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के नहीं। मुक्त जीवों में किसी भी प्रकार के वर्णादि नहीं होते हैं (61)। यदि इन गुणों को निश्चय से जीव का माना जाएगा तो जीव और अजीव में कोई भेद ही नहीं रहेगा (62)।
निश्चयनय से आत्मा में पुद्गल के कोई भी गुण नहीं हैं। अतः आत्मा रसरहित, रूपरहित, गंधरहित, स्पर्श से भी अप्रकट, चेतना गुणवाला, शब्दरहित, तर्क से ग्रहण न होनेवाला तथा न कहे हुए आकारवाला जानो, क्योंकि विभिन्न जीवों द्वारा विभिन्न शरीराकार ग्रहण किया हुआ होने के कारण कोई एक आकार नियत नहीं किया जा सकता है (49)। पर-समय की अवधारणाः ____ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व में स्थित आत्मा स्व-समय है, किन्तु जो जीव बाह्य उलझनों में लिप्त होकर राग-द्वेष भावों में एकरूप होकर पुद्गल कर्म-समूह में स्थित होता है वह पर-समय में अर्थात् पर में ठहरनेवाला आत्मा है (2)। दर्शन-ज्ञान-चारित्र के एकत्व की दृढ़ता को प्राप्त हुआ आत्मा सर्वत्र प्रशंसनीय होता है, किन्तु एकत्व में पर के साथ बंधन की कथा विसंवादिनि अर्थात् द्वन्द्व-जनक/अहं-जनक/दुख-जनक होती है (3)। ज्ञानी-अज्ञानी का भेद (साधना-दृष्टि):
जो जीव अज्ञान से मूर्च्छित बुद्धिवाला है, वह बद्ध-देह और अबद्धदेह से भिन्न पुद्गलात्मक वस्तु समूह में ममत्व दर्शाता है (23)। किन्तु ज्ञानी सभी भावों को पर समझकर त्याग देता है (35) और मानता है कि मैं (जीवात्मा) केवलमात्र उपयोग लक्षणवाला ही हूँ, मेरे किसी भी प्रकार का मोह (परभाव) नहीं है (36) मैं निश्चय ही शुद्ध हूँ, अनुपम हूँ, दर्शन-ज्ञानमय हूँ, सदा अमूर्तिक (अतीन्द्रिय) हूँ, कुछ भी दूसरी वस्तु परमाणु मात्र भी मेरी नहीं है (38)। यदि वह जीव द्रव्य पुद्गल द्रव्यरूप हो जाय या इसके विपरीत पुद्गल
समयसार (खण्ड-1)