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16.
दंसणणाणचरित्ताणि - [ (दंसण) - (णाण) -
(aka) 1/2]
(सेव) विधि 1 / 2
सेविदव्वाणि
साहुणा
णिच्चं
ताण
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्वं । ताणि पुण जाण तिणि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥
पुण
जाण
तिणि वि
अप्पाणं
चेव
णिच्छयदो'
1.
(26)
(साहू) 3 / 1
अव्यय
(त) 2/2 सवि
अव्यय
(जाण) विधि 2/1 सक
(ति वि) 2 / 2 वि
( अप्पाण) 2 / 1
अव्यय
(णिच्छय) 5/1
दर्शन - ज्ञान
चारित्र
आराधन किए जाने
चाहिये
साधु के द्वारा
सदैव
अन्वय- साहुणा दंसणणाणचरित्ताणि णिच्चं सेविदव्वाणि पुण ताण तिणि वि णिच्छयदो अप्पाणं चेव जाण ।
अर्थ- साधु के द्वारा दर्शन - ज्ञान - चारित्र सदैव आराधन किये जाने चाहिये (यह व्यवहारनय ( बाह्यदृष्टि) से कहा गया है) और (तुम) उन तीनों को ( उनके एकत्व को ) निश्चयनय ( अन्तरदृष्टि) से आत्मा ही जानो ।
उन
और
जानो
तीनों को
आत्मा
ही
निश्चयनय से
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'णिच्छयादो' का 'णिच्छयदो' किया गया है।
समयसार (खण्ड-1)