज
(दाअ) व/भवि 1/1 सक
'अ' विकरण पमाणं (पमाण) 2/1
प्रमाण चुक्केज्जा (चुक्क) विधि 1/1 अक चूक जाऊँ छल (छल) 1/1
दोषपूर्ण दलील अव्यय
नहीं घेत्तव्वं (घेत्तव्व) विधिकृ 1/1 अनि ग्रहण की जानी चाहिये
अन्वय- एयत्तविहत्तं तं हं अप्पणो सविहवेण दाए पमाणं दाएज्ज जदि चुक्केज्ज छलं ण घेतव्वं।
अर्थ- (पर द्रव्यों से) भिन्न किये गये उस (रत्नत्रय स्वरूप आत्मा के) (अंतरंग) एकत्व (अभेदता) को मैं आत्मा के निज-वैभव से प्रस्तुत करता हूँ। (मैं स्वीकार करने के लिए) प्रमाण दूँगा, यदि (मैं) चूक जाऊँ (तो) (मेरी) दोषपूर्ण दलील ग्रहण नहीं की जानी चाहिये।
अथवा अर्थ- (पर द्रव्यों से) भिन्न उस (रत्नत्रय स्वरूप आत्मा के) (अंतरंग) एकत्व (अभेदता) को मैं निज की स्व-शक्ति से प्रस्तुत करता हूँ। (मैं स्वीकार करने के लिए) प्रमाण दूंगा। यदि मैं चूक जाऊँ तो (मेरी) दोषपूर्ण दलील ग्रहण नहीं की जानी चाहिये। 1. हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-177
विस्तार के लिए देखेंः प्रौढ प्राकृत-अपभ्रंश-रचना सौरभ (भाग-2), पृष्ठ 32 नोटः संपादक द्वारा अनूदित .
समयसार (खण्ड-1)
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